Tuesday, June 21, 2022

आर्टिफीशियल इंटेलिजेंस: बुद्धि और चेतना क्या टकराएंगी?


भारत के समानव अंतरिक्ष-अभियान गगनयान की पहली परीक्षण उड़ान जल्द ही होने वाली है। शुरुआती उड़ान में अंतरिक्ष-यात्री नहीं होंगे, पर जब जाएंगे तब  उनके साथ ‘व्योममित्र’ नामक एक रोबोट भी अंतरिक्ष जाएगा। यह रोबोट पूरे यान के मापदंडों पर निगरानी रखेगा। इसमें कोई नई बात नहीं है, केवल आर्टिफीशियल इंटेलिजेंस के बढ़ते दायरे की ओर इशारा है।

तकनीकी विकास के हम ऐसे दौर में हैं, जब आर्टिफीशियल इंटेलिजेंस का प्रवेश जीवन में हो रहा है। पहले हमें लगता था कि मशीनें ज्यादा से ज्यादा सोचेंगी भी तो एक सीमा तक ही सोचेंगी। पर हाल में ब्रिटिश पत्रिका इकोनॉमिस्ट ने लिखा है कि आर्टिफीशियल इंटेलिजेंस का अब कविता, पेंटिंग और साहित्य जैसी ललित कलाओं में भी प्रवेश होगा। ऐसा कम्प्यूटर की डीप लर्निंग तकनीक के कारण सम्भव हुआ है। पेंटिंग वगैरह तो कम्प्यूटर बना ही रहे थे, पर वे अब आपके पसंदीदा कलाकार की शैली में पेंटिंग बना देंगे। सभी बारीकियों के साथ।

डीप लर्निंग

यह तकनीक मनुष्य के मस्तिष्क में काम करने वाले करोड़ों-अरबों न्यूरॉन्स की डीप लर्निंग के सिद्धांत पर काम करती है। शुरू में लगता था कि इसकी भी सीमा है, पर हाल में विकसित फाउंडेशन मॉडल्स ने साबित किया है कि पहले से कई गुना जटिल डीप लर्निंग सम्भव है। आप कम्प्यूटर पर जो वाक्य लिखते हैं, उसे व्याकरण-सम्मत आपका कम्प्यूटर बनाता जाता है। आप चाहते हैं कि आपके आलेख का अच्छा सा शीर्षक बन जाए, बन जाएगा। लेख का सुन्दर सा इंट्रो बन जाएगा।

आप मोबाइल फोन पर संदेश लिखते हैं, तो आपकी जरूरत के शब्द अपने आप आपके सामने बनते जाते हैं। तमाम जटिल पहेलियों के समाधान कम्प्यूटर निकाल देता है। लूडो से लेकर शतरंज तक आपके साथ खेलता है। शतरंज के चैम्पियनों को हराने लगा है। तकनीक ने हमारे तमाम काम आसान किए हैं। अब वह मनुष्य की तरह काम करने लगी है।

आप संगीत-रचना रिकॉर्ड कर रहे हैं। उसके दोष दूर करता जाएगा। इससे रचनात्मकता के नए आयाम खुल रहे हैं। आप चाहते हैं कि पिकासो या रैम्ब्रां की शैली में कोई चित्र बनाएं, तो आर्टिफीशियल इंटेलिजेंस यह काम कर देगी, क्योंकि उसके पास सम्बद्ध कलाकार की शैली से जुड़ा छोटे से छोटा विवरण मौजूद है। उस जानकारी के आधार पर कम्प्यूटर चित्र बना देगा।

Sunday, June 19, 2022

'अग्निपथ' पर पेट्रोल किसने छिड़का?


