संविधान सभा में डॉ भीमराव आम्बेडकर ने एकबार कहा था-‘राजनीति जिम्मेदार हो तो खराब से खराब सांविधानिक व्यवस्था भी सही रास्ते पर चलती है, पर यदि राजनीति में खोट हो तो अच्छे से अच्छा संविधान भी गाड़ी को सही रास्ते पर चलाने की गारंटी नहीं दे सकता।’ महाराष्ट्र का घमासान हमारे राजनीतिक-अंतर्विरोधों को रेखांकित कर रहा है। यह टकराव विधानसभा सचिवालय और राजभवन तक पहुँच चुका है। इसका निपटारा फ्लोर-टेस्ट से सम्भव है, जो न्यायपालिका की देन है। पर वह आसानी से नहीं होगा। अभी मानसिक युद्ध चल रहा है। इसके बाद राज्यपाल और सदन के डिप्टी स्पीकर की भूमिकाएं महत्वपूर्ण होंगी। इस मामले को अदालत में ले जाने की शुरुआत भी हो गई है। एकनाथ शिंदे के पक्ष ने विधानसभा के उपाध्यक्ष के फैसले को चुनौती दी है।
फैसला जो भी हो, इस परिघटना ने राजनीति की
विडंबनाओं को रेखांकित किया है। उद्धव ठाकरे सरकार के मंत्री एकनाथ शिंदे बागी
विधायकों के साथ असम के एक पाँच सितारा होटल में डेरा डाले हुए हैं। मामला जिस
करवट भी बैठे, पर सच यह है कि मुख्यधारा के मीडिया की नजर असम की पीड़ित जनता पर
कम और राजनीति पर ज्यादा है।
बेशक इन विडंबनाओं के अनेक पहलू हैं, पर 2014
के बाद की राष्ट्रीय राजनीति के दो कारक इसके जिम्मेदार हैं। एक, भारतीय जनता
पार्टी का अतिशय सत्ता-प्रेम और दूसरे, उसे रोक पाने या संतुलित करने में विरोधी
दलों की विफलता। इस समय सत्ता-समीकरण बेहद असंतुलित है। इसका एक कारण कांग्रेस
पार्टी का पराभव है। पर यह कुल मिलाकर यह राष्ट्रीय राजनीति और लोकतांत्रिक
संस्थाओं की विफलता है।
पार्टियों का आंतरिक लोकतंत्र भी कसौटी पर है। हैरत है कि महाराष्ट्र के बागियों को गठबंधन के ढाई साल बाद विचारधारा से जुड़ी बातें याद आ रही हैं। दूसरी तरफ शिवसेना के नेतृत्व और उसके विधायकों का ढाई साल लम्बा ‘अबोला’ भी अविश्वसनीय है। यह कैसा लोकतंत्र है? इस राजनीतिक-व्यवस्था में राज्यपालों और पीठासीन अधिकारियों की भूमिका है और चुनाव सुधारों को लागू करा पाने से जुड़ी विफलताएं हैं। राजनीति में एक तरफ ‘मनी और मसल पावर’ की भूमिका बढ़ रही है और दूसरी तरफ धार्मिक-साम्प्रदायिक संकीर्णता विचारधारा का स्थान ले रही है।