हालांकि चार अलग-अलग प्रसंग हैं, पर सूत्र एक है। लगता है हम
लोकतंत्र से भाग रहे हैं। या फिर हम अभी लोकतंत्र के लायक नहीं हैं। या लोकतंत्र हमारे
लायक नहीं है। या लोकतंत्र को हम जितना पाक-साफ समझते हैं, वह उतना नहीं हो सकता। उसकी
व्यावहारिक दिक्कतें हैं। वह जिस समाज में है, वह खुद पाक-साफ नहीं है। दो साल पहले
इन्हीं दिनों जब अन्ना हजारे का आंदोलन चल रहा था तब बार-बार यह बात कही जाती थी कि
कानून बनाने से भ्रष्टाचार नहीं खत्म नहीं होगा। इसके लिए बड़े स्तर पर सामाजिक बदलाव
की जरूरत है। सामाजिक बदलाव बाद में होगा, कानून ही नहीं बना। किसने रोका उसे? और कैसे होगा बदलाव?
सबसे पहले एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स (एडीआर) की ओर
से आपराधिक रिकॉर्ड वाले जनप्रतिनिधियों पर किए गए सर्वे की कहानी सुनें। यह सर्वे
भी नहीं है, बल्कि इलेक्शन वॉच के दस साल के आँकड़ों का विश्लेषण है। ये आँकड़े जन
प्रतिनिधियों के हलफनामों से निकाले गए हैं। पहला निष्कर्ष है कि जिसका आपराधिक रिकॉर्ड
जितना बड़ा है उनकी संपत्ति भी उतनी ज्यादा है। यह भी कि साफ-सुथरे प्रत्याशियों के
जीतने की सम्भावना 12 प्रतिशत है और आपराधिक पृष्ठभूमि वालों की सम्भावना 23 प्र.श.।
एक रोचक तथ्य यह है कि आपराधिक पष्ठभूमि के जन प्रतिनिधियों में से 74 फीसदी को दूसरी
बार भी टिकट मिलता है। इस सर्वे में दुबारा चुनाव लड़ने वाले 4181 प्रत्याशियों की
सम्पदा का विश्लेषण किया गया है। इन प्रत्याशियों की औसत सम्पदा 1.74 करोड़ से बढ़कर
पाँच साल में 4.08 करोड़ रु हो गई। इसे सामान्य बात मान लेते हैं, पर इनमें से
1615 की सम्पदा 200 प्रतिशत से ज्यादा, 684 की 500 प्रतिशत से ज्यादा, 420 की 800 प्रतिशत
से ज्यादा और 317 की 1000 प्रतिशत से ज्यादा बढ़ी। इनका कारोबार चाहे जो भी रहा हो,
एक हजार फीसदी से ज्यादा आमदनी बढ़ने का मतलब आप समझ सकते हैं।
इस सर्वे के तमाम तथ्यों को इस जगह पर रखना सम्भव नहीं है। अलबत्ता
यह जरूर बताया जाना चाहिए कि यह जानकारी चुनाव आयोग की उस पहल के कारण सामने आ सकी,
जिसे राजनीतिक दलों के विरोध का सामना करना पड़ा था। और लगभग उसी तरह के दो और मामले
देश के सामने सामने आ गए हैं। नब्बे के दशक में अनेक नागरिक अधिकार संगठनों ने राजनीति
के अपराधीकरण के खिलाफ आंदोलन चलाया। उन्होंने पार्टियों पर इस बात के लिए ज़ोर डालना
शुरू किया कि वे ऐसे व्यक्तियों को टिकट न दें जिनके खिलाफ आपराधिक मामले हैं। एडीआर
ने इस अधिकार को हासिल करने के लिए दिल्ली हाईकोर्ट में याचिका दायर की। हाईकोर्ट ने
जब इस अधिकार के पक्ष में फैसला सुनाया तो सरकार सुप्रीम कोर्ट गई। सुप्रीम कोर्ट ने
