Monday, May 12, 2014

मनमोहन सिंह यानी दुविधा के दस साल

यूपीए-2 सरकार का यह आखिरी हफ्ता है. भविष्य का पता नहीं, पर इतना तय है कि मनमोहन सिंह अब प्रधानमंत्री नहीं बनेंगे. पिछले हफ्ते सोनिया गांधी की अध्यक्षता वाली राष्ट्रीय सलाहकार परिषद की आखिरी बैठक हुई तो मीडिया के लिए बड़ी खबर नहीं थी. दिल्ली में यूपीए की सरकार बनेगी या नहीं कहना मुश्किल है, पर फिलहाल राष्ट्रीय सलाहकार परिषद भी नहीं होगी. होगी तो शायद किसी नए नाम और किसी नए एजेंडा के साथ होगी. प्रधानमंत्री के रूप में मनमोहन सिंह और उनके समानांतर राष्ट्रीय सलाहकार परिषद का होना कांग्रेसी दुविधा को रेखांकित करता है. बेशक मनमोहन  सिंह को एक भले, शिष्ट, सौम्य और ईमानदार व्यक्ति के रूप में याद रखा जाएगा. वे ऐसे हैं. पर सच यह है कि यूपीए सरकार के सारे अलोकप्रिय कार्यों का ठीकरा उनके सिर फूटा है. श्रेय लायक कोई काम हुआ भी तो उसके लिए वे याद नहीं किए जाएंगे.


मनमोहन सिंह देश के तेरहवें और कांग्रेस में नेहरू-गांधी परिवार से बाहर से आए तीसरे प्रधानमंत्री हैं. संयोग से लाल बहादुर शास्त्री, पीवी नरसिम्हाराव और मनमोहन सिंह तीनों नेताओं को प्रधानमंत्री बनने का मौका तब मिला जब परिवार का कोई नेता तैयार नहीं था. मनमोहन सिंह का कार्यकाल नेहरू और इंदिरा गांधी के बाद तीसरे नम्बर पर रहा. उनमें ज़रूर कोई विशेषता थी कि इतने लम्बे समय तक उन्होंने देश का नेतृत्व किया. यह विशेषता है उनका ढाल बने रहना.

लम्बी जद्दोजेहद के बाद 22 मई 2004 को मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री बने. और 4 जून को सोनिया गांधी के नेतृत्व में राष्ट्रीय सलाहकार परिषद का गठन हुआ. यह पार्टी का फोरम नहीं था बल्कि भारत सरकार ने इसे बनाया था. पर इसकी अध्यक्ष सोनिया गांधी थीं, जिससे इसकी राजनीतिक शक्ल जाहिर थी. चूंकि यह परिषद प्रधानमंत्री को सलाह देने के लिए बनी थी इसलिए प्रधानमंत्री इसके सदस्य नहीं थे. पिछली छह मई को हुई इसकी फेयरवैल मीटिंग में प्रधानमंत्री भी शामिल थे. सोनिया गांधी ने इस संस्था को निराला प्रयोग बताया और मनमोहन सिंह ने इस बात पर खेद व्यक्त किया कि साधनों की कमी के कारण हम इसके कई सुझावों को अमली जामा नहीं पहना सके. देश के कुछ हाई प्रोफाइल एक्टिविस्टों, शिक्षाविदों और कुछ पूर्व नौकरशाहों की इस संस्था को कांग्रेस के सामाजिक एजेंडा को तय करने का श्रेय जाता है. शिक्षा का अधिकार, आरटीआई, मनरेगा, खाद्य सुरक्षा और भूमि अधिग्रहण कानूनों का श्रेय इसे जाता है. व्यावहारिक सच यह है कि इनमें से अधिकारों को लागू करने के पहले सरकार और पार्टी के बीच मतभेद रहा. पर यह संस्था पार्टी का नहीं, सरकार का अंग थी. ऐसा भी नहीं कि हमारे देश में सरकार को सामाजिक कल्याण की समझ नहीं होती.

