नरेन्द्र मोदी की
सार्वजनिक सभाओं के लाइव टीवी प्रसारण के पीछे क्या कोई साजिश, योजना या रणनीति है? और है तो उसकी जवाबी योजना
और रणनीति क्या है? इसमें दो राय नहीं कि समाज को बाँटने वाले या ध्रुवीकरण करने
वाले नेताओं की सूची तैयार करने लगें तो नरेन्द्र मोदी का नाम सबसे ऊपर ऊपर की ओर होगा.
उनकी तुलना में भाजपा के ही अनेक नेता सेक्यूलर और सौम्य घोषित हो चुके हैं. मोदी के
बारे में लिखने वालों के सामने सबसे बड़ा संकट या आसानी होती है कि वे खड़े कहाँ हैं.
यानी उनके साथ हैं या खिलाफ? किसी एक तरफ रहने में आसानी है और बीच के रास्ते में संकट.
पर अब जब बीजेपी के लगभग नम्बर एक नेता के रूप में मोदी सामने आ गए हैं, उनके गुण-दोष
को देखने-परखने की जरूरत है. जनता का बड़ा तबका मोदी के बारे में कोई निश्चय नहीं कर
पाया है. पर राजनेता और आम आदमी की समझ में बुनियादी अंतर होता है. राजनेता जिसकी खाता
है, उसकी गाता है. आम आदमी को निरर्थक गाने और बेवजह खाने में यकीन नहीं होता.
मोदी की हैदराबाद
रैली ने एक माने में आने वाले चुनावों के प्रचार का किकस्टार्ट किया है. और इसमें भारतीय
जनता पार्टी की सम्भावित रणनीति को देखा जा सकता है. यह रणनीति राजनीति के मुद्दों
और नीतियों के साथ-साथ उन शक्तियों में भी खोजी जानी चाहिए जो भविष्य में भाजपा की
सहयोगी या विरोधी बनेंगी. मोदी की राजनीतिक रणनीति यूपीए पर पूरे वेग के साथ हमला बोलने
की है. और हैदराबाद में उन्होंने यही किया. संयोग से इस वक्त नियंत्रण रेखा पर सैनिकों
की हत्या का मामला गर्म है, जो मोदी की पसंद का मुद्दा है. पिछले हफ्ते संसद में रक्षा
मंत्री के बयान की गफलत के बाद यूपीए सरकार यों भी बैकफुट पर है.
मोदी पिछले कुछ समय
से कांग्रेस-मुक्त भारत की बात कह रहे हैं. इसका उद्देश्य उन पार्टियों और व्यक्तियों
को आकर्षित करना है जो परम्परा से कांग्रेस-विरोधी हैं. इसके लिए हैदराबाद का मंच मौजूं
था. इसी शहर से एनटी रामाराव ने कांग्रेस के खिलाफ आंध्र की प्रतिष्ठा का सवाल उठाया
था. उन्होंने याद दिलाया कि एनटीआर ने केन्द्र में गैर-कांग्रेस सरकार बनाने की पहल
की. हैदराबाद की यह सभा मोदी के लिए बड़ी चुनौती थी, क्योंकि यह शहर तेलंगाना और सीमांध्र
के विवाद में घिरा है. भाजपा तेलंगाना का समर्थन कर चुकी है, इसलिए यह समझना जरूरी
था कि मोदी अपने अंतर्विरोधों को कैसे सुलझाएंगे.
मोदी ने कांग्रेस
के अंतर्विरोधों को उजागर किया और अपने असमंजसों को छिपाया. उन्होंने कहा कि नया राज्य
बनने पर दोनों पक्ष प्रसन्न होते हैं. झारखंड बना तो बिहार और झारखंड दोनों ने मिठाई
बाँटी. उत्तराखंड और छत्तीसगढ़ बने तो सभी पक्षों ने खुशी व्यक्त की. तेलंगाना बनने
पर दोनों पक्ष नाराज हैं. पर उन्होंने तेलंगाना और सीमांध्र दोनों के समर्थकों की भावनाओं
को सहलाया. भाषण की शुरूआत तेलुगु में करके उन्होंने अपने अंतर्विरोधों को काफी ढक
लिया. उन्होंने कहा, गुजरात में तेलुगु भाषी वहां के लोगों के साथ मिलकर रह सकते हैं
तो यहां तेलंगाना और सीमांध्र के लोग क्यों नहीं रह सकते? पर कांग्रेस के असमंजस और
इस फैसले में हुई देरी को निशाना बनाया और कहा, नए राज्य की राजधानी को विकसित करने
में दस साल लगने की उम्मीद कांग्रेस को थी तो उसने 2004 में ही फैसला क्यों नहीं कर
लिया.
दक्षिण में भाजपा
का दुर्ग इस समय पूरी तरह ध्वस्त है. हैदराबाद में मोदी ने तेदेपा और तमिलनाडु की मुख्यमंत्री
जयललिता का उल्लेख करके अपने सम्भावित सहयोगियों की झलक भी दी है. सन 2004 के लोकसभा
चुनाव हारने के बाद से एनडीए के अधिकतर सहयोगी साथ छोड़कर चले गए हैं. देश की भावी
राजनीति को देखते हुए कहना मुश्किल है कि चुनाव-पूर्व गठबंधन बन भी पाएंगे या नहीं.
