Tuesday, August 20, 2013

लाइसेंसी पत्रकारिता सम्भव नहीं

पत्रकारिता से जुड़ी वैबसाइट सैंस सैरिफ ने अपने पाठकों से इस विषय पर राय माँगी है कि पत्रकारों के चयन के लिए क्या कोई राष्ट्रीय स्तर की परीक्षा होनी चाहिए? और यह भी क्या कोई लाइसेंस होना चाहिए जैसा वकालत या डॉक्टरी वगैरह का होता है? रोचक बात यह है कि इस पोल के जवाब में लगभग बराबरी की संख्या में पक्ष और विपक्ष में वोट पड़े हैं। कुछ समय पहले जस्टिस मार्कंडेय काटजू ने भी पत्रकारिता से जुड़ने के एक बुनियादी शैक्षिक योग्यता की सलाह दी थी। बड़ी संख्या में पत्रकार भी मानते हैं कि योग्यता होनी चाहिए। इसे बड़ी संख्या कहने के बजाय लगभग बहुमत कहना चाहिए। किसी को क्यों आपत्ति होगी? हाँ आपत्ति उस तरीके और कारण पर होनी चाहिए जो इस माँग के पीछे है। बहरहाल आप अपनी राय बनाएं उससे पहले इस बात की पृष्ठभूमि तक भी आपको जाना चाहिए।

सन 2011 में प्रेस काउंसिल का चेयरमैन बनने के बाद से जस्टिस काटजू ने प्रेस काउंसिल के उस पहलू पर भी ध्यान देना शुरू किया, जो प्रेस काउंसिल का काम है। यानी प्रेस के दायित्व। पेड न्यूज का सवाल इनमें प्रमुख था। और इस मामले में बड़ी संख्या में पत्रकारों ने उनका साथ दिया। इसके बाद काटजू साहब ने कहना शुरू किया कि पत्रकारों के  बारे में उनकी राय अच्छी नहीं है। यानी वे घटिया है। करन थापर के एक कार्यक्रम में उनकी राय इस प्रकार थीः-
Karan Thapar: In a recent interaction with newspaper and TV editors, you said the media have become irresponsible and wayward, and that the time has come when some introspection is required. Are you disappointed with the media?Justice Katju: Very disappointed with the media. I have a poor opinion about the media. I mean this. They should be working for the interests of the people. But they are not working for the interests of the people and sometimes, politically, they are working in an anti-people manner.
You have said one of the basic tasks of the media is to provide truthful and objective information to form rational opinions. Is that not happening altogether or is it not happening sufficiently?You must first understand the historical context. India is passing through a transitional period in our history. Transition from a feudal-agricultural to a modern-industrial society. This is a painful and agonising period. When Europe was passing through this period, media played a great role. It was a great help in transforming European society.
Is that not happening in India?No. Just the reverse….
Indian media is very often playing an anti-people role. One, it diverts the attention of the people from the real problems, which are basically economic. 80% people are living in horrible poverty, unemployment, facing price rise, healthcare. You divert attention from those problems and instead you parade parade film stars, fashion parades, cricketers, as if they are the problems.
Two, very often the media (deliberately) divides the people (on religious lines). This is a country of great diversity because it is a country broadly of immigrants. We must respect each other and remain united. After every bomb blast, almost every channel report that Indian Mujahidin or Jaish-e-Mohammed or Harkatul-jihad-e-islam have sent e-mails or SMS claiming responsibility. Now an e-mail can be sent by any mischievous person, but by showing this on TV channels and next day in the newspapers the tendency is to demonise all Muslims in the country as terrorists and bomb throwers.
Third, the media must promote scientific ideas to help the country move forward, like the European media did. Here the media promotes superstition, astrology. You know, 90% of the people in the country are mentally very backward, steeped in casteism, communalism, superstition and so on. Should the media help uplift them and bring them up to a higher mental level and make them part of enlightened India, or should it go down to their level and perpetuate their backwardness? Many channels show astrology, which is pure humbug, total superstition.
You began by saying that you had a very low opinion of the media, that you were deeply dispapointed. I get the impression you don’t think very much of the media at all?There are some very respected journalists…. General rut is very, very low and I have a poor opinion of most media people. Frankly, I don’t think they have any knowledge of economic theory or political science or literature or philosophy. I don’t think they have studied all this.
So the media is in effect is letting down India.Yes, absolutely. Because media is very important in this transitional period. The media deals with ideas, it is not an ordinary business, dealing in commodities. Therefore, people need modern scientific ideas. And that’s not happening.
काटजू साहब की तमाम बातों से असहमति नहीं हो सकती, पर वे अतिवादी हैं। जिस गुण और ज्ञान की बातें वे कर रहे हैं वे जीवन के हर स्तर पर हैं। केवल पत्रकारिता में नहीं। विश्वविद्यालयों, कॉलेजों, शोध केन्द्रों और ज्ञान तथा विमर्श के दूसरे केन्द्रों का क्या हाल है, इसे हम सब समझते हैं। यह समझ में नहीं आता कि वे नाराज किससे हैं। पत्रकारों से, उनके संस्थानों से या इस व्यवसाय से। दूसरे उनके पास इसका इलाज क्या है? पत्रकारिता की बुनियादी शिक्षा यदि इलाज है तो वह भी करके देख लें। पर उसके पहले कुछ बातों पर गौर करें।

