कई सवाल एक साथ हैं? अमेरिकी सेना अगले साल अफगानिस्तान से
हटने जा रही है, पर उससे पहले ही सीरिया में अपने पैर फँसाकर क्या वह हाराकीरी करेगी? या वह शिया और सुन्नियों के बीच झगड़ा
बढ़ाकर अपनी रोटी सेकना चाहता है? क्या उसने ईरान पर दबाव बनाने
के लिए सलाफी इस्लाम के समर्थकों से हाथ मिला लिया है, जिनका गढ़ पाकिस्तान है और जिसे
सऊदी अरब से पैसा मिलता है? उधर रूस के राष्ट्रपति पुतिन ने सऊदी अरब
को धमकी दी है कि सीरिया पर हमला हुआ तो हम सऊदी अरब पर हमला बोल देंगे? यह धमकी सऊदी शाहजादे बंदर बिन सुल्तान अल-सऊद की
इस बात से नाराज होकर दी है कि रूस यदि सीरिया की पराजय को स्वीकार नहीं करेगा तो अगले
साल फरवरी में होने वाले विंटर ओलिम्पिक्स के दौरान चेचेन चरमपंथियों खूनी खेल खेलने
से रोक नहीं पाएगा। पुतिन की सऊदी शाहजादे से इसी महीने मुलाकात हुई है। पर इसका मतलब
क्या है? यह अमेरिका की लड़ाई है या सऊदी अरब की? अमेरिका इस इलाके में लोकतंत्र का संदेश लेकर आया
है तो वह सऊदी अरब के साथ मिलकर क्या कर रहा है?
रूस ने अमेरिका से भी कहा
है कि वह दमिश्क पर बल-प्रयोग की कोशिश न करे। अमेरिका के विदेश मंत्री जॉन कैरी से
फोन पर बातचीत में विदेश मंत्री सेर्गेय लवरोव ने कहा कि सैनिक हस्तक्षेप हुआ तो पश्चिम
एशिया और उत्तरी अफ्रीका के सारे भूभाग के लिए इसके खतरनाक परिणाम होंगे। वैसे ही जैसे
इराक और लीबिया में हुए। जो जानकारी मिल रही है उसके अनुसार अमेरिका ने सीरिया के खिलाफ
सशस्त्र हस्तक्षेप की योजना तैयार कर ली है। रक्षामंत्री चक हेगल राष्ट्रपति ओबामा का आदेश मिलते ही इस योजना
को क्रियान्वित करने को तैयार बैठे हैं। ब्रिटिश सैनिक भी अमेरिका
का साथ देने को तैयार हैं, पर ब्रिटिश प्रधान मंत्री डेविड कैमरन मानते हैं कि सुरक्षा
परिषद में बल-प्रयोग की अनुमति नहीं मिल पाएगी। रूस ऐसा नहीं होने देगा।
एक और इराक बनेगा सीरिया?
