Sunday, August 18, 2013

सदाचार भी इसी राजनीति में है

जोनाथन स्विफ्ट ने लिखा है, 'दुनिया जिसे राजनीति के नाम से जानती है वह केवल भ्रष्टाचार है और कुछ नहीं।' सत्रहवीं-अठारहवीं सदी के इंग्लैंड में राजनीतिक व्यवस्था बन ही रही थी। पत्रकारिता जन्म ले रही थी। उन दिनों विमर्श पैम्फलेट्स के मार्फत होता था। आपने गुलीवर की यात्राएं पढ़ी होंगी, उसके लेखक जोनाथन स्विफ्ट। स्विफ्ट अपने दौर के श्रेष्ठ पैम्फलेटीयर थे। वह भी नई विधा थी। स्विफ्ट ने उस दौर की दोनों महत्वपूर्ण पार्टियों टोरी और ह्विग के लिए पर्चे लिखे थे। वे श्रेष्ठ व्यंग्य लेखक थे। अखबारों में सम्पादकीय लेखन के सूत्रधार थे, बल्कि पहले सम्पादकीय लेखक थे। तकरीबन तीन सौ साल पहले उनकी राजनीति के बारे में ऐसी राय थी।

सन 2009 की बात है किसी आपराधिक मामले में गिरफ्तार हुए प्रेम प्रकाश सिंह उर्फ मुन्ना बजरंगी का वक्तव्य अखबारों में प्रकाशित हुआ। उनका कहना था, मैं राजनीति में आना चाहता हूँ। उनकी माँ को विश्वास था कि बेटा राजनीति में आकर मंत्री बनेगा। देश का कानून उन्हें अनुमति दे तो उन्हें चुनाव ज़रूर लड़ना चाहिए। जौनपुर या उसके आसपास के इलाके से वे जीत भी सकते हैं। सवाल है वे राजनीति में क्यों आना चाहते थे? लोकतांत्रिक दुनिया में एक नया कीर्तिमान स्थापित करने वाले मधु कोड़ा अपनी पार्टी के अकेले विधायक थे, फिर भी मुख्यमंत्री बने। उन्होंने लोकतंत्र को क्या दिया?

कुछ साल पहले की बात है फिल्म अभिनेत्री शिल्पा शेट्टी दिल्ली आईं थीं। किसी अखबार में उनका इंटरव्यू छपा था, जिसमें शिल्पा ने कहा, मेरी राजनीति में दिलचस्पी नहीं। मुझे राजनीति पसंद नहीं। अक्सर हमारे बीच काफी लोग जब अपने को पाक-साफ साबित करना चाहते हैं तो कहते हैं कि मुझे राजनीति पसंद नहीं। क्या राजनीति अपशब्द है?  क्या उसके बगैर हम काम कर सकते हैं? क्या किसी राजव्यवस्था के बगैर हमारा काम हो सकता है? राजव्यवस्था ज़रूरी है तो क्या वह बगैर राजनीति के सम्भव है? क्या कारण है कि हम राजनीति को गालियाँ देते रहते हैं? और क्या कारण है कि हम उसे अनीति का पर्याय मान बैठे हैं? वैश्विक राजनीतिक दर्शन है कि अंतर्विरोधी हितों के बीच बगैर किसी प्रकार के दबाव के संगति बैठाना या निपटारा कराना राजनीति है। और ऐसा निपटारा कराने के लिए लोकतांत्रिक प्रक्रिया ही एकमात्र सफल पद्धति है।

राजनीति के हिस्से दुनिया का सबसे मुश्किल काम है विपरीत हितों के बीच सामंजस्य बैठाना, वह भी लोकतांत्रिक तरीके से। इस लिहाज से राजनीति की हम सबके जीवन में सबसे महत्वपूर्ण भूमिका है। पर क्या वह यह काम कर रही है? गौर से देखें तो जवाब मिलेगा हाँ। पर उसके पहले उन विपरीत हितों की ओर नज़र डालें जिनके बीच संगति बैठाने का काम उसे करना है। अलग-अलग समाजों की राजनीति भी अलग-अलग है। हम अपनी राजनीति को उसमें शामिल समाज और इतिहास से काट कर नहीं देख सकते। उसकी खासियत है कि वह समाज से बनती है और समाज को बनाती भी है।

चुनावी लोकतंत्र को लेकर हमारे समाज में हमेशा विस्मय, अचम्भे और अविश्वास का भाव रहा है। इकबाल का इकबाल की मशहूर पंक्तियाँ हैः-
इस राज़ को एक मर्दे फिरंगी ने किया फाश/हरचंद कि दाना इसे खोला नहीं करते/जम्हूरियत एक तर्जे हुकूमत है कि जिसमें/बंदों को गिना करते हैं तोला नहीं करते

