Wednesday, November 8, 2017

नोटबंदी के सभी पहलुओं को पढ़ना चाहिए


करेंट सा झटका 


इस साल अर्थशास्त्र का नोबेल पुरस्कार शिकागो विश्वविद्यालय के प्रोफेसर रिचर्ड एच थेलर को दिया गया है. उनका ज्यादातर काम सामान्य लोगों के आर्थिक फैसलों को लेकर है. अक्सर लोगों के फैसले आर्थिक सिद्धांत पर खरे नहीं होते. उन्हें रास्ता बताना पड़ता है. इसे अंग्रेजी में नज कहते हैं. इंगित या आश्वस्त करना. पिछले साल जब नरेन्द्र मोदी ने नोटबंदी की घोषणा की, तब प्रो थेलर ने इस कदम का स्वागत किया था. जब उन्हें पता लगा कि 2000 रुपये का नोट शुरू किया जा रहा है, तो उन्होंने कहा, यह गलत है. नोटबंदी को सही या गलत साबित करने वाले लोग इस बात के दोनों मतलब निकाल रहे हैं.


सौ साल पहले हुई बोल्शेविक क्रांति को लेकर आज भी अपने-अपने निष्कर्ष हैं.  वैसे ही निष्कर्ष नोटबंदी को लेकर हैं. वैश्विक इतिहास का यह अपने किस्म का सबसे बड़ा और जोखिमों के कारण सबसे बोल्ड फैसला था. अरुण शौरी कहते हैं कि बोल्ड फैसला आत्महत्या का भी होता है. पर यह आत्महत्या नहीं थी. हमारी अर्थव्यवस्था जीवित है. पचास दिन में हालात काबू में नहीं आए, पर आए. 

Sunday, November 5, 2017

पटेल को क्यों भूली कांग्रेस?

नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भारतीय जनता पार्टी ने कांग्रेस के कम से कम तीन बड़े नेताओं को खुले तौर पर अंगीकार किया है। ये तीन हैं गांधी, पटेल और लाल बहादुर शास्त्री। मोदी-विरोधी मानते हैं कि इन नेताओं की लोकप्रियता का लाभ उठाने की यह कोशिश है। बीजेपी के नेता कहते हैं कि गांधी ने राजनीतिक दल के रूप में कांग्रेस को भंग कर देने की सलाह दी थी। बीजेपी की महत्वाकांक्षा है कांग्रेस की जगह लेना। इसीलिए मोदी बार-बार कांग्रेस मुक्त भारत की बात करते हैं। आर्थिक नीतियों के स्तर पर दोनों पार्टियों में ज्यादा फर्क भी नहीं है। अक्तूबर 2015 में अरुण शौरी ने टीएन नायनन की किताब के विमोचन-समारोह में कहा था, बीजेपी माने कांग्रेस+गाय।

महात्मा गांधी के पौत्र गोपालकृष्ण गांधी देश की ‘सामाजिक बहुलता’ के पुजारी और नरेंद्र मोदी के ‘राजनीतिक हिंदुत्व’ के मुखर विरोधी हैं। 2017 में उन्होंने अपने एक लेख में लिखा, जाने-अनजाने कांग्रेस की पटेल से किनाराकशी गलती थी, और हिंदुत्व का सोच-समझकर पटेल को अंगीकार करना अभिशाप है। कांग्रेस ने आधिकारिक रूप से कभी नहीं कहा कि वह पटेल से किनाराकशी कर रही है। तब यह सवाल क्यों उठा? गोपालकृष्ण गांधी ने लिखा है कि सरदार पटेल पूरे देश के और हर समुदाय के नेता थे। दूसरी ओर वामपंथियों का बड़ा तबका उन्हें साम्प्रदायिक मानता है। एजी नूरानी ने फ्रंटलाइन में प्रकाशित एक लेख में सरदार उन्हें कट्टर सांप्रदायिक दृष्टिकोण वाला व्यक्ति बताया था ( दिसंबर 2013 में फ्रंटलाइन) 