अमेरिका क्या पश्चिम एशिया
में एक और ‘इराक’ खड़ा करना चाहता है? सन 2003 में इराक पर हमला करते वक्त अमेरिका
ने दावा किया था कि इराक के पास रासायनिक हथियार हैं। बाद में उसे यह कबूल करना पड़ा
था कि वहाँ रासायनिक अस्त्र नहीं मिले थे। बुश जूनियर और अमेरिका की
साख पर लगा वह धब्बा अभी तक मिटा नहीं है। आगे के कदम तय करने से पहले अमेरिका को संयुक्त
राष्ट्र उन विशेषज्ञों के निष्कर्षों से रूबरू होना चाहिए जो 21 अगस्त को हुए रासायनिक अस्त्रों के कथित
उपयोग की जांच कर रहे हैं। खास बात यह है कि सीरिया के राष्ट्रपति बशर अल-असद ने अपनी
तरफ से पेशकश की है कि यह जाँच कराई जाए। उनका कहना है कि रासायनिक हथियारों का इस्तेमाल
हुआ भी है तो हमारे विरोधियों ने किया होगा। सीरिया की सरकार ने संयुक्त राष्ट्र इंस्पेक्टरों
को इस इलाके में जाने की अनुमति दी है। पर इस बात से अमेरिकी सरकार
खुश नहीं लगती। उसने पहले ही कह दिया है कि ‘जांच का समय निकल गया।’ यानी अब पता नहीं लग पाएगा कि रासायनिक हथियार थे या नहीं।
एक तरह से अमेरिका ने अपने निष्कर्ष निकाल लिए हैं। पहले से ही आयोग की रिपोर्ट पर
शंका पैदा कर दी है। दूसरी ओर उसने अपनी फौजी योजना की घोषणा करके संयुक्त राष्ट्र
के आयोग को साफ़ इशारा कर दिया है कि वह किस प्रकार की रपट चाहता है। सीरिया में संयुक्त
राष्ट्र इंस्पेक्टरों के आगमन के ठीक पहले रासायनिक अस्त्र का इस्तेमाल क्या सीरिया
ने खुद अपनी गर्दन फँसाने के लिए किया है? या उसे फँसाने के लिए किसी और ने किया है? पर लगता है कि अमेरिका ने अपने निष्कर्ष
खुद निकाल लिए हैं। पर क्या संयुक्त राष्ट्र आयोग एक-तरफा रपट देगा? ऐसा लगता नहीं। यह निष्पक्ष आयोग है, जो तथ्यों से काम लेगा अनुमानों से नहीं।
बराक ओबामा ने कहा था कि सीरिया
की हुकूमत जन संहार के अस्त्रों का उपयोग करेगी तो हम उस पर हमला बोल देंगे। और उसके
बाद रासायनिक हथियारों के इस्तेमाल की खबरें आने लगीं। क्या यह अमेरिकी कार्रवाई की
पूर्व पीठिका है? क्या अमेरिका ने सीरिया के राष्ट्रपति
बशर अल-असद को अपदस्थ करने का फैसला कर लिया है? ऐसा हुआ तो कुछ बातें साफ हो जाएंगी। बशर
अल-असद अरब अलावी तबके से हैं, जो मूल रूप में शिया हैं। सीरिया में शिया अल्पमत है।
कुल आबादी का तकरीबन 13 फीसदी। फिर भी वे अलोकप्रिय नहीं हैं। वास्तव में उनका विरोध
करने वाले धीरे-धीरे ताकतवर हुए हैं। इस ताकत को सऊदी अरब और कतर से मदद मिल रही है।
विडंबना है कि अमेरिका जिस इस्लामी आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई लड़ रहा है उसके कई सक्रिय
गुटों को वह सीरिया की सरकार के खिलाफ लड़ाई में मदद दे रहा है। पाकिस्तान में वह जिन
लोगों के खिलाफ ड्रोन भेज रहा है, उन्हीं गुटों के लोग सीरिया में बशर अल-असद की धर्म-निरपेक्ष
सरकार के खिलाफ लड़ाई लड़ रहे हैं।
सऊदी अरब की दिलचस्पी
पश्चिमी देशों से जो खबरें
छनकर आ रहीं हैं उनके अनुसार सीरिया के बशर अल-असद का तख्ता पलट करने में सऊदी अरब