परम्परा से हम सबको बराबर नहीं मानते हैं। हमें लगता है कि हमारे बीच कुछ लोग कम समझदार हैं, जिन्हें समझा-बुझाकर लोग सत्ता के सिंहासन पर बैठ जाएंगे। वास्तव में हुआ भी ऐसा ही है। इसीलिए लोगों यानी वोटरों को खुश करने की कला का नाम राजनीति हो गया है। राजनीति इस देश का सबसे बड़ा बिजनेस भी है। लाखों करोड़ का कारोबार है, जिसका हिसाब-किताब अंधेरे बंद कमरों में होता है।

हाल में देश के मुख्य सूचना आयुक्त ने देश के छह राजनीतिक दलों को नागरिक के जानकारी पाने के अधिकार के दायरे में रखे जाने का फैसला किया तो राजनीतिक दलों को पसंद नहीं आया। उनका कहना है कि राजनीतिक दल जनता के प्रति सीधे जिम्मेदार होते हैं। उन्हें किसी सरकारी व्यवस्था के अधीन लाना अलोकतांत्रिक होगा। सैद्धांतिक रूप से वे सही कह रहे हैं, पर व्यावहारिक रूप से वे जनता के प्रति जिम्मेदार नहीं हैं। जिम्मेदारी एक नाटक है, वोटर को बेवकूफ बनाने का। प्रश्न व्यापक पारदर्शिता और जिम्मेदारी का है। देश के तमाम राजनीतिक दल परचूनी की दुकान की तरह चलते हैं। क्या यह बात ठीक नहीं है?  क्या यह सच नहीं है कि देश की आबादी का काफी बड़ा हिस्सा गरीबी और बदहाली से घिरा है। उसकी जानकारी का स्तर वह है ही नहीं कि वह राजनीतिक दलों की बहियों को पढ़ पए। वैसे ही जैसे फिल्म मदर इंडिया के सुक्खी लाला के चोपड़े गाँव वाले नहीं पढ़ पाते थे।

दुनिया के 70 से ज्यादा देशों में नागरिकों को जानकारी पाने का अधिकार है। इनमें से 19 देशों में इस अधिकार का दायरा निजी संस्थाओं तक है। अमेरिका का फिज़ीशियंस पेमेंट सनशाइन एक्ट इसी साल लागू हुआ है। इसका उद्देश्य स्वास्थ्य सेवा के क्षेत्र में पारदर्शिता लाना है। दवा बनाने वाली कम्पनियाँ अपनी दवाओं की बिक्री बढ़ाने के लिए डॉक्टरों की मदद लेती है। अमेरिकी कानूनी व्यवस्था के तहत अब 15 कम्पनियों ने इस जानकारी को सार्वजनिक करना शुरू किया है। स्वास्थ्य सेवाएं सेंटर्स फॉर मेडिकेयर और मेडिकेड सर्विसेज़ को जानकारियाँ देंगी, जो सितम्बर 2014 से शुरू होने वाली वैबसाइट पर इसे सार्वजनिक रूप से डाल देंगी। ऐसी सेवाएं पारदर्शी माहौल बनाती हैं, जिससे नागरिक का विश्वास बढ़ता है। भारत जैसे देश में राजनीति से ज्यादा सार्वजनिक और क्या हो सकता है? अपने  लोकतांत्रिक कर्तव्यों को निभाने के लिए हमें सूचना की मुक्ति चाहिए। यह सूचना बड़ी पूँजी या कॉरपोरेट हाउसों की गिरफ्त में कैद रहेगी तो इससे नागरिक हितों को चोट पहुँचेगी। राइट टु इनफॉरमेशनही नहीं हमें फ्रीडम ऑफ इनफॉरमेशनचाहिए। सूचना का अधिकार हमें सरकारी सूचना का अधिकार देता है। पर हमें सार्वजनिक महत्व की हर सूचना की ज़रूरत है। पूँजी को मुक्त विचरण की अनुमति इस आधार पर मिली है कि उसकी व्यक्तिगत स्वतंत्रता से संगति है। उसकी आड़ में मोनोपली, कसीनो या क्रोनी व्यवस्था अनुचित है।