कांग्रेस पार्टी में शुरू से ही कई तरह की ताकतें सक्रिय थीं। उसमें वामपंथी थे, तो दक्षिणपंथी भी थे। पटेल का निधन 1950 में हो गया। वे ज्यादा समय तक भारतीय राजनीति में रहते तो शायद बातें साफ होतीं, पर उनके जीवन के अंतिम वर्षों की घटनाओं पर निगाह डालें तो साफ नजर आता है कि कांग्रेस के भीतर तीखे वैचारिक मतभेद थे। प्रकारांतर से ये मतभेद बाद के वर्षों में दूसरे रूप में सामने आए। सन 1969 के बाद कांग्रेस पारिवारिक पार्टी के रूप में तबदील हो गई।

भारतीय जनसंघ की स्थापना 1951 में हुई। उसके एक साल पहले पटेल का निधन हो चुका था। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के विचारकों की धारणा है कि पटेल की बात को मान लिया गया होता, तो जनसंघ बनती ही नहीं। सरदार पटेल ने संघ को कांग्रेस का हिस्सा बनने के लिए आमंत्रित किया था। उन्होंने कहा था, संघ के लोग चोर नहीं हैं, वे भी देशभक्त हैं। वे अपने देश को प्यार करते हैं। आप डंडे से संघ को खत्म नहीं कर पाएंगे। पटेल की पहल पर अक्तूबर 1948 में (इस तारीख की पुष्टि मैं करूँगा, क्योंकि वॉल्टर एंडरसन के ईपीडब्लू में प्रकाशित लेख में अक्तूबर 1948 लिखा है) कांग्रेस कार्यसमिति ने एक प्रस्ताव पास किया, जिससे संघ के सदस्यों के कांग्रेस में प्रवेश का रास्ता साफ होता था। यह प्रस्ताव जिस समय पास हुआ जवाहर लाल नेहरू विदेश में थे। नेहरू के वापस आने के बाद वह प्रस्ताव खारिज हो गया।

पटेल का अंगीकार केवल मोदी के दिमाग की उपज नहीं है और कांग्रेस-मुक्त भारत आज की अवधारणा नहीं है। 2016 में बीजेपी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी ने एक प्रस्ताव पास किया, जिसमें स्पष्ट किया गया कि पार्टी का ‘कांग्रेस मुक्त भारत’ से आशय क्या है। इसके अनुसार पार्टी का लक्ष्य कांग्रेस को केवल चुनाव में हराना ही नहीं है, बल्कि इसका मतलब है ‘कांग्रेस ब्रांड’ की राजनीति से मुक्ति। ब्रांड से एक आशय परिवार से भी है।

बीजेपी को कांग्रेस की जगह लेनी है तो उसे सांस्कृतिक बहुलता, सहभागिता, समावेशन और व्यापक जनाधार को भी अपनाना होगा। सरदार पटेल सांस्कृतिक बहुलता और समावेशन के पक्षधर भी थे। पर उनकी पहचान आधुनिक भारतीय राष्ट्रवाद को मूर्त रूप देने वाले राजनेता के रूप में है। नरेंद्र  मोदी ने पटेल जयंती के अवसर पर कहा कि उन्होंने देश की आजादी और उसकी एकता को सुनिश्चित करने के लिए अपना जीवन खपा दिया। मोदी ने इसके साथ ही कांग्रेस पर भी निशाना साधा। उन्होंने कहा, इस महापुरुष के नाम को मिटा देने का प्रयास किया गया या फिर उन्हें छोटा दिखाने का प्रयास भी हुआ, लेकिन पटेल तो पटेल थे। कोई शासन उन्हें स्वीकृति दे या न दे, कोई राजनीतिक दल उनके महत्व को स्वीकार करे या न करे, यह देश और इस देश की युवा पीढ़ी एक पल भी पटेल को भूलने को तैयार नहीं है।

व्यावहारिक राजनीति में आज कांग्रेस पार्टी खुद को सवा सौ साल पुरानी पार्टी कहती जरूर है, पर उसका सारा जोर नेहरू की विरासत पर होता है। नेहरू और उनके समकालीन नेताओं के वैचारिक मतभेद को सकारात्मक रूप से पेश करने की कोशिश पार्टी ने भी नहीं की। नेहरू और पटेल के बीच वैचारिक मतभेद थे। दोनों नेताओं की आर्थिक नीतियों और साम्प्रदायिक सवालों पर एक राय नहीं थी। फिर भी दोनों ने इन मतभेदों को कभी बढ़ाया नहीं।

