मंजुल का कार्टून |
हिंदू में सुरेंद्र का कार्टून |
कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक में सोनिया गांधी और राहुल गांधी के इस्तीफों की पेशकश नामंजूर कर दी गई। इस पेशकश के स्वीकार होने की कल्पना भी नहीं की जा सकती। गांधी परिवार के बगैर अब कांग्रेस का कोई मतलब नहीं है। कांग्रेस को जोड़े रखने का एकमात्र फैविकॉल अब यह परिवार है। संयोग से कांग्रेस की खराबी भी यही मानी जाती है। कांग्रेस के नेता एक स्वर से कह रहे हैं कि पार्टी फिर से बाउंसबैक करेगी। 16 मई को हार की जिम्मेदारी लेते हुए राहुल और सोनिया ने कहा था कि हम अपनी नीतियों और मूल्यों पर चलते रहेंगे। बहरहाल अगला एक साल कांग्रेस और एनडीए दोनों के लिए महत्वपूर्ण होगा। मोदी सरकार को अपनी छाप जनता पर डालने के लिए कदम उठाने होंगे, वहीं कांग्रेस अब दूने वेग से उसपर वार करेगी।
अभी तक कहा जाता
था कि वास्तविक सार्वदेशिक पार्टी सिर्फ कांग्रेस है। सोलहवीं लोकसभा में दस
राज्यों से कांग्रेस का एक भी प्रतिनिधि नहीं है। क्या यह मनमोहन सिंह की नीतियों
की पराजय है? एक मौन और दब्बू प्रधानमंत्री को खारिज करने वाला जनादेश? पॉलिसी पैरेलिसिस के
खिलाफ जनता का गुस्सा? या नेहरू-गांधी परिवार का पराभव? क्या कांग्रेस इस सदमे
से बाहर आ सकती है? शुक्रवार की दोपहर पार्टी अध्यक्ष सोनिया गांधी और राहुल
गांधी ने एक संक्षिप्त संवाददाता सम्मेलन में अपनी हार और उसकी जिम्मेदारी स्वीकार
की। पर पाँच मिनट के उस एकतरफा संवाद से ऐसा महसूस नहीं हुआ कि पार्टी अंतर्मंथन की
स्थिति में है या उसे कोई पश्चाताप है। फिलहाल चेहरों पर आक्रोश दिखाई पड़ता है। पार्टी के नेता ‘स्केयरक्रो’ यानी मोदी का डर दिखाने
वाली अपनी राजनीति के आगे सोच नहीं पा रहे हैं। वे अब भी मानते हैं कि उनके अच्छे
काम जनता के सामने नहीं रखे जा सके। इसके लिए वे मीडिया को कोस रहे हैं।
चुनाव परिणाम आने
के दो दिन पहले से कांग्रेसियों ने एक स्वर से बोलना शुरू कर दिया था कि हार हुई
तो राहुल गांधी इसके लिए जिम्मेदार नहीं होंगे। कमलनाथ ने तो सीधे कहा कि वे सरकार
में नहीं थे। कहीं गलती हुई भी है तो सरकार से हुई है, जो अपने अच्छे कामों से
जनता को परिचित नहीं करा पाई। यानी हार का ठीकरा मनमोहन सिंह के सिर पर। पिछले दो
साल के घटनाक्रम पर गौर करें तो हर बार ठीकरा सरकार के सिर फूटता था। और श्रेय देना