दो मई 2002 को फैसला सुनाया कि वोटर को प्रत्याशियों की आपराधिक और वित्तीय पृष्ठभूमि
जानने का अधिकार है। पर सरकार इस बात को स्वीकार करने को तैयार नहीं थी। तभी चुनाव
आयोग ने 28 जून को अदालत के आदेश का पालन करते हुए अधिसूचना ज़ारी कर दी, जिसमें प्रत्याशी
को अपने खिलाफ चल रहे आपराधिक मामलों के अलावा अपनी संपत्ति और आय के बारे में जानकारी
देना ज़रूरी कर दिया गया। पर सरकार ने अध्यादेश जारी करके चुनाव आयोग की पहल को निरर्थक
कर दिया। बाद में संसद ने इस अध्यादेश के स्थान पर जन प्रतिनिधित्व (तीसरा संशोधन)
अधिनियम 2002 पास कर दिया,
जिससे सरकार और समूची राजनीति की मंशा ज़ाहिर हो गई। इस संशोधन
के माध्यम से जनप्रतिनिधित्व कानून में 33-बी को जोड़ दिया गया, जो वोटर के जानकारी पाने के अधिकार को सीमित करता था। अंततः
सुप्रीम कोर्ट ने 13 मार्च 2003 के ऐतिहासिक फैसले में वोटरों को प्रत्याशी के बारे
में जानकारी पाने का मौलिक अधिकार दिया और चुनाव आयोग की अधिसूचना को वैधता प्रदान
की। उस अधिकार का परिणाम है कि आप राजनीति के बारे में इस सर्वे की रपट को पढ़ पा रहे
हैं।
पारदर्शिता की दरकार एक परत से दूसरी परत पर जाती है। अभी एक
राजनेता ने बयान दिया कि राज्यसभा की सदस्यता 100 करोड़ रुपए में मिलती है। कौन देता
है यह सदस्यता? जून के महीने में केन्द्रीय सूचना आयोग ने छह
राष्ट्रीय दलों को आरटीआई के दायरे में लाने का आदेश दिया। मुख्य सूचना आयुक्त ने कहा
चूंकि सभी छह राष्ट्रीय दल सरकार से सस्ती जमीन सहित कई अन्य सुविधाएं प्राप्त करते
हैं,
इसलिए ये सार्वजनिक प्राधिकार हैं। इस फैसले पर सभी दलों ने
आशंकाएं जाहिर कीं। और अब कैबिनेट ने सूचना के अधिकार कानून को संशोधित करने का फैसला
कर लिया है। एक तरीके से सन 2002 जैसे हालात फिर से पैदा हो गए हैं।
उधर सुप्रीम कोर्ट ने फैसला किया है कि अदालतों से दो या दो
साल से ज्यादा की सजा पाए जन-प्रतिनिधियों की सदस्यता तत्काल समाप्त हो जाएगी, भले
ही वे अगली अदालत में अपील करें। राजनीतिक दलों की प्रतिक्रिया से उनकी कथनी और करनी
का फर्क दिखाई पड़ता है। संसद के मॉनसून सत्र के पहले हुई सर्वदलीय बैठक में एक स्वर
से सभी राजनीतिक दलों ने अदालती आदेश को संसद की सर्वोच्चता के सिद्धांत के लिए चुनौती
घोषित कर दिया। हो सकता है कि इसी सत्र में इस फैसले को बदलने वाला विधेयक पास हो जाए।
जिस प्रकार सांसदों के वेतन भत्तों का प्रस्ताव तेजी से पास होता है, उसी प्रकार ऐसे
विधेयक पास होने में देर नहीं लगती। इसके विपरीत लोकपाल, महिला आरक्षण और निर्धारित
अवधि में जनसेवा सुनिश्चित करने वाले विधेयक पास नहीं हो पाते।
भारतीय संविधान में संसद उस प्रकार सर्वोच्च नहीं है जैसे ब्रिटेन