की भारी दिलचस्पी है। सऊदी शाहजादे बंदर बिन सुल्तान अल-सऊद की भूमिका बढ़ती जा रही
है। वे यूरोप और अमेरिका में जन-सम्पर्क कर दुनिया को यह समझाने की कोशिश कर रहे हैं
कि सीरिया में बशर अल-असद के ईरान समर्थित शासन का खात्मा करना अमेरिका के लिए बेहद
जरूरी हो गया है। पर सऊदी अरब की यह मुहिम केवल सीरिया तक सीमित नहीं है। वह इस इलाके
में अपना प्रभाव बढ़ाना चाहता है। मिस्र में मुस्लिम ब्रदरहुड को कुचलने और वहाँ की
सेना का समर्थन करने में भी सऊदी अरब की भूमिका है। इन दिनों सऊदी अरब, मेरिका और जॉर्डन
तथा अन्य मित्र देशों के खुफिया अफसरान सीरिया के चुनींदा बागी नेताओं को तख्ता पलट
के लिए तैयार कर रहे हैं। सीरिया की बागी सेना को हथियार तथा सैनिकों का वेतन तक यहाँ
से जा रहा है। हालांकि जॉर्डन प्रत्यक्ष रूप से अपने को सीरिया के मामले में तटस्थ
घोषित कर रहा है, पर अंदरूनी तौर पर वह इनकी मुखालफत नहीं कर सकता।
सम्भव है कि अगले एक-दो दिन
में अमेरिकी वायुसेना दमिश्क पर बमबारी शुरू कर दे। पर क्या बमबारी मात्र से सीरिया
घुटने टेक देगा? अमेरिकी सरकार के भीतर एक बड़ा तबका ऐसा
भी है जो पश्चिम एशिया में अमेरिका के जरूरत से ज्यादा हस्तक्षेप को उचित नहीं समझता।
अमेरिका की कार्रवाई के साथ कई तरह के जोखिम जुड़े हैं। पर इस बार यह कार्रवाई केवल
अमेरिकी योजना नहीं है। इसके पीछे सऊदी अरब का हाथ साफ जाहिर है और पुतिन की नाराजगी
इस बात को जाहिर कर रही है। लेबनॉन के अखबार अल सफीर के अनुसार शाहजादे बंदर बिन सुल्तान
ने पुतिन को भरोसा दिलाया था कि सीरिया में रूस के नौसैनिक अड्डे को नुकसान पहुँचने
नहीं दिया जाएगा। साथ ही यह भी इशारा कि फरवरी में सोची में होने वाले विंटर ओलिम्पिक
की सुरक्षा की गारंटी भी हम लेते हैं, पर बशीर अल-असद का साथ नहीं छोड़ा तो हमारी कोई
गारंटी नहीं।
सऊदी अरब के बादशाह अब्दुल्ला
की माँ और दो बीवियाँ सीरिया के प्रभावशाली कबीले से ताल्लुक रखती हैं। वे एक अरसे
से कोशिश कर रहे हैं कि सीरिया उनके प्रभाव में रहे ईरान के प्रभाव से निकले। हाल के
वर्षों में हिज्बुल्ला ने सीरिया में अपना मजबूत आधार बनाया है। अंततः यह इस इलाके
में ईरान और सऊदी अरब के प्रभाव की लड़ाई है। सीरिया को रूस का समर्थन भी हासिल है।
इस लड़ाई में कतर भी सऊदी अरब के साथ है। हालांकि फारस की खाड़ी में कतर सऊदी अरब का
प्रतिद्वंदी भी है। अमेरिका की दिक्कत है कि सीरिया में कई बागी ग्रुप हैं, वह किसको
भविष्य के लिए तैयार करे। दूसरे कहीं इस लड़ाई के कारण उसके पैर गहरे न फँस जाएं।
मोटे तौर पर देखा जाए तो सीरिया
में हस्तक्षेप करने में अमेरिका का कोई हित नहीं है। यह कहा जा सकता है कि बशर अल-असद अमेरिकी पिट्ठू नहीं है। पर वह अमेरिका के दुश्मन
भी नहीं हैं। अलबत्ता यह जरूर है कि इस इलाके में इराक के शियों की संवेदना भी जुड़ी
है और बड़े स्तर पर ईरान का समर्थन उन्हें हासिल है। इसलिए अमेरिका सीरिया की सरकार
