Thursday, August 1, 2013

मोदी-वीजा प्रकरण, पाखंड ही पाखंड

फेंकू, लपकू, पप्पू और चप्पू के इस दौर में संजीदा बातें मसखरी की शिकार हो रहीं हैं. चुनाव करीब आने के साथ राजनीतिक ताकतों की रस्सा-कसी बढ़ रही है. वार और पलटवार के इस दौर में नरेन्द्र मोदी के अमेरिकी वीज़ा प्रकरण ने ध्यान खींचा है. कैलीफोर्निया के फोरेंसिक डाक्यूमेंट एक्जामिनरविभाग ने साफ किया कि चिट्ठी पर दस्तखत असली हैं यानी कट एंड पेस्टनहीं हैं. कुछ सांसदों ने कहा था कि इस पर हमारे दस्तखत नहीं हैं. सीताराम येचुरी का कहना था कि कट एंड पेस्ट भी हो सकता है. इस चिट्ठी के अंतिम पन्ने पर सिर्फ दो दस्तखत हैं, बाकी 63 दस्तखत अलग पन्नों पर हैं. इसलिए संदेह अस्वाभाविक नहीं. पर दस्तखतों के असली न होने की शिकायत सिर्फ एक सांसद ने की थी. आम शिकायत यह है कि हमने तो कोई और चिट्ठी देखकर दस्तखत किए थे, इस पर नहीं. यह मामला संसद के आगामी सत्र में उठाया जा सकता है.

यह चिट्ठी राजनीति के हास्यास्पद और पाखंडी पहलू की ओर इशारा करती है. भारतीय जनता पार्टी पर देश में साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण फैलाने का आरोप है. नरेन्द्र मोदी उसके सबसे बड़े सूत्रधार हैं. इधर मीडिया कवरेज के कारण या किसी और वजह से राहुल गांधी और नरेन्द्र मोदी का संवाद मजाक का विषय बन गया है. हिन्दुत्व की चाशनी में गवर्नेंस और विकास के मोदीवाद, मोदित्व या मोदियापे के गुण-दोष पर बात करने के बजाय देश का ध्यान मसखरी पर ज्यादा है. यह चिट्ठी दो-दिन का रोमांच बनकर पृष्ठभूमि में चली जाए उससे पहले दो-एक सवाल पूछने का मन करता है. चिट्ठी का लिखा जाना और अमेरिका से नरेन्द्र मोदी के वीजा को रोकने की प्रार्थना करना क्या पाखंड नहीं है? ये कैसी राजनीति करने वाले सांसद हैंराजनीति के मैदान में क्या वे मोदी से हार मान चुके हैं? मोदी का फैसला देश की अदालत या वोटर से कराने के बजाय विदेशी सरकार के पास जाने की जरूरत क्या है? वह भी अमेरिका सरकार. मोदी को अमेरिका जाने से रोककर क्या हासिल होगा? चिट्ठी से जुड़े कुछ सासंदों ने इससे अपने को अलग किया है, पर सबने नहीं किया. यानी चिट्ठी लिखी गई थी. इसलिए इससे अलग करने या न करने के कारणों को समझने की जरूरत भी है.

माकपा नेता सीताराम येचुरी, भाकपा के एमपी अच्युतन और द्रमुक के केपी रामलिंगम ने अलग-अलग तरीके से अपने आप को इस चिट्ठी से अलग किया है. एनसीपी के संजीव नायक का कहना है कि मेरे तो दस्तखत ही नहीं हैं. यों भी उनके दस्तखत बजाय लोकसभा के राज्यसभा की सूची में हैं. डीएमके सांसद टीकेएस इलंगोवन का कहना है कि मैने श्रीलंका के तमिलों की दुर्दशा के बारे में एक पत्र के साथ नत्थी कागज पर दस्तखत किए थे. इस चिट्ठी पर नहीं. सीताराम येचुरी ने यह नहीं कहा कि इस चिट्ठी में उनके दस्तख़त फ़र्ज़ी हैं. उनसे जब पूछा गया तो उन्होंने पलट कर सवाल किया, "कहीं और किए गए दस्तख़त कहीं और भी तो लगाए जा सकते हैं?" ऐसा है तो क्या यह छोटी बात है? एक संवाददाता ने उनसे और ज्यादा जानने की कोशिश की तो उन्होंने कहा, ‘’अब आप लगाइए अपना दिमाग़. अपना भी तो दिमाग़ है ना?” बहरहाल उन्होंने इस बात को साफ नहीं किया कि किस काम के लिए उन्होंने दस्तखत किए थे. जब उनसे साफ पूछा गया कि क्या आपके दस्तख़त फ़र्ज़ी हैं, उन्होंने कहा, "ये थोड़े ही कहा मैंने."
जिस देश को येचुरी की पार्टी तमाम बुराइयों की जड़ मानती है उसके राष्ट्राध्यक्ष से ऐसा अनुरोध करना येचुरी की राजनीति के लिए असमंजस पैदा करता है. यों भी सम्प्रभुता सम्पन्न देश के जन-प्रतिनिधि ऐसा अनुरोध किसी दूसरे देश से क्यों करें? पर लगता है यह विलंबित खयाल था. पता नहीं उन्होंने पहले इस बात को सोचा था या नहीं सोचा, पर वॉशिंगटन पोस्ट में इस खबर की शुरुआत इस अंदाज में हुई थी, इस बात की कल्पना भी नहीं की जा सकती कि भारत के सांसद अपने देश के आंतरिक मामले को लेकर अमेरिका से कोई माँग करेंगे. अनेक भारतीय राजनेता, जिनके मन में अमेरिका को लेकर आज भी शीत-युद्ध के दौर का संदेह कायम है, इस बात की कल्पना भी नहीं कर सकते. ये लाइनें येचुरी जी को लक्ष्य करके लिखी गईं थी या नहीं, पर इन्होंने उन्हें हिट जरूर किया होगा. उनके लिए बेहद जरूरी था कि जल्द से जल्द अपने आप को इस चिट्ठी से अलग करते और उन्होंने ऐसा ही किया.

