हिंदी में ‘ग्रोथ’ और ‘डेवलपमेंट’ के लिए अक्सर विकास शब्द
का इस्तेमाल होता है। संशय की शुरूआत यहीं से होती है। ‘इनक्ल्यूसिव ग्रोथ’ की बात हो तो मामला और
बिगड़ जाता है। इन दिनों देश विकास के मॉडलों की तफतीश में लगा है। इस बहस में
अमर्त्य सेन से लेकर जगदीश भगवती तक कूद पड़े हैं। गौर से देखें तो कांग्रेस का
विकास-मॉडल तकरीबन वही है, जो भारतीय जनता पार्टी का है। आर्थिक विकास के लिए 1991
से लागू की गई आर्थिक उदारीकरण की योजना कांग्रेसी है, जिससे बीजेपी को परहेज़
नहीं है। पर राजनीतिक कारणों से सन 2009 के बाद से पार्टी ने उदारीकरण की तरफ से
ध्यान हटाकर मनरेगा, मिड डे मील, खाद्य सुरक्षा और कंडीशनल कैश ट्रांसफर जैसे
सामाजिक कल्याण के कार्यक्रमों पर ज़ोर देना शुरू कर दिया। सरकार और पार्टी विपरीत
रास्तों पर चलने लगीं। सरकार चाहती थी ऊर्जा पर सब्सिडी खत्म करना। उसने रसोई गैस
के दाम बढ़ाए, सस्ते सिलेंडरों की संख्या कम की। पार्टी ने सिंलेंडर 6 से 9 और फिर
12 करा दिए।
पार्टी के अनेक
कार्यक्रमों पर सरकार की पूर्ण सहमति नहीं रही। भूमि अधिग्रहण कानून बनाते वक्त पार्टी
के दबाव में मंत्रिसमूह की सिफारिशों की अनदेखी की गई। सोनिया गांधी की अध्यक्षता
में बनी राष्ट्रीय सलाहकार परिषद समांतर सरकार बन गई। उदारीकरण से जुड़े अनेक
कानून, जिनमें जीएसटी, डायरेक्ट टैक्स कोड, पेंशन और बीमा कानून, कम्पनी कानून में
सुधार जैसे अनेक ज़रूरी काम पूरे नहीं हो पाए। अर्थव्यवस्था मंदी और दूसरी ओर
मुद्रास्फीति की शिकार हुई। इन्हीं वजहों से प्रधानमंत्री के आर्थिक सलाहकार कौशिक
बसु ने ‘पॉलिसी पैरेलिसिस’ शब्द का इस्तेमाल किया था। आर्थिक कार्यक्रम देश चलाने के
लिए हैं और सामाजिक कार्यक्रम चुनाव जीतने के लिए।
देश में बड़े
स्तर पर रोज़गार तब तक तैयार नहीं होंगे जब तक विनिर्माण के क्षेत्र में भारी
निवेश न किया जाए। पर निवेशक ऐसे उद्योगों में पैसा लगाने को तैयार नहीं हैं, जो
बड़े स्तर पर मज़दूरों को रोज़गार दें। सरकार श्रम कानूनों में सुधार के लिए तैयार
नहीं है। दोनों बड़ी पार्टियाँ एक-दूसरे पर ‘क्रोनी कैपिटलिज़्म’ की तोहमत लगाती हैं, पर
दोनों के खाते साफ नहीं हैं। यही वजह है कि देश में सम्पदा सृजन के बावजूद मानव
विकास की गति धीमी रही। योजना आयोग के पास आँकड़ों की भरमार है, पर वे वास्तविकता
को नहीं बताते। पाँचवें दर्जे के बच्चे जोड़-घटाना तक नहीं लगा पाते। आँकड़े
उन्हें शिक्षित बताते हैं। राहुल गांधी गरीब की भूख मिटाने का वादा करते हैं। पर
देश में भुखमरी नहीं कुपोषण की समस्या है। सस्ता अनाज देकर क्या कुपोषण दूर होगा? उसके लिए स्त्रियों और
नवजात शिशुओं के स्वास्थ्य, उनकी शिक्षा, स्वच्छता, पेयजल जैसी अनेक समस्याओं के
समाधान खोजने होंगे।
कांग्रेस के विकास
मॉडल को महात्मा गांधी और पंडित जवाहरलाल नेहरू की परिकल्पना का विस्तार कह सकते
हैं। क्या ऐसा है? नेहरू की आर्थिक नीतियाँ गांधी-विचार के अनुरूप तो नहीं थीं। नेहरू को देश के
आधारभूत ढाँचे के विकास का श्रेय जाता है। बड़े बाँध, स्टील प्लांट, वैज्ञानिक
प्रयोगशालाएं, इंजीनियरी कॉलेज, अंतरिक्ष अनुसंधान, आणविक ऊर्जा।एक हद तक वे
सोवियत क्रांति से प्रभावित थे, पर साम्यवादी नहीं थे। देश की खेती निजी क्षेत्र
में ही रही। चूंकि देश में निजी पूँजी की कमी थी, इसलिए नेहरू ने सार्वजनिक
क्षेत्र को जन्म दिया। उसके समांतर धीरे-धीरे निजी पूँजी को बढ़ाने-पनपाने की
कोशिश भी की।
आज पूँजी के
वैश्वीकरण का ज़माना है। कांग्रेस का मॉडल उसके अंतर्विरोधों की कहानी कहता है। नरेंद्र
मोदी का गुजरात-मॉडल भी अर्थव्यवस्था को खोलने और आर्थिक ताकतों को प्रोत्साहित
करने पर ज़ोर देता है। इमर्जेंसी के पहले तक इंदिरा गांधी पर भी नेहरूवादी
आर्थिक-दर्शन का प्रभाव था। बैंकों, खानों और तमाम किस्म के कारखानों के
राष्ट्रीयकरण और प्रीवी पर्स की समाप्ति के पीछे वामपंथी विचार हावी था। सरकार डबल
