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Friday, March 17, 2023

इमरान की गिरफ्तारी होने या नहीं होने से खत्म नहीं होगा पाकिस्तान का राजनीतिक-संकट


हालांकि पाकिस्तान के पूर्व प्रधानमंत्री इमरान खान फिलहाल गिरफ्तारी से बचे हुए हैं, पर लगता है कि तोशाखाना केस में वे घिर जाएंगे. इस्लामाबाद हाईकोर्ट ने उनके गिरफ्तारी वारंट पर फ़ैसला सुरक्षित रख लिया है, जिसका मतलब है कि अदालत ने इस मामले में फौरन रिलीफ नहीं दी है. लाहौर हाई कोर्ट ने पहले गुरुवार सुबह 10 बजे तक ज़मान पार्क में पुलिस-कार्रवाई पर रोक लगाई और फिर उसे एक दिन के लिए और बढ़ा दिया. इससे फिलहाल टकराव रुक गया है, पर राजनीतिक-संकट कम नहीं हुआ है. वस्तुतः गिरफ्तारी हुई, तो एक नया संकट शुरू होगा. और नहीं हुई, तो एक नज़ीर बनेगी, जो देश की कानून-व्यवस्था के लिए सवाल खड़े करेगी. उधर तोशाखाना केस की सुनवाई कर रहे जज ने कहा है कि इमरान अदालत में हाजिर हो जाएं, तो गिरफ्तारी वारंट वापस हो जाएगा.

पाकिस्तान के वर्तमान राजनीतिक-आर्थिक और सामरिक संकटों का हल तभी संभव है, जब वहाँ की राजनीतिक-शक्तियाँ एक पेज पर आएं. ताजा खबर है कि प्रधानमंत्री शहबाज़ शरीफ ने इसकी पेशकश की है, और इमरान ने कहा है कि देशहित में मैं किसी से भी बात करने को तैयार हूँ। फिर भी इसकी कल्पना अभी नहीं की जा सकती है. सरकार और इमरान के राष्ट्रीय-संवाद के बीच तमाम अवरोध हैं। बहरहाल जो टकराव चल रहा है, उसे किसी तार्किक परिणति तक पहुँचना होगा. इस संकट की वजह से अंतरराष्ट्रीय मुद्राकोष का बेलआउट पैकेट खटाई में पड़ा हुआ है.

आर्थिक-संकट

पाकिस्तान की कोशिश है कि अमेरिका की मदद से मुद्राकोष के रुख में कुछ नरमी आए. पिछले हफ्ते देश के वित्त सचिव हमीद याकूब शेख ने कहा था कि पैकेज की घोषणा अब कुछ दिन के भीतर ही हो जाएगी. यह बात पिछले कई हफ्तों से कही जा रही है. मुद्राकोष देश की वित्तीय और खासतौर से राजनीतिक-स्थिति को लेकर आश्वस्त नहीं है. दूसरी तरफ ऐसी अफवाहें उड़ाई जा रही हैं कि आईएमएफ ने देश के नाभिकीय-मिसाइल कार्यक्रम को रोकने की शर्त भी लगाई है. इसपर सरकार ने सफाई भी दी है.

Thursday, March 16, 2023

सऊदी-ईरान समझौता और पश्चिम एशिया में चीन की बढ़ती भूमिका

 


देस-परदेश

इस्लामिक देशों में सऊदी अरब और ईरान के बीच पुरानी प्रतिद्वंदिता है. उसके पीछे ऐतिहासिक कारण भी हैं. पिछले कुछ वर्षों से यह इतनी कटु हो गई थी कि दोनों देशों ने आपसी राजनयिक-संबंध भी तोड़ लिए थे. अब ये रिश्ते चीन की मध्यस्थता में फिर से कायम होने जा रहे हैं. इस्लामिक देशों की एकता और सहयोग की दृष्टि से तथा आने वाले समय की वैश्विक-राजनीति की दृष्टि से यह समझौता महत्वपूर्ण साबित होने वाला है.

बेशक दोनों देशों के दूतावास अगले दो महीनों के भीतर काम करने लगेंगे, पर यह सब जितना आसान समझा जा रहा है, उतना आसान भी नहीं है. इसीलिए इसे लागू करने के लिए दो महीने का समय रखा गया है, ताकि सभी जटिलताओं को सुलझा लिया जाए.  