हाल में टीवी18 ने तीन सौ से ज्यादा पत्रकारों को नौकरी से निकाल दिया। पिछले तीन-चार साल से यह क्रम चल रहा है। तमाम नए मीडिया हाउस आए और फेल हुए। चल भी रहे हैं तो जब मन में आता है उसे रखते और निकालते हैं। पत्रकारों की सेवा बुरी तरह असुरक्षित है। उन्हें वेतन भी इतना खराब मिलता है जिसकी कल्पना नहीं की जा सकती। टीवी18 अपेक्षाकृत बड़ी संस्था है। वहाँ की सेवा शर्तें भी अच्छी हैं। भला वे लोगों को बाहर क्यों कर रहे हैं? और उन्हें निकालना ही था तो रखा क्यों? इन सवालों का जवाब भी आसान नहीं है। पर इतना जरूर है कि इलेक्ट्रॉनिक न्यूज मीडिया का जिस सीमा तक विस्तार हो गया है, वह स्वाभाविक नहीं है। इस मीडिया का व्यावसायिक आधार इतना मजबूत नहीं है कि इतने चैनलों का भार ढो सके। मंदी के कारण यह समस्या बढ़ी है। टीवी18 के स्वामित्व और प्रबंधन में बदलाव हुआ है। वे अपना पुनर्गठन कर रहे हैं। ऐसा कारोबार में होता ही है, पर मानवीय तरीके से होता है। लोगों को रखने और निकालने के नियम हैं। मीडिया हाउसों में पहले ऐसा होता नहीं था। पिछले कुछ सालों में ऐसा होने लगा है। इसमें सरकार की भूमिका भी है। पत्रकारों के वेज बोर्ड के मामले से यह जाहिर भी हुआ है।

एक बड़ा सच यह है कि बड़ी संख्या में चैनल अपना रसूख बनाने के लिए मैदान में हैं। उनकी दिलचस्पी किसी दूसरे कारोबार में है। ऐसा पहले भी था, पर अब अति हो रही है। हाल के दिनों में नए शुरू हुए मीडिया हाउसों पर गौर करें तो पाएंगे कि इनमें तीन-चार किस्म के कारोबारी हैं। 1.रियल एस्टेट के खिलाड़ी, बिल्डर वगैरह, 2.चिट-फंड कम्पनियाँ, 3.शिक्षा के धंधे से अपार कमाई करने वाले, 4.गुरु या अध्यात्मिक धंधे से जुड़े लोग। परम्परागत मीडिया हाउसों का विस्तार अभी मूल रूप से अखबारों तक सीमित है। परम्परागत मीडिया हाउसों में भी प्रबंध का तरीका बदल रहा है। पुराने मैनेजरों को इस कारोबार के नैतिक पहलुओं का ज्ञान होता था। वह भी खत्म होता जा रहा है।