सेना में भरती से जुड़े 'अग्निपथ' कार्यक्रम के विरोध में देश के कई क्षेत्रों में हिंसा की जैसी लहर पैदा हुई है, उसे रोकने की जरूरत है। यह जिम्मेदारी केवल सरकार की ही नहीं है, विरोधी दलों की भी है। नौजवानों को भड़काना बंद कीजिए। बेशक उनकी सुनवाई होनी चाहिए, पर विरोध को शांतिपूर्ण तरीके से व्यक्त करना चाहिए। जिस प्रकार की हिंसा सड़कों पर देखने को मिली है, वह देशद्रोह है। रेलगाड़ियों, बसों और सरकारी बसों में आग लगाने वाले सेना में भरती के हकदार कैसे होंगे? सरकार ने फौरी तौर पर इस स्कीम भरती होने वालों की आयु में इस साल दो साल की छूट भी दी है। साथ ही रक्षा मंत्रालय से जुड़ी अन्य सेवाओं में अग्निवीरों को 10 प्रतिशत का आरक्षण देने की घोषणा की है। सरकार ने यह भी कहा है कि भविष्य में अर्धसैनिक बलों की भरती में अग्निवीरों को वरीयता दी जाएगी। राज्य सरकारों की पुलिस में भी इन्हें वरीयता दी जा सकती है। वायुसेना ने भरती की प्रक्रिया 24 जून से शुरू करने का कार्यक्रम भी घोषित कर दिया है। इससे माहौल को सुधारने में मदद मिलेगी। 14 जून को जिस दिन केंद्रीय मंत्रिमंडल ने अग्निपथ कार्यक्रम को स्वीकृति दी, उसी दिन प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने सभी विभागों और मंत्रालयों में मानव संसाधन की स्थिति की समीक्षा की और निर्देश दिया कि अगले डेढ़ साल में सरकार द्वारा मिशन मोड में 10 लाख लोगों की भरती की जाए। इन दोनों फैसलों का असर सकारात्मक असर होने के बजाय नकारात्मक होना चिंता का विषय है।

हिंसा के पीछे कौन?

यह देखने की जरूरत भी है कि अचानक शुरू हुए इस आंदोलन के पीछे किन लोगों की भूमिका है और वे चाहते क्या हैं। यह संदेश नहीं जाना चाहिए कि सरकार को आंदोलन की धमकियाँ देकर दबाया जा सकता है। शाहीनबाग, किसान आंदोलन और नूपुर शर्मा से जुड़े मामलों में सरकार की नरम नीति से बेजा फायदे उठाने की कोशिशों को सफलता नहीं मिलनी चाहिए। अग्निपथ कार्यक्रम सेनाओं के आधुनिकीकरण और देश के सुधार कार्यक्रमों का हिस्सा है। देश को अत्याधुनिक हथियारों से लैस एक युवा सशस्त्र बल की ज़रूरत है। यह रोजगार गारंटी कार्यक्रम नहीं है। उसे इस प्रकार आंदोलनों का शिकार बनने से रोकना चाहिए। शुक्रवार तक की जानकारी के अनुसार विरोध प्रदर्शनों के कारण 300 से अधिक ट्रेनें प्रभावित हुई हैं, जबकि 200 से अधिक रद्द की जा चुकी हैं। इनमें 94 मेल व एक्सप्रेस और 140 पैसेंजर ट्रेन रद्द की जा चुकी हैं। वहीं 65 मेल व एक्सप्रेस ट्रेन और 30 यात्री ट्रेन आंशिक रूप से रद्द की गई हैं। तेलंगाना, बिहार और उत्तर प्रदेश में प्रदर्शनकारियों ने तमाम स्थानों पर रेलवे स्टेशनों को नुकसान पहुँचाया है, कैश-काउंटरों से रुपयों की लूट की है और ट्रेनों में आग लगाई है। यह भयावह स्थिति है और इसे किसी कीमत पर स्वीकार नहीं किया जा सकता है।