चीन की भूमिका

दोनों देशों के बीच चार दिन की बातचीत के बाद इस बात की घोषणा होने पर पर्यवेक्षकों को हैरत उतनी नहीं हुई, जितनी इसमें चीन की भूमिका को लेकर विस्मय पैदा हुआ है. क्या चीन अब वैश्विक-डिप्लोमेसी में ज्यादा बड़ी भूमिका निभाने जा रहा है? चीनी अखबार ग्लोबल टाइम्स ने इसे चीन के ग्लोबल सिक्योरिटी इनीशिएटिव (जीएसआई) की देन बताया है.

पिछले सात दशकों से पश्चिम एशिया में अमेरिका ही सबसे बड़ी भूमिका निभाता रहा है. यह पहला मौका है, जब इस भूमिका में चीन सामने आया है. ऐसी बैठक कराने में अमेरिका सबसे समर्थ है, पर ईरान के साथ उसके रिश्ते अच्छे नहीं हैं. फिर भी पश्चिमी पर्यवेक्षक मानते हैं कि संबंध-सुधार की इस प्रक्रिया के पीछे भी अमेरिकी सहमति है, क्योंकि वह पश्चिम एशिया में इसरायल-फलस्तीन झगड़े का निपटारा कराने के लिए ज़मीन तैयार कर रहा है.

 

अमेरिकी रज़ामंदी

अमेरिका ने समझौते का स्वागत किया है. ह्वाइट हाउस की प्रवक्ता केरिन जीन-पियरे ने कहा कि यमन में युद्ध रोकने की किसी भी कोशिश का अमेरिका समर्थन करता है. उन्होंने कहा कि राष्ट्रपति बाइडन ने जुलाई में इस इलाक़े में तनाव कम करने की कोशिश और राजनयिक रिश्तों को मज़बूत करने के कदमों को अमेरिकी विदेश नीति की बुनियाद बताया था. खाड़ी क्षेत्र में तनाव कम करना अमेरिका की प्राथमिकता है हम इस समझौते का समर्थन करते हैं.

दूसरे नज़रिए से देखें, तो यह परिघटना अमेरिका को परेशान करने वाली होनी चाहिए, क्योंकि इससे ईरान को अलग-थलग करने की उसकी कोशिश को धक्का लगेगा. इसके पीछे कौन सी ताकत है और किसकी क्या भूमिका है, इसे स्पष्ट होने में भी कुछ समय लगेगा.

कड़वाहट की वज़ह

2016 में प्रतिष्ठित शिया धर्म गुरु निम्र अल-निम्र सहित 47 लोगों को आतंकवाद के आरोपों में सऊदी अरब में फाँसी दिए जाने के बाद ईरान और सऊदी रिश्ते खराब हो गए. इसके कारण जब भीड़ ने तेहरान स्थित सऊदी दूतावास पर हमला बोला, तो राजनयिक रिश्ते भी टूट गए. इसके बाद रिश्ते बिगड़ते ही गए और 2019 ईरान में बने ड्रोनों ने जब सऊदी तोल-शोधक कारखानों पर हमले किए तो और बिगड़ गए.

इन दोनों देशों की प्रतिद्वंदिता का असर लेबनान, सीरिया, इराक़ और यमन समेत पश्चिम एशिया के कई देशों और समाजों पर पड़ रहा है. इस इलाके में चल रहे सशस्त्र-आंदोलनों में इन देशों के समर्थन से सक्रिय गुटों की भूमिका है. अभी तक अमेरिका और इसरायल की इन रिश्तों को बनाने और बिगाड़ने में भूमिका थी, पर पिछले कुछ समय से चीन और रूस की गतिविधियाँ भी इस इलाके में बढ़ी हैं. इस लिहाज से ताज़ा घटनाक्रम महत्वपूर्ण है.

प्रयासों की पृष्ठभूमि

गत 10 मार्च को ईरान की सुप्रीम नेशनल सिक्योरिटी काउंसिल के सेक्रेटरी अली शमखानी और सऊदी सुरक्षा सलाहकार मुसाद बिन मुहम्मद अल-ऐबान की बैठक अप्रत्याशित घटना नहीं थी, क्योंकि पिछले कुछ समय से ऐसी खबरें हवा में हैं कि दोनों के बीच अनौपचारिक स्तर पर बातचीत होने लगी है. हैरत इस बैठक के स्थान को लेकर है, जो पश्चिम एशिया के किसी देश में न होकर चीन में था, जिसकी अब तक पश्चिम की राजनीति में बड़ी भूमिका नहीं थी.

