क्षेत्रीय
राजनीति के लिए सही मौका है और दस्तूर भी,
पर इस त्रिमूर्ति
का इरादा क्या है?
पिछले हफ्ते
दिल्ली में बिखरे हुए जनता परिवार को फिर से बटोरने की कोशिश के पीछे की ताकत और
सम्भावनाओं को गम्भीरता के साथ देखने की जरूरत है। इसे केवल भारतीय जनता पार्टी को
रोकने की कोशिश के रूप में देखा जा रहा है। व्यावहारिक रूप से यह पहल ज्यादा
व्यापक और प्रभावशाली हो सकती है। खास तौर से कांग्रेस के पराभव के बाद उसकी जगह
को भरने की कोशिश के रूप में यह सफल भी हो सकती है। भारतीय जनता पार्टी ने
राष्ट्रीय राजनीति को एक-ध्रुवीय बना दिया है। उसके गठबंधन सहयोगी भी बौने होते जा
रहे हैं। ऐसे में क्षेत्रीय राजनीति को भी मंच की तलाश है। संघीय व्यवस्था में
क्षेत्रीय आकांक्षाओं को केवल राष्ट्रीय पार्टी के भरोसे छोड़ा नहीं जा सकता। पर सवाल
यह है कि लालू, मुलायम, नीतीश पर केंद्रित यह पहल क्षेत्रीय राजनीति को मजबूत करने
के वास्ते है भी या नहीं? इसे केवल अस्तित्व रक्षा तक सीमित क्यों न माना जाए?
लालू यादव से
किसी टीवी चैनल के एंकर ने एकबार कहा, आपकी तो रीजनल पार्टी है। लालू बोले रीजनल नहीं ओरीजनल
पार्टी है। शाब्दिक बाजीगरी और जनता को पसंद आने वाले मुहावरों के मामले में लालू
लाजवाब हैं। वे जमीन से जुड़े राजनेता हैं। इसी तरह राजनीति को चुनाव जीतने की कला
माना जाए तो मुलायम सिंह यादव सफल राजनेता हैं। पर समय बदल रहा है। इन राजनेताओं
के समर्थक भी प्रशासनिक कौशल और गवर्नेंस चाहते हैं। भारतीय राजनीति में वोटर के
दबाव का नया दौर शुरू हो रहा है। ऐसा नहीं कि भारतीय जनता पार्टी और नरेंद्र मोदी
को वोट देने वाला मतदाता हमेशा उनका साथ देगा। उसे भी विकल्प की तलाश रहेगी। पर वह
परम्परागत राजनीतिक जमावड़ों में विकल्प खोजेगा, इसमें संदेह है। सवाल है कि लालू,
मुलायम, नीतीश की त्रिमूर्ति क्या क्षेत्रीय राजनीति को नया रूप देने वाले हैं? सवाल उनकी साख का है।
पिता-पुत्र
पार्टियों की पहल
जनता परिवार से जुड़ी
ज्यादातर मुहिम बेंगलुरु या हैदराबाद से शुरू होती रहीं हैं। पर इस बार उत्तर
प्रदेश और बिहार ने पहल की है। इस कोशिश में एचडी देवेगौडा भी शामिल हैं, पर केवल
इतने भर से इसे राष्ट्रीय पहल कहना जल्दबाज़ी होगी। एक प्रस्ताव इन पार्टियों के
एकीकरण से जुड़ा है। दिल्ली में हुई बैठक का एजेंडा लोकसभा चुनावों के पहले किए गए
एकता-प्रयासों से अलग था। यानी कि इस बार एक गठबंधन या मोर्चे को बनाने की कामना
भर नहीं थी, बल्कि एक नए एकीकृत दल के गठन का प्रस्ताव भी था। हालांकि इस प्रस्ताव
पर आम सहमति नहीं है, पर इससे जुड़े व्यवहारिक सवाल जरूर खड़े हैं। अस्सी के दशक
के मुकाबले आज परिस्थितियाँ काफी बदली हुईं हैं। जेडीयू को छोड़ दें तो जनता
परिवार से जुड़ी ज्यादातर पार्टियाँ पिता-पुत्र पार्टियाँ बन चुकी हैं। जनता परिवार
की परिभाषा में ‘परिवार’ का रंग ज्यादा गहरा रच चुका है।
इन सभी संगठनों
के बनने-बिगड़ने और टूटने की लम्बी कहानियाँ इतिहास में दर्ज है। इनके टूटने की
नौबत ही क्यों आई? एक-जुट होकर काम करने की इनकी साख का सवाल भी है। यह स्पष्ट नहीं है कि ये
पार्टियाँ किसी बड़े राजनीतिक एजेंडा को लेकर जनता के सामने जाना चाहती हैं या
अपने सफाए को टालने के फेर में हैं। इनके पीछे की असली ताकतें उत्तर प्रदेश और
बिहार से वास्ता रखती हैं, जहाँ हाल में हुए उप चुनावों में जनता परिवार की एकता
ने सफलता का रास्ता साफ किया। इस एकता का आयाम कितना बड़ा है, यह भी अभी स्पष्ट
नहीं है। उड़ीसा के बीजू जनता दल ने इसमें खास दिलचस्पी नहीं दिखाई है। टीडीपी
फिलहाल एनडीए में है। बहरहाल इस कोशिश का वामपंथी दलों ने समर्थन किया है। इसके
कारण ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस को अपनी और खींच पाने में भी दिक्कतें हैं। राष्ट्रपति
चुनाव में ममता बनर्जी और मुलायम सिंह यादव के अंतर्विरोध स्पष्ट हो गए थे।
क्या यह तीसरा
मोर्चा है?
यह भी कहा जा रहा
है कि यह तीसरे मोर्चे की ही पहल है। अंततः इसमें वामपंथी दल भी आ जाएंगे।
अभी उन्हें इसलिए अलग रखा है ताकि ममता बनर्जी को आने में दिक्कत न हो। यह बात
बचकाना लगती है। न तो ममता बनर्जी और न वामपंथी इतने नासमझ हैं कि बातों का मतलब न
समझें। पर उसके पहले समझना यह होगा कि ‘जनता परिवार’ माने क्या। जनता परिवार से जुड़ी सभी ताकतें
क्या इस बैठक में शामिल थीं? देश में पहली गैर-कांग्रेस सरकार सन 1977 में जनता परिवार
की सरकार ही थी। जनसंघ भी उसका हिस्सा थी। जनसंघ ही उसका पहला अंतर्विरोध था। सन
1989 की दूसरी सरकार को भाजपा और कम्युनिस्ट पार्टी दोनों का समर्थन हासिल था। सन
1992 के बाबरी विध्वंस के बाद जनता परिवार की राजनीति में साम्प्रदायिकता का विरोध
एक महत्वपूर्ण कारक बन गया। इसीलिए 1996 और 1997 में गैर-भाजपा सरकार बनाने में उन्होंने
कांग्रेस का बाहरी समर्थन लेना मंजूर किया। तब से 2014 के लोकसभा चुनाव तक ‘जनता परिवार’ की राजनीति कांग्रेस के
साथ आँख-मिचौनी खेलती रही। चुनाव के ठीक पहले एक नई राजनीतिक अभिव्यक्ति के रूप
में ‘भाजपा विरोधी मोर्चा’ भी खड़ा किया गया। वह मोर्चा सफल नहीं हुआ, पर यह राजनीति
उसी दिशा की और है। देश की मुख्यधारा की पार्टी के रूप में कांग्रेस की जगह भाजपा
ने जगह बनानी शुरू कर दी है।
तीसरे मोर्चे की
सम्भावना जब भी बनी, मुलायम सिंह यादव और वाम मोर्चा उसके पीछे नजर आए हैं। इन
दोनों की कांग्रेस को लेकर जो अवधारणाएं हैं, उनमें भी अंतर्विरोध हैं। सीपीएम में
इन दिनों प्रकाश करत और सीताराम येचुरी के बीच असहमति उसी अंतर्विरोध की ओर इशारा
कर रही है। सन 2004 में यूपीए सरकार को बनाने में वाम मोर्चा का समर्थन सबसे अहम
था। उसी दौरान युनाइटेड नेशनल प्रोग्रेसिव अलायंस नाम से गठबंधन बना जो न्यूक्लियर
डील की राजनीति आते-आते तबाह हो गया। वाम मोर्चा का यूपीए को मिला समर्थन पाँच साल
भी नहीं चला। सन 2009 के लोकसभा चुनाव के पहले वाम मोर्चे ने बसपा, बीजद, तेदेपा, अद्रमुक, जेडीएस, हजकां, पीएमके और
एमडीएमके के साथ मिलकर संयुक्त राष्ट्रीय प्रगतिशील मोर्चा बनाया, पर उसका परिणाम अच्छा नहीं रहा।
यूपी-बिहार का
संकट
क्या यह
यूपी-बिहार का संकट है? जनता-राजनीति का अंतिम अध्याय? इसमें दो राय नहीं कि
उत्तर प्रदेश और बिहार में जनता परिवार का सामाजिक आधार है, पर वह किसी एक दल की
शक्ल ले पाएगा, यह कहना मुश्किल है। चूंकि राजनीतिक संरचनाएं जातीय क्षत्रपों के
इर्द-गिर्द स्थापित हुईं हैं इसलिए उनके पाला बदलते ही स्थितियाँ बदल जाती हैं।
विधान सभा उप चुनावों में बिहार और उत्तर प्रदेश का अनुभव पूरी तरह एक सा नहीं
रहा। बिहार में राजद, जेडीयू और कांग्रेस ने मिलकर चुनाव लड़ा। वहीं उत्तर प्रदेश
में बसपा ने चुनाव न लड़ने का निश्चय किया। पर 2017 के विधानसभा चुनाव में यह
स्थिति नहीं होगी। लालू यादव और नीतीश कुमार के साथ आ जाने से भी उत्तर प्रदेश में
समाजवादी पार्टी की स्थिति में कोई बड़ा गुणात्मक अंतर नहीं आने वाला। यही बात
बिहार के बारे में कही जा सकती है। बिहार के 2015 के चुनाव के पहले इस साल के
झारखंड के चुनाव में इस एकता की झलक देखने को मिलेगी।
क्या इस प्रकार
के जमावड़े को एक दल के रूप में संगठित किया जा सकता है? इसका नेतृत्व किसके
हाथों में रहेगा? क्या ऐसे संगठन को लोकतांत्रिक तरीके से संचालित किया जा सकेगा? क्या यह केवल भाजपा के
बढ़ते विजय रथ के मुकाबले खड़ा होने की कोशिश है या किसी बड़ी राजनीति का संकेत है? ऐसे सवालों का जवाब देने
की कोशिश करें तो बातें साफ होती जाएंगी। जनता परिवार से जुड़े राजनेताओं को अतीत में
सरकारें बनाने और चलाने के मौके मिले हैं। पर वे विफल रहे। व्यक्तिगत टकराव के
कारण ये एक-साथ काम नहीं कर पाए। सवाल है जनता-राजनीति क्या अहं और टकराव का नाम
है? इस पहल के पीछे
कोई गहरी, सार्थक और जनता से जुड़ी राजनीति है तो उसे सामने आने दीजिए।
राष्ट्रीय सहारा में प्रकाशित
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