अग्निपथ योजना

योजना के तहत 90 दिनों के भीतर क़रीब 40 हजार युवकों की सेना में भरती की जाएगी। उन्हें 6 महीने की ट्रेनिंग दी जाएगी। भरती होने के लिए उम्र साढ़े 17 साल से 21 साल के बीच होनी चाहिए। चूंकि पिछले दो साल भरती नहीं हो पाई थी, इसलिए पहले बैच के लिए अधिकतम आयु सीमा दो साल बढ़ाई गई है। इसमें भाग लेने के लिए शैक्षणिक योग्यता 10वीं या 12वीं पास होगी। जनरल ड्यूटी सैनिक में प्रवेश के लिए, शैक्षणिक योग्यता कक्षा 10 है। इस स्कीम के तहत भरती चार साल के लिए होगी। पहले साल का वेतन प्रति महीने 30 हज़ार रुपये होगा, जो हर साल बढ़ते हुए चौथे साल में प्रति माह 40 हज़ार रुपये हो जाएगा। चार साल बाद सेवाकाल में प्रदर्शन के आधार पर मूल्यांकन होगा और 25 प्रतिशत लोगों को नियमित किया जाएगा। योजना का विरोध करने वाले कहते हैं कि चार साल की सेवा के बाद उनका भविष्य सुरक्षित नहीं है।

सामयिक परिवर्तन

कुछ लोगों का कहना है कि चार साल बाद नौजवान एटीएम का गार्ड बनकर रह जाएगा। इस कार्यक्रम को बदलते समय के दृष्टिकोण से भी देखा चाहिए। सभी देशों की सेनाओं का आकार छोटा हो रहा है, क्योंकि युद्धों में सैनिकों की भूमिका कम हो रही है और तकनीकी भूमिका बढ़ रही है। चीन की सेना ने पिछले तीन-चार साल में अपना आकार करीब आधा कर लिया है। भारतीय सेना की थिएटर कमांड योजना और इंटीग्रेटेड बैटल ग्रुप्स बेहतर समन्वय और संसाधनों के इस्तेमाल को देखते हुए बनाए जा रहे हैं। सेना को बदलती चुनौतियों के बीच अपनी गैर-परंपरागत युद्ध क्षमताओं और साइबर और खुफ़िया इकाइयों का विस्तार करने की ज़रूरत है। पूर्व सेनाध्यक्ष जनरल वीके सिंह ने एक टेलीविज़न चैनल से कहा, योजना अभी आई ही है। इसे शुरू तो होने दें, इसमें पहली नियुक्तियां होने दें। ये देखें कि ये योजना कैसे काम करती है। सुधार सभी योजनाओं में होते हैं। शॉर्ट सर्विस कमीशन को पांच साल के लिए शुरू किया गया था और बाद में उसे कोई पेंशन और चिकित्सकीय सुविधा नहीं मिलती थी।

Monday, June 13, 2022

भस्मासुर साबित होने लगे हैं इमरान खान

जबसे इमरान खान की कुर्सी छिनी है, उन्होंने आंदोलन छेड़ रखा है। पाकिस्तान के सामने तमाम तरह की चुनौतियाँ खड़ी हैं। उनके बीच इमरान खुद बड़ी समस्या बन गए हैं। वे फौरन चुनाव चाहते हैं। उन्हें लगता है कि आज चुनाव हों, तो उन्हें भारी जीत मिलेगी। सच है कि उनकी लोकप्रियता बढ़ी है और भड़काऊ भाषणों से उनके समर्थकों का हौसला बुलंद है। पर, अर्थव्यवस्था लगातार गिर रही है। आंदोलनों की आँधी के कारण उसे सुधारने की कोशिशों को पलीता लग रहा है। अब उन्होंने देश के तीन टुकड़े होने, सेना की तबाही और एटम बम छिनने का शिगूफा छेड़कर जनता को भयभीत कर दिया है।

फौरन चुनाव की माँग

गत 10 अप्रैल को नेशनल असेंबली में अविश्वास प्रस्ताव के बाद वे सत्ता से बाहर हो गए थे। इसके बाद उन्होंने सार्वजनिक भाषणों में बार-बार दावा किया था कि हम 20 लाख पीटीआई कार्यकर्ताओं को इस्लामाबाद लाएंगे और तब तक वहीं रहेंगे, जब तक चुनाव की तारीख़ों की घोषणा नहीं की जाती। फिर 25 मई को देशव्यापी ‘लांग मार्च’ की घोषणा की और ‘पूरे देश’ को इस्लामाबाद पहुंचने का आह्वान किया।