के खिलाफ है। खतरा यह है कि बशर अल-असद की
सरकार को हटा भी दिया गया तो वहाँ सत्ता पर आएगा कौन? देर-सबेर इस इलाके पर अल-कायदा का कब्जा
होगा। सीरिया को उसके नेता से वंचित कर देने और वहां अराजकता फैला देने से इसरायल का
भला भी नहीं होगा। और आर्थिक रूप से अमेरिका अपने लिए एक और अफगानिस्तान तैयार कर लेगा।
इराक से तो वह किसी तरह बाहर निकल आया।
आधुनिक लोकतंत्र के लिहाज
से देखें तो पश्चिम एशिया के मुस्लिम देशों में सिर्फ ईरान में ही लोकतांत्रिक व्यवस्थाएं
पूरी तरह लागू हैं। दूसरा लोकतांत्रिक देश पाकिस्तान है। इन दोनों से बेहतर स्थिति
में तुर्की है, जिस पर यूरोप का असर है। तुर्की भी उदार
सूफी परम्पराओं वाला देश है, जहाँ की राजनीतिक व्यवस्था धर्म-निरपेक्ष है। कमो-बेश
यही स्थिति सीरिया की है जहाँ समाजवादी बाथ
पार्टी का शासन है, जिसे निरंकुश कहा जा सकता है, कट्टरपंथी नहीं। संयोग है कि सीरिया
के समानांतर इन दिनों मिस्र में भी घमासान मचा है। सन 2011 की बहार-ए-अरब के साथ ही
सीरिया में भी बगावत की शुरूआत हुई थी। पर इसकी चिंगारी ट्यूनीसिया से उठी थी। विस्मय
की बात है कि लोकतांत्रिक बगावतों की बयार से सऊदी अरब अभी तक बचा हुआ है।
मगरिब से उठा जम्हूरी-तूफान
सन 2011 की अरब स्प्रिंग के कारण ट्यूनीशिया, मिस्र, यमन और
लीबिया में सत्ता परिवर्तन हो चुके हैं। सीरिया में बगावत के पीछे अरब देश हैं और अमेरिका
भी। बावजूद इसके तख्ता पलट नहीं हो पा रहा है। अगले कुछ दिनों में अमेरिकी कार्रवाई
का पता लगेगा, पर इस पूरे इलाके में बदलाव की लहर चल रही है, जो एक दिन सऊदी अरब और
खाड़ी के देशों तक पहुँचेगी। मिस्र का राष्ट्रीय आंदोलन भारतीय आंदोलन के लगभग समानांतर
ही चला था। अंग्रेज हुकूमत के अधीन वह भारत के मुकाबले काफी देर से आया और काफी कम
समय तक रहा। सन 1923 में यह संवैधानिक राजतंत्र बन गया था। उस वक्त वहाँ की वाफदा पार्टी
जनाकांक्षाओं को व्यक्त करती थी। सन 1928 में अल-इखवान अल-मुस्लिमीन यानी मुस्लिम ब्रदरहुड
की स्थापना हो गई थी। पाबंदी के बावजूद यह देश की सबसे संगठित पार्टी है। सन 1936 में
एंग्लो-इजिप्ट ट्रीटी के बाद से मिस्र लगभग स्वतंत्र देश बन गया, फिर भी वहाँ लोकतांत्रिक संस्थाओं का विकास नहीं हो पाया है।
दूसरे विश्वयुद्ध में यह इलाका लड़ाई का महत्वपूर्ण केन्द्र था। 1952-53 में फौजी बगावत
के बाद यहाँ का संवैधानिक राजतंत्र खत्म हो गया और 1953 में मिस्र गणराज्य बन गया।
पहले नासर फिर अनवर सादात और फिर हुस्नी मुबारक। तीनों नेता
लोकप्रिय रहे,
पर मिस्र में लोकतांत्रिक संस्थाओं का विकास भारतीय लोकतंत्र
की तरह नहीं हुआ। नासर के व्यक्तित्व के सहारे देश में तमाम प्रगतिशाल बदलाव हुए, पर वे अपने समर्थकों के एक छोटे ग्रुप के सहारे ही काम करते
थे। और लगभग वही व्यवस्था चलता रही। नासर ने पश्चिमी देशों के बजाय रूस का साथ दिया, जबकि अनवर सादात और हुस्नी मुबारक ने पश्चिम के साथ रिश्ते अच्छे