में है, जहाँ से हमने संसदीय प्रणाली को ग्रहण किया है। हमारे देश में संविधान सर्वोच्च
है। और उसकी व्याख्या करने का काम उच्चतम न्यायालय का है। संसद को अनुच्छेद 368 के
अंतर्गत संविधान के संशोधन का अधिकार है, पर उच्चतम न्यायालय के 13 सदस्यीय संविधान
पीठ ने व्यवस्था दी थी कि संसद संविधान के मौलिक ढाँचे में बदलाव नहीं कर सकती। इसी
आधार पर इमर्जेंसी के दौरान लाया गया 42 वाँ संविधान संशोधन रद्द हुआ था।
दुर्गाशक्ति नागपाल के मामले को इससे जोड़ कर देखें। एक जमाने
तक राजनीति में अपराधियों का दिखाई पड़ना हड़कम्प मचा देता था। और अब इसमें शान है।
दुर्गाशक्ति को निलम्बित करने का कारण सरकार कुछ और बताती है, पर जिस नेता पर आरोप
है वह खुद कहता है कि मैने सस्पेंड कराया। यह किसी एक पार्टी की कहानी नहीं है। यह
भी सच है कि राजनीति में झूठे आरोप लगते हैं। पर जनता को भी नजर आता है कि झूठ और सच
क्या है। इन हालात को बदलना आसान नहीं, क्योंकि जनमत का जबाव एक सीमा तक ही काम कर
पाता है। जन-जागृति और शिक्षा के सहारे इसका विस्तार होगा, जिसमें समय लगेगा।
हरिभूमि में प्रकाशित
यह सब देख कर भगवान पर विश्वास आ जाना स्वाभाविक है, देश फिर भी उसी के सहारे ही चल रहा है।
ReplyDeleteलेकिन सर घूम-फिर कर बात तो जनता पर ही आजाती है जो 'ऐसे माननीयों' को संसद/विधानसभाओं के योग्य बनती है। जन को जागरूक होने में तो 500 साल भी कम पड़ जाएं।
ReplyDeleteअमित क्या ापको नहीं लगता कि पिछले पाँच साल में जनता की जागरूकता में बदलाव आया है। आखिर सरकारें और सरकारी मशीनरी दबाव में है। हाँ, जनता का दबाव अराजक और अनियंत्रित न हो इसे देखने की जरूरत भी है।
ReplyDeleteहम छद्म लोकतंत्र में जी रहे हैं जो केवल लोकतंत्र का आभास ही देता है !!
ReplyDeleteपैदाइश के दिन से मौत की जद में हैं
ReplyDeleteइस मक्त्ल में कौन हमें ले आया है
सही है . लोकतंत्र मे भ्रष्टाचार का कारण सामाजिक प्रवत्तियाँ और तरह तरह के चुनाव है कितना धन अपव्यय
ReplyDeleteहो रहा है इसका आकलन नहीं हो सकता है जनप्रतिनिधियो के चुनाव लड़ने हेतु धन खर्च करने की सीमा
जितनी अधिक होगी शायद यह और बढे ,हमे चुनाव सुधारो पर ध्यान देना चाहिये ।
चुनाव सुधार पर हिन्दुस्तान दिल्ली दिनाँक २१ जनवरी १९९६ मे प्रकाशित मेरा लेख "थकी शिराओं मे अवरूद्ध लोकतँत्र " देखें।चुनाव सुधारो की दिशा लोकत्रातिक हो।
सही है . लोकतंत्र मे भ्रष्टाचार का कारण सामाजिक प्रवत्तियाँ और तरह तरह के चुनाव है कितना धन अपव्यय
ReplyDeleteहो रहा है इसका आकलन नहीं हो सकता है जनप्रतिनिधियो के चुनाव लड़ने हेतु धन खर्च करने की सीमा
जितनी अधिक होगी शायद यह और बढे ,हमे चुनाव सुधारो पर ध्यान देना चाहिये ।