पटेल और नेहरू के बीच के पत्राचार को पढ़ने से यह भी पता लगता है कि मतभेद इस हद तक आ गए थे कि दोनों में से एक सक्रिय राजनीति से हटने की बात सोचने लगा था। पर दोनों को राष्ट्रीय परिस्थितियों का भी एहसास था। विभाजन के फौरन बाद वह काफी नाजुक समय था। जब तक गांधी जीवित थे, ये अंतर्विरोध सुलझते रहे। नेहरू-पटेल और गांधी के बीच एक बैठक प्रस्तावित थी, जो कभी हो नहीं पाई और गांधी की हत्या हो गई। इसके बाद पटेल ज्यादा समय जीवित रहे नहीं और इतिहास की धारा दूसरी दिशा में चली गई। इतना साफ है कि दोनों ने अपने मतभेदों को इतना नहीं बढ़ाया कि रिश्ते टूट जाएं। दोनों ने एक-दूसरे को सम्मान दिया।

सरदार पटेल को ज्यादा समय तक काम करने का मौका नहीं मिला। देशी रियासतों को भारतीय संघ का हिस्सा बनाने में उनकी सबसे बड़ी भूमिका थी। इसके अलावा संविधान की रचना में भी उनका महत्वपूर्ण योगदान था। मौलिक अधिकारों, प्रधानमंत्री की भूमिका, राष्ट्रपति के चुनाव की प्रक्रिया और कश्मीर को लेकर नेहरू के साथ उनके मतभेद संविधान सभा में भी प्रकट हुए। बीआर आम्बेडकर के समर्थकों में पटेल भी एक थे और एक मौके पर उन्हें कानून मंत्री पद से हटाए जाने के प्रयासों का उन्होंने विरोध भी किया था।

कांग्रेस ने पटेल से किनाराकशी की या नहीं की, इसे लेकर अलग राय हैं। इस बात को छिपाया नहीं जा सकता कि उन्हें भारत रत्न का सम्मान देने में देरी हुई। सन 1954 में जब पहली बार भारत रत्न का सम्मान दिया जा रहा था, तब उनकी याद क्यों नहीं आई? और 1991 में याद क्यों आई?

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स्वांग रचती सियासत


पिछले मंगलवार को संसद भवन में सरदार पटेल के जन्मदिवस के सिलसिले में हुए समारोह की तस्वीरें अगले रोज के अखबारों में छपीं। ऐसी तस्वीरें भी थीं, जिनमें राहुल गांधी नरेन्द्र मोदी के सामने से होकर गुजरते नजर आते हैं। कुछ तस्वीरों से लगता था कि मोदी की तरफ राहुल तरेर कर देख रहे हैं। यह तस्वीर तुरत सोशल मीडिया में वायरल हो गई। यह जनता की आम समझ से मेल खाने वाली तस्वीर थी। दुश्मनी, रंज़िश और मुकाबला हमारे जीवन में गहरा रचा-बसा है। मूँछें उमेठना, बाजुओं को फैलाना, ताल ठोकना और ललकारना हमें मजेदार लगता है।
जाने-अनजाने हमारी लोकतांत्रिक शब्दावली में युद्ध सबसे महत्वपूर्ण रूपक बनकर उभरा है। चुनाव के रूपक संग्राम, जंग और लड़ाई के हैं। नेताओं के बयानों को ब्रह्मास्त्र और सुदर्शन चक्र की संज्ञा दी जाती है। यह आधुनिक लोकतांत्रिक स्वस्थ प्रतिस्पर्धा नहीं लगती, बल्कि महाभारत की सामंती लड़ाई जैसी लगती है। इस बात की हम कल्पना ही नहीं करते कि कभी सत्तापक्ष किसी मसले पर विपक्ष की तारीफ करेगा और विपक्ष किसी सरकारी नीति की प्रशंसा करेगा।

Saturday, November 4, 2017

‘नोटबंदी’ पार लगा देगी कांग्रेसी नैया?

