बिहार की राजनीति
निराली है। वहाँ जो सामने होता है, वह होता नहीं और जो होता है वह दिखाई नहीं
देता। जीतनराम मांझी की सरकार को सदन का विश्वास यों भी मिल जाना चाहिए था,
क्योंकि सरकार को कांग्रेस का समर्थन हासिल था। ऐसे में लालू यादव के बिन माँगे
समर्थन के माने क्या हैं? फिरकापरस्त
ताकतों से बिहार को बचाने की कोशिश? राजद की ओर से
कहा गया है कि राष्ट्रीय जनता दल की ओर से कहा गया है कि यह एक ऐसा वक़्त है जब
फिरकापरस्त ताकतों को रोकने के लिए धर्मनिरपेक्ष ताकतों को छोटे-मोटे मतभेदों को
भुलाकर एकजुट हो जाना चाहिए। क्या वास्तव में नीतीश कुमार और लालू यादव के बीच
छोटे-मोटे मतभेद थे? सच यह है कि दोनों नेताओं
के सामने इस वक्त अस्तित्व रक्षा का सवाल है। दोनों की राजनीति व्यक्तिगत रूप से
एक-दूसरे के खिलाफ है। इसमें सैद्धांतिक एकता खोजने की कोशिश रेगिस्तान में सूई
ढूँढने जैसी है। जो है नहीं उसे साबित करना।
प्राण बचाने की
कोशिश
हाँ यह समझ में
आता है कि फौरी तौर पर दोनों नेता प्राण बचाने की कोशिश कर रहे हैं। भला बिन माँगे
समर्थन की जरूरत क्या थी? इसे किसी
सैद्धांतिक चश्मे से देखने की कोशिश मत कीजिए। यह सद्यःस्थापित एकता अगले कुछ दिन
के भीतर दरक जाए तो विस्मय नहीं होना चाहिए। राजद ने साफ कहा है कि मांझी-सरकार को
यह समर्थन तात्कालिक है, दीर्घकालिक नहीं। ऐसी तात्कालिक एकता कैसी है? मोदी का खतरा तो चुनाव के पहले ही पैदा हो चुका था। कहा जा
रहा है कि बीस साल बाद जनता परिवार की एकता फिर से स्थापित हो गई है। पर यह एकता
भंग ही क्यों हुई थी? वे क्या हालात थे,
जिनमें जनता दल टूटा? क्या वजह थी कि जॉर्ज
फर्नांडिस के नेतृत्व में समता पार्टी ने भाजपा के साथ जाने का फैसला किया?
कैसी वैचारिक
एकता?
बिहार की राजनीति
संकीर्णता के दायरे से बाहर नहीं निकलेगी। पिछले साल जब नीतीश कुमार एनडीए को
छोड़कर अलग हो रहे थे तब उन्हें लगता था कि वे नरेंद्र मोदी के नाम पर एक ओर
मुसलमानों का वोट हासिल करेंगे और महादलित तो उनके साथ हैं ही। ऐसा नहीं हुआ और
पार्टी रसातल में पहुँच गई है। अब इस नई एकता के माने क्या हैं? लालू से एकता बाद में होगी, पहले जेडीयू में ही एकता नहीं
है। नीतीश कुमार और शरद यादव के बीच मतैक्य नहीं है। पिछले बीस साल से नीतीश की राजनीति
का उद्देश्य बिहार को ‘लालू के जंगल राज’ से बचाना था। अब यह वैचारिक एकता कहाँ से आ गई?
राज्यसभा में सीट
चाहिए
कहा जा रहा है कि
शरद यादव राष्ट्रीय जनता दल (युनाइटेड) नाम से नई पार्टी बनाने की कोशिश कर रहे
हैं। यह भी आसमान से तारे तोड़कर लाने जैसा है। असल बात यह लगती है कि सबको दिल्ली
में ठिकाने की तलाश है। लालू यादव अपने बिन माँगे समर्थन के बदले में राबड़ी या
मीसा के लिए राज्यसभा की सीट माँगेंगे। लोकसभा की सदस्यता जाने के बाद लालू के
परिवार के पास दिल्ली में कोई ठिकाना नहीं है। राज्यसभा से राजीव प्रताप रूडी,
रामकृपाल यादव और रामविलास पासवान की तीन सीटें खाली हो रही हैं। विधानसभा की
संरचना को देखते हुए इनमें से एक सीट बीजेपी हासिल कर सकती है। शेष दो सीटें
जेडीयू, राजद और कांग्रेस के विधायकों के सहारे जीती जा सकती हैं। बीजेपी सम्भवतः
शाहनवाज हुसेन को यह सीट देना चाहेगी, क्योंकि उसके पास कोई मुस्लिम सांसद नहीं
है।
हो सकता है कि
लालू-नीतीश एकता तीनों सीटें हासिल करने में सफल हो जाए। ऐसा नहीं हुआ तो बाकी दो
सीटों में से एक को शरद यादव हासिल करना चाहेंगे। उनके पास भी दिल्ली में ठौर नहीं
बचा। दूसरी सीट पर नीतीश कुमार और लालू दोनों की निगाहें हैं। नीतीश के पास राज्य
में काम नहीं और लालू के परिवार को दिल्ली में घर चाहिए। फिलहाल इस एकता के पीछे
यही बड़ा कारण लगता है। अब इसे सैद्धांतिक जामा पहनाया गया है। लालू-नीतीश की
जोड़ी बन सकती है और उसे लगता है कि वे मिलकर भाजपा को हरा सकते हैं तो उन्हें विधानसभा
चुनाव करा लेना चाहिए। सदन का डेढ़ साल का कार्यकाल अभी बाकी है। इस सरकार की कोई गारंटी
नहीं कि अगले डेढ़ साल चलेगी। मॉनसून आने वाला है। दिल्ली की हवाओं का असर पटना
में भी होगा। फिलहाल मांझी जी को सदन का विश्वास हासिल हो गया इतना काफी है। इससे
ज्यादा का इंतज़ार कीजिए।
राजस्थान पत्रिका में प्रकाशित
No comments:
Post a Comment