हिंदू में सुरेंद्र का कार्टून |
बाहरी विरोध के मुकाबले
अंदरूनी विरोध उन्हें परेशान करेगा। समय रहते इसे सुलझाया नहीं गया तो दिक्कतें पैदा
होंगीं। मंत्रिमंडल की सदस्यता तथा इनाम-इकराम और बख्शीश को लेकर बडी तादाद में
लोग उनके सामने कटोरा लेकर खड़े होंगे। उम्मीद से कम पाने वाला शोर मचाएगा। सत्ता
की राजनीति का यह नियम है। चूंकि इस वक्त मोदी खासे काफी मजबूत हैं, इसलिए इससे वे
निपट लेंगे। पर पार्टी के सीनियर कैसे मानेंगे?
चुनाव परिणाम आने के बाद
अपनी पहली सार्वजनिक प्रतिक्रिया में लालकृष्ण आडवाणी ने नरेंद्र मोदी की न तो उस
अंदाज़ में तारीफ की जिसमें पूरा देश कर रहा था और न उन्हें बधाई दी। लगभग ऐसा ही सुषमा
स्वराज ने किया। उन्होंने कहा कि यह ‘शुद्ध रूप से’ बीजेपी की जीत है। सुषमा की यह बात सिद्धाततः गलत नहीं है। मोदी ने भी इसे
व्यक्तिगत जीत न बताकर पार्टी की जीत कहा है। सुषमा जी ने अपने ट्वीट में नरेंद्र मोदी के सुयोग्य नेतृत्व को भी श्रेय दिया है। फिर भी कहीं न कहीं खलिश है। और यह खलिश
इन दो नेताओं के मन में ही नहीं है। आडवाणी ने यह भी कहा कि इस बात का विश्लेषण
किया जाना चाहिए कि जीत में नरेंद्र मोदी की भूमिका कितनी है। इसके पहले सन 2012
में गुजरात विधान सभा के चुनाव में विजय पाने पर भी उन्होंने सार्वजनिक रूप से मोदी
को बधाई नहीं दी थी। ऐसा नहीं कि वे सार्वजनिक रूप से बधाई नहीं देते। पिछले साल
मध्य प्रदेश की सफलता पर शिवराज सिंह चौहान को उन्होंने गर्मजोशी से बधाई दी थी।
पिछले साल जब पार्टी का
संसदीय बोर्ड नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री पद का प्रत्याशी घोषित करने जा रहा था,
तब आडवाणी जी घर से नहीं निकले। उनका इंतज़ार होता रहा। इसके बाद उन्होंने अपना
विरोध पत्र भी जारी किया था। उसके पहले जून में वे पार्टी के सारे पदों से इस्तीफा
दे चुके थे। जब लोकसभा चुनाव के टिकट दिए जा रहे थे तब आडवाणी जी ने गुजरात के
बजाय मध्य प्रदेश से चुनाव लड़ने की इच्छा ज़ाहिर की थी। सार्वजनिक रूप से वे अपनी
पीड़ा को व्यक्त करते रहते हैं। क्या वास्तव में वे मोदी को प्रधानमंत्री बनते देख
नहीं पा रहे हैं? क्या वे मानते हैं कि यह चुनाव उनके नेतृत्व
में लड़ा जाना चाहिए था? सवाल है कि पार्टी नरेंद्र
मोदी के बजाय लालकृष्ण आडवाणी के नेतृत्व में चुनाव लड़ती तो क्या उसे ऐसी सफलता
मिलती? दो साल पहले अपने ब्लॉग में वे लिख चुके थे कि
सन 2014 में किसी पार्टी को बहुमत मिलने वाला नहीं है। उन्हें लगता था कि पार्टी के भीतर का मूड
उत्साह से भरा नहीं है। पर अब जब उत्साह छलक रहा है तो वे ग़मगीन क्यों हैं?