सोशल मीडिया सेल की जिम्मेदारी रम्या उर्फ दिव्य स्पंदना को मिल जाने के बाद से कांग्रेस के प्रचार में जान पड़ गई है। हाल में ट्विटर पर प्रचारित एक वीडियो देखने को मिला, जिसमें गब्बर सिंह हाथ में दो तलवारें लिए ठाकुर के दोनों हाथ काट रहा है। दोनों तलवारों में एक जीएसटी की है और दूसरी नोटबंदी की। कहा जा रहा है कि गुजरात में दोनों बातें बीजेपी को हराने में मददगार होंगी। कांग्रेस पार्टी इसी उम्मीद में 8 नवम्बर को काला दिन मनाने जा रही है। उसी दिन भारतीय जनता पार्टी ने काला धन विरोधी दिवस के रूप में जश्न मनाने की योजना भी बनाई है।

नोटबंदी और जीएसटी पर यदि गुजरात में बीजेपी को धक्का लगा तो उसके बाद के चुनावों को बचाना आसान नहीं होगा। इसलिए यह चुनाव काफी रोचक हो गया है। कांग्रेस पार्टी के नज़रिए से देखें तो उसकी उम्मीदें बीजेपी की नकारात्मकता पर टिकी हैं। यानी लोग सरकार से नाराज हैं, 22 साल की इनकम्बैंसी है और जातीय समीकरण भी उसके खिलाफ जा रहा है। लोगों को यह भी बताना होगा कि इन बातों से निजात दिलाने के लिए कांग्रेस क्या करने जा रही है। राष्ट्रीय राजनीति में उसकी स्थिति क्या है और आर्थिक नीतियों में वह ऐसा क्या करेगी, जो बीजेपी सरकार की नीतियों से बेहतर होगा। केवल नोटबंदी से उम्मीदें बाँध लेना काफी नहीं होगा।

यह सच है कि नोटबंदी को शुरू में जनता का समर्थन मिला था। उत्तर प्रदेश के चुनाव में मिली भारी विजय से बीजेपी का उत्साह काफी बढ़ा, पर हाल में आर्थिक मोर्चे पर मंदी की खबरें आने से जनता के दिलो-दिमाग में सवाल खड़े होने लगे हैं। बीजेपी यह बताने की कोशिश कर रही है कि परेशानी अस्थायी है और लम्बी बीमारी के इलाज में तकलीफें भी होती हैं। फिर भी जनता संशय में है और इस संशय का लाभ गुजरात में कांग्रेस को मिल भी सकता है। पर कितना? क्या यह लाभ इतना बड़ा होगा कि वह गुजरात में सरकार बना सके? उसे निर्णायक जीत मिले?  

Thursday, November 2, 2017

ट्रंप के नाम आतंक की खुली चुनौती

डोनाल्ड ट्रंप के नाम यह खुली चुनौती है, क्योंकि उनके राष्ट्रपति बनने के बाद से इस्लामी आतंकवाद की अपने किस्म की बड़ी घटना है. राष्ट्रपति ट्रंप ने दुनिया से जिस इस्लामी आतंकवाद के सफाए की जिम्मेदारी ली है वह उनके घर के भीतर घुसकर मार कर रहा है. शायद इसीलिए लोअर मैनहटन में हुए नवीनतम आतंकी हमले के बाद उनकी प्रतिक्रिया काफी तेजी से आई है.

ट्रंप ने अपने ट्वीट में कहा है कि आइसिस को हमने पश्चिम एशिया में परास्त कर दिया है, उसे हम अमेरिका में प्रवेश करने नहीं देंगे. ट्रंप ने मैनहटन की घटना को बीमार व्यक्ति की कार्रवाई बताया है. इस साल इस तरह की यह दूसरी घटना है. इससे पहले बोस्टन में इसी तरह की घटना में एक सिरफिरे ने कार को भीड़ के ऊपर चढ़ा दिया था. वहाँ 11 लोग घायल हुए थे.