सूचना पाने के अधिकार से जुड़ा कानून बन जाने भर से काम
पूरा नहीं हो जाता। कानून बनने के बाद उसके व्यावहारिक निहितार्थों का सवाल सामने
आता है। पिछले साल जब देश के छह राजनीतिक दलों को नागरिक के जानकारी पाने के
अधिकार के दायरे में रखे जाने की पेशकश की गई तो दो तरह की प्रतिक्रियाएं आईं।
इसका समर्थन करने वालों को लगता था कि राजनीतिक दलों का काफी हिसाब-किताब अंधेरे
में होता है। उसे रोशनी में लाना चाहिए। पर इस फैसले का लगभग सभी राजनीतिक दलों ने
विरोध किया। पर प्रश्न व्यापक पारदर्शिता और जिम्मेदारी का है। देश के तमाम
राजनीतिक दल परचूनी की दुकान की तरह चलते हैं। केवल पार्टियों की बात नहीं है पूरी
व्यवस्था की पारदर्शिता का सवाल है। जैसे-जैसे कानून की जकड़ बढ़ रही है वैसे-वैसे
निहित स्वार्थ इस पर पर्दा डालने की कोशिशें करते जा रहे हैं।
सच को सामने लाने के खतरे
सच को सामने लाने के तमाम खतरे हैं। भारतीय राष्ट्रीय राजमार्ग
प्राधिकरण में परियोजना निदेशक के पद पर कार्यरत सत्येन्द्र दूबे की 27 नवंबर 2003
में गया जिले में हत्या कर दी गई। वे स्वर्णिम चतुर्भुज परियोजना में व्याप्त
भ्रष्टाचार को जनता के सामने लाने की कोशिश कर रहे थे। शण्मुगम मंजुनाथ-इंडियन ऑयल
के मार्केटिंग मैनेजर मंजुनाथ की हत्या सन 2005 में कर दी गई। वे पेट्रोल के
कारोबार में भ्रष्टाचार का पर्दाफाश करने की कोशिश में थे। सन 2011 में महाराष्ट्र
के मालेगांव के अतिरिक्त जिलाधिकारी यशवंत सोनवणे को छापेमारी के दौरान पेट्रोल
में मिलावट करने वाले माफिया ने जिंदा जला दिया। भोपाल में शेहला मसूद और राजस्थान
में भंवरी हत्याकांड का सम्बन्ध ताकतवर राजनेताओं से रहा।
जब से देश में आरटीआई कानून लागू हुआ है इस तरह की हत्याओं
की संख्या बढ़ गई है। यह भी सच है कि आरटीआई के दुरुपयोग की खबरें भी हैं। शायद
ब्लैकमेलिंग की। घोटालों और वित्तीय अनियमितताओं के मूल में जाएं तो इनका रिश्ता देश
की चुनाव व्यवस्था से जुड़ता है। बावजूद हलफनामों और समय से हिसाब-किताब देने की
व्यवस्था के, चुनाव के खर्च में पारदर्शिता नहीं है। पिछले दिनों कुछ बातें ऐसी
हुईं जो जानकारी पाने के हमारे अधिकार के अंतर्विरोधों की और इशारा करतीं है।
क्या है सार्वजनिक हित?
देवेंद्र फड़नबीस की सरकार बनने के ठीक पहले राज्यपाल के
अधीन काम कर रही महाराष्ट्र सरकार ने सभी विभागों को निर्देश जारी किया कि वे
आरटीआई कानून के तहत ऐसी कोई किसी को सूचना न दें जिसे देना ‘सार्वजनिक हित में नहीं आता।’ यह कानून जब
अपनी दसवाँ जन्मदिन मना रहा था, तब इस निर्देश की जरूरत क्यों आ पड़ी? कानून में तो यह बात यों भी साफ है कि जो भी जानकारी माँगी
जाएगी उसका उद्देश्य सार्वजनिक हित ही होना चाहिए। पर सवाल यह भी है कि क्या ऐसा
जानकारी माँगी जाती है या माँगी जा सकती है, जिसका लाभ किसी व्यक्ति को लाभ
पहुँचाने या किसी को नुकसान पहुँचाने के लिए किया जा सकता है? अक्तूबर 2012 के गिरीश रामचंद्र देशपांडे के मामले ने
व्यक्तिगत सूचना और सार्वजनिक सूचना पर बहस का नया आधार तय किया है। फिलहाल होगा
यह कि तमाम सूचनाएं रोकी जा सकेंगी और सरकारी दफ्तरों के कानून विभागों में फाइलों
का ढेर बढ़ता जाएगा। आरटीआई ऍक्टिविस्ट और पूर्व सूचना आयुक्त शैलेश गांधी का कहना
है कि सुप्रीम कोर्ट के इसके पहले के दो और फैसलों पर ध्यान दें तो पता लगता है कि
महाराष्ट्र सरकार ने गलत कदम उठाया है। नया सरकारी निर्देश सूचना पाने के अधिकार