Saturday, March 11, 2023

चीन पर काबू पाने की कोशिशें

 देस-परदेश

अमेरिका-चीन और भारत-2, इस आलेख की पहली किस्त पढ़ें यहाँ


नब्बे के दशक के वैश्वीकरण का सबसे बड़ा फायदा चीन को मिला. पश्चिमी देशों के पूँजी निवेश के कारण उसकी अर्थव्यवस्था का तेज विस्तार हुआ. पश्चिम को शुरुआती वर्षों में चीन का उदय अपने पक्ष में जाता नज़र आता था, पर ऐसा हुआ नहीं. सामरिक और आर्थिक, दोनों मोर्चों पर चीन आज पश्चिम के सबसे बड़े प्रतिस्पर्धी के रूप में उभर कर आया है. असली टकराव अब अमेरिका और चीन के बीच है.

हाल में जी-20 की बैठक में भाग लेने आए रूसी विदेशमंत्री सर्गेई लावरोव ने कहा कि हम भारत और चीन की दोस्ती चाहते हैं. रूस, भारत और चीन के विदेशमंत्री इस साल त्रिपक्षीय समूह की बैठक के लिए मिलेंगे, पर भारत सरकार के सूत्रों का कहना है कि जब तक उत्तरी सीमा की स्थिति में सुधार नहीं होगा, भारत ऐसी किसी बैठक में भाग नहीं लेगा. आरआईसी (रूस, भारत, चीन) के विदेशमंत्री पिछली बार नवंबर 2021 में वर्चुअल माध्यम से मिले थे. फरवरी 2022 में यूक्रेन युद्ध की शुरुआत के बाद से नहीं मिले हैं. लावरोव जो भी कहें भारत और चीन की प्रतिस्पर्धा आकाश में लिखी दिखाई पड़ती है. रूस और चीन के हित भी टकराते हैं, पर आज वे दिखाई पड़ नहीं रहे हैं.

अमेरिकी रुख

भारत और अमेरिका आज जितने करीबी नज़र आ रहे हैं, उतने अतीत में नहीं थे. 1971 में बांग्लादेश-युद्ध के दौरान अमेरिका की दिलचस्पी चीन से दोस्ती गाँठने की थी, ताकि वह रूस को संतुलित करने वाली ताकत बने. पर चीन अब भस्मासुर बन चुका है. बांग्लादेश की मुक्ति सामान्य लड़ाई नहीं थी. उस मौके पर तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने अमेरिकी राष्ट्रपति रिचर्ड निक्सन के नाम जो खुला पत्र लिखा था, उसे फिर से पढ़ने की जरूरत है.

उस दौरान अमेरिकी पत्रकारों ने अपने नेतृत्व की इस बात के लिए आलोचना भी की थी कि भारत को रूस के साथ जाने को मजबूर होना पड़ा. विदेशमंत्री एस जयशंकर ने गत 10 अक्तूबर को ऑस्ट्रेलिया में एक प्रेस-वार्ता के दौरान कहा कि हमारे पास रूसी सैनिक साजो-सामान होने की वजह है, पश्चिमी देशों की नीति. पश्चिमी देशों ने हमें रूस की ओर धकेला.

1998 में भारत के एटमी परीक्षण के फौरन बाद पाकिस्तान ने भी एटमी परीक्षण किया. दुनिया जानती थी कि पाकिस्तानी एटम बम वस्तुतः चीनी मदद से तैयार हुआ है. उस दौरान तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने राष्ट्रपति बिल क्लिंटन को एक पत्र लिखा, ‘हमारी सीमा पर एटमी ताकत से लैस एक देश बैठा है, जो 1962 में हमला कर भी चुका है… इस देश ने हमारे एक और पड़ोसी को एटमी ताकत बनने में मदद की है.’ कहा जाता है कि अमेरिकी प्रशासन ने इस पत्र को सोच-समझकर लीक किया. यह अमेरिकी नीति में बदलाव का प्रस्थान-बिंदु था.

चीन पर नकेल

अमेरिका अब उस प्रक्रिया को उलटना चाहता है, जिसके कारण चीन का आर्थिक महाविस्तार हुआ है. सवाल है कि क्या उसे सफलता मिलेगी? हिंद-प्रशांत क्षेत्र में क्वाड एक कदम है. उधर अमेरिका के दबाव में दिसंबर 2020 में हुआ यूरोपियन यूनियन और चीन का कांप्रिहैंसिव एग्रीमेंट ऑन इनवेस्टमेंट (सीएआई) खटाई में पड़ गया. इस निवेश समझौते (सीएआई) पर सहमति सात साल तक चली बातचीत के बाद जाकर बनी थी. इसमें व्यवस्था थी कि ईयू और चीन की कंपनियां एक दूसरे के यहां आसानी से निवेश कर पाएंगी.