उनकी अपील बेअसर रही और उन्होंने उसे इस घोषणा के साथ मार्च समाप्त कर दिया, कि हम ‘अगले छह दिनों में दोबारा मार्च करेंगे’। अब कह रहे हैं कि हम सुप्रीम कोर्ट के फैसले का इंतजार करेंगे। अब कह रहे हैं कि सरकार मुझपर ग़द्दारी का मुक़दमा बनाकर रास्ते से हटाना चाहती है। 4 जून को ख़ैबर पख़्तूनख़्वाह में एक जलसे में उन्होंने कहा, जब तक ख़ून है वक़्त के यज़ीदों का मुक़ाबला करता रहूँगा। वे अपने भाषणों में धार्मिक प्रतीकों का जमकर इस्तेमाल करते हैं।

तबाह अर्थव्यवस्था

इमरान खान ने आंदोलन के लिए ‘लांग मार्च’ का सहारा लिया है। एक शहर से दूसरे शहर के बीच कारों, बसों और ट्रकों पर बैठे आंदोलनकारियों के काफिले सड़कों पर हैं। एक तरफ देश आर्थिक संकट से घिरा है और दूसरी तरफ आंदोलनों की बाढ़ है। जुलूसों को रोकने के लिए इस्लामाबाद में कंटेनरों के ढेर लगे हैं। इससे सड़कों पर यातायात प्रभावित हुआ है, आए दिन स्कूल बंद होते हैं खाने-पीने की चीजों की किल्लत हो जाती है।

Sunday, June 12, 2022

इस हिंसक-विरोध के पीछे कौन?


पैग़ंबर मोहम्मद के बारे में आपत्तिजनक टिप्पणी को लेकर शुक्रवार को देश के अलग-अलग शहरों में जिस स्तर पर विरोध-प्रदर्शन हुए हैं, उन्हें लेकर चिंता पैदा होनी चाहिए। उत्तर प्रदेश, पश्चिम बंगाल, दिल्ली, मध्य प्रदेश, तेलंगाना, गुजरात, बिहार, झारखंड और महाराष्ट्र के अलावा जम्मू-कश्मीर के श्रीनगर में विरोध प्रदर्शन हुए हैं। कई जगह इंटरनेट सेवाओं को स्थगित करना पड़ा है। विरोध यदि लोकतांत्रिक तरीके से किया जाए, तो इसमें आपत्ति नहीं है, पर यदि पत्थरबाजी और आगजनी जैसी हिंसक कार्रवाइयों का सहारा लिया जाएगा, तो चिंता होना स्वाभाविक है। इस दौरान सकारात्मक बातें भी हुई हैं। दिल्ली के शाही इमाम ने खुद को जामा मस्जिद के बाहर हुए प्रदर्शन से अलग किया। दूसरी तरफ मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने मुस्लिम मौलानाओं से कहा है कि वे ऐसी टीवी बहसों में शामिल नहीं हों, जिनका उद्देश्य ‘इस्लाम और मुसलमानों’ का अपमान करना हो। सवाल है कि कौन है जो ‘इस्लाम और मुसलमानों’ का अपमान करना चाहता है? पर ऐसी बहसों की जरूरत ही क्या है? वैश्विक-मंच पर यह चुनौतियों से भरा समय है। भारत सरकार पर भी मित्र-देशों के साथ सम्बन्ध बनाए रखने की चुनौती है। सरकार राष्ट्रीय-हितों को देख-समझकर ही कदम उठाती है। इसलिए हमें माहौल को शांत बनाने की कोशिश करनी चाहिए। इन उपद्रवों के कारण मुसलमानों का गुस्सा सामने जरूर आया है, पर उनके आंदोलन का नैतिक-आधार कमजोर हुआ है।

