नवभारत टाइम्स के लखनऊ संस्करण में मेरी दिलचस्पी इस कारण भी है, क्योंकि यह देश के सबसे बड़े प्रकाशन समूह का हिन्दी अखबार है। एक समय तक दिल्ली में टाइम्स ऑफ इंडिया से भी ज्यादा प्रसारित होता था। नब्बे के दशक में इसकी कीमत घटाकर एक रुपया कर देने के बाद दिल्ली में अंग्रेजी अखबार पढ़ने वाले पाठक बड़ी संख्या में इसकी ओर आकृष्ट हुए। उसके बाद इसके मनोरंजन परिशिष्टों ने युवा पीढ़ी का ध्यान खींचा। मुझे याद है सन 1998 में मेरी एकबार अमर उजाला के तत्कालीन प्रमुख अतुल माहेश्वरी से काफी लम्बी मुलाकात हुई। वे समीर जैन की व्यावसायिक समझ की बेहद प्रशंसा कर रहे थे।
इसके कुछ दिन पहले मुझे एक मौका मेरे मित्रों की मदद से टाइम्स हाउस के सीनियर अधिकारियों से मिलने का लगा। मुझे मेरे मित्रों ने सुझाव दिया कि आप केवल एक बात कहिएगा कि यूथ ही मेरे लिए सब कुछ है। यानी मूल मंत्र युवा है। आज के हिन्दी अखबार देखें तो सबका मूल मंत्र युवा है। पर वे यह युवा-मंत्र कर्म कांड के रूप में पूरा कर रहे हैं। वस्तुतः काफी बड़ी संख्या में युवा मैनेजर होने के बावजूद हिन्दी युवा की समझ को वे इतना ही परिष्कृत कर पाए कि अखबार के पन्नों की ब्रैंडिंग करने में गाजियाबाद समाचार लिखने के बजाय Ghaziabad News लिखने लगे। दूसरा उन्होंने टेब्लायड पत्रकारिता का सहारा लिया। भारत में ही नहीं दुनिया भर में टेब्लॉयड अखबार ब्रॉडशीट अखबारों के चौगुने से छह गुने प्रसारित होते हैं। पर वे साखदार नहीं होते। हमारे यहाँ ब्रॉडशीट अखबारों ने ही टेब्लॉयड का बाना पहन लिया।
पर ऐसा एकाध अंग्रेजी अखबार को छोड़ हिन्दी अखबारों में ही ज्यादा हुआ। टाइम्स ऑफ इंडिया का Advertorial, Entertainment Promotional Feature के नाम से मनोरंजन सप्लीमेंट लगता है, पर मुख्य अखबार पर टेब्लॉयड हावी नहीं है। टाइम्स ऑफ इंडिया और नवभारत टाइम्स की तुलना करें तो आप पाएंगे कि नवभारत टाइम्स ज्यादा रंगीन, शोख और चटख है। इस शोखी के कारण खबरों और विचारों की संजीदगी दब जाती है। फिर जान-बूझकर ऐसे विषय उठाए जाते हैं, जिनमें व्यवस्था को लेकर ग्लानिभाव न हो। इसे पॉजीटिव होना कहा जाता है। वास्तव में समाज को आगे बढ़ाने के लिए नकारात्मक बातों से ज्यादा इच्छा नई जमीन तोड़ने की होनी चाहिए। पर इस समाज में एक पायदान से नीचे के लोग नहीं हैं। इसका कारण क्या है? अखबार के अलावा वह समाज भी है जो अखबार को संरक्षण देता है।
नवभारत टाइम्स एक खास प्रकार की भाषा पर जोर देता है। भला इसकी जरूरत क्या है? बेशक अंग्रेजी के तमाम शब्दों का इस्तेमाल हम करते हैं। पर NBT के प्रयोग में कृत्रिमता है। वह सहज भाषा नहीं है। अखबार की भाषा आम-फहम होनी भी चाहिए। पर आम-फहम और भाषा के काफी शब्द अपने भी होते हैं। पता नहीं समीर जैन अपनी कार को निकालने के लिए क्या बोलते हैं, पर मैने आमतौर पर बड़े-बड़े अंग्रेजीदांओं को गाड़ी निकालो, गाड़ी लाओ, गाड़ी खड़ी है वगैरह बोलते देखा है। वीइकल निकालो, वीइकल खड़ी है बोलते नहीं देखा। जबरन संस्कृतनिष्ठ हिन्दी गलत है तो यह जबरन इंगी भी गलत है। और गलत यह बताने की कोशिश है कि यंगिस्तान ऐसा ही सोचता है। वजह यह है कि आप यंगिस्तान के साथ जीते ही नहीं। जिएंगे तो उसकी भाषा में बोलेंगे, भले ही वह रोमन हिन्दी हो।