Thursday, March 9, 2023

चीन को काबू करने की कोशिशें और भारत

 देस-परदेश

अमेरिका-चीन और भारत-1

ताज़ा खबर है कि चीन ने इस साल 5 फीसदी संवृद्धि का लक्ष्य तय किया है, जो पिछले 35 वर्षों का सबसे नीचा स्तर है. चीनी संसद में प्रधानमंत्री ली ख छ्यांग ने अपने कार्यकाल के अंतिम दिन यह घोषणा की है. सन 1978 में जबसे चीन ने अपनी अर्थव्यवस्था को खोला है उसकी संवृद्धि औसतन नौ फीसदी तक रही है, पर अब उसमें ठहराव आ रहा है.

इसके पीछे सबसे बड़ा कारण है तीन साल तक चली कोविड-19 महामारी. उधर तरफ अमेरिका के नेतृत्व में पश्चिमी खेमे की कोशिश है कि चीन के आर्थिक और सैनिक विस्तार पर किसी तरह से रोक लगाई जाए. जिस तरह पहले अमेरिका ने सोवियत संघ को काबू में करने की कोशिशें की थीं, अब उसी तर्ज पर वह चीन को काबू करने का प्रयास कर रहा है.

क्या अमेरिका अपने इस प्रयास में सफल होगा? बड़ी संख्या में पर्यवेक्षक मानते हैं कि इसमें देर हो चुकी है. चीन अब अमेरिका के दबाव में आने वाला नहीं है. अब शीतयुद्ध की तरह दुनिया की अर्थव्यवस्था दो भागों में विभाजित नहीं है. वह आपस में जुड़ी हुई है. वह एक-ध्रुवीय भी नहीं है, पर अब दो-ध्रुवीय भी नहीं रहेगी, जैसी कि चीनी मनोकामना है.

दुनिया अब बहुध्रुवीय होने जा रही है. इसमें एक बड़ी भूमिका भारत की होगी. यह भूमिका केवल दुनिया को बहुध्रुवीय बनाने वाली ही नहीं है, बल्कि विश्व-व्यवस्था में संतुलन स्थापित करने की है. पर उसके पहले हमें चीन की जवाबी ताकत बनना होगा.

जी-20 की बैठकें

पिछले कुछ वर्षों में पश्चिमी देशों की चीन-विरोधी रणनीति ने धीरे-धीरे अपनी जगह बनाई है. इसमें सबसे बड़ी भूमिका पिछले साल यूक्रेन पर हुए रूसी सैनिक हस्तक्षेप ने निभाई है. यूक्रेन में रूसी हठ के पीछे चीन का हाथ नज़र आने लगा है. पिछले हफ्ते भारत में हुई जी-20 की दो मंत्रिस्तरीय बैठकों में वैश्विक-राजनीति का यह टकराव खुलकर सामने आया. बेंगलुरु में वित्तमंत्रियों और केंद्रीय बैंकों के गवर्नरों तथा दिल्ली में विदेशमंत्रियों की बैठक, विश्व-व्यवस्था पर कोई आमराय बनाए बगैर ही संपन्न हो गईं.

हालांकि भारतीय-नजरिए में औपचारिक बदलाव नहीं है, पर इस घटनाक्रम का दूरगामी असर होगा, जिसके संकेत मिलने लगे हैं. नवंबर में जी-20 का शिखर सम्मेलन जब होगा, तब ज्यादा बड़ी चुनौतियाँ सामने आएंगी. जी-20 की बैठकों के फौरन बाद शुक्रवार को दिल्ली में हुई क्वॉड विदेशमंत्रियों की बैठक से इस मसले के अंतर्विरोध और ज्यादा खुलकर सामने आए हैं.

Friday, January 27, 2023

महत्वपूर्ण साबित होगा अल-सीसी का भारत आगमन


इस साल गणतंत्र दिवस पर मुख्य अतिथि के रूप में मिस्र के राष्ट्रपति अब्देल फत्तह अल-सीसी का आगमन भारत की ‘लुक-वैस्ट पॉलिसी’ को रेखांकित करता है, साथ ही एक लंबे अरसे बाद सबसे बड़े अरब देश के साथ पुराने-संपर्कों को ताज़ा करने का प्रयास भी लगता है. इस वर्ष भारत की जी-20 की अध्यक्षता के दौरान मिस्र को 'अतिथि देश' के रूप में आमंत्रित किया गया है.

अल-सीसी गणतंत्र दिवस के मुख्य अतिथि के तौर पर आने वाले मिस्र के पहले नेता होंगे. महामारी के कारण बीते दो साल ये समारोह बगैर मुख्य अतिथि के मनाए गए. इस बार समारोह के मेहमान बनकर आ रहे अल-सीसी देश के लिए भी खास है. वे एक ऐसे देश के शासक हैं, जो कट्टरपंथ और आधुनिकता के अंतर्विरोधों से जूझ रहा है.