भारतीय जनता
पार्टी को एक ज़माने तक ‘पार्टी विद अ
डिफरेंस’ कहा जाता था। पर पिछले
साल जब नरेंद्र मोदी का नाम सामने आया उसे ‘पार्टी विद डिफरेंसेज़’ या ‘भारतीय झगड़ा पार्टी’ कहा जाने लगा। स्वाभाविक था कि आडवाणी जी की अनुपस्थिति में और
सहमति के बगैर नरेन्द्र मोदी को सन 2014 के चुनाव की बागडोर थमाई गई तो उसके पीछे
वह सामूहिक बल नहीं था, जिसकी भाजपा को ज़रूरत थी। मोदी के प्रति इस प्रकार की
वितृष्णा केवल नीतीश कुमार के वक्तव्यों में ही दिखाई पड़ी है। पर हालात ने उन्हें
बोलने लायक नहीं छोड़ा है।
मोदी की सरकार को
लेकर दूसरी बड़ी चुनौती राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से रिश्तों को लेकर खड़ी होगी। इस
बार की जीत में संघ की बड़ी भूमिका है। संघ ने ही मोदी को वह समर्थन दिया जिसके
कारण वे वरिष्ठ नेताओं के विरोध के सामने खड़े रह सके। क्या मोदी अब संघ के
निर्देशों पर सरकार चलाएंगे? चुनाव परिणाम आने के पहले नरेंद्र मोदी और पार्टी अध्यक्ष
राजनाथ सिंह ने संघ के नेताओं से मुलाकात की तो यह बात मीडिया में उछली थी। क्या
संघ के ‘हिडन एजेंडा’ का सवाल फिर उठेगा?
भारतीय जनता
पार्टी संघ परिवार का हिस्सा है। पर पार्टी के भीतर एक क्षीण सी रेखा गैर-संघ
प्रवृत्ति की भी है। अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार ने इस मामले में हाथ बचाकर काम
किया था। सन 1992 में वाजपेयी ने बाबरी विध्वंस पर खेद व्यक्त किया था। बेशक यह
संघ का संगठन है,
पर श्यामा प्रसाद
मुखर्जी का पहला अध्यक्षीय भाषण गुरु गोलवलकर की स्थापनाओं के मुकाबले उदार और
असाम्प्रदायिक था। शुरू से ही जनसंघ के मूल तत्व में दो बातें घुली-मिली हैं। एक, राष्ट्रवाद या हिंदुत्व
और दूसरा कांग्रेस से विरोध। नरेंद्र मोदी कांग्रेस विहीन भारत की बात कर रहे हैं।
साथ ही वे विकास की बातें करते हैं हिंदुत्व की नहीं। लगभग इसी लाइन पर आडवाणी ने जून
2005 में पाकिस्तान यात्रा के दौरान अपनी छवि को बदलने की कोशिश की थी। जिन्ना की
तारीफ को संघ ने पसंद नहीं किया। संघ के आक्रमण का सामना आडवाणी नहीं कर पाए। उस
वक्त नरेंद्र मोदी ही उनकी मदद के लिए आगे आए थे।
नरेंद्र मोदी की
हिंदू छवि काफी गाढ़ी है। पर हाल में प्रवीन तोगड़िया और गिर्राज किशोर के आक्रामक
वक्तव्यों की मोदी ने न केवल भर्त्सना की, बल्कि अपने प्रभाव से इस प्रकार के
वक्तव्यों को रुकवाया भी। सन 2002 के बाद से वे अपनी कट्टर हिंदू की छवि से बचने
की कोशिश कर रहे हैं। इस कोशिश में ‘संघ परिवार’ से उन्होंने टकराव भी मोल लिया। नवम्बर 2008 में उनकी सरकार
ने गुजरात के तकरीबन 90 मंदिरों को गिराया तो विश्व हिन्दू परिषद ने उनके खिलाफ
आंदोलन छेड़ दिया था। मोदी को बाबर और औरंगजेब की उपाधि भी मिली। अंततः उन्हें वह
अभियान बंद करना पड़ा। पर इतना साफ था
कि वे अपनी कट्टर छवि से भाग रहे थे।
इस बार के चुनाव अभियान
में मोदी ने कई बार कहा कि मुसलमानों को मेरी सरकार से शिकायत नहीं होगी। पर
मुसलमान संघ के नाम से घबराते हैं। चुनाव में जीत हासिल करने के बाद मोदी का कद
बढ़ा है। क्या वे अपनी सरकार बनाने और चलाने का काम स्वतंत्रता पूर्वक कर पाएंगे? यह भी कि क्या संघ इस
वास्तविकता को समझकर उन्हें अपना काम करने देगा? बीजेपी का हिंदुत्व अब
वोट दिलाऊ अवधारणा नहीं है। मोदी ने अपनी छवि कारोबार-मित्र और कुशल प्रशासक की
बनाई है। वे खुद को निक्कर छाप साबित करने से बचते हैं। उनका हिंदुत्व कारोबारी रूप
में सामने आया है। देश के कॉरपोरेट सेक्टर का समर्थन उन्हें प्राप्त है। देखना है
कि इन अंतर्विरोधों को वे खुद और उनकी पार्टी किस प्रकार सुलझाएगी।
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