के खिलाफ है। इसी तरह के कदम दूसरे राज्यों में भी उठाए जा रहे हैं। पर महाराष्ट्र
में जब लोकतांत्रिक तरीके से चुनी गई सरकार के हटते ही और नई सरकार के आने के पहले
इस प्रकार के निर्देश से लगता है कि ब्यूरोक्रेसी अपने तरीके से काम करने लगी है।
एंटी करप्शन ब्यूरो दायरे से बाहर
दूसरा मामला है महाराष्ट्र में एंटी करप्शन ब्यूरो यानी
एसीबी को आरटीआई के दायरे से बाहर किया जाना। कहा जा रहा है कि ऐसा इसलिए किया गया, ताकि राजनेताओं का
भ्रष्टाचार जनता के सामने न आए। एसीबी के सामने आय से अधिक संपत्ति के भी रिकॉर्ड तोड़
मामले सामने आए हैं। जानकारी पाने के कानून की भावना यह है कि खुफिया एजेंसियों को
इसके दायरे से बाहर रखा जा सकता है क्योंकि वे राष्ट्रीय सुरक्षा से जुड़ी हैं। पर
भ्रष्टाचार की जाँच करने वाली एजेंसियों को बाहर करना समझ में नहीं आता। इस प्रकार
के मामले तमाम दूसरे प्रदेशों से भी सामने आ रहे हैं। केवल महाराष्ट्र में ही नहीं
एंटी करप्शन ब्यूरो को दूसरे कुछ राज्यों में भी आरटीआई के दायरे से बाहर किया गया
है। पिछले साल छत्तीसगढ़ में किया गया था। आरटीआई कार्यकर्ताओं के अनुसार एसीबी
में ज्यादातर ऐसे लोगों के मामले आते हैं जो नेताओं-मंत्रियों या अफसरों की शह पर
भ्रष्टाचार फैलाते हैं। इन मामलों में ऊपरी दबाव के कारण लीपा-पोती की आशंका भी
रहती है। आरटीआई में जानकारी निकाल ली जाती थी तो भंडाफोड़ का खतरा रहता था।
इंटरनेट का सहारा
तीसरा फैसला केंद्र सरकार का है, जिसके पीछे मूल भावना
पारदर्शिता की है, पर उसके भी कुछ व्यावहारिक पहलू हैं। आरटीआई के तहत निकली अब हर
सूचना इंटरनेट पर डाली जाएगी। केंद्र सरकार ने गवर्नेंस में पारदर्शिता लाने की
पहल में ऐसी व्यवस्था की है। इसके अनुसार अगर मंत्रालय या विभाग आरटीआई के तहत
सूचना देता है तो उसे इस सूचना को पब्लिक डोमेन में डालना होगा। डिपार्टमेंट ऑफ
पर्सनल एंड ट्रेनिंग की ओर से जारी एक निर्देश के अनुसार यह व्यवस्था 1 नवंबर से
लागू हो रही है। जिस दिन आरटीआई जवाब संबंधित व्यक्ति को भेजा जाएगा, उसी दिन इसे
वेबसाइट पर डाल दिया जाएगा ताकि हर कोई इसे देख सके। जिसने आरटीआई फाइल कर रखी है उसे
डाक से जवाब मिलने से पहले ही यह वेबसाइट पर मिल सकता है। सरकार ने निजता के
अधिकार का हवाला देते हुए उन सूचनाओं को पब्लिक डोमेन में न डालने की बात मान ली है
जो सूचना किसी व्यक्ति विशेष से संबंधित हो और इसका आम लोगों के सरोकार से कोई
मतलब नहीं हो। आरटीआई ऍक्टिविस्ट इस फैसले की मूल भावना से सहमत हैं, पर वे मानते
हैं कि इससे आवेदक के बारे में भी जानकारी सार्वजनिक हो जाएगी और संवेदनशील मामलों
में उसका जीवन असुरक्षित हो जाएगा।
सरकारी उत्साह में कमी
साल 2005 में जब आरटीआई क़ानून लागू हुआ था तो इसे
भ्रष्टाचार के खिलाफ मजबूत हथियार के रूप में देखा गया। इसने यकीनन कई बदलाव किए
पर पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह से लेकर सरकारी कारिंदों तक ने समय-समय पर यह
महसूस किया है कि इस कानून के कारण सरकारी काम-काज में दिक्कतें बढ़ीं हैं। इस
क़ानून को लेकर शुरू में जो उत्साह था उसमें भी कमी आती दिखाई दे रही है। एक तो सूचना
आयोगों में भारी संख्या में आरटीआई से जुड़े मामले विचाराधीन पड़े हैं। आरटीआई
असेसमेंट ऐंड एडवोकेसी ग्रुप (राग) और साम्य सेंटर फॉर इक्विटी स्टडीज के मुताबिक़
देशभर के 23 सूचना आयोगों में 31 दिसंबर 2013 तक 1.98 लाख से ज्यादा मामले पड़े हैं।
उनका मौजूदा रफ़्तार से निपटारा हो तो मध्य प्रदेश में 60 साल और पश्चिम बंगाल में
17 साल लग सकते हैं।
केन्द्रीय सूचना आयोग में इस समय 32,533 मामले लंबित हैं। सूचना
आयुक्तों की संख्या भी पर्याप्त नहीं है। लगभग हरेक राज्य की स्थिति खराब है। केन्द्रीय
सूचना आयोग में इस समय सिर्फ सात सूचना आयुक्त ही हैं। पिछले दो महीनों से मुख्य
सूचना आयुक्त का पद भी खाली पड़ा है। हाल में अदालतों के आदेश व राज्य सरकारों के
निर्देशों से भी आरटीआई कमज़ोर हुआ है। सरकारें अपनी मर्जी से विभागों को आरटीआई
के दायरे से बाहर कर रहीं हैं। केंद्र सरकार ने पायलट प्रोजेक्ट के तहत जानकारी
इंटरनेट के मार्फत देने की शुरूआत की है, पर राज्यों की वैबसाइटों को देखें तो
उनमें आयुक्तों के नाम तक अपडेटेड नहीं हैं। देश में इंटरनेट के मार्फत जानकारी
माँगने वालों की संख्या बेहद कम है। केवल चुनींदा लोग सामने आए हैं। पिछले एक साल
एक लाख 18 हजार के आसपास। जनता तक शायद अभी यह जानकारी भी अच्छी तरह नहीं जा पाई
है कि इंटरनेट की मदद से जानकारी किस तरह हासिल करें।
कौन हासिल करता है ऑनलाइन जानकारी?
आरटीआई ऑनलाइन अर्जियाँ (अगस्त
2013 से सितम्बर 2014)
क्रम संख्या महीना/वर्ष पुरुष महिलाएं कुल
|
||||
1
|
Aug 2013
|
7734
|
489
|
8223
|
2
|
Sep 2013
|
10092
|
815
|
10907
|
3
|
Oct 2013
|
8569
|
834
|
9403
|
4
|
Nov 2013
|
7043
|
690
|
7733
|
5
|
Dec 2013
|
8070
|
883
|
8953
|
6
|
Jan 2014
|
9146
|
801
|
9947
|
7
|
Feb 2014
|
7620
|
676
|
8296
|
8
|
Mar 2014
|
7739
|
775
|
8514
|
9
|
Apr 2014
|
6990
|
723
|
7713
|
10
|
May 2014
|
6602
|
705
|
7307
|
11
|
Jun 2014
|
8056
|
857
|
8913
|
12
|
Jul 2014
|
6197
|
658
|
6855
|
13
|
Aug 2014
|
7455
|
771
|
8226
|
14
|
Sep 2014
|
6993
|
676
|
7669
|
कुल
|
108306 (91%)
|
10353 (9%)
|
118659 (100%)
|
|
राज्यवार
|
|
|
|
|
S. No.
|
State
|
Number
|
% of total
|
1
|
Andhra Pradesh
|
9478
|
8
|
2
|
Arunachal Pradesh
|
74
|
|
3
|
Assam
|
2428
|
2
|
4
|
Bihar
|
3708
|
3
|
5
|
Chandigarh
|
1193
|
1
|
6
|
Chhattisgarh
|
1380
|
1
|
7
|
Delhi
|
21528
|
18
|
8
|
Goa
|
189
|
|
9
|
Gujarat
|
3517
|
3
|
10
|
Haryana
|
5777
|
5
|
11
|
Himachal Pradesh
|
686
|
|
12
|
Jammu & Kashmir
|
654
|
|
13
|
Jharkhand
|
2257
|
2
|
14
|
Karnataka
|
6003
|
5
|
15
|
Kerala
|
3116
|
3
|
16
|
Lakshadweep
|
16
|
|
17
|
Madhya Pradesh
|
4100
|
3
|
18
|
Maharashtra
|
11776
|
10
|
19
|
Manipur
|
93
|
|
20
|
Meghalaya
|
132
|
|
21
|
Mizoram
|
33
|
|
22
|
Nagaland
|
36
|
|
23
|
No State
|
246
|
|
24
|
Odisha
|
2631
|
2
|
25
|
Puducherry
|
361
|
|
26
|
Punjab
|
3031
|
2
|
27
|
Rajasthan
|
5818
|
5
|
28
|
Sikkim
|
27
|
|
29
|
Tamil Nadu
|
7260
|
6
|
30
|
Tripura
|
152
|
|
31
|
UT
|
92
|
|
32
|
Uttarakhand
|
1417
|
|
33
|
Uttar Pradesh
|
14354
|
12
|
34
|
West Bengal
|
5858
|
5
|
स्रोत http://www.rtiindia.org/forum/131450-so-who-files-rti-applications-online.html
तब तक कानून बनने जाने से कुछ नहीं जब तक उसका व्यावहारिक पक्ष में सकारात्मक रूप देखने का नहीं मिल जाता ,....
ReplyDeleteविस्तृत सार्थक प्रस्तुतीकरण हेतु आभार