सरकार की तमाम नीतियों को राजनीतिक दल परोक्ष रूप से प्रभावित करते हैं। वे सत्ता में हिस्सेदारी चाहते हैं तो उन्हें पारदर्शिता को भी अपनाना चाहिए। अभी तक का अनुभव है कि पार्टियों ने राजनीतिक पारदर्शिता का स्वागत नहीं किया। उदाहरण के लिए हलफनामे की व्यवस्था को देखें। लम्बे समय से प्रत्याशियों की आपराधिक और वित्तीय पृष्ठभूमि की जानकारी उजागर करने की माँग होती रही है। जून 2002 में मुख्य चुनाव आयुक्त ने अधिसूचना जारी कर चुनाव लड़ने वाले प्रत्याशियों के लिए अपनी आपराधिक और वित्तीय जानकारियाँ देना अनिवार्य किया तो लगभग सभी पार्टियों ने इसका विरोध किया। जबकि यह पहल सुप्रीम कोर्ट की मंशा के अनुरूप थी। उधर सरकार ने 16 अगस्त को सुप्रीम कोर्ट के फैसले के विपरीत एक अध्यादेश ज़ारी कर दिया। और संसद ने इस अध्यादेश के स्थान पर जन प्रतिनिधित्व(तीसरा संशोधन) अधिनियम 2002 पास कर दिया, जिससे सरकार और समूची राजनीति की मंशा ज़ाहिर हो गई। इस संशोधन के मार्फत जनप्रतिनिधित्व कानून में 33बी को जोड़ा गया, जो वोटर के जानकारी पाने के अधिकार को सीमित करता था। आखिरकार सुप्रीम कोर्ट ने 13 मार्च 2003 के अपने ऐतिहासिक फैसले में वोटर को प्रत्याशी के बारे में जानकारी पाने का मौलिक अधिकार दिया और चुनाव आयोग की अधिसूचना को वैधता प्रदान की।

लोकसभा के एक चुनाव में 8000 से अधिक उम्मीदवार होते हैं। इस तरह करीब 20,000 करोड़ रुपए की राशि प्रचार पर खर्च होती है। आधिकारिक तौर पर निर्वाचन आयोग के समक्ष 2009 में दिए गए खर्च के ब्योरे से तो यही लगता है कि इनमें से किसी ने 25 लाख रुपए की तय सीमा पार नहीं की। ज्यादातर प्रत्याशियों का आधिकारिक ब्योरा 25 लाख रुपए 10-12 लाख तक भी नहीं पहुंचता। यानी चुनाव खर्च छिपाया जाता है। जिस काम की शुरूआत ही छद्म से हो वह आगे जाकर कैसा होगा?

घोटालों और वित्तीय अनियमितताओं के मूल में जाएं तो इनका रिश्ता देश की चुनाव व्यवस्था से जुड़ेगा। अधिकतर रकम राजनीति से जुड़े लोगों तक जाती है। चुनाव-खर्च दुनिया भर में लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं के सामने चुनौती है। यह रकम काले धन के रूप में होती है, जो अर्थव्यवस्था के लिए खतरनाक है। इसके कारण गलत प्रशासनिक निर्णय होते हैं। तमाम दोषों के मूल में यह बैठी है। लोकतंत्र का मतलब चुनाव लड़ने वाली व्यवस्था मात्र नहीं है। चुनाव की पद्धति को दुरुस्त करना भी उसमें निहित है। इसके लिए दरवाज़े खोलने होंगे, ताकि रोशनी भीतर आए। यानी लोकतांत्रिक व्यवस्था को भी अभी और लोकतांत्रिक होना है। यह काम भी राजनीति का है। सच यह है कि कुछ मामलों में राजनीति ने आपस में गोलबंदी कर ली है।

दूर से हमें लगता है कि इन दलों के बीच सैद्धांतिक मतभेद हैं। वास्तव में ये मतभेद चुनाव के वक्त प्रचार के काम आते हैं। जिस वक्त संसद सदस्यों की सुविधाओं का सवाल आता है, विधेयक मिनटों में सर्वानुमति से पास हो जाता है। वहीं जिस बिल को पास नहीं कराना होता है, वह कभी पास नहीं होता। जैसे महिला आरक्षण विधेयक। या लोकपाल बिल। जनता की शिकायतों को समयबद्ध तरीके से सुनवाई करने वाली व्यवस्था। हर सरकार गरीब नवाज होती है। अपने आप को गरीबों की हमदर्द साबित करने को आतुर सरकारें एक अर्से से लोकलुभावन घोषणाएं करती रही हैं। पर क्या वास्तव में इन घोषणाओं का फायदा जनता को मिलता है? वास्तविकता पर फरेबों की चादर डालने का काम राजनीति करता है। व्यवस्था के भ्रष्टाचार में हिस्सेदारी करती है और फिर उसी भ्रष्टाचार को दूर करने के लिए वोट माँगने आती है। जनता का सामने कोई विकल्प नहीं। इस विषद चक्र से बाहर का व्यक्ति इसके मुकाबले आपके पास वोट माँगने आएगा नहीं। और आया तो आप उसे वोट नहीं देंगे, क्योंकि आपकी नज़र से वह जीत नहीं पाएगा।