कौन हैं अल-सीसी?

पहले नासर फिर अनवर सादात और फिर हुस्नी मुबारक। तीनों नेता लोकप्रिय रहे, पर मिस्र में लोकतांत्रिक संस्थाओं का विकास भारतीय लोकतंत्र की तरह नहीं हुआ. 2010-11 में अरब देशों में लोकतांत्रिक-आंदोलनों की आँधी आई हुई थी. इसे अरब स्प्रिंग या बहार-ए-अरब कहते हैं. इस दौरान ट्यूनीशिया, मिस्र, यमन और लीबिया में सत्ता परिवर्तन हुए.

11 फरवरी, 2011 को हुस्नी मुबारक के हटने की घोषणा होने के बाद अगला सवाल था कि अब क्या होगा? इसके बाद जनमत-संग्रह और संविधान-संशोधन की एक प्रक्रिया चली. अंततः 2012 में हुए चुनाव में मुस्लिम-ब्रदरहुड के नेता मुहम्मद मुर्सी राष्ट्रपति चुने गए. मुर्सी के शासन से भी जनता नाराज़ थी और देशभर में आंदोलन चल रहा था.

फौजी से राजनेता

संकट के उस दौर में अल-सीसी का उदय हुआ. वे चुने हुए लोकतांत्रिक नेता को फौजी बगावत के माध्यम से हटाकर राष्ट्रपति बने थे, पर जनता ने भी बाद में उन्हें राष्ट्रपति के रूप में चुना. 19 नवंबर, 1954 को जन्मे अब्देल फत्तह अल-सीसी सैनिक अफसर थे. जुलाई 2013 को उन्होंने चुने हुए राष्ट्रपति मुहम्मद मुर्सी को हटाकर सत्ता अपने हाथ में ले ली.

Wednesday, January 18, 2023

वैश्विक-घटनाक्रम में भारत की उत्साहवर्धक शुरुआत


 देस-परदेश

भारत की विदेश-नीति के लिहाज से साल की शुरुआत काफी उत्साहवर्धक है. जी-20 और शंघाई सहयोग संगठन की अध्यक्षता के कारण इस साल ऐसी गतिविधियाँ चलेंगी, जिनसे देश का महत्व रेखांकित होगा. इसकी शुरुआत वॉयस ऑफ ग्लोबल-साउथ समिट से हुई है, जिससे आने वाले समय की दिशा का पता लगता है.

यह भी सच है कि पिछले तीन-चार दशक के तेज विकास के बावजूद भारत अभी आर्थिक रूप से अमेरिका या चीन जैसा साधन-संपन्न नहीं है, फिर भी विकसित और विकासशील देशों के बीच सेतु के रूप में उसकी परंपरागत छवि काफी अच्छी है. सीमा पर तनाव के बावजूद भारत और चीन के बीच व्यापार 2022 में बढ़कर 135.98 अरब डॉलर के अबतक के उच्चतम स्तर पर पहुंच गया. इसमें भारत 100 अरब डॉलर से ज्यादा के घाटे में है.

चीन का विकल्प

यह घाटा फौरन दूर हो भी नहीं सकता, क्योंकि वैकल्पिक सप्लाई-चेन अभी तैयार नहीं हैं. कारोबारों को चलाए रखने के लिए हमें इस आयात की जरूरत है. पिछले चार दशक में विश्व की सप्लाई चेन का केंद्र चीन बना है. इसे बदलने में समय लगेगा. अब भारत समेत कुछ देश विकल्प बनने का प्रयास कर रहे हैं. देखते ही देखते दुनिया में मोबाइल फोन का दूसरा सबसे बड़ा उत्पादन भारत में होने लगा है.

पहले अमेरिका और अब जापान ने चीन को सेमीकंडक्टर सप्लाई पर पाबंदी लगाई है. जापान के प्रधानमंत्री फुमियो किशिदा की पिछले हफ्ते अमेरिका-यात्रा के दौरान चीन को घेरने की रणनीति दिखाई पड़ने लगी है. स्पेस, आर्टिफीशियल इंटेलिजेंस, इलेक्ट्रिक वेहिकल्स, ऑटोमोबाइल्स, मेडिकल-उपकरणों, कंज्यूमर इलेक्ट्रॉनिक्स से लेकर शस्त्र-प्रणालियों तक में सेमीकंडक्टर महत्त्वपूर्ण हैं.