होता था तो राहुल या सोनिया की जय-जय।
पिछले साल चार
राज्यों में पराजय के बाद कांग्रेस के वरिष्ठ नेता सत्यव्रत चतुर्वेदी ने एक
इंटरव्यू में कहा था, हमें कुछ निर्णय समय पर लेने चाहिएं, अच्छे से अच्छा निर्णय
अगर गलत समय पर लिया जाए तो उसका प्रभाव भी दूसरा होगा। हमने ऐसा नहीं किया तो फिर
आने वाले समय में हमारे लिए कोई भविष्य नहीं होगा। अब केवल कॉस्मेटिक सर्जरी से
काम नहीं चलेगा,
अब कार्डियक
सर्जरी करनी पड़ेगी।
कांग्रेस की हार
का अंदेशा था, पर ऐसी हार का नहीं था। अब कैसी कार्डियक सर्जरी इस पार्टी को बचाएगी? पहले समझना होगा कि इस पार्टी
की सबसे बड़ी ताकत या कमज़ोरी क्या है। नेहरू-गांधी परिवार इस पार्टी को एकजुट
रखने वाला सबसे मजबूत धागा है। पर क्या यही 129 साल की विरासत है? क्या यह 1969 में
स्थापित इंदिरा कांग्रेस विरासत नहीं है? कहा जा रहा है कि सन
1965 में लाल बहादुर शास्त्री का असामयिक निधन न हुआ होता तो कांग्रेस की कहानी
कुछ और होती। सन 1991 में बनी नरसिम्हा राव सरकार ने पार्टी को खानदान की छाया से
बाहर निकाल लिया था। पर उनके बाद सीताराम केसरी को वस्तुतः उठाकर फेंकने वाली
ताकतों ने खानदान को फिर से स्थापित कर लिया। हालांकि इसका फौरी लाभ पार्टी को
नहीं मिला, पर 2004 में एनडीए के कुछ नेतओं के थोथे आत्मविश्वास और आंध्र प्रदेश
तथा तमिलनाडु में गलत गठबंधन बनने के कारण कांग्रेस को अपनी ज़मीन वापस मिल गई।
सन 2004 की सरकार
के पीछे वाम मोर्चे का समर्थन था। यूपीए ने एक साझा कार्यक्रम भी बनाया, जिसे लेकर
हमेशा विवाद रहा। पार्टी ने एनडीए के ‘इंडिया शाइनिंग’ को निशाना बनाते हुए
समाज कल्याण के कार्यक्रमों के सहारे अपनी गाड़ी आगे बढ़ाने की कोशिश की। सोनिया
गांधी की अध्यक्षता में एक राष्ट्रीय सलाहकार परिषद बनाई गई, जिसमें कुछ हाई
प्रोफाइल सोशल एक्टिविस्ट, अर्थशास्त्री, शिक्षाविद और पुराने ब्यूरोक्रेट थे। यह
संगठन सरकार के समानांतर काम करता रहा। मनमोहन सिंह की सरकार के साथ इस संगठन का
परोक्ष टकराव चलता रहा। सोनिया गांधी पार्टी को वामपंथी छवि देने की कोशिश करती
रहीं। पर लगता है कि इसका राजनीतिक लाभ उन्हें नहीं मिला। सन 2009 की सफलता के
पीछे पार्टी की वामपंथी छवि और राहुल गांधी का उदय था या मनमोहन सिंह का वामपंथी
दलों से सीधा टकराव मोल लेना?