राजनीति की यह माया हमारी समाज व्यवस्था जैसी जटिल है। बड़े स्तर पर राजनेता को समझने के लिए आप अपने आसपास के राजनेता को जानने की कोशिश करें। कौन है आपके आसपास का राजनेता? वह व्यक्ति जो इलाके का संदेशवाहक है। वह बताता है कि नवाज शरीफ क्या कह रहा है। मनमोहन सिंह क्या चाहते हैं। आडवाणी ने मोहन भागवत से क्या कहा। और नीतीश कुमार अब क्या करेंगे। एमडी साहब से लेकर डीएम साहब तक के घर तक उसकी पहुँच है। नामकर्म से लेकर मुंडन संस्कार तक वह आपके घर आता है। सुबह छह से लेकर रात के बारह बजे तक वह इलाके में मौजूद रहता है। मोहल्ले के लड़के को थानेदार साहब पकड़ कर ले जाएं तो छुड़ाकर लाता है। जिस जमाने में सिविल डिफेंस का काम होता था, वह वॉर्डन होता था। इलाके के राशन कार्ड बनवाता था। रामलीला, नौटंकी, सर्कस और मेले का कार्यकर्ता वही होता है। उसकी उपस्थिति को आप नकार नहीं सकते। पर हाल के वर्षों में उसकी माली हैसियत बड़ी तेजी से बदलने लगी है। पहले के नेताओं का कार्यकर्ता इलाके का शरीफ आदमी होता था। अब लफंगा भी चलता है, बशर्ते दिल्ली की रैली के लिए सौ-दो सौ लोगों का इंतज़ाम करा दे। राजनीति को जनता से जुड़ने के लिए जिस धागे की ज़रूरत है, उसकी गुणवत्ता भी राजनीति की नैतिकता को तय करती है।

लोकतंत्र में बदलाव आ रहा है। दिल्ली में अपार्टमेंट संस्कृति जन्म ले रही है। रेज़ीडेंट वेलफेयर असोसिएशन बन रहीं हैं। इनके पदाधिकारी इस राजनीति के नए प्यादे हैं। यह शहरी राजनीति है। पंचायत राज व्यवस्था कायम होने के बाद से गाँव में राजनीतिक गतिविधियाँ बढ़ीं हैं। इसमें नीति या नैतिकता या मर्यादा कहाँ है इसे समझने के लिए हमें अपनी सामाजिक मर्यादा को देखना होगा। दिसम्बर के महीने में दिल्ली के गैंगरेप के खिलाफ जनरोष को देखने से लगता था कि हमारा समाज अब इस अपराध को नहीं होने देगा। पर क्या हुआ? इसका मतलब यह भी नहीं कि हम अनैतिक हैं।

वह नैतिकता बेकार है जो हमारे काम न आए। दूसरी बात राजनीति कितनी भी गरीब नवाज हो रास्ते पर उसे मध्य वर्ग ही रखता है, क्योंकि वही उसके सारे लटके-झटके जानता है। यह दोतरफा काम है। पूरी तरह बदलाव के लिए एक पूरे बदलाव का इंतज़ार नहीं किया जा सकता। बदलाव एक क्रमिक व्यवस्था है, जिसके लिए संस्थाएं भी चाहिए। चुनाव व्यवस्था भी एक संस्थागत व्यवस्था है। यह तेज बदलाव नहीं लाती, पर लाती है। खासतौर से देश के फटेहाल लोगों और वंचितों का सहारा यही राजनीति है। जब ऐसा है तो क्या यह राजनीति इन फटेहालों के शिक्षित और सबल होने का प्रयास क्यों करेगी। उसे तो इनकी फटेहाली का सहारा है। पर यह एक ऐतिहासिक प्रक्रिया है। आज से बीस साल पहले देश का मध्य वर्ग आज जैसा सबल नहीं था। और अगले बीस साल में यह और प्रभावशाली होगा। राजनीति कितनी ही पाखंडी हो उसके पास जनता से जुड़े रहने का ही विकल्प होता है। और जनता यदि अपने राजनेता से जुड़ी है तो उसका पाखंड भी नहीं चलता। केवल राजनीति का जनता से जुड़ना काफी नहीं है। जनता को भी राजनीति से जुड़ना चाहिए। और उसके पास सवाल हैं तो उन्हें पूछना भी चाहिए। कार्ल मार्क्स ने कहा था, हर बात पर सवाल करो। बेशक राजनीति में भ्रष्टाचार है, पर सदाचार भी वहीं मिलेगा। क्योंकि समाज का श्रेष्ठतम और निकृष्टतम सब राजनीति में है। 
समकालीन सरोकार के जुलाई 2013 अंक में प्रकाशित





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