रखे। सन 2011 में हुस्नी मुबारक को हटाने के बाद भी मिस्र की बगावत किसी तार्किक परिणति
तक नहीं पहुँच पाई और इस वक्त वहाँ सेना का शासन है।
अरब राष्ट्रवाद
उत्तरी अफ्रीका का मगरिब और पश्चिम एशिया के देशों के बीच अनेक
असमानताएं है,
पर कुछ समानताएं भी हैं। ईरान को अलग कर दें तो अरब राष्ट्रवाद
इन्हें जोड़ता है। लीबिया,
ट्यूनीशिया, अल्जीरिया,
मिस्र, सीरिया,
बहरीन, यमन से लेकर सऊदी अरब तक विरोध प्रदर्शन हो रहे हैं। लोकतांत्रिक विरोध व्यक्त
करने के तरीके विकसित न होने और सत्ता परिवर्तन का शांतिपूर्ण तरीका पास में न होने
के कारण इस पूरे इलाके में अजब तरह का असमंजस देखने में आ रहा है। लीबिया में अमेरिकी
हस्तक्षेप से कर्नल गद्दाफी का शासन खत्म हुआ, पर वहाँ असमंजस बाकी है। इराक का अनुभव
अपेक्षाकृत बेहतर है। अफगानिस्तान में नागरिक सरकार कायम है, पर 2014 के बाद क्या यह सरकार हालात को
काबू में रख पाएगी, यह देखा जाना बाकी है। अराजकता और असमंजस के बीच इस इलाके में कबायली
संघर्ष होने और अल-कायदा का प्रभाव बढ़ने का खतरा भी है।
इन सारे देशों की पृष्ठभूमि एक जैसी नहीं है। इनकी समस्याओं
के समाधान भी अलग तरीके के हैं। फेसबुक, ब्लॉग-विमर्श और नेट-सम्पर्क से विकसित वर्च्युअल राजनीति व्यावहारिक ज़मीन पर
उतनी ताकतवर साबित नहीं हुई, जितनी अपेक्षा थी। इसकी शुरूआत ट्यूनीशिया से हुई थी। वहाँ आज भी अस्थिरता है।
इसी साल 13 मार्च की बात है, 27 साल के आदेल खेदरी ने राजधानी ट्यूनिश के बीचोबीच खुद को आग लगा ली। उसकी हरकत
गरीब और दिशाहीन देश के असहाय नौजवान की पुकार थी। इस बात का संकेत भी कि दो साल पुरानी
क्रांति का रथ जहाँ का तहाँ खड़ा है। अभी यह देश तय नहीं कर पा रहा है कि आधुनिक लोकतंत्र
की ओर चले या शरिया के शासन की ओर बढ़े। बड़ी संख्या में ट्यूनीशियावासी पारंपरिक इस्लामी
राजनीतिक तंत्र के पक्ष में हैं जिसे सऊदी अरब और कतर जैसे अमीर, रुढ़िवादी सुन्नी पड़ोसियों का समर्थन हासिल है। सबसे बड़ी राजनीतिक
पार्टी एन्नाहदा हालांकि इस्लामी रास्ते पर चलना चाहती है, पर वह कट्टरपंथी नहीं है।
वह देश के संविधान को धर्म-निरपेक्ष बनाए रखने की पक्षधर भी है। बेन अली के शासन वाले
दौर में पार्टी समर्थकों को प्रताड़ित किया जाता था, उन्हें जेल में डाला गया। पर देश में समस्याओं की कमी नहीं है। खासतौर से युवा
वर्ग बेचैन है।
मगरिब के साथ खाड़ी देशों में भी हालात बिगड़ रहे हैं। यमन में
32 साल से राज कर रहे राष्ट्रपति अली अब्दुल्ला सालेह को हटना पड़ा। यमन में विपक्ष
भी अपेक्षाकृत संगठित था। वहाँ का लोकतांत्रिक इतिहास भी बेहतर है। वहाँ सार्भौमिक
वयस्क मताधिकार है। बहरीन में भी जनांदोलन चल रहा है। यहाँ बहुसंख्यक शिया हैं पर बादशाहत
सुन्नी है। सन 1957 में ईरान ने इसे अपना 14 वाँ प्रांत घोषित कर दिया था। पर एक लम्बी
प्रक्रिया के बाद इस इलाके की जनता ने स्वतंत्र देश बने रहने का फैसला किया। सन
1971 में यह स्वतंत्र देश बन गया, पर तब से कई बार बगावतें हो चुकी हैं और विरोध किसी