निश्चित रूप से अगले चुनाव के बाद के गठबंधन महत्वपूर्ण साबित होंगे, पर उसके लिए भी
पृष्ठपीठिका चाहिए. मोदी की रणनीति कर्नाटक में येदियुरप्पा को पार्टी में वापस लाने
की है. सोशल इंजीनियरी और भ्रष्टाचार के आरोपों का आपसी मेल नहीं है. जिन राज्यों में
जातीय आधार की पार्टियाँ हैं उनके नेताओं की लोकप्रियता भ्रष्टाचार के आरोपों के कारण
कम नहीं होती. यह सिर्फ संयोग नहीं था कि मोदी की सभा में बंगारू लक्ष्मण भी मौजूद
थे. लक्ष्मण को दिल्ली के एक अदालत रिश्वत मामले में दोषी ठहरा चुकी है. इस बात की
विवेचना जरूरी है कि लक्ष्मण के माने क्या हैं. भाजपा के भीतर हाल में उभरे अंतर्विरोधों
को व्यक्त करने के बजाय मोदी ने चतुराई से आडवाणी, शिवराज सिंह चौहान और रमन सिंह सबकी
तारीफ करके एक-दूसरा संदेश दिया.
मोदी की राजनीति भाजपा
के किले खड़े करने से ज्यादा कांग्रेस के दुर्ग ढहाने की है. कांग्रेस-मुक्त भारत का
नारा इसी बात पर केन्द्रित है. उनकी दृष्टि में कांग्रेस का भ्रष्टाचार जल, थल और नभ तक पहुंच गया है.
इसलिए महंगाई और भ्रष्टाचार से जूझ रहे देश में कांग्रेस-मुक्त भारत की हवा चल रही
है. जन-सभाएं जन-भावनाओं को सहलाने, उकसाने और नए मुहावरे देने का काम करती हैं. मोदी
का कार्यक्रम क्या है? विकास और गवर्नेंस. वह विकास किस रूप में होगा, कैसे होगा और
उसके लिए किस प्रकार की नीतियाँ अपनाई जाएंगी, इसपर उन्होंने कुछ नहीं कहा. पर वे यह
बात देश में उभरते नए मध्यवर्ग और युवा जनसंख्या को ध्यान में रखकर कहते हैं. इसीलिए
उनके भाषण में बार-बार नौजवानों का जिक्र होता है.
इस बात को समझना होगा
कि हैदराबाद जैसे शहर में काफी बड़ी संख्या में दर्शक मोदी की रैली में आए तो उसकी
क्या वजह थी? और इस रैली के मार्फत मोदी ने क्या संदेश दिया? क्या वे डिफरेंशिएटर यानी
परिणाम पर असर डालने वाले नेता हैं? और क्या एक आदमी चुनाव का
नक्शा बदल सकता है? नेता होता वही है जो प्रभावशाली हो. महात्मा गांधी, जवाहर लाल
नेहरू, सरदार पटेल, इंदिरा गांधी और अटल बिहारी
वाजपेयी महत्वपूर्ण थे इसलिए सबको याद हैं. बेशक हिटलर, मुसोलिनी और स्टैलिन के नाम
भी इस सूची में हैं. और नरेन्द्र मोदी कितने भी लोकप्रिय हो जाएं, उनकी हिंसक और कट्टर छवि खत्म होने वाली नहीं है. पर वे इस छवि के बावजूद
खुद को स्वीकार्य बनाने में कामयाब हैं. कैसे? जनता की समझ है कि काम करने वाला कठोर होता
है. विस्मय इस बात पर
है कि कांग्रेस की ओर से राहुल गांधी या तो देर कर रहे हैं या लम्बी रणनीति पर काम
कर रहे हैं. कई बार लगता है कि मोदी ज़मीन से आते हैं और राहुल पाठ्य पुस्तकों के सहारे बोलते हैं. राहुल कवि हैं तो मोदी मंच के कवि हैं. वे मंच का लाभ उठाना जानते हैं. इस साल अप्रेल में सीआईआई की गोष्ठी में राहुल गांधी ने जो कहा, वह दार्शनिक-दृष्टि थी. उन्होंने एक लम्बी रणनीति पेश की और प्रकारांतर से अपने
होने के महत्व को ही खारिज किया. उन्होंने कहा कि कोई एक शख्स देश की परेशानियों का जवाब नहीं ढूंढ सकता. कटाक्ष मोदी पर था, पर बात खुद
उनपर लागू होती थी. आखिर इंदिरा गांधी भी कांग्रेस की नेता थीं. पर राहुल ने व्यक्तिवादी-केंद्रीकरण की जगह विकेंद्रित-सत्ता की बात की. यानी मेरी ज़रूरत नहीं, सिस्टम को मजबूत करने की जरूरत है. नेतृत्व का यह भी एक गुण होता
है. पर इस बात को पूरी ताकत से रेखांकित कौन करेगा? कांग्रेस के पीछे दस साल की इनकम्बैंसी है.
जनता को विकल्प चाहिए. मोदी खुद को विकल्प के रूप में पेश करते हैं और जनता से कहते
हैं, यस वी कैन, यस वी डू...
बहुत संतुलित विश्लेषण है..
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