रोटी और खिलौने बनाने लगी। मध्य वर्ग का विस्तार होने लगा। स्कूटर बुक करने के लिए
भगदड़ में लोग मरने लगे। सरकार स्कूटर बनाने का लाइसेंस देने को तैयार नहीं थी।
किसानों के के नाम पर खाद में सब्सिडी दी जाती थी, जो बिचौलियों की झोली में जाती
थी। विश्व बैंक के साथ रिश्ते बनाने का
काम उसी दौर में हुआ। साठ के दशक में ही भारत आर्थिक-संकटों से घिरने लगा था। उसी
दशक में भारत में विश्व बैंक का प्रवेश हुआ। अनाज का संकट भी उसी दौर में खड़ा हुआ
और उसके समाधान के रूप में जो हरित क्रांति हुई उसमें अमेरिकी संस्थाओं का सहयोग भी
था। इंदिरा गांधी के ‘गरीबी हटाओ’ नारे ने चुनाव में सफलता
दिलाई, पर पाँच साल में उसकी हवा निकल गई।
कांग्रेस को आज
भी गरीबी हटाओ का नारा रोमांचित करता है। पर सत्तर के दशक में गहराते आर्थिक-राजनीतिक
संकटों ने इंदिरा गांधी की वैचारिक दिशा बदल दी थी। सन 1980 में भारत ने मुद्राकोष
से ऋण लेकर उस आर्थिक उदारीकरण की शुरूआत की जिसे हम 1991 की देन मानते हैं। तब
देश की प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी थीं।
कांग्रेस के इस
बार के घोषणा पत्र में स्वास्थ्य का अधिकार, पेंशन का अधिकार, सामाजिक सुरक्षा का अधिकार और आवास का अधिकार सहित छह
समाजिक आर्थिक अधिकारों की एक महत्वाकांक्षी कार्य योजना लागू करने और 80 करोड़
आबादी को मध्य वर्ग में लाने का वादा किया है। पार्टी ने दस करोड़ युवाओं को कौशल
प्रशिक्षण उपलब्ध कराने और उन्हें अगले पांच वर्षों में रोजगार के अवसर प्रदान
करने का भी वादा किया। आर्थिक वृद्धि दर तीन साल में आठ प्रतिशत वार्षिक करने और
मुद्रास्फीति पर नियंत्रण के लिए ठोस कदम उठाने का वायदा किया गया है।
घोषणा पत्र में
जिन न्यूनतम सामाजिक आर्थिक अधिकारों को लागू करने का वादा किया गया है उनमें
सामाजिक सुरक्षा,
उद्यमशीलता, प्रतिष्ठा एवं मानवीय काम
करने की स्थिति का अधिकार शामिल है। एक तरफ इंसपेक्टर राज ज़ारी है और दूसरी ओर हम
उद्यमशीलता का बात करते हैं। स्वास्थ्य का अधिकार दिलाने के लिए खर्च में बढोत्तरी
कर उसे जीडीपी का तीन प्रतिशत किया जाएगा। पर यह खर्चे वाला काम हैं। साधन कहाँ से
आएंगे?
कांग्रेस का वादा
है कि सत्ता में आने के एक साल के अंदर सरकार प्रत्यक्ष विदेशी निवेश को
प्रोत्साहित और उत्पाद एवं सेवा कर (जीएसटी) और डायरेक्ट टैक्स कोड को लागू करेगी।
सत्ता में लौटने के 100 दिन के भीतर पार्टी रोजगार का एक विस्तृत एजेंडा पेश करेगी
ताकि युवाओं के लिए 10 करोड़ नए रोजगार और उद्यमशीलता के मौके पैदा किए जाएं। ये
सारी घोषणाएं सन 2009 की हैं। तब क्या हुआ? पार्टी सभी गाँवों और शहरों
को 18 महीने के भीतर हाईस्पीड ब्रॉडबैंड से जोड़ने की बात कहती है। पर राहुल गांधी
कहते हैं कि गरीब का पेट सड़कों से नहीं भरेगा। वे नहीं देख पा रहे हैं कि इन
सड़कों के रास्ते ही गरीब के पास रोज़गार आएगा। बीजेपी के घोषणा पत्र में भी
तकरीबन यही बातें हैं। खाद्य सुरक्षा कानून
और भूमि अधिग्रहण अधिनियम को पास कराने और बैंकिग कानून संशोधन में भी भाजपा ने
साथ दिया।
राजनीतिक दृष्टि
से देश की सभी पार्टियाँ उदारीकरण के रास्ते पर चलती रहीं हैं। टाटा को नैनो कार
बनाने के लिए गुजरात से पहले वाम मोर्चे की बंगाल सरकार ने ज़मीन दी थी, जिसे ममता
बनर्जी की सरकार ने रद्द कर दिया। कारण क्या था? इसी तरह 1998 से 2004 तक एनडीए सरकार ने
उदारीकरण को न सिर्फ पूरी तरह मंजूर किया था,
बल्कि इंडिया
शाइनिंग का नारा दिया था। रिटेल में एफडीआई का श्रीगणेश बीजेपी ने ही किया था। कांग्रेस
पार्टी अपने मॉडल को केवल सामाजिक कार्यक्रमों के आधार पर अलग दिखाना चाहती है। जबकि
उसे आर्थिक संवृद्धि और विकास को एक-दूसरे का पूरक और इस काम को राजनीतिक चेतना का
विषय बनाना चाहिए।
राष्ट्रीय सहारा के परिशिष्ट हस्तक्षेप में प्रकाशित
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