Sunday, January 15, 2023

‘ग्लोबल-साउथ’ की आवाज़ बनेगा भारत


गुजरे हफ्ते गुरुवार और शुक्रवार को हुए वॉयस ऑफ ग्लोबल-साउथ समिट ने दो बातों की तरफ ध्यान खींचा है। कुछ लोगों के लिए ग्लोबल-साउथ शब्द नया है। उन्हें इसकी पृष्ठभूमि को समझना होगा। भारत की विदेश-नीति के लिहाज से इसके महत्व को रेखांकित करने की जरूरत भी है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इसके उद्घाटन और समापन सत्रों को संबोधित किया। सम्मेलन में 120 से ज्यादा विकासशील देशों की शिरकत के साथ यह ग्लोबल-साउथकी सबसे बड़ी वर्चुअल सभा साबित हुई। इन देशों में दुनिया की करीब तीन-चौथाई आबादी निवास करती है। वस्तुतः पूरी दुनिया का दिल इन देशों में धड़कता है।

वैश्विक-संकट

यह सम्मेलन कोविड-19, जलवायु-परिवर्तन और वैश्विक-मंदी की पृष्ठभूमि के साथ आयोजित हुआ है। इन तीनों बातों की तपिश विकासशील देशों को झेलने पड़ी है, जबकि तीनों के लिए ग्लोबल साउथ के ये देश जिम्मेदार नहीं है। दूसरी तरफ वैश्विक-संकट गहरा रहा है। ऐसे में भारत समाधान देने और खासतौर से ग्लोबल साउथ यानी इन विकासशील देशों की आवाज़ बनने जा रहा है। इस वर्ष भारत जी-20 और शंघाई सहयोग संगठन का अध्यक्ष भी है, इस लिहाज से यह समय भी महत्वपूर्ण है। पिछले मंगलवार को इंदौर में संपन्न हुए 17वें प्रवासी भारतीय दिवस सम्मेलन के अंतिम दिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के एक तरफ गुयाना के राष्ट्रपति इरफान अली और दूसरी तरफ सूरीनाम के राष्ट्रपति चंद्रिका प्रसाद संतोखी थे। यह पहल भारतवंशियों के मार्फत दुनिया से जुड़ने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाएगी।

विकासशील-आवाज़

शिखर सम्मेलन में विदेशमंत्री एस जयशंकर ने कहा कि विकासशील दुनिया की प्रमुख चिंताओं को जी-20 की चर्चाओं में शामिल नहीं किया जा रहा है। कोविड-19, खाद्य एवं ऊर्जा सुरक्षा, जलवायु परिवर्तन, आतंकवाद, कर्ज-संकट और रूस-यूक्रेन संघर्ष का समाधान तलाशने में विकासशील देशों की जरूरतों को तवज्जोह नहीं दी गई। हम सुनिश्चित करना चाहते हैं कि जी-20 में भारत की अध्यक्षता के दौरान विकासशील देशों की आवाज, मुद्दे, दृष्टिकोण और ग्लोबल साउथ की प्राथमिकताएं सामने आएं। इस पूरी परियोजना के साथ भू-राजनीति से जुड़े मसले हैं, जो यूक्रेन-युद्ध और दक्षिण चीन सागर में बढ़ते तनाव के रूप में नजर आ रहे हैं।

व्यापक दायरा

सम्मेलन का फलक काफी व्यापक था। इसके व्यावहारिक-प्रतिफल भी सामने आए हैं। सम्मेलन में कुल दस सत्र हुए, जिनमें वित्तीय-परिस्थितियों, ऊर्जा, शिक्षा और स्वास्थ्य से जुड़े सत्र महत्वपूर्ण थे। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने समिट के समापन सत्र में कहा कि नए साल की शुरूआत एक नई आशा का समय है। विकासशील देश ऐसा वैश्वीकरण चाहते हैं, जिससे जलवायु संकट या ऋण संकट उत्पन्न न हो, जिसमें वैक्सीन का असमान वितरण न हो, जिसमें समृद्धि और मानवता की भलाई हो। उन्होंने यह भी कहा कि भारत एक 'ग्लोबल साउथ सेंटर ऑफ एक्सेलेंस' स्थापित करेगा। उन्होंने एक नए प्रोजेक्ट 'आरोग्य मैत्री' की जानकारी भी दी। इसके तहत भारत प्राकृतिक आपदाओं और मानवीय संकट का सामना कर रहे विकासशील देशों को मेडिकल सहायता उपलब्ध कराएगा। विकासशील देशों के छात्रों के लिए भारत में उच्च शिक्षा हासिल करने के लिए ग्लोबल साउथ स्कॉलरशिप भी शुरू होगी।

