Tuesday, September 13, 2011

मोदी पर तलवार

इसे जीत कह सकते हैं और हार भी

हिन्दू में केशव का कार्टून


Monday, September 12, 2011

साम्प्रदायिक हिंसा कानून के राजनीतिक निहितार्थ


साम्प्रदायिक हिंसा के खिलाफ प्रस्तावित कानून की भावना जितनी अच्छी है उतना ही मुश्किल है इसका व्यावहारिक रूप। यह कानून अल्पसंख्यकों की रक्षा के लिए बनाया जा रहा है। पर इसका जितना प्रचार होगा उतना ही बहुसंख्यक वर्ग इसके खिलाफ जाएगा। हो सकता है कि कांग्रेस को इससे राजनीतिक लाभ मिले, पर भाजपा को भी तो मिलेगा। इस कानून के संघीय व्यवस्था के संदर्भ में भी कुछ निहितार्थ हैं। इसका नुकसान किसे होगा? बहरहाल इस कानून की भावना जो भी हो इसे सामने लाने का समय ठीक नहीं है। 



यूपीए दो की सरकार बनने के बाद लगा कि भाजपा के दिन लद गए। अटल बिहारी वाजपेयी के नेपथ्य में जाने के बाद पार्टी के पास मंच पर कोई दूसरा नेता नहीं बचा। पिछले दो साल से पार्टी की नैया हिचकोले खा रही है। पिछले साल झारखंड में शिबू सोरेन के साथ लेन-देन के शुरूआती झटकों के बाद पार्टी के नेतृत्व में सरकार बन गई। कर्नाटक में अच्छी भली सरकार बन गई थी, पर येदियुरप्पा को रेड्डी बंधुओं की दोस्ती रास नहीं आई। सन 2009 के अंत में एकदम अनजाने से नितिन गडकरी पार्टी अध्यक्ष बने तब लगा कि इसे चलाने वालों का सिर फिर गया है। पर वक्त की बात है कि इसे प्रणवायु मिलती रही। इसमे पार्टी की अपनी भूमिका कम दूसरों की ज्यादा है। पिछले डेढ़ साल से भाजपा को यूपीए सरकार प्लेट में रखकर मौके दे रही है। पता नहीं अन्ना-आंदोलन में इनका कितना हाथ था, पर ये फायदा उठा ले गए। और अब सरकार संसद के शीत सत्र में साम्प्रदायिक हिंसा के खिलाफ जो विधेयक पेश करने वाली है, उसका फायदा कांग्रेस को मिले न मिले, भाजपा को ज़रूर मिलेगा।

Sunday, September 11, 2011

यह मीडिया का आतंकवाद है



आतंकवादी हिंसा, साम्प्रदायिक हिंसा और दूसरे किस्म के टकरावों की कवरेज को लेकर विचार करने का समय आ गया है। नवम्बर 2008 के मुम्बई हमलों के दौरान कई दिन तक चली धारावाहिक कवरेज का फायदा हमलावरों के आकाओं ने उठाया। जब तक हम समझ पाते नुकसान हो चुका था। हिंसा की कवरेज और उसके संदर्भ में होने वाले स्टूडियो डिस्कशन अक्सर माहौल को सम्हालने के बजाय बिगाड़ देते हैं। आतंवादियों का उद्देश्य हमारे मनोबल पर हमला करना होता है। अक्सर उसके इस इरादे को मीडिया से मदद मिलती है।

Friday, September 9, 2011

स्वागत कैप्टेन

पिछले एक महीने में भारतीय राजनीति और प्रशासन ने बहुत कुछ देख लिया। सागर मंथन चल रहा है। पर इसमें नया रत्न कोई निकल कर नहीं आ रहा। अलबत्ता सोनिया गांधी की वापसी पर हिन्दू में प्रकाशित यह कार्टून अच्छा है। 

आत्मविश्वास हमारा, या आतंकवादियों का?




दो दिन बाद 9/11 की दसवीं बरसी है। 9 सितम्बर 2001 को न्यूयॉर्क के वर्ल्ड ट्रेड सेंटर के अलावा दो और इमारतें ध्वस्त हो गईं थीं। सोलह एकड़ का यह क्षेत्र अमेरिकी जनता के मन में गहरा घर कर गया है। उसी रोज न्यूयॉर्क के मेयर रूडी गुइलानी, गवर्नर जॉर्ज पैटकी और राष्ट्रपति जॉर्ज बुश ने घोषणा की थी कि इन बिल्डिंगों को फिर से तैयार किया जाएगा। इनमें से एक 7 वर्ल्ड ट्रेड सेंटर 2006 में तैयार हो गई और बाकी दो भी तैयार हो रही हैं।

अमेरिकी मानते हैं कि इन इमारतों को नहीं बनाया जाता तो यह आतंकवादियों की जीत होती। सच यह है कि उस दिन के बाद से न्यूयॉर्क ने आतंकवादियों को दूसरी कार्रवाई का मौका नहीं दिया। अमेरिका आज़ादी का देश था। वहाँ कोई भी अपने ढंग से रह सकता था। पिछले दस साल में यह देश बदल गया। अमेरिकी सरकार ने 400 अरब डॉलर की अतिरिक्त राशि सुरक्षा व्यवस्थाओं पर खर्च की और करीब एक हजार तीन सौ अरब डॉलर इराक और अफगानिस्तान की लड़ाइयों पर, जिन्हें यह देश 9/11 से जोड़ता है। पिछले दस साल में लोगों की व्यक्तिगत आज़ादी कम हो गई है। सारा ध्यान सुरक्षा पर है। वहाँ नागरिक अधिकारों के समर्थक इस अतिशय सुरक्षा का विरोध कर रहे हैं।