न किसी रूप में जारी है। इस इलाके में गल्फ कोऑर्डिनेशन काउंसिल और सऊदी अरब का राजनैतिक
प्रभाव है। कुछ परिवारों के हाथ में ताकत है। और अमेरिका इन ताकतों के साथ है।
बहार-ए-अरब या अरब बसंत
इसकी शुरूआत सन 2011 के जनवरी में हुई थी। उत्तरी अफ्रीका के
देश ट्यूनीशिया में एक फल विक्रेता मोहम्मद बुअज़ीज़ी ने महंगाई से तंग आकर 17 दिंसबर2010
को आत्मदाह कर लिया। एक अनजान फल विक्रेता के इस क़दम ने ट्यूनीशिया ही नहीं सारे अरब
जगत में एक क्रांति की शुरूआत कर दी जिसे पहले जैसमिन क्रांति का नाम दिया गया फिर
अरब स्प्रिंग का। रोचक बात यह है कि अरब जगत में यमन से लेकर मोरक्को तक बसंत का मौसम
नहीं होता। शायद इसी वजह से जब वहाँ लोकतंत्र की बयार चली तो अरब जगत की क्रांति को
‘अरब स्प्रिंग’ का नाम दिया गया।
बुअज़ीज़ी के आत्मदाह के एक साल के भीतर तीन अरब देशों के राष्ट्राध्यक्ष को सत्ता
छोड़नी पड़ी। और कई देशों में बगावत की सुगबुगाहट है। ये घटनाएं बताती हैं कि इस्लाम
के कट्टरपंथी धड़े अब इस सच्चाई को नजरअंदाज नहीं कर सकते कि लाखों की तादाद में मुस्लिम
नौजवान जम्हूरियत की हिमायत कर रहे हैं और इसके लिए वे अहिंसक आंदोलनों का सहारा ले
रहे हैं। तानाशाह हुकूमतों से आजाद हुए अरब मुल्कों में जम्हूरियत की जड़ों के गहरे
होने पर उदार मुस्लिमों की भी निगाहें हैं। उम्मीदें बढ़ रही हैं कि हुकूमत में आने
के लिए कट्टरपंथी समूहों को भी नौकरी के मौके पैदा करने और दूसरी सेकुलर जरूरतों से
समझौता करना पड़ेगा।
2006 की अमेरिकी योजना
अमेरिकी प्रशासन
ने सन् 2006 में
सीरिया के राष्ट्रपति बशर अल-असद की सरकार को उखाड़ फेंकने की एक योजना बनाई थी। यह
बात विकीलीक्स वेबसाइट पर प्रकाशित अमेरिकी दूतावास के राजनयिक पत्राचार से ज़हिर होती
है। इस पत्राचार में कहा गया है कि सन् 2006 में, बशर
असद की स्थिति काफ़ी मज़बूत थी, लेकिन असद के नज़दीकी हलकों में कुछ दिक्कतें भी थीं।
इस राजनयिक पत्राचार में कहा गया है कि सीरिया के राष्ट्रपति के अंदरूनी घेरे के लोगों
में कुछ ऐसे लोग भी मौजूद थे जिन्हें बशर अल-असद से हमदर्दी नहीं थी। सन् 2005 में सीरियाई सत्तारूढ़ वर्ग के कुछ लोगों ने दमिश्क
में स्थित अमेरिकी दूतावास के साथ संपर्क स्थापित किया था और बशर-सरकार के पतन के बाद
सीरिया के भविष्य पर चर्चा की थी। सीरिया के सुन्नी बहुमत को इस बात का डर है कि ईरान
सीरियाई समाज को शिया समाज में बदलने के प्रयास कर सकता है। इसलिए, ईरान के साथ बशर असद के क़रीबी संबंधों का सीरिया
की वर्तमान सरकार पर दबाव बनाने के लिए इस्तेमाल कर सकता है। इसके अलावा, वाशिंगटन बशर असद के शासन को अस्थिर करने के लिए
इस बात का बहाना भी बना सकता है कि सीरियाई राष्ट्रपति द्वारा सुधारों के लिए किया
गया प्रयास विफल रहा है और सीरियाई समाज को अर्थव्यवस्था में कई गंभीर समस्याओं का
सामना करना पड़ रहा है।
सीरिया में पाकिस्तानी तालिबान!