बदलती भूमिका

आर्थिक-विकास और कल्याणकारी-व्यवस्था की पहली शर्त है विश्व-शांति। इस परियोजना के साथ आर्थिक और डिप्लोमैटिक दोनों पहलू जुड़े हैं। संयुक्त राष्ट्र समेत सभी अंतरराष्ट्रीय संगठनों में भारत की भूमिका बढ़ रही है। हिंद-प्रशांत क्षेत्र की सुरक्षा में हम केंद्रीय-भूमिका निभाने जा रहे हैं। शिखर-सम्मेलन में चीन की भागीदारी से जुड़े कुछ सवाल भी उठे हैं। चीन की प्रत्यक्ष भागीदारी इसमें नहीं थी, अलबत्ता चीनी विदेश-मंत्रालय के प्रवक्ता वांग वेनबिन ने गुरुवार को संवाददाताओं को बताया कि भारत ने हमें इस सम्मेलन के बारे में सूचना दी थी। भारत ने चीन को जानकारी क्यों दी, इसे भी विदेश सचिव विनय मोहन क्वात्रा ने स्पष्ट किया। उन्होंने कहा कि भारत का जी-20 से जुड़े मसलों पर अन्य देशों के साथ मजबूत सहयोग है। यह उस विचार के तहत है कि हमने उस प्रत्येक देश से परामर्श किया, जिसके साथ हमारी मजबूत विकास साझेदारी है। बदलते वैश्विक-परिप्रेक्ष्य में भारत की इस भूमिका को विशेषज्ञों ने प्रशंसा की नज़रों से देखा है।

Wednesday, January 4, 2023

भारत-रूस रिश्तों में आता बदलाव


देस-परदेश

भारत दुनिया के उन गिने-चुने देशों में शामिल है, जहाँ सोवियत-व्यवस्था को तारीफ की निगाहों से देखा गया. भारत की तमाम देशों से मैत्री रही. शीतयुद्ध के दौरान गुट-निरपेक्ष आंदोलन में भी भारत की भूमिका रही. देश की जनता ने वास्तव में सोवियत संघ को मित्र-देश माना. आज के रूस को भी हम सोवियत संघ का वारिस मानते हैं.

यूक्रेन पर हमले की भारत ने निंदा नहीं की. संरा राष्ट्र सुरक्षा परिषद या महासभा में लाए गए ज्यादातर रूस-विरोधी प्रस्तावों पर मतदान के समय भारतीय प्रतिनिधि अनुपस्थित रहे. जरूरत पड़ी भी तो रूस की आलोचना में बहुत नरम भाषा की हमने इस्तेमाल किया.

शंघाई सहयोग संगठन के समरकंद में हुए शिखर सम्मेलन में नरेंद्र मोदी व्लादिमीर पुतिन से सिर्फ इतना कहा कि आज युद्धों का ज़माना नहीं है, तो पश्चिमी मीडिया उस बयान को ले दौड़ा. भारत-रूस मैत्री के शानदार इतिहास के बावजूद रिश्तों में धीरे-धीरे बदलाव आ रहा है और परिस्थितियाँ बता रही हैं कि दोनों की निकटता का स्तर वह नहीं रहेगा, जो सत्तर के दशक में था.

व्यावहारिक धरातल

सच यह है कि आज भारत न तो रूस का उतना गहरा मित्र है, जितना कभी होता था. पर वह उतना गहरा शत्रु कभी नहीं बन पाएगा, जितनी पश्चिम को उम्मीद हो सकती है. यूक्रेन पर हमले को लेकर भारत ने रूस की सीधी आलोचना नहीं की, पर भारत मानता है कि रूस के इस फौजी ऑपरेशन ने दुनिया में गफलत पैदा की है. विदेशमंत्री एस जयशंकर कई बार कह चुके हैं कि आम नागरिकों की जान लेना भारत को किसी भी तरह स्वीकार नहीं है.

भारत और रूस के रिश्तों के पीछे एक बड़ा कारण रक्षा-तकनीक है. भारतीय सेनाओं के पास जो उपकरण हैं, उनमें सबसे ज्यादा रूस से प्राप्त हुए हैं. विदेशमंत्री एस जयशंकर ने गत 10 अक्तूबर को ऑस्ट्रेलिया में एक प्रेस-वार्ता के दौरान कहा कि हमारे पास रूसी सैनिक साजो-सामान होने की वजह है पश्चिमी देशों की नीति. पश्चिमी देशों ने हमें रूस की ओर धकेला. पश्चिमी देशों ने दक्षिण एशिया में एक सैनिक तानाशाही को सहयोगी बनाया था. दशकों तक भारत को कोई भी पश्चिमी देश हथियार नहीं देता था.

