Sunday, September 22, 2019

वित्तमंत्री की ‘बिगबैंग’ घोषणा का अर्थ


वित्तमंत्री निर्मला सीतारमण ने शुक्रवार को कंपनी कर में कटौती की घोषणा करके अपने समर्थकों को ही नहीं विरोधियों को भी चौंकाया है. देश में कॉरपोरेट टैक्स की दर 30 से घटाकर 22 फीसदी की जा रही है और सन 2023 से पहले उत्पादन शुरू करने वाली नई कंपनियों की दर 15 फीसदी. यह प्रभावी दर अब 25.17 फीसदी होगी, जिसमें अधिभार व उपकर शामिल होंगे. इसके अलावा इस तरह की कंपनियों को न्यूनतम वैकल्पिक कर (एमएटी) का भुगतान करने की जरूरत नहीं होगी. इस खबर के स्वागत में शुक्रवार को देश के शेयर बाजारों में जबरदस्त उछाल दर्ज किया गया. बीएसई का सेंसेक्स 1921.15 अंक या 5.32 फीसदी तेजी के साथ 38,014.62 पर बंद हुआ. नेशनल स्टॉक एक्सचेंज का निफ्टी 569.40 अंकों या 5.32 फीसदी की तेजी के साथ 11,274.20 पर बंद हुआ. यह एक दशक से अधिक का सबसे बड़ा एकदिनी उछाल है.   
वित्तमंत्री की इस घोषणा से रातोंरात अर्थव्यवस्था में सुधार नहीं आएगा. कॉरपोरेट टैक्स में कमी का असर देखने के लिए तो हमें कम से कम एक-दो साल का इंतजार करना पड़ेगा, पर यह सिर्फ संयोग नहीं है कि यह घोषणा अमेरिका के ह्यूस्टन शहर में होने वाली हाउडी मोदी रैली के ठीक पहले की गई है. इस रैली में अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप और अमेरिका के अनेक सांसद भी आने वाले हैं. आर्थिक सुधारों की यह घोषणा केवल भारत के उद्योग और व्यापार जगत के लिए ही संदेश नहीं है, बल्कि वैश्विक कारोबारियों के लिए भी इसमें एक संदेश है.

'हाउडी मोदी' रैली के संदेश


रविवार को अमेरिका में ह्यूस्टन शहर के एनआरजी स्टेडियम में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का भाषण सुनने के लिए 50,000 से ज्यादा लोग आने वाले हैं। इनमें से ज्यादातर भारतीय मूल को अमेरिकी होंगे, जिनका संपर्क भारत के साथ बना हुआ है। यह रैली कई मायनों में असाधारण है। इसके पाँच साल पहले न्यूयॉर्क के मैडिसन स्क्वायर में उनकी जो रैली हुई थी, वह भी असाधारण थी, पर इसबार की रैली में आने वाले लोगों की संख्या पिछली रैली से तिगुनी या उससे भी ज्यादा होने वाली है। रैली का हाइप बहुत ज्यादा है। इसमें अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप और अनेक अमेरिकी राजनेता शिरकत करने वाले हैं।

हालांकि भारत में होने वाली मोदी की रैलियाँ प्रसिद्ध हैं, पर उनकी जैसी लोकप्रियता प्रवासी भारतीयों के बीच है उसका जवाब नहीं। अमेरिकी रैलियों के अलावा नवंबर 2015 में लंदन के वैम्बले स्टेडियम में हुई रैली भी इस बात की गवाही देती है। विदेश में मोदी कहीं भी जाते हैं तो लोग उनसे हाथ मिलाने, साथ में फोटो खिंचवाने और सेल्फी लेने को आतुर होते हैं। ऐसी लोकप्रियता आज के दौर में विश्व के बिरले राजनेताओं की है। शायद इसके पीछे भारत की विशालता और उसका बढ़ता महत्व भी है, पर पिछले पाँच वर्ष में मोदी ने लोकप्रियता के जो झंडे गाड़े हैं, उनका जवाब नहीं। यह सब तब है, जब उनके खिलाफ नफरती अभियान कम जहरीला नहीं है।

Saturday, September 21, 2019

कश्मीर अब रास्ता क्या है?