खुल्लम-खुल्ला विद्वेष

समय आ गया है कि मीडिया में इस्तेमाल की जा रही भाषा और अभिव्यक्ति के बारे में पुनर्विचार किया जाए। टीवी की बहसों में जो अनाप-शनाप बातें खुल्लम-खुल्ला बोली जा रही हैं, चिंता उनपर भी होनी चाहिए। इसके पीछे राजनीतिक कारण भी हैं, पर राजनीति के कारण यह विद्वेष नहीं है। हमारे सामाजिक जीवन में यह दरार पहले से मौजूद है, जिसका प्रतिविम्ब हमें राजनीति में देखने को मिल रही है। देश के विभाजन ने इस दरार को और गहरा किया है। अलबत्ता इन जहरीली बातों से ध्रुवीकरण बढ़ेगा। मुसलमानों को कुछ भी नहीं मिलेगा, बल्कि नुकसान होगा। देखना होगा कि हिंसक-रोष अनायास है या इसके पीछे कोई योजना है? भारत सरकार के स्पष्टीकरण और सम्बद्ध दोनों व्यक्तियों के पार्टी से निष्कासन और एफआईआर दर्ज होने के बावजूद इतने बड़े स्तर पर भावनाओं को किसने भड़काया? अभी यह तय होना है कि जिस टिप्पणी को लेकर आंदोलन खड़ा हुआ है, उसमें आपत्ति किस बात पर है। टिप्पणीकार का और उनके साथ बहस करने वाले का लहजा कैसा था वगैरह। पर यह सब कौन तय करेगा? कोई अदालत ही तय कर सकती है। जाँच इस बात की भी होनी चाहिए कि टीवी डिबेट के बाद सोशल मीडिया पर किसने इसे ‘गुस्ताख़-ए-रसूल’ का रंग दिया? किसने इसका अरबी में अनुवाद करके पश्चिम एशिया में सनसनी फैलाई?

बैकलैश का खतरा

क्या किसी को उस ‘बैकलैश’ का अनुमान है, जो इसके बाद सम्भव है?  किसी ने सोचा है कि अरब देशों की कड़वी बातों और देशभर में हुए हिंसक-विरोध की प्रतिक्रिया कैसी होगीकुछ लोगों को लगता है कि इससे अंतरराष्ट्रीय स्तर पर देश की फज़ीहत होगी। इस बात से उन्हें खुशी क्यों मिलती है? उनका इसमें क्या फायदा है? देश की बहुसंख्यक जनता की खामोशी को पढ़ने की कोशिश भी कीजिए।  थोड़ी देर के लिए मान लेते हैं कि भारत सरकार ने अरब देशों के दबाव को मानते हुए जवाब दिया और कार्रवाई की। पर किसलिए? क्योंकि करीब 85 लाख भारतीय पश्चिम एशिया के देशों में काम करते हैं। उनमें बड़ी संख्या मुसलमानों की है। उनके हितों को चोट न लगने पाए। अरब देशों के हित भी हमारे साथ जुड़े हैं। अरब देशों का ऐसा ही रुख जारी रहा, तो उनके खिलाफ भी भारत में माहौल बनेगा। देश की जनता अपने अंदरूनी मामलों में विदेशी-हस्तक्षेप को स्वीकार नहीं करेगी। पेट्रोलियम का कारोबार खत्म होने वाला है। उन्हें पूँजी निवेश के लिए नए बाजार की जरूरत है।

पाकिस्तानी भूमिका

भारत-विरोधी परियोजनाओं के पीछे प्रत्यक्ष या परोक्ष पाकिस्तान का हाथ भी होता है। भारत में कौन लोग हैं, जो इसे अंतरराष्ट्रीय रंग देना चाहते हैं? शाहीनबाग, हिजाब और जहाँगीरपुरी जैसे प्रसंगों के बाद पीएफआई और एसडीपीआई जैसे संगठनों के नाम सामने आए हैं। इस मसले को ही नहीं अपने सभी मसलों को हम देश की उपलब्ध न्याय-प्रणाली के अनुसार ही सुलझाएंगे। पर एक नजर पाकिस्तान पर डालना जरूरी है। इसकी एक वजह ईशनिंदा से जुड़ा कानून है, जो विभाजन से पहले के अंग्रेजी राज की देन है और जिसमें स्वतंत्रता के बाद पाकिस्तान में बदलाव किया गया। पिछले साल शुक्रवार 3 दिसंबर को पाकिस्तान के शहर सियालकोट में उन्मादी भीड़ ने ईशनिंदा के नाम पर श्रीलंका के एक नागरिक की बर्बर तरीके से पीट-पीट कर हत्या कर दी और बाद में उनके शव में आग लगा दी। प्रियांथा कुमारा नाम के श्रीलंकाई नागरिक ईसाई थे और सियालकोट ज़िले में वज़ीराबाद रोड स्थित एक परिधान फैक्ट्री राजको इंडस्ट्रीज़ में मैनेजर के तौर पर पिछले नौ साल से काम कर रहे थे। इस हत्या के बाद पाकिस्तान की न्याय-व्यवस्था ने आनन-फानन सजाएं भी दे दी हैं। इसकी एक वजह दुनिया में हुई बदनामी है।