यह कैसी हस्ताक्षर श्रृंखला है जिसमें शामिल कुछ लोग कहते हैं कि हमने किसी दूसरे आशय की चिट्ठी पर दस्तखत किए थे. ऐसा था तो सभी ऐसा कहते. चिट्ठी बदली गई थी तो सभी के साथ धोखा हुआ होगा, सिर्फ कुछ लोगों को ऐसा क्यों लगा कि मजमून कुछ और था. पाखंड अमेरिका की ओर से भी है. क्या वजह है कि अमेरिका को नरेन्द्र मोदी धार्मिक असहिष्णुता के प्रतीक लगते हैं? पाकिस्तान में अहमदिया मुसलमानों के साथ जो सलूक हो रहा है या जिस तरह से शिया मुसलमानों की हत्याएं हो रहीं हैं, वह उसे दिखाई नहीं पड़ता? क्या अमेरिका में पाकिस्तान के राजनेताओं को वीजा नहीं दिया जाता?

पर भाजपा का अध्यक्ष अमेरिका में जाकर यह अनुरोध क्यों कर रहा है कि नरेन्द्र मोदी को वीजा दो? उनकी गैरत क्या मर गई है? नहीं देता तो न दे. यह उस देश की नीति और विचार का मसला है, उसपर छोड़िए. आप तो भारतीय राष्ट्रवाद के प्रखर-प्रचारक है, क्यों अनुरोध करते फिर रहे हैं? और निर्दलीय सांसद मुहम्मद अदीब उस अमेरिका से अपील क्यों करना चाहते हैं, जिसे दुनिया के मुसलमान मोदी से बड़ा अपराधी मानते हैं? अदीब कहते हैं कि भाजपा अध्यक्ष अमेरिका में मोदी के लिए इसलिए वीज़ा माँग रहे हैं ताकि भारत आकर बता सकें कि उनका प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार पश्चिम में भी स्वीकार्य है. जबकि उनका नेता पश्चिम में और दुनिया के बाकी हिस्सों में स्वीकार्य नहीं है. जिन कारणों से वीज़ा नहीं दिया गया था क्या वे बदल गए हैं? पर जनता की स्वीकार्यता पहले तो भारत में तय होगी अमेरिका में नहीं. नरेन्द्र मोदी की तुलना हिटलर, मुसोलिनी और पोल पोत से की जा रही है. इंदिरा गांधी से क्यों नहीं? सच यह है कि अभी मोदी को अपनी पार्टी ने ही पूरी तरह से मंजूर नहीं किया है.

इस वीजा-चिट्ठी की चर्चा उस दौर में चल रही है, जब राजनीतिक दल खुद को आरटीआई से बाहर रखने की जुगत में लगे हैं और आपराधिक मामलों में अदालतों से सजा पाए लोगों की सदस्यता खत्म करने के फैसले के खिलाफ लामबंद हो रहे हैं. सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद कलंकित राजनेताओं के सामने संकट है. सच यह है कि देशभर के 1460 जन प्रतिनिधियों ने हलफनामों में स्वीकार किया है कि उनके खिलाफ आपराधिक मामले हैं. आरोपी 162 सांसदों में से तकरीबन 76 तो ऐसे हैं जिन पर चोरी, हत्या बलात्कार और अपहरण जैसे संगीन आरोप लगे हैं. इनमें तमाम आरोप राजनीतिक कारणों से लगे हैं, यह सच है. पर अदालत और जनता के फैसले को तो हम मानेंगे. नरेन्द्र मोदी अभी तक इस कसौटी पर पाक-साफ हैं. तब उन पर ही तोहमत क्यों?


राजनेता तो जनता को सबसे बड़ी अदालत मानते हैं. नरेन्द्र मोदी को भी उसी कसौटी पर कसिए. पास या फेल. मोदी के तौर-तरीकों और विचारधारा के तमाम खोट हैं. पर वे खोट सिर्फ मोदी में नहीं हैं. चुनाव इस बात का मौका देते हैं कि व्यक्ति और संगठनों के सिद्धांत और व्यवहार पर खुलकर विचार किया जाए. इस विमर्श को व्यावहारिक बनाइए. व्यवस्था को तार्किक और न्यायपूर्ण बनाने के लिए ढोंग से अलग रखिए. राजनीति हमारा एकमात्र संबल है, पर इस रास्ते पर पाखंडों के पहाड़ हैं. यह समझने की जरूरत है कि सिद्धांत और विचार के मुखौटे कौन, किस तरह से और किस लिए लगाता है. चिट्ठी प्रकरण अच्छा उदाहरण है.

1 comment:

  1. सब पोलटिक्स हे इस हमाम ने सब नंगे है

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