रक्षा-तकनीक के अलावा कश्मीर के मामले में महत्वपूर्ण मौकों पर रूस ने संरा सुरक्षा परिषद में ऐसे प्रस्तावों को वीटो किया, जो भारत के खिलाफ जाते थे. कश्मीर के मसले पर पश्चिमी देशों के मुकाबले रूस का रुख भारत के पक्ष में था. यह बात मैत्री को दृढ़ करती चली गई. फिर अगस्त,1971 में हुई भारत-सोवियत संधि ने इस मैत्री को और दृढ़ किया.

Tuesday, January 3, 2023

क्या हिंदू-मन श्रेष्ठता के नशे में चूर है?

कतरनें यानी मीडिया में जो इधर-उधर प्रकाशित हो रहा है, उसके बारे में अपने पाठकों को जानकारी देना. ये कतरनें केवल जानकारी नहीं है, बल्कि विचारणीय हैं.

द वायर में अपूर्वानंद का एक आलेख न केवल पठनीय है, बल्कि इसपर चर्चा होनी चाहिए. उन्होंने लिखा है:

‘नए साल में किन चिंताओं, चुनौतियों और उम्मीदों के साथ प्रवेश कर रहे हैं?’, मित्र का प्रश्न था. अमूमन नए साल के इरादों का जिक्र होता है. लेकिन एक समाज या एक देश के तौर पर हम कुछ इरादे करें और वे कारगर हों, इसके पहले ईमानदारी से अपनी हालत का जायज़ा लेना ज़रूरी होगा.

चिंता सबसे बड़ी क्या है? कुछ लोग कहते हैं समाज में समुदायों के बीच बढ़ती हुई खाई. मुख्य रूप से हिंदू मुसलमान के बीच अलगाव. लेकिन ऐसा कहने से भरम होता है कि इसमें दोष दोनों पक्षों का है. बात यह नहीं है.

असल चिंता का विषय है, भारत में ऐसे हिंदू दिमाग का निर्माण जो श्रेष्ठतावाद के नशे में चूर है. इसी से बाकी बातें जुड़ी हुई हैं. एक श्रेष्ठतावादी मस्तिष्क बाहरी प्रभावों से डरा हुआ, संकुचित और बंद दिमाग होता है. इस वजह से वह कमजोर भी हो जाता है.

स्वीकार करने में बुरा लगता है, लेकिन सच है कि आज का आम हिंदू मन बाहरी, विदेशी के प्रति द्वेष और घृणा से भरा हुआ है. बाहरी तरह-तरह के हो सकते हैं. वे मुसलमान हैं और ईसाई भी. उनसे उसका रिश्ता शत्रुता का ही हो सकता है. इस लेख को पूरा पढ़ें यहाँ

चीन से रिश्ते

विदेश मंत्री एस जयशंकर ने चीन के साथ बने हालात को 'प्रचंड चुनौती' बताया है. हालांकि उन्होंने इस बारे में और कुछ नहीं कहा है कि 'प्रचंड चुनौती' से उनका क्या मतलब है. बीबीसी हिंदी ने कोलकाता से छपने वाले अंग्रेज़ी अख़बार टेलीग्राफ़ की रिपोर्ट का हवाला देते हुए लिखा है कि एस जयशंकर इससे पहले चीन के साथ भारत के द्विपक्षीय संबंधों को 'असामान्य' कहते रहे हैं और इस लिहाज से विदेश मंत्री की ताज़ा टिप्पणी एक क़दम आगे बढ़ने जैसी है.

Wednesday, October 19, 2022

बाइडन ने पाकिस्तान को ‘खतरनाक देश’ क्यों बताया?


अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडन ने पाकिस्तान को दुनिया के सबसे ख़तरनाक देशों में से एक बताया है. बाइडन ने इस साल हो रहे मध्यावधि चुनाव के सिलसिले में अपनी पार्टी के लिए हुए एक धन-संग्रह कार्यक्रम में कहा, मुझे लगता है कि शायद (अंग्रेजी में मे बी) पाकिस्तान दुनिया के सबसे ख़तरनाक देशों में से एक है. एक ग़ैर-ज़िम्मेदार देश के पास परमाणु हथियार हैं.

बाइडन के इस बयान पर पाकिस्तान में तो तीखी प्रतिक्रिया हुई है, भारत में भी लोगों ने इसका मतलब लगाने की