सीरिया में रोचक बात यह है कि जो तालिबानी अफगानिस्तान और पाकिस्तान
में अमेरिका के खिलाफ लड़ रहे हैं वे सीरिया में अमेरिका का साथ दे रहे हैं। जुलाई
में खबरें मिली थीं कि पाकिस्तानी तालिबान के बड़ी संख्या में लड़ाके सीरियाई गृहयुद्ध
में राष्ट्रपति बशर अल-असद के खिलाफ लड़ने पहुँचे हैं। मीडिया में प्रकाशित खबरों के
अनुसार पाकिस्तान में तालिबान के एक कमांडर ने नाम गुप्त रखने की शर्त पर बताया कि
लड़ाकों को भेजने का फैसला अरब दोस्तों के आग्रह पर किया गया है। फ़ार्स समाचार एजेंसी
के अनुसार अमेरिका, तुर्की और सऊदी
अरब की सहमति से पाकिस्तानी तालिबान ने सीरिया में एक कमांड सेंटर बनाया है। तहरीके
तालिबान पाकिस्तान के एक कमांडर अब्दुल रशीद अब्बासी ने पाकिस्तान के दैनिक डॉन को
बताया कि एक सौ बीस से एक सौ पचास लड़ाकों पर आधारित तालिबान का एक और गुट भी सीरिया
के रास्ते में है और जल्द वहाँ मौजूद लड़ाकों की सहायता के लिए सीरिया के शहरों में
दाख़िल हो जाएगा।
पाकिस्तानी तालिबान ने बीबीसी उर्दू को बताया कि सीरिया में
जारी 'जिहाद' पर नज़र रखने के लिए वहां
अपना अड्डा बनाया है। तालिबान का कहना है कि उसने अफ़ग़ानिस्तान की लड़ाई में हिस्सा
लेने वाले अरब मूल के उन लड़ाकों की मदद के लिए सीरिया में यह अड्डा स्थापित किया है
जो हाल में सीरिया में जारी लड़ाई में हिस्सा लेने के लिए वहां गए हैं। तालिबान के एक सदस्य के अनुसार पिछले दो महीनों
के दौरान उनके संगठन से जुड़े युद्ध और आईटी क्षेत्र के क़रीब 12 विशेषज्ञ सीरिया गए
हैं।
एक तालिबानी नेता का कहना था, “पाकिस्तान के दर्ज़नों लोग सीरिया की सरकारी सेना के ख़िलाफ युद्ध में हिस्सा लेने
के इंतज़ार में हैं लेकिन फ़िलहाल बताया गया है कि वहां अभी ज़्यादा लोगों ज़रूरत नहीं
है।” पहले भी पाकिस्तान के चरमपंथी कश्मीर, मध्य एशिया और बाल्कन में
होने वाली लड़ाई में हिस्सा लेते रहे हैं। नब्बे के दशक में चरमपंथी संगठन हरकत-उल
मुजाहिदीन ने बोस्निया के गृहयुद्ध में हिस्सा लेने के लिए बड़ी तादाद में चरमपंथी
भेजे थे। इसके अलावा 1988 से 1994 तक नगोर्नो काराबाख़ के विवाद में अफ़गान और पाकिस्तानी
लड़ाकू अज़रबैजान से लड़े थे।
डॉयचे वेले वैबसाइट
की एक रपट के अनुसार, सुलेमान ने कई सालों तक अपने देश पाकिस्तान
में शियाओं को निशाना बनाया है। अब उसे सीरिया से बुलावा आया है, जहां उसने सुन्नी विद्रोहियों