ईशनिंदा

ईशनिंदा के नाम पर हिंसा ऐसा अपराध है, जिसमें हत्यारों को हीरो बना दिया जाता है। उनपर फूल मालाएं चढ़ाई जाती हैं। उन्हें फाँसी की सजा मिल जाए, तो उनकी कब्र को तीर्थ का रूप दे दिया जाता है। एक नहीं ऐसे अनेक मामले हैं। पाकिस्तान के इस कानून की पृष्ठभूमि में अविभाजित भारत की घटनाएं है। 1920 के दशक में भारत के हिन्दू और मुस्लिम सम्प्रदायों के बीच करीब-करीब ऐसी ही बहसें चल रही थीं, जैसी आज हैं। सन 1929 में लाहौर के प्रकाशक महाशय राजपाल की हत्या इल्मुद्दीन नाम के एक किशोर ने कर दी। इल्मुद्दीन को हत्या के आरोप में फाँसी की सजा हुई थी, पर पाकिस्तान में आज भी उसे गाज़ी इल्मुद्दीन शहीद माना जाता है। उसकी कब्र पर हजारों की भीड़ जमा होती है। खैबर पख्तूनख्वा सरकार के आदेश से स्कूली शिक्षा के पाठ्यक्रम में एक अध्याय गाज़ी इल्मुद्दीन शहीद पर भी है।

धारा 295(ए)

महाशय राजपाल की हत्या के पहले ब्रिटिश सरकार ने 1927 में भारतीय दंड संहिता में धारा 295 (ए) जोड़ दी थी, जिसका उद्देश्य हेट स्पीच और धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुँचाने की कोशिशों को रोकना था। अंग्रेज सरकार के कानून में ज्यादा से ज्यादा दो साल की कैद की सजा थी, पर आज के पाकिस्तानी कानून में मौत की सजा है। इसके कारण पाकिस्तानी समाज में कट्टरता बढ़ी है। कोई भी किसी पर भी आरोप मढ़कर उसकी हत्या कर देता है। पाकिस्तान यह भी चाहता है कि ईशनिंदा का जैसा कानून उसके यहाँ है, उसे दुनिया स्वीकार करे। वहाँ ईशनिंदा के कारण हत्या करने वाले को हीरो बना दिया जाता है। जैसे सलमान तासीर के हत्यारे मुमताज़ कादरी को बनाया गया। अदालत ने 2016 में कादरी को फाँसी दे दी, पर जिस दिन उसे दफनाया गया था, उसी दिन उसका स्मारक बनाने के लिए आठ करोड़ रुपये जमा हो गए थे और उसका स्मारक बन गया है। पाकिस्तानी समाज में ऐसा पहली बार नहीं हुआ। पाकिस्तान की अवधारणा के जनक इकबाल और जिन्ना तक ने ऐसी हत्याओं का समर्थन किया था। यह समर्थन महाशय राजपाल की हत्या करने वाले किशोर इल्मुद्दीन के लिए था।

Monday, June 6, 2022

गुज़रे ज़माने के पॉप-संगीत का पुनरागमन ‘अब्बा वॉयेज़’


करीब 41 साल पहले एबीबीए यानी एबा या अब्बा संगीत-मंडली ने अपना आखिरी कंसर्ट मिलकर संचालित किया था। वह भी श्रोताओं के लिए लाइव शो नहीं था, बल्कि स्वीडिश टीवी का एक शो था। अब 27 मई को इस स्वीडिश-मंडली के लंदन में नए शो अब्बा वॉयेज़ ने तहलका मचाया है। यह तहलका इस संगीत-मंडली ने नहीं, बल्कि तकनीकी-कर्णधारों ने मचाया है।