सवाल है क्या काटजू जी की चिंता इन मामलों में है। क्या वे इन संस्थानों में काम करने वाले पत्रकारों के हितैषी हैं? ऐसा नहीं लगता। लगता यह है कि उन्हें पत्रकारों से किसी किस्म की जलन है। सच यह है कि पत्रकार, खास तौर से भारतीय भाषाओं के पत्रकार भीषण असुरक्षा से गुजर रहे हैं। वे कारोबारियों के अति उत्साह के शिकार हैं। चूंकि यह व्यवसाय उत्कृष्ट युवाओं को आकर्षित करने में विफल है, इसलिए इसका गुणात्मक ह्रास भी हो रहा है। मीडिया स्वामियों को इस बात की फिक्र नहीं है।

पत्रकारों की क्या कोई बुनियादी योग्यता तय की जा सकती है? या की जानी चाहिए? इसका जवाब तो उसे देना है जो इन्हें काम पर लेता है। सवाल यह भी है कि क्या किसी व्यक्ति को किसी संस्थान का कोर्स पढ़ाकर पत्रकार बनाया जा सकता है? दरअसल व्यक्ति की रचनात्मकता उसके भीतर होती है। पत्रकारिता संस्थान उसकी रचनात्मकता को निखार सकते हैं और कुछ बुनियादी जानकारियों से लैस कर सकते हैं। मीडिया के इतिहास, शिल्प और औजारों की जानकारी दे सकते हैं। इसके नैतिक सवालों से परिचित करा सकते हैं। एक जमाने तक यह काम पत्रकार को इन-हाउस मिलता था। अब इसके लिए संस्थान हैं। पर दुखद यह है कि पत्रकारिता बेहद निराशाजनक करिअर है। इसे सुधारने की जरूरत है। इसलिए कि लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं में पत्रकारिता की महत्वपूर्ण भूमिका है। पर हो यह रहा है कि लोग पत्रकारों और उनके मीडिया संस्थानों को खरीदना चाहते हैं। इसलिए हमें दो प्रकार के लोग मिलते हैं। एक स्टार पत्रकार जिन्हें व्यवस्था ने चमका दिया है और दूसरे क्षुब्ध पत्रकार, जिनकी बुरी तरह उपेक्षा की गई है।

मनीष तिवारी जिस लाइसेंस की बात कर रहे हैं उसकी शुरूआत हो गई तो दो प्रकार के पत्रकार पैदा होने लगेंगे। एक, व्यवस्था के पोषक लाइसेंसी पत्रकार और दूसरे व्य़वस्था विरोधी और हाशिए पर चले गए पत्रकार। दरअसल अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता नागरिक का अधिकार है। उसका लाइसेंस देने का हक किसी को नहीं है। पर घूम फिरकर जो लोग पत्रकारों की योज्ञता वगैरह के सवाल उठा रहे हैं वे पत्रकारिता को अपने कब्जे में करने की मनोकामना को व्यक्त कर रहे हैं। यदि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का खुला माहौल हो और संजीदा पत्रकारों को बेहतर जीवन मिले तो स्वस्थ पत्रकारिता भी पनपेगी। समाज के ताकतवर तबके खुद को खुश करने वाली पत्रकारिता चाहते हैं तो वह कभी सम्भव नहीं होगी, क्योंकि पत्रकारिता का वास्ता सामान्य नागरिकों से है। नागरिकों के पक्ष में काम करने वाली पत्रकारिता अंततः सफल होगी। आज नहीं है तो इसका मतलब यह नहीं कि कभी नहीं होगी। पिछले साल मनीष तिवारी की पार्टी की युवा सदस्य मीनाक्षी नटराजन अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को लेकर एक प्राइवेट बिल संसद में ला रहीं थीं। वह बिल रुक गया, पर लगता है कि देश के राजनीतिक दल अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के महत्व को समझ नहीं पाते हैं। इस सवाल को गहराई से समझिए। न तो लाइसेंसी लेखक हो सकता है और न पत्रकार। वैसे ही जैसे लाइसेंसी जनता नहीं हो सकती।

पत्रकारिता की साख
पत्रकारिता का मृत्युलेख
Corruption in Media
पत्रकारिता के समांतर चलता है उसका कारोबार
How licensing of journalists threatens independent news media

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