हमारे देश में चुनाव पूर्व सर्वेक्षण तमाम कारणों से विश्वसनीय
नहीं होते। फिर भी वे सच के करीब होते हैं। सर्वेक्षणों के संचालक अक्सर अपने दृष्टिकोण
आरोपित करते हैं। फिर भी धीरे-धीरे यह राय बन रही है कि सन 2014 के चुनाव परिणामों
कैसे होंगे। मोटा निष्कर्ष है कि न तो यूपीए को और न एनडीए को कोई खास फायदा होगा।
शायद क्षेत्रीय दलों को कुछ लाभ हो। वह भी कितना और कैसा होगा इसे लेकर भ्रम है। इस
साल जनवरी में हुए इंडिया टुडे-नील्सन और एबीपी न्यूज-नील्सन के 'मूड ऑफ द नेशन'
सर्वे के अनुसार देश में आज चुनाव हों तो भाजपा की अगुआई वाला
एनडीए कांग्रेस के नेतृत्व में सत्तारूढ़ यूपीए-2 पर भारी पड़ेगा। फिर मई में कुछ सर्वेक्षणों
से यह बात उभर कर आई कि कांग्रेस हार जाएगी। मतलब नहीं कि भाजपा जीत जाएगी। मतलब सिर्फ
इतना है कि जनता आज के हालात से नाराज़ है।
इधर जुलाई के अंतिम सप्ताह में सीएसडीएस के सर्वेक्षण का परिणाम
है कि देश के दस सबसे महत्वपूर्ण राज्यों में से आठ में कांग्रेस संकट में है। सर्वे
के अनुसार 42 सीटों वाले पश्चिम बंगाल में कांग्रेस को 5 से 9 तक सीटें मिलेंगी। उसे
बिहार की कुल 40 सीटों में से 0-4, आंध्र में 11-15, तमिलनाडु में 1-5, गुजरात में
2-6, उत्तर प्रदेश में 11-15, मध्य प्रदेश में 2-6, राजस्थान में 10-14, महाराष्ट्र
में 17-18 और कर्नाटक में 18-22 सीटें मिल सकती हैं। इन दस राज्यों में 399 सीटें हैं।
इनमें से 164 सीटें पिछली बार कांग्रेस और उसके सहयोगियों के पास थीं। इस बार 83 से
123 के बीच मिलने की सम्भावना है। सन 2009 के चुनाव में कांग्रेस की अपनी कुल सीटें
206 थीं, जो भाजपा की 116 सीटों से 90 ज्यादा थीं। यूपीए को 262 और एनडीए को 159 सीटें
मिलीं थीं। वह निर्णायक चुनाव था। इस बार निर्णायक होगा कि नहीं कहना मुश्किल है।
कांग्रेस की बढ़त कम होने का मतलब भाजपा की बढ़त कायम होना नहीं
है। चुनाव सर्वेक्षण मान रहे हैं कि भाजपा सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरेगी, जैसा
कि 1996 में हुआ था। तब भाजपा को 161 और कांग्रेस को 140 सीटें मिलीं थीं। सन 2009
के चुनाव को छोड़ दें तो कांग्रेस को 140 के आसपास ही सीटें मिलती हैं। क्या इस बार
कांग्रेस इससे भी कम सीटों का रिकॉर्ड बनाएगी? यह सवाल
इसलिए उठता है कि यदि यह तय करना पड़ा कि कांग्रेस और भाजपा में से किस के नेतृत्व
में सरकार बनेगी तब सीटों की संख्या महत्वपूर्ण साबित होगी। ऐसा नहीं है कि दोनों की
उपेक्षा करके किसी तीसरे मोर्चे की सरकार बन जाएगी। तीसरे मोर्चे की सरकार बनी भी तो
उसे इन दोनों में से किसी एक का समर्थन लेना होगा। यानी जीत गठबंधन की होगी। सन
2009 के चुनाव ने भी गठबंधन को जिताया था, पर कांग्रेस को इतना ताकतवर बनाया था कि
वह अपने मन की कर सके। अगले चुनाव में सबसे बड़ा दल कितना ताकतवर होगा, इसके लिए हमें
इंतजार करना होगा।
पिछले दो साल से सुनाई पड़ रहा है कि यह क्षेत्रीय दलों का दौर
है। और इस उम्मीद के कारण लगभग हर प्रांत में प्रधानमंत्री पद के दो-दो तीन-तीन दावेदार
पैदा हो गए हैं। छत्रप हमारी परम्परा का शब्द है। हजारों साल का इतिहास देख लीजिए देश
की राजधानी चाहे जो रही हो और केन्द्र का अधिपति कोई भी रहा हो, महत्वपूर्ण रहे हैं
क्षेत्रीय छत्रप। आधुनिक लोकतंत्र में देश की इस परम्परा ने पार्टियों की शक्ल ली है।
सन 1951 के चुनाव में हमारे यहाँ 14 राष्ट्रीय और 39 अन्य पार्टियाँ थीं। इनमें से
11 राष्ट्रीय पार्टियों के 418, अन्य के 34 और 37 निर्दलीय प्रत्याशी जीते थे। जबकि
2009 के लोकसभा चुनाव में 363 पार्टियाँ उतरीं थीं। इनमें 7 राष्ट्रीय, 34 प्रादेशिक