जम्मू कश्मीर में पाबंदियों को लगे 47-48 दिन हो गए हैं और लगता नहीं कि निर्बाध आवागमन और इंटरनेट जैसी संचार सुविधाएं जल्द वापस होंगी। सरकार पहले दिन से दावा कर रही है कि हालात सामान्य हैं, और विरोधी भी पहले ही दिन से कह रहे हैं कि सामान्य नहीं हैं। उनकी माँग है कि सारे प्रतिबंध हटाए जाएं और जिन लोगों को हिरासत में लिया गया है, उन्हें छोड़ा जाए। एक तबका है, जो प्रतिबंधों को उचित मानता है और जिसकी नजर में सरकार की रीति-नीति सही है। दूसरा इसके ठीक उलट है। मीडिया कवरेज दो विपरीत तस्वीरें पेश कर रही है। बड़ी संख्या में भारतीय पत्रकार सरकारी सूत्रों के हवाले हैं, दूसरी तरफ ज्यादातर विदेशी पत्रकारों को सरकारी दावों में छिद्र ही छिद्र नजर आते हैं। ऐसे विवरणों की कमी हैं, जिन्हें निष्पक्ष कहा जा सके। पत्रकार भी पोलराइज़्ड हैं।
इस एकतरफा दृष्टिकोण के पीछे तमाम कारण हैं, पर सबसे बड़ा कारण राजनीतिक है। दूसरा है असमंजस। इस समस्या को काफी लोग दो कालखंड में देखते हैं। सन 2014 के पहले और उसके बाद। देश के भीतर ही नहीं वैश्विक मंच पर भी यही बात लागू होती है। वॉशिंगटन पोस्ट, न्यूयॉर्क टाइम्स और  इकोनॉमिस्ट से लेकर फॉरेन पॉलिसी जैसे जर्नल नरेंद्र मोदी के आगमन के पहले से ही उनके आलोचक हैं। सरकार कहती है कि हम बड़ी हिंसा को टालने के लिए धीरे-धीरे ही प्रतिबंधों को हटाएंगे, तो उसे देखने वाले अपने चश्मे से देखते हैं। विदेशी मीडिया कवरेज को लेकर भारतीय नागरिकों का बड़ा तबका नाराज है।
आवेशों की आँधियाँ
माहौल लगातार तनावपूर्ण है। कोई यह समझने की कोशिश नहीं कर रहा है कि हालात को कैसे ठीक किया जाए और आगे का रास्ता क्या है। इस वक्त दो बातों पर ध्यान देने की जरूरत है। एक, अगले महीने जम्मू कश्मीर को केंद्र शासित क्षेत्र बनना है। उससे पहले का प्रक्रियाएं कैसे पूरी होंगी। और दूसरी बात है कि इसके आगे क्या? कश्मीर समस्या का स्थायी समाधान यह तो नहीं है, तो फिर आगे क्या? भारत और पाकिस्तान दोनों देशों में आवेशों के तूफान चलते ही रहते है। कोई नई बात नहीं है। भावनाओं के इन बवंडरों के केंद्र में कश्मीर है। विभाजन का यह अनसुलझा सवाल, दोनों देशों के सामान्य रिश्तों में भी बाधक है।
सवाल है कि 72 साल में इस समस्या का समाधान क्यों नहीं हो पाया? अनुच्छेद 370 के निष्प्रभावी होने के बाद तमाम एकबारगी बड़ी संख्या में लोगों ने समर्थन किया, पर जैसाकि होता है, इस फैसले के विरोधियों ने भी कुछ देर से ही सही मोर्चा संभाल लिया है। भारतीय जनता का बहुमत 370 को हटाने के पक्ष में नजर आता है। इसकी बड़ी वजह यह भी है कि इसे बनाए रखने के पक्षधर यह नहीं बता पाते हैं कि यह अनुच्छेद इतना ही महत्वपूर्ण था, तब कश्मीर में अशांति क्यों पैदा हुई?
 पिछले 72 साल में वहाँ हालात लगातार बिगड़े ही हैं। सन 1947 में पाकिस्तानी कबायलियों ने कश्मीर में जिस किस्म के अत्याचार किए थे, उन्हें देखते हुए पाकिस्तान के प्रति सहानुभूति नहीं होनी चाहिए थी। सन 1965 में जब अयूब खां ने हजारों रज़ाकारों को ट्रेनिंग देकर कश्मीर में भेजा, तो उन्हें विश्वास था कि कश्मीरी जनता उन्हें हाथों हाथ लेगी, पर ऐसा नहीं हुआ। सन 1971 की लड़ाई में भी नहीं हुआ। पिछले 72 साल में क्या हुआ, जो आज हालात बदले हुए नजर आते हैं? ऐसा केवल दिल्ली में बीजेपी की सरकार के कारण नहीं हुआ है। पत्थर मार आंदोलन तो 2010 में शुरू हो गया था।

