Sunday, November 25, 2018

पाकिस्तान का आर्थिक संकट और कट्टरपंथी आँधियाँ

पाकिस्तान इस वक्त दो किस्म की आत्यंतिक परिस्थितियों से गुज़र रहा है। एक तरफ आर्थिक संकट है और दूसरी तरफ कट्टरपंथी सांप्रदायिक दबाव है। देश के सुप्रीम कोर्ट ने हाल में जब ‘तौहीन-ए-रिसालत’ यानी ईश-निंदा के एक मामले में ईसाई महिला आसिया बीबी को बरी किया, तो देश में आंदोलन की लहर दौड़ पड़ी थी। आंदोलन को शांत करने के लिए सरकार को झुकना पड़ा। दूसरी तरफ उसे विदेशी कर्जों के भुगतान को सही समय से करने के लिए कम से कम 6 अरब डॉलर के कर्ज की जरूरत है। जरूरत इससे बड़ी रकम की है, पर सऊदी अरब, चीन और कुछ दूसरे मित्र देशों से मिले आश्वासनों के बाद उसे 6 अरब के लिए अंतरराष्ट्रीय मुद्राकोष की शरण में जाना पड़ा है।

गुजरे हफ्ते आईएमएफ का एक दल पाकिस्तान आया, जिसने अर्थव्यवस्था से जुड़े प्रतिनिधियों और संसद सदस्यों से भी मुलाकात की और उन्हें काफी कड़वी दवाई का नुस्खा बनाकर दिया है। इस टीम के नेता हैरल्ड फिंगर ने पाकिस्तानी नेतृत्व से कहा कि आपको कड़े फैसले करने होंगे और संरचनात्मक बदलाव के बड़े कार्यक्रम पर चलना होगा। संसद को बड़े फैसले करने होंगे। इमरान खान की पीटीआई सरकार जोड़-तोड़ करके बनी है। इतना ही नहीं नवाज़ शरीफ के खिलाफ मुहिम चलाकर उन्होंने सदाशयता की संभावनाएं नहीं छोड़ी हैं। अब उन्हें बार-बार अपने फैसले बदलने पड़ रहे हैं और यह भी कहना पड़ रहा है, ''यू-टर्न न लेने वाला कामयाब लीडर नहीं होता है। जो यू-टर्न लेना नहीं जानता, उससे बड़ा बेवक़ूफ़ लीडर कोई नहीं होता।''

अंधी गुफा के मुहाने पर कश्मीर



जब मुख्यधारा की राजनीति छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश और राजस्थान में मसरूफ़ है, अचानक कश्मीर ने सबको झिंझोड़ दिया है। वहाँ दो तरह की खिचड़ियाँ पक रही थीं। बीरबल जैसी। बेशक अब जनता के सामने जाने का फैसला अच्छा है, पर कश्मीरी जनादेश जटिल होता है। यह जिम्मेदारी राजनीति दलों की है कि वे इस राज्य को अपने संकीर्ण दायरे से बाहर रखते। पर राजनीति का जिम्मेदारी से क्या लेना-देना? राज्यपाल ने यही फैसला जून में क्यों नहीं किया?  उस वक्त उन्होंने विधानसभा को अधर में रखकर नए गठजोड़ की सम्भावना को जीवित रखा था। वह महीन राजनीति सामने आ ही रही थी कि महबूबा मुफ्ती ने पत्ते फेंककर कहानी को नया मोड़ दे दिया। 

जून में अनुभवी प्रशासक एनएन वोहरा की जगह जब बिहार के राज्यपाल सतपाल मलिक को राज्यपाल के रूप में लाया गया, तभी समझ में आ रहा था कि कुछ होने वाला है। 51 साल बाद कश्मीर में इस पद पर किसी राजनेता की नियुक्ति हुई थी। सन 1967 में कर्ण सिंह के हटने के बाद से राज्य में नौकरशाहों, राजनयिकों, पुलिस और फौज के अफसर ही राज्यपाल बनते रहे हैं। बहरहाल बीजेपी की राजनीति के तार्किक परिणति तक पहुँचने के पहले ही गठबंधन राजनीति अपनी चाल चल दी। जैसा इस साल कर्नाटक में हुआ था, उससे मिलता-जुलता कश्मीर में हो गया। सिर्फ एक दिन के लिए।  

Saturday, November 24, 2018

कश्मीर को नई शुरुआत का इंतजार


कश्मीर विधानसभा भंग करने के फैसले ने एक तरफ राजनीतिक और सांविधानिक विवादों को जन्म दिया है, वहीं राज्य की जटिल समस्या को शिद्दत के साथ उभारा है. कुछ संविधान विशेषज्ञों ने विधानसभा भंग करने के राज्यपाल के अधिकार को लेकर आपत्ति व्यक्त की है. सुप्रीम कोर्ट की व्यवस्था है कि सरकार बनने की स्थिति है या नहीं, इसका फैसला सदन के फ्लोर पर होना चाहिए. राज्यपाल सतपाल मलिक का कहना है कि मैं किसी भी पार्टी को सरकार बनाने का मौका देता तो राज्य में बड़े पैमाने पर खरीद-फरोख्त होती.