का साथ देने का फैसला कर लिया है। वे, जो राष्ट्रपति बशर अल असद
के खिलाफ लड़ रहे हैं। सुलेमान इस गफलत में है कि किसी का खून बहाने के बावजूद उसे
जन्नत में जगह मिलेगी। छोटे कद का सुलेमान अपना पूरा नाम बताने के लिए तैयार नहीं है
क्योंकि उसे डर है कि कहीं अफसर उसके पीछे न पड़ जाएं। सीरिया में लड़ रहे ज्यादातर
विदेशी लड़ाके अरब के दूसरे देशों से आए हैं, जिनमें अल कायदा के सुन्नी विद्रोही हैं और सरकार के खिलाफ हैं, जबकि हिजबुल्ला के लड़ाके
भी हैं, जो शिया हैं और
सरकार का साथ दे रहे हैं। अब पाकिस्तान से लड़ाकों के जाने से वहां नई स्थिति पैदा
हो गई है। पाकिस्तान के अधिकारी इस बात से इनकार कर रहे हैं कि उनके यहां से चरमपंथी
सीरिया जा रहे हैं। लेकिन अफगानिस्तान में तैनात पाकिस्तानी खुफिया इदारे के अफसरों
का कहना है कि ऐसा हो रहा है। उन्होंने बताया कि अल कायदा और पाकिस्तानी तालिबान के
अलावा सुलेमान के लश्कर-ए-झंगवी ग्रुप से भी लड़ाके सीरिया जा रहे हैं। पाकिस्तान से
जाने वालों में उज्बेकिस्तान और तुर्कमेनिस्तान के लोग भी शामिल हैं, जो पाकिस्तान में भी अमेरिका
के खिलाफ संघर्ष में हिस्सा लेते रहे थे। अफसर के मुताबिक इन लोगों का मानना है कि
"सीरिया का युद्ध बेहद अहम मोड़" पर पहुंच गया है। इस ग्रुप में अल कायदा
के सदस्यों की खास हिस्सेदारी है, जो पाकिस्तान के
तालिबान और दूसरे लड़ाकों को बम बनाने और दूसरी आतंकवादी ट्रेनिंग देने का काम करते
हैं। सीरिया के एक मानवाधिकार कार्यकर्ता मुहम्मद कनान का कहना है कि हम इस बात की
तसदीक कर सकते हैं कि उनके इलाके में पाकिस्तानी लड़ रहे हैं लेकिन वे बहुत बड़ी संख्या
में नहीं हैं। ज्यादातर मुजाहिदीन अरब देशों के हैं, जिनमें ट्यूनीशिया, अल्जीरिया, इराक और सऊदी अरब के लड़ाके
शामिल हैं। लेकिन हाल में हमने पाकिस्तानियों और अफगानों को भी देखा है।
पाकिस्तानी तालिबान का सदस्य होने का दावा करने वाले हमजा ने
बताया कि कई लोग तो अपने परिवारों को भी साथ ले जा रहे हैं। उसके मुताबिक वे पहले समुद्री
रास्ते से ओमान की राजधानी मस्कत पहुंचते हैं और बाद में सीरिया के लिए कूच कर जाते
हैं। वहीं दूसरे पहले श्रीलंका, बांग्लादेश या
यूएई की उड़ान भरते हैं और उसके बाद सीरिया की ओर रवाना होते हैं। उसका दावा है कि
संयुक्त अरब अमीरात और बहरीन से उन्हें खूब पैसा मिल रहा है।
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