Wednesday, September 18, 2019

सिविल कोड पर बहस से हम भागते क्यों हैं?


पिछले शुक्रवार को सुप्रीम कोर्ट के एक फैसले के बाद समान नागरिक संहिता का सवाल एकबार फिर से खबरों में है. अदालत ने कहा है कि देश में समान नागरिक संहिता बनाने की कोशिश नहीं की गई. संविधान निर्माताओं ने राज्य के नीति निदेशक तत्व में इस उम्मीद से अनुच्छेद 44 जोड़ा था कि सरकार देश के सभी नागरिकों के लिए समान नागरिक संहिता सुनिश्चित करेगी, लेकिन हुआ कुछ नहीं. देश में सभी तरह के व्यक्तिगत कानूनों को संहिताबद्ध करने की माँग लंबे अरसे से चल रही है, पर इस दिशा में प्रगति नहीं है. इसकी सबसे बड़ी वजह देश की धार्मिक और सांस्कृतिक विविधता है, जिसे छेड़ने का साहस सरकारों में नहीं है.

नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में बीजेपी सरकार ने अपने पिछले दौर में तीन तलाक के साथ-साथ इस विषय को भी उठाया था. इस सिलसिले में 21 वें विधि आयोग को अध्ययन करके अपनी संस्तुति देने के लिए कहा गया था. आयोग ने करीब दो साल के अध्ययन के बाद अगस्त 2018 में बजाय विस्तृत रिपोर्ट देने के एक परामर्श पत्र दिया, जिसमें कहा गया कि इस स्तर पर देश में समान नागरिक संहिता न तो आवश्यक है और न ही कोई इसकी मांग कर रहा है. आयोग की नजर में इसकी कोई माँग नहीं कर रहा है, तब अदालत माँग क्यों कर रही है?  