सरकार बनाने के लिए वहाँ दो तरह की खिचड़ियाँ पक रहीं थीं. दोनों के स्थायित्व की गारंटी नहीं थी. पता नहीं कि राज्यपाल के फैसले को चुनौती दी जाएगी या नहीं, पर इसके सांविधानिक निहितार्थ पर विचार जरूर किया जाना चाहिए. सवाल है कि विधानसभा भंग करने की भी जल्दी क्या थी? लोकतांत्रिक विकल्प खोजने चाहिए थे. विधानसभा भंग होनी ही थी, तो जून में क्यों नहीं कर दी गई, जब बीजेपी के समर्थन वापस लेने के बाद महबूबा मुफ्ती ने इस्तीफा दिया था?

Wednesday, November 21, 2018

सरकार और बैंक की सकारात्मक सहमतियाँ


सरकार, रिजर्व बैंक, उद्योग जगत की महत्वपूर्ण हस्तियों और बैंकिंग विशेषज्ञों की आमराय से देश की पूँजी और मौद्रिक-व्यवस्था न केवल पटरी पर वापस आ रही है, बल्कि भविष्य के लिए नए सिद्धांतों को भी तय कर रही है. इस लिहाज से हाल में खड़े हुए विवादों को सकारात्मक दृष्टि से देखना चाहिए. ये फैसले और यह विमर्श रिजर्व बैंक अधिनियम की धारा 7 की रोशनी में ही हुआ है. सोमवार को रिजर्व बैंक बोर्ड की बैठक अपने किस्म की पहली थी. इतनी लम्बी बैठक शायद ही पहले कभी हुई होगी. करीब नौ घंटे चली बैठक के बाद सरकार और बैंक के बीच तनातनी न केवल ठंडी पड़ी, बल्कि भविष्य का रास्ता भी निकला है. 

यों अब भी कुछ विशेषज्ञ मानते हैं कि टकराव अवश्यंभावी है, फिलहाल बैंक ने टकराव मोल नहीं लिया है और सरकार की काफी बातें मान ली हैं. इन विशेषज्ञों को बैंक के बोर्ड में शामिल प्राइवेट विशेषज्ञों को लेकर आपत्ति है, जिन्हें सरकार मनोनीत करती है. इसका एक मतलब है कि भविष्य में कभी टकराव इस हद तक बढ़े कि दोनों पक्ष अपने कदम वापस खींचने को तैयार नहीं हों, तो ये सदस्य सरकार के पक्ष में पलड़े को झुका देंगे. पर ऐसा माना ही क्यों जाए कि टकराव होना ही चाहिए. क्या दोनों पक्षों को एक-दूसरे की बात समझनी नहीं चाहिए, जैसा इसबार हुआ है?

बैठक के पहले कयास था कि बैंक पर सरकार द्वारा मनोनीत प्राइवेट निदेशक अपने संख्याबल के आधार पर हावी हो जाएंगे. ऐसा कुछ नहीं हुआ. जो जानकारी बाहर आई है उसके अनुसार किसी भी प्रस्ताव पर मतदान की नौबत नहीं आई. बैंक-प्रतिनिधियों ने सरकार की बातों को गौर से सुना और सरकार ने बैंक-प्रतिनिधियों को पूरा सम्मान दिया. दोनों पक्षों ने आग पर पानी डालने का काम किया. यह तनातनी कितनी थी, इसे लेकर भी कयास ज्यादा हैं. मीडिया और राजनीति के मैदान में इसका विवेचन ज्यादा हुआ और ट्विटरीकरण ने आग लगाई.

Sunday, November 18, 2018

हिन्द महासागर की बदलती राजनीति


दो पड़ोसी देशों के हालिया राजनीतिक घटनाक्रम ने भारत का ध्यान खींचा है। एक है मालदीव और दूसरा श्रीलंका। शनिवार को मालदीव में नव निर्वाचित राष्ट्रपति इब्राहिम मोहम्मद सोलिह के शपथ ग्रहण समारोह में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी भी शामिल हुए। दक्षिण एशिया की राजनयिक पृष्ठभूमि में यह महत्वपूर्ण परिघटना है। सन 2011 के बाद से किसी भारतीय राष्ट्राध्यक्ष या शासनाध्यक्ष की पहली मालदीव यात्रा है। दक्षेस देशों में मालदीव अकेला है, जहाँ प्रधानमंत्री मोदी सायास नहीं गए हैं। पिछले कुछ वर्षों में इस देश ने भारत के खिलाफ जो माहौल बना रखा था उसके कारण रिश्ते लगातार बिगड़ते ही जा रहे थे। तोहमत भारत पर थी कि वह एक नन्हे से देश को संभाल नहीं पा रहा है। यह सब चीन और पाकिस्तान की शह पर था।

दूसरा देश श्रीलंका है, जो इन दिनों राजनीतिक अराजकता के घेरे में है। यह अराजकता खत्म होने का नाम नहीं ले रही है। वहाँ राष्ट्रपति मैत्रीपाला सिरीसेना ने प्रधानमंत्री रानिल विक्रमासिंघे को बर्खास्त करके महिंदा राजपक्षे को प्रधानमंत्री बना दिया है। संसद ने हालांकि राजपक्षे को नामंजूर कर दिया है, पर वे अपने पद पर जमे हैं। राजपक्षे चीन-परस्त माने जाते हैं। जब वे राष्ट्रपति थे, तब उन्होंने कुछ ऐसे फैसले किए थे, जो भारत के खिलाफ जाते थे।