इस सवाल के जवाब
में कांग्रेस की तमाम विसंगतियों के जवाब छिपे हैं। पार्टी एक ओर अपनी वामपंथी छवि
बना रही थी, वहीं यूपीए-1 के दौर में टू-जी, कोयला, आदर्श सोसायटी जैसे अनेक मामले
हुए। यूपीए-2 के दौर में कॉमनवैल्थ गेम्स की तैयारी के सिलसिले में अनेक
अनियमितताओं का पर्दाफाश हुआ। पार्टी के दरिद्रमुखी कार्यक्रमों के ऊपर घोटाले और
स्कैम हावी हो गए। इन घोटालों का एक बड़ा कारण यह था कि देश की प्रशासनिक व्यवस्था
सुपरिभाषित नहीं थी। स्पैक्ट्रम आबंटन से लेकर खानों के आबंटन तक की प्रक्रिया
राजनेताओं की व्यक्तिगत पसंद-नापसंद पर निर्भर हो गई। उदारीकरण की तार्किक परिणति
थी कि नियम-कानूनों को समय से ठीक कर दिया जाता। इस काम की ओर से पार्टी ने आँखें
मूँद लीं। जब भ्रष्टाचार के खिलाफ कानून बनाने की माँग ने आंदोलन का रूप लिया तो
पार्टी ने उसे हिकारत की निगाहों से देखा। जब पानी नाक तक पहुँच गया तो अचानक
राहुल गांधी छह कानूनों की जबर्दस्त पैरवी में जुट गए।
खानदान इस पार्टी
की एकजुटता का सूत्र है तो वही इसके गले की हड्डी है। खानदान का हाथ हटते ही
व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाएं कबड्डी खेलने लगती हैं। खानदान के आभामंडल को बरकरार
रखने के पक्षधर नेताओं ने हित-साधना का ऐसा ताना-बाना बना लिया है कि उसके बाहर
निकलना अब सम्भव नहीं।
सन 1977 के
सूपड़ा साफ के मुकाबले इस बार का ‘ह्वाइट वॉश’ कई मानों में फर्क है।
1977 में पार्टी का केवल उत्तर भारत में सफाया हुआ था, दक्षिण में नहीं। इंदिरा
गांधी और संजय गांधी का करिश्मा खत्म नहीं हुआ था। और जनता पार्टी उस प्रकार से
सुगठित नहीं थी, जैसी आज भाजपा है। जनता पार्टी एक प्रकार का राजनीतिक जमावड़ा था,
जो साल भर के भीतर टूटने लगा। भारतीय जनता पार्टी स्पष्ट बहुमत के साथ जीतकर आई है
और आसमान न टूटे तो इस सरकार को पाँच साल तक काम करने में किसी प्रकार की दिक्कत
नहीं होगी।
अब जब पार्टी राख
के ढेर पर खड़ी है तब सवाल खड़ा होता है कि वह करेगी क्या? रास्ता है अपनी विरासत
को लेकर आगे बढ़ना। क्या है यह विरासत? यह विरासत है ‘आइडिया ऑफ इंडिया।’ धर्मनिरपेक्षता,
सांस्कृतिक बहुलता, सामाजिक न्याय, कल्याण और आधुनिकीकरण। पर यह भी साफ है कि
पार्टी परिवार केंद्रित रहेगी। उसके बाहर निकलने की कोशिश सफल नहीं होगी। न कोई
निकाल पाएगा। पर खानदान के पास करिश्माई नेता नहीं है। फिलहाल राहुल के नेतृत्व की
पहली परीक्षा संसद में होगी। पार्टी नई सरकार के बरक्स विपक्ष के रूप में किस
प्रकार की भूमिका निभाती है। दूसरे उसमें संगठनात्मक बदलाव किस प्रकार का होता है।
तीसरे जनता की आकांक्षाओं को वह किस रूप में लेती है। क्या राहुल गांधी इस देश की
नब्ज़ को पढ़ पाते हैं?
