Saturday, November 8, 2014

आर्थिक शक्ति देती है सामरिक सुरक्षा की गारंटी

वैश्विक व्यवस्था और खासतौर से अर्थ-व्यवस्था का प्रभावशाली हिस्सा बनने के लिए भारत को अपने सामाजिक, सांस्कृतिक, वैज्ञानिक और सामरिक रिश्तों को भी पुनर्परिभाषित करना होगा। जो देश आर्थिक रूप से सबल हैं वे सामरिक रूप से भी मजबूत हैं। उनकी संस्कृति ही दुनिया के सिर पर चढ़कर बोलती है। संयुक्त राष्ट्र के गठन के समय अंग्रेजी और फ्रेंच दो भाषाओं को औपचारिक रूप से उसकी भाषाएं माना जाता था। फिर 1948 में इसमें रूसी भाषा जुड़ी, इसके बाद स्पेनिश। सत्तर के दशक में चीनी भाषा इसमें शामिल हुई। उसके बाद अरबी को आधिकारिक भाषा बनाया गया। सत्तर के दशक में पेट्रोलियम की ताकत ने अरबी को वैश्विक भाषा का दर्जा दिलाया था। सन 77 में जब तत्कालीन विदेशमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने संयुक्त राष्ट्र में हिंदी में भाषण दिया था, तब से यह माँग की जा रही है कि हिंदी को भी संयुक्त राष्ट्र की भाषा बनाना चाहिए। उसे आधिकारिक भाषा बनाने के लिए भारी खर्च की व्यवस्था करनी होगी इसलिए हिंदी को संयुक्त राष्ट्र की आधिकारिक भाषा नहीं बनाया जा सकता। अपनी बात कहने का अधिकार उन्हें ज्यादा है जिनके पास सामर्थ्य है।


इस लेख का विषय भाषा नहीं राजनय है। आप गौर करें, हाल में हमारी विदेश नीति में दृढ़ता के स्वर बढ़े हैं। और उसके अंतर्विरोध भी सामने आए हैं। हम दुनिया में अपनी जगह बनाना चाहते हैं, पर हमारे कुछ पड़ोसी हमसे पंगा ले रहे हैं। ऐसा क्यों? आपके शब्दों की दृढ़ता का तभी मतलब है जब आप किसी को फायदा या नुकसान पहुँचाने की स्थिति में हों। देखना यह होगा कि वैश्विक आर्थिक मंच पर भारत की भूमिका क्या है। इस महीने ब्रिसबेन में हो रहे जी-20 के शिखर सम्मेलन में देश के नए नेतृत्व के हौसलों की परीक्षा होगी। पर उसके पहले 10-11 नवम्बर को बीजिंग में एशिया प्रशांत आर्थिक सहयोग संगठन का शिखर सम्मेलन है। चीन ने भारत को इसमें भाग लेने का निमंत्रण दिया है, पर सच यह है कि कोशिशों के बावजूद हम इस महत्वपूर्ण फोरम के मेंबर नहीं हैं। प्रशांत महासागर की अर्थ-व्यवस्था में हमारी भूमिका नहीं है। इस महीने के अंत में काठमांडू में दक्षिण एशिया के देशों का शिखर सम्मेलन है। यहाँ हमारी भूमिका है। मोदी सरकार की विदेश नीति की एक परीक्षा यहाँ भी होगी। 

अब दूसरी दिशा में देखें। देश के इन्फ्रास्ट्रक्चर में भारी निवेश का दौर आ रहा है। अगले चार-पाँच साल में हम एक हजार अरब डॉलर से ज्यादा की राशि अपने इंफ्रास्ट्रक्चर के विकास पर खर्च करने वाले हैं। इसमें हमें अमेरिका, चीन, जापान और यूरोप के देशों का सहयोग मिलेगा, क्योंकि इसमें उनका लाभ भी है। बाईस साल पहले जब भारत को आसियान देशों का सेक्टोरल डायलॉग पार्टनर बनाया गया, तब यह कोई विस्मयकारी बात नहीं हुई थी। राजनीतिक कारणों से सिर्फ इसमें देरी हुई थी। भारत के महत्व को उस वक्त कम करके आँका गया था। इस घटना के तीन साल पहले 1989 में जब एशिया-प्रशांत आर्थिक सहयोग संगठन (एपेक) बनाया जा रहा था, तब उसमें भारत को सदस्य बनाने की बात सोची भी नहीं गई। हमें अपने आर्थिक महत्व को बढ़ाना और दुनिया के सामने साबित करना होगा। चीन की पहल पर बन रहे एशिया इंफ्रास्ट्रक्चर बैंक में भारत भी एक साझीदार और पहला अध्यक्ष है। यह पहल आर्थिक-राजनय की दिशा में महत्वपूर्ण कदम है।
 
बहरहाल हाल में गृह राज्यमंत्री किरण रिजिजू ने जिस तरह चीनी धमकी का जवाब दिया है, उसका अंदाज़ नया है। ‘कड़कदार’ जवाब देने का भारत आदी नहीं रहा है। सीमा पर आधारभूत सुविधाओं को विकसित करने के बारे में उन्होंने जो कहा बातें पुरानी हैं, पर अंदाज़ नया है। इस अंदाज़ में भारत अब तक नहीं बोलता था। उन्होंने कहा, ‘हम ऐसी आधारभूत गतिविधियां चलाएंगे, जिन्हें पिछले 60 साल में नहीं किया गया। चीनियों को मेरे बयान से कोई समस्या नहीं होनी चाहिए। वे मुझे मेरा काम करने से नहीं रोक सकते।’ अरुणाचल का जन-प्रतिनिधि के नाते उनका यह बयान सांकेतिक है। पिछले कुछ वर्षों से चीन की स्टैपल्ड वीज़ा नीति के कारण सामान्य भारतीय खुद को अपमानित महसूस करता रहा है और चाहता है कि चीन को उसकी भाषा में ही जवाब दिया जाना चाहिए। रिजिजू ने ऐसा ही किया। 
    
हाल में भारतीय मीडिया में दो-तीन ऐसी जानकारियाँ सामने आईं हैं, जिन्हें लेकर बेचैनी है। सितम्बर के महीने में जिस वक्त चीन के राष्ट्रपति शी चिनफिंग भारत की यात्रा पर आए थे कोलम्बो के बंदरगाह पर चीन की पनडुब्बी और हिंद महासागर क्षेत्र में उसके कुछ पोत विचरण कर रहे थे। चीन ने सफाई दी कि वह पनडुब्बी अदन की खाड़ी में समुद्री डाकुओं के खिलाफ अभियान चलाने जा रही थी। पर इधर खबर मिली है कि पिछले हफ्ते भी चीन की पनडुब्बी श्रीलंका के सागर तट पर देखी गई है। इस घटनाक्रम से दो निष्कर्ष निकलते हैं। हिंद महासागर में चीन की सक्रियता बढ़ी है और दूसरे इस पहलकदमी को श्रीलंका, मालदीव और पाकिस्तान का परोक्ष-अपरोक्ष समर्थन हासिल है। पड़ोसी देशों का यह अतिशय चीन-प्रेम क्यों? पाकिस्तान की बात समझ में आती है, पर श्रीलंका और मालदीव का भारत से किस बात पर टकराव है? चीन का जोर इंफ्रास्ट्रक्चर पर है। ज्यादातर विकासशील देशों को इंफ्रास्ट्रक्चर के लिए पैसा और तकनीकी मदद चाहिए। चीन के पास दोनों चीजें हैं। भारत के पड़ोसी देशों को वह अंतरिक्ष तकनीक से जोड़ रहा है। यह काम हमने क्यों नहीं किया? शायद इसी बात को देखते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने दक्षिण एशियाई देशों के लिए एक उपग्रह तैयार करने की सलाह इसरो को दी है। भारत ऐसा कर सका तो यह मास्टर स्ट्रोक होगा।

चीन और श्रीलंका के खुल्लम-खुल्ला भाईचारे के बरक्स भारत ने भी चीन के पड़ोस में जाकर रिश्ते बनाने शुरू कर दिए हैं। दक्षिण चीन सागर में तेल की खोज के समझौते पर दस्तखत करके भारत ने चीन को नाखुश करने वाला कदम उठाया है। पिछले हफ्ते भारत यात्रा पर आए वियतनामी प्रधानमंत्री ने घोषणा की कि चीन के विरोध के बावजूद उनका देश भारत को तेल खोज का काम दे रहा है। दोनों देशों के बीच सामरिक सहयोग का बड़ा समझौता हुआ है, जिसके तहत वियतनाम को भारत नौसैनिक पोत देगा। शायद ब्रह्मोस मिसाइल का पहला निर्यात भी वियतनाम को होगा। दक्षिण चीन सागर क्षेत्र में वियतनाम नई उभरती ताकत है। यहाँ सागर की सीमा को लेकर ब्रूनेई, चीन, ताइवान, मलेशिया, फिलिपींस और वियतनाम के अपने-अपने दावे हैं। ऐसा विवाद भारत के साथ न तो श्रीलंका का है और न मालदीव का। फिर भी वे भारत की मुखालफत क्यों कर रहे हैं?

स्वाभाविक है कि चीन अपनी आर्थिक शक्ति का फायदा उठा रहा है। एक समय तक श्रीलंका का सबसे बड़ा मददगार जापान था, पर अब वह चीन से पीछे है। नवम्बर 2010 में हम्बनटोटा बन्दरगाह का उद्घाटन करते हुए राष्ट्रपति महिंदा राजपक्षे ने कहा था, चीन और भारत के नेतृत्व में तेजी से विकसित होते एशिया के साथ हमारा देश भी आगे बढ़ेगा। यह वक्तव्य शायद भारत को चिढ़ाने के लिए था। तकरीबन डेढ़ अरब डॉलर की राशि से विकसित हुआ यह बन्दरगाह श्रीलंका और चीन के मैत्री सम्बन्धों की कहानी है। चीन ने केवल हम्बनटोटा बंदरगाह बनाने में ही मदद नहीं दी। उसके नए बंदरगाह, हवाई अड्डों, सड़कों और रेलवे के निर्माण की योजनाएं बन रहीं हैं। कुछ साल पहले तक श्रीलंका में भारत में बनी रेलगाड़ियाँ चलती थीं, पर अब चीनी रेलगाड़ियाँ चल रहीं हैं।

पाकिस्तान-ईरान सीमा पर चीन ने पाकिस्तान के लिए न सिर्फ ग्वादर बंदरगाह तैयार कर दिया है, उसका संचालन भी उसके पास आ गया है। पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर के गिलगित क्षेत्र में चीन सड़क बना रहा है, जो उसके जिनशियांग प्रांत को पाकिस्तान से जोड़ेगी। यह सड़क अंततः ग्वादर तक जाएगी। चीन को अरब सागर तक जाने का जमीनी रास्ता मिल जाएगा। यह सिर्फ संयोग नहीं कि मालदीव के माले हवाई अड्डे का काम भारतीय कम्पनी जीएमआर के हाथों से ले लिया गया। इस साल चीन के राष्ट्रपति सितम्बर में भारत आने के पहले मालदीव गए थे, जहाँ की सरकार ने हवाई अड्डे के विस्तार का काम चीनी कम्पनी को सौंप दिया। इन बातों के मूल में हालांकि चीन के आर्थिक विस्तार की मनोकामना है, पर आर्थिक विस्तार तभी सम्भव है जब सामरिक शक्ति उसे सहारा दे। यह बात चीन पर जितनी लागू होती है, उतनी ही हम पर भी। केवल नैतिक शक्ति के बल पर सम्मान नहीं मिलता। उसका ठोस आधार होना चाहिए।


राष्ट्रीय सहारा में प्रकाशित

1 comment:

  1. जब तक हम सक्षम नहीं हैं, जब तक नेतृत्व का अपने में विश्वास नहीं हैं तब तक सब दावे खोखले ही साबित होंगे, आशा की जा सकती है कि मोदी जी शायद कुछ सुधार ला पायें,

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