और 242 पंजीकृत गैर-मान्यता प्राप्त पार्टियाँ थीं। इनमें से 38 पार्टियों से जुड़े
और 9 निर्दलीय जन प्रतिनिधि वर्तमान लोकसभा में हैं। यह छत्रपवाद हमारी ताकत है और
कमज़ोरी भी। यह हमारी सामाजिक बहुलता की देन है। इस अर्थ में कांग्रेस पार्टी एक जमाने
तक एक महागठबंधन के रूप में ही काम करती रही।
उस महागठबंधन के जवाब में गैर-कांग्रेसवाद का जन्म हुआ। इसकी
शुरूआत 1967 से हुई, जब पहली बार कई राज्यों में कांग्रेस की हार हुई थी। वैकल्पिक
पार्टी न होने के कारण तब कई पार्टियों को मिलकर संयुक्त विधायक दल बनाने पड़े। वाम
मोर्चा त्रिपुरा में इसी नाम से और केरल में वाम लोकतांत्रिक गठबंधन के नाम से प्रसिद्ध
है। पर यह मोर्चा तीन राज्यों तक सीमित है। तीसरे मोर्चे की अवधारणा नब्बे के दशक की
है जब कांग्रेस के बरक्स भाजपा बड़ी पार्टी के रूप में खड़ी हो गई और इन दोनों से अलग
एक तीसरे मोर्चे की ज़रूरत महसूस हुई। इसकी पहल में वाम मोर्चा का हाथ भी था। सन
2009 के लोकसभा चुनाव के पहले वाम मोर्चे ने बसपा, बीजद, तेदेपा, अद्रमुक, जेडीएस,
हजकां, पीएमके और एमडीएमके के साथ मिलकर संयुक्त राष्ट्रीय प्रगतिशील मोर्चा बनाया,
पर उसका परिणाम अच्छा नहीं रहा। चुनाव से पहले इस मोर्चे के पास 102 सीटें थीं जो चुनाव
के बाद 80 रह गई।
इधर ममता बनर्जी ने संघीय मोर्चे की पेशकश की थी, पर उसे खास
समर्थन नहीं मिला। वस्तुतः ज्यादातर राजनीतिक दलों की समझ कहती है कि इस बार चुनाव
के बाद गठबंधन होना चाहिए। चुनाव-पूर्व गठबंधन बनना काफी मुश्किल है। यह सही है कि
राष्ट्रीय दलों की ताकत घटी है। सीटों और वोटों दोनों मामलों में। पर यह इतनी नहीं
घटी कि उनकी जगह कोई तीसरा मोर्चा ले सके। फिर चुनाव पूर्व कोई भी गठबंधन हो, सरकार
बनाने का मौका आते ही गठबंधन टूट जाएगा। ज्यादातर पार्टियाँ सैद्धांतिक आधार पर नहीं
बनी हैं। उनके बनने में भौगोलिक और सामाजिक संरचना की भूमिका है। हम इन्हें व्यक्तियों
के नाम से जानते हैं। बसपा नहीं हम मायावती को पहचानते हैं। ममता बनर्जी, मुलायम सिंह,
चन्द्रबाबू नायडू, शरद पवार, उद्धव ठाकरे, ओम प्रकाश चौटाला, अजित सिंह, प्रकाश सिंह
बादल, एचडी देवेगौडा, जगनमोहन रेड्डी, फारूक अब्दुल्ला, महबूबा मुफ्ती, लालू यादव,
राम विलास पासवान, मौलाना बद्रुद्दीन अजमल, नवीन पटनायक, कुलदीप बिश्नोई और नीतीश कुमार
नेताओं के नाम हैं जो पार्टी के समानार्थी हैं।
कुछ क्षेत्रीय पार्टियाँ ऐसी हैं जो केवल एक नेता के असर में
नहीं हैं, पर उनके बारे में भी कहा नहीं जा सकता कि चुनाव के बाद उनकी भूमिका क्या
होगी। जैसे कि असम गण परिषद या तेलंगाना राष्ट्र समिति। सामाजिक-सांस्कृतिक और क्षेत्रीय
संरचनाओं में भी बदलाव आ रहा है। उत्तर प्रदेश में मुसलमानों की संख्या तकरीबन साढ़े
अठारह फीसदी है,जबकि असम में तकरीबन तीस फीसदी। असम विधान सभा चुनाव में पिछली बार
मौलाना बद्रुद्दीन अजमल के असम युनाइटेड डेमोक्रेटिक फ्रंट ने सफलता हासिल करके मुसलमानों
के अपने राजनीतिक संगठन का रास्ता साफ किया। पर उत्तर प्रदेश में मुसलमानों की तकरीबन
एक दर्जन पार्टियाँ खड़ी हैं। असम और केरल की तरह यूपी के मुसलमान एक ताकत नहीं हैं। सम्भव है इस चुनाव में ताकत बनें।
या किसी एक दल को ताकत बनाएं। इसी तरह बिहार में बदलते हालात में वहाँ की सामाजिक शक्तियाँ
किस रास्ते पर जाएंगी, अभी यह साफ नहीं है। राजनीतिक नेताओं की निगाहों साफ होती हैं।
वे उसी हिसाब से सैद्धांतिक आधारों को तैयार करते हैं। सम्भव है हमारे राजनीतिक सिद्धांतों
में भी कुछ फेर-बदल हों। देखते रहिए।
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