पर इन सब मसलों पर कोई कड़ा रुख अपनाने के बजाय लखनऊ में NBT के प्रति पाठक के रुझान को देखना होगा। दिल्ली और लखनऊ में अंतर है। अखबार को बाजार में बिकना है। पाठक कहेगा तो वह खुद को बदलेगा। दिक्कत यह है कि हिन्दी का पाठक अपनी बात को कहता नहीं। या उसके साहस का निर्माण हो रहा है। बहरहाल 5 अगस्त को मैने फेसबुक पर पाठकों की प्रतिक्रिया जानने की कोशिश की। जो प्रतिक्रियाएं मिलीं वे नीचे हैं। उसे पहले हरेप्रकाश उपाध्याय के फेसबुक स्टेटस और उसपर मिले जवाबों को भी देऩा उचित होगा, जो इस प्रकार हैः-
पता नहीं लोग क्या खाकर लखनऊ में अखबार निकालते हैं, खुदा कसम लाजवाब निकालते हैं... —watching Kaun Banega Crorepati.
फेसबुक की सारी बातें ब्लॉग पर लाना सम्भव नहीं है, पर वहाँ फौरी बहस अच्छी होती है, पर जल्द भुला दी जाती है। उम्मीद है इस विषय के उपयोगी पक्षों पर सार्थक चर्चा किसी न किसी स्तर पर होती रहेगी।
पूरी तरह सहमत हूँ आपसे!
ReplyDeleteहिंदी अखबार में मौलिक सामग्री भी नहीं होती, और न ही वे हिंदी लेखकों को ढंग का पैसा देते हैं.
ReplyDeleteदो-एक वर्ष पहले दैनिक भास्कर के साथ मेरा करार हुआ था नित्य तकनॉलाज़ी पर लिखने का. दो-तीन महीने सिलसिला चला और फिर मामला लेखों के भुगतान पर अटक गया. और जो करार हुआ था, उसका एक तिहाई रो-धोकर भुगतान किया गया. वो भी काफी हो-हल्ला मचाने के बाद!
तब से हिंदी-अखबारों के लिए लिखने के लिए मैंने तौबा कर ली है!
लेखकों को पारिश्रमिक देने या हिन्दी में मौलिक रूप से लिखवाने और हिन्दी के अपने विशेषज्ञों को तैयार करने की जिम्मेदारी भी हिन्दी अखबारों की थी। ऐसा हो नहीं पाया, क्योंकि जिन्हें फैसले करने थे उन्हें इस बात का महत्व समझ में नहीं आया। इसके विपरीत अंग्रेजी-अखबार में काम करने वाले पत्रकार और लेखक का पारिश्रमिक तो ज्यादा होता ही है, उसका सम्मान भी ज्यादा होता। हिन्दी के लेखक को लेख लिखने के लिए ज्यादा मेहनत करनी होती है और पुरस्कार मिलता नहीं। यही बात पत्रकारों पर लागू होती है। हिन्दी के पत्रकार को निरीह बनाने की कोशिश की जाती है। इसका परिणाम गुणवत्ता पर दिखाई पड़ता है।
Deletehindi akhbaro ko nai soch se chalane ki jaroorat hai aaj unme ati kshetriyta hai vishv vyapi samacharo ka abhav hai samikshatmak samacharo ki kami hai or lekhan mai naye lekhko ko tarjih nahi di ja rahi hai yane branded log hi likhe yesa prayas hai tab akhbar kaise chalenge ?
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