इस शो में वे खुद शामिल नहीं थे, बल्कि वर्क फ्रॉम होम की तर्ज पर वे वर्चुअल रूप में उपस्थित थे। वैसे ही जैसे 1977 में थे। इसमें अब्बा की टीम भौतिक रूप से उपस्थित नहीं थी, बल्कि उसके युवा अब्बातार (आभासी अवतार) उपस्थित थे। उन्होंने 10-पीस बैंड के साथ अब्बा के पुराने अल्बमों को पेश किया।  अब्बा के चारों सदस्य 1982 के बाद पहली बार सार्वजनिक रूप से लंदन में एकसाथ मौजूद थे, परफॉर्मर के रूप में नहीं, दर्शकों के रूप में।

तकनीकी-सफलता

उम्र की सीमाओं को देखते हुए उनकी भौतिक-उपस्थिति सम्भव नहीं थी। फिर भी शो हुआ और उसकी समीक्षाएं बहुत सकारात्मक आईं हैं। इस शो में भी उनके 3,000 उत्साही फैन शामिल थे। इसे पेश करने में 140 एनिमेटरों, चार बॉडी-डबल्सकी भूमिका थी, ताकि यह एकदम वास्तविक शो जैसा नजर आए। इस शो पर करीब साढ़े सत्रह करोड़ डॉलर का खर्चा आया। सवाल है कि कोई बैंड भौतिक रूप से उपस्थित हुए बिना कैसे स्टेज पर वापसी की दावा कर सकता है?

शो देखने के बाद एक अब्बा सितारे ब्योर्न उल्वेस ने कहा, मेरी उम्मीदों से ज्यादा शानदार यह शो रहा। स्वीडन के सम्राट कार्ल 16वें गुस्ताफ और महारानी सिल्विया भी मेहमानों में शामिल थे। इस प्रदर्शन के लिए खासतौर से बनाए गए पंचकोणीय सभागार में करीब तीन हजार दर्शक मौजूद थे। चारों संगीतकार रोशनी के छपाकों के बीच सत्तर के दशक के हेयर-स्टाइल और परिधानों में मंच पर उतरे। दर्शकों ने अपनी सीटों से निकलकर नाचना शुरू कर दिया। मंच पर मौजूद अब्बा-मंडली के सदस्य वास्तविक नहीं थे। उन्हें सावधानी के साथ 77-79 के दौर के रूप में डिजिटली डिजाइन किया गया था। वास्तविक अब्बा, जिनमें से ज्यादातर की उम्र 72 साल या ज्यादा है, स्टैंड्स में मौजूद थे। 

दिसम्बर तक चलेगा शो

90 मिनट के अब्बा-वॉयज़ कार्यक्रम का यह वर्ल्ड-प्रीमियर था। यह शो अब इस साल दिसम्बर तक हफ्ते के सातों दिन चलेगा। इसके बाद भी इसे अप्रेल 2026 तक बढ़ाया जा सकता है। इसके लिए बनाए गए विशेष एरेना को तब तक की अनुमति मिली हुई है। इस जमीन पर बाद में आवासीय-भवन बनने वाले हैं।

स्टेज के दोनों तरफ लगाए गए स्क्रीन पर 30 फुट ऊँचे ये अवतार गाते और झूमते नजर आ रहे थे। शो के डायरेक्टर बेली वॉल्श का कहना है कि यह प्रोजेक्ट होलोग्राम प्रदर्शनों से भी आगे की चीज़ है। इसपर काफी लम्बे अर्से से काम किया जा रहा था। लम्बे अर्से से स्वीडन में असली अब्बा की फिल्मिंग का काम किया गया। इसमें चार बॉडी-डबल्स और 140 एनिमेटरों की मदद ली गई। यह काम जॉर्ज लुकास द्वारा स्थापित प्रसिद्ध विजुअल इफैक्ट्स फर्म इंडस्ट्रियल लाइट एंड मैजिक (जो आईएलएम नाम से प्रसिद्ध है) ने किया। यह फर्म हॉलीवुड ब्लॉकबस्टरों में विशेष दृश्यों को तैयार करने में मदद करती है।