Monday, September 16, 2019

अफ़ग़ान शांति-वार्ता के अंतर्विरोध


अस्सी के दशक में जब अफ़ग़ान मुज़ाहिदीन रूसी सेना के खिलाफ लड़ रहे थे, तब अमेरिका उनके पीछे था। अमेरिका के डिक्लैसिफाइडखुफिया दस्तावेजों के अनुसार 11 सितंबर 2001 के अल कायदा हमले के कई बरस पहले बिल क्लिंटन प्रशासन का तालिबान के साथ राब्ता था। वहाँ अंतरराष्ट्रीय सहयोग से नई सरकार बनने के बाद सन 2004 और 2011 में भी तालिबान के साथ बातचीत हुई थी। सन 2013 में तालिबान ने कतर में दफ्तर खोला। चूंकि उन्होंने निर्वासित सरकार के रूप में खुद को पेश किया था, इसलिए काबुल सरकार ने उसे स्वीकार नहीं किया। इस संवाद में पाकिस्तान की भी महत्वपूर्ण भूमिका रही। सन 2015 में पाकिस्तान की कोशिशों से अफगान सरकार और तालिबान के बीच आमने-सामने की बात हुई। उन्हीं दिनों खबर आई कि तालिबान के संस्थापक मुल्ला उमर की मौत तो दो साल पहले हो चुकी है। इस तथ्य को तालिबान और पाकिस्तान दोनों ने छिपाकर रखा था। सन 2018 में ईद के मौके पर तीन दिन का युद्धविराम भी हुआ। सितंबर 2018 में अमेरिका ने ज़लमय खलीलज़ाद को तालिबान के साथ बातचीत के लिए अपना दूत नियुक्त किया। उनके साथ दोहा में कई दौर की बातचीत के बाद समझौते के हालात बने ही थे कि बातचीत टूट गई। क्या यह टूटी डोर फिर से जुड़ेगी?


फिलहाल अमेरिका और तालिबान के बीच एक अरसे से चल रही शांति-वार्ता एक झटके में टूट गई है, पर यह भी लगता है कि संभावनाएं पूरी तरह खत्म नहीं हुईं हैं। बातचीत का टूटना भी एक अस्थायी प्रक्रिया है। उम्मीद है कि इस दिशा में प्रगति किसी न किसी दिशा में जरूर होगी। राष्ट्रपति ट्रंप के सुरक्षा सलाहकार जॉन बोल्टन की अचानक बर्खास्तगी से संकेत यही मिलता है कि विदेशमंत्री पॉम्पियो जो कह रहे हैं, वह ज्यादा विश्वसनीय है। यों भी समस्या से जुड़े सभी पक्षों के पास विकल्प ज्यादा नहीं हैं और इस लड़ाई को लंबा चलाना किसी के भी हित में नहीं है। अफगान समस्या के समाधान के साथ अनेक क्षेत्रीय समस्याओं के समाधान भी जुड़े हैं।
अफ़ग़ानिस्तान के लिए नियुक्त अमेरिका के विशेष दूत ज़लमय ख़लीलज़ाद ने उससे पहले सोमवार 2 सितंबर को तालिबान के साथ 'सैद्धांतिक तौर' पर एक शांति समझौता होने का एलान किया था। प्रस्तावित समझौते के तहत अमेरिका अगले 20 हफ़्तों के भीतर अफ़ग़ानिस्तान से अपने 5,400 सैनिकों को वापस लेने वाला था। अमेरिका और तालिबान के बीच क़तर में अब तक नौ दौर की शांति-वार्ता हो चुकी है। प्रस्तावित समझौते में प्रावधान था कि अमेरिकी सैनिकों की विदाई के बदले में तालिबान सुनिश्चित करता कि अफ़ग़ानिस्तान का इस्तेमाल अमेरिका और उसके सहयोगियों पर हमले के लिए नहीं किया जाएगा।
कितनी मौतें?
अफ़ग़ानिस्तान में सन 2001 में अमेरिका के नेतृत्व में शुरू हुए सैनिक अभियान के बाद से अंतरराष्ट्रीय गठबंधन की सेना के करीब साढ़े तीन हजार सैनिकों की जान जा चुकी है। इनमें 2300 अमेरिकी हैं। आम लोगों, चरमपंथियों और सुरक्षाबलों की मौत की संख्या का अंदाज़ा लगाना कठिन है। अलबत्ता इस साल संयुक्त राष्ट्र की एक रिपोर्ट में कहा गया है कि वहाँ 32,000 से ज़्यादा आम लोगों की मौत हुई है। वहीं ब्राउन यूनिवर्सिटी के वॉटसन इंस्टीट्यूट का कहना है कि वहाँ 58,000 सुरक्षाकर्मी और 42,000 विद्रोही मारे गए हैं।