इस साल 3 जनवरी को जब मनमोहन सिंह ने संवाददाता सम्मेलन बुलाया तो एकबारगी लगा कि शायद वे अपने बारे में कोई सफाई देंगे. पर ऐसा कुछ नहीं हुआ, बल्कि उन्होंने यह साफ़ किया कि मैं तीसरी बार प्रधानमंत्री बनने का इच्छुक नहीं हूँ. प्रधानमंत्री ने अपने दस साल के कार्यकाल की उपलब्धियों का ज़िक्र ज़रूर किया, पर हमेशा की तरह सारी बहस उनके नेतृत्व पर उठे सवालों तक सिमट गई. उन्होंने यूपीए-2 की विफलताओं के जो कारण गिनाए उनसे सामान्य व्यक्ति की सहमति नहीं थी.
उनके शासन के दौरान हमेशा यह लगता रहा कि वे कुछ छिपा रहे हैं. पिछले साल विधानसभा चुनाव में दिल्ली और राजस्थान की कांग्रेस सरकारों की भारी पराजय स्थानीय नेताओं, कार्यक्रमों और उनकी नीतियों के कारण नहीं हुई, बल्कि केंद्र सरकार की छवि के कारण हुई. केंद्र सरकार पर पॉलिसी पैरिलिसिसका आरोप किसी बाहरी ने नहीं प्रधानमंत्री के सलाहकार कौशिक बसु ने लगाया था. पर मनमोहन सिंह ने इस बात की सफाई देने की कोशिश कभी नहीं की. बल्कि उन्होंने कहा कि सत्ता के दो केंद्रों का प्रयोग सफल रहा. आम धारणा इसके विपरीत है. पिछले साल सितम्बर में राहुल गांधी ने जब दाग़ी सांसदों को जीवनदान देने वाले अध्यादेश को फाड़ कर फेंक देने की बात की, उससे मनमोहन सिंह की छवि पर विपरीत प्रभाव पड़ा था. पर वे इस बात को ख़ामोशी से सहन कर गए. इन सब बातों के कारण धीरे-धीरे उनकी मिस्टर क्लीन की छवि के स्थान पर निष्क्रिय और दब्बूहोने का दाग़ गाढ़ा होता गया. उन्हें अपनी सादगी को तारीफ़ नहीं मिली. इसे मीडिया की साज़िश नहीं कह सकते. उन्होंने मीडिया के साथ संवाद किया ही नहीं. अलबत्ता 3 जनवरी के संवाददाता सम्मेलन में उन्होंने यह ज़रूर कहा कि मेरा आकलन इतिहास हमदर्दी के साथ करेगा. सवाल है क्या उनकी विदाई के बाद अब इतिहास उन्हें लेकर जागेगा?

दो साल पहले अमेरिकी अखबार वॉशिंगटन पोस्ट ने मनमोहन सिंह के बारे में आम भारतीय नागरिक के दृष्टिकोण को पेश करने की कोशिश की थी. उसके अनुसार देश में घोटाले को बाद घोटाले ने मनमोहन सिंह की छवि को सबसे ज्यादा धक्का पहुँचाया. अखबार ने लिखा कि एक सम्माननीय, विनम्र और बुद्धिमान मनमोहन सिंह की जगह निष्प्रभावी ब्यूरोक्रेट ने ले ली जो गहराई तक भ्रष्ट सरकार के सिंहासन पर बैठा है. इसके पहले साप्ताहिक पत्रिका टाइम ने अंडर अचीवर बताकर एक प्रकार से उनकी आलोचना की थी. मनमोहन सिंह की चुप्पी के कारण यह एक सामान्य भारतीय नागरिक की राय के रूप में रूढ़ होती गई.  
                             
मनमोहन सिंह अपने किसी कौशल से प्रधानमंत्री नहीं बने थे. वे जनता के बीच जाकर चुनाव जीतकर नहीं आए थे. जीत तो सोनिया गांधी की थी. वे उनकी कृपा से प्रधानमंत्री बने थे. पर यूपीए-1 के कार्यकाल में मनमोहन सिंह की छवि अपेक्षाकृत बेहतर थी. उनकी सरकार पर सहयोगी वाममोर्चा लगातार हमले करता रहता था, पर वे झुके नहीं. सन 2008 में अमेरिका के साथ न्यूक्लियर डील के बाद जनता के बीच उनकी साख भी बढ़ी. उनके पूर्व सलाहकार संजय बारू की तमाम बातों से असहमत हुआ जा सकता है, पर इस बात पर विश्वास होता है कि उन्हें सन 2009 में चुनाव लड़ने की सलाह दी गई थी. शायद वे चुनाव लड़कर एक बड़े नेता के रूप में सामने आ सकते थे. वे पंजाब की किसी सीट से चुनाव लड़ते तो अकाली दल तक उनकी मदद में आता. देश के पहले सिख प्रधानमंत्री को पंजाब इतनी इज्जत तो प्रदान करता. पर उस चुनाव की विजय का श्रेय उन्हें न मिलकर राहुल गांधी को मिला.

सन 2009 की विजय के बाद मनमोहन सिंह की छवि लगातार गिरती ही गई. पर उन्होंने अपने पक्ष को रखने की कोशिश कभी नहीं की. वे कभी गठबंधन धर्म को कोसते रहे, कभी आरटीआई को, कभी सीएजी को और कभी अदालतों को. इन बातों से वे खुद को असहाय और कमजोर प्रधानमंत्री के रूप में साबित करते गए. दस साल के यूपीए शासन में कुछ अच्छा हुआ भी है तो उसके श्रेय से वे वंचित रहेंगे. या हम इंतज़ार करें इतिहास का जो उनकी उपलब्धियों पर रोशनी डाले.
प्रभात खबर पॉलिटिक्स में प्रकाशित


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