कांग्रेस पार्टी
का इस देश पर लम्बा शासन रहा है। इसके कारण गैर-कांग्रेसवाद के रूप में एक
राजनीतिक विचारधारा पनपी। शुरूआती वर्षों में लोहियावादी समाजवादियों और जनसंघ ने
इस दिशा में पहलकदमी की थी। मंडल राजनीति के दौर में समाजवादी गैर-कांग्रेसवाद
धूमिल होता गया। पिछले साल जून में भाजपा के चुनाव अभियान का जिम्मा सँभालने के
बाद नरेंद्र मोदी ने अपने पार्टी कार्यकर्ताओं से 'कांग्रेस मुक्त
भारत निर्माण' के लिए जुट जाने का
आह्वान किया था। उस समय तक वे अपनी पार्टी की ओर से प्रधानमंत्री पद के प्रत्याशी
नहीं बने थे। नरेन्द्र मोदी की बातों में आवेश होता है। उनकी सारी बातों की गहराई पर जाने की ज़रूरत
नहीं होती, पर उन्होंने इस बात
को कई बार कहा, इसलिए यह समझने की ज़रूरत है कि वे कहना क्या चाहते थे। शायद वे
कांग्रेस की विरासत को पूरी तरह खत्म करके उसकी जगह भाजपा को स्थापित करना चाहते
हैं।
कांग्रेस का
वर्तमान संकट केवल लोकसभा चुनाव तक
सीमित नहीं है। सीमांध्र और तेलंगाना विधानसभाएं कांग्रेस के हाथ से गईं।
महाराष्ट्र में कांग्रेस को भारी पराजय मिली है। अब इस साल वहाँ विधानसभा के चुनाव
भी होंगे। अब हरियाणा और झारखंड में भी चुनाव होंगे। कांग्रेस के पास हिमाचल,
हरियाणा, असम, कर्नाटक, केरल और महाराष्ट्र जैसे राज्य हैं। इनकी संख्या लगातार
घटने का अंदेशा है। यानी कांग्रेस के हाथ से प्रादेशिक सत्ता भी निकलने वाली है।
सन 2012 के नवम्बर में
कांग्रेस ने राहुल गांधी के नेतृत्व में चुनाव समन्वय समिति बनाई थी। इसके अलावा
सोनिया गांधी, मनमोहन सिंह, एके एंटनी, अहमद पटेल और पी चिदम्बरम का एक कोर ग्रुप था। पार्टी
ने एके एंटनी के नेतृत्व में चुनाव पूर्व गठबंधनों के लिए एक सब-ग्रुप बनाया था।
जनवरी 2013 में पार्टी ने जयपुर में चिंतन शिविर किया था, जिसमें चिंतन नहीं केवल
राहुल गांधी को बेटन थमाने का काम हुआ। सच यह है कि नाम की इन तमाम कमेटियों की
पिछले डेढ़-दो महीने से बैठकें नहीं हुईं थीं। पार्टी का पूरा चुनाव कार्य राहुल
गांधी के 12 तुगलक रोड से चलाया गया। राहुल गांधी का निकटवर्ती प्रभामंडल अब
कांग्रेस का भविष्य है। देखना यह है कि इसकी दिशा यही रहेगी या बदलेगी।
क्या कांग्रेस
कोई चिंतन शिविर लगाएगी? कांग्रेस जब संकट में होती है, तो वह सोचना शुरू करती है। 1974
में नरोरा का शिविर जय प्रकाश नारायण के आंदोलन का राजनीतिक उत्तर खोजने के लिए
था। 1998 का पचमढ़ी शिविर 1996 में हुई पराजय के बाद बदलते वक्त की राजनीति को
समझने की कोशिश थी। सन 2003 के शिमला शिविर का फौरी लाभ 2004 की जीत के रूप में
देखा जा सकता है। अलबत्ता यह कहना मुश्किल है कि उस शिविर से कांग्रेस ने किसी
सुविचारित रणनीति को तैयार किया। कांग्रेस ने पचमढ़ी में तय किया था कि उसे गठबंधन
के बजाय अकेले चलने की राजनीति को अपनाना चाहिए। शिमला में कांग्रेस को गठबंधन का
महत्व समझ में आया। क्या कांग्रेस के पास नए गठबंधन का कोई खाका है? क्या उसके पास कोई
अवधारणा है? फिलहाल पार्टी सकते में है। कुछ समय वह काठ बनी रहेगी, पर अंततः उसे
हिलना-डुलना होगा।
राष्ट्रीय सहारा के हस्तक्षेप में प्रकाशित
बहुत सुन्दर प्रस्तुति।
ReplyDelete--
आपकी इस' प्रविष्टि् की चर्चा कल बुधवार (21-05-2014) को "रविकर का प्रणाम" (चर्चा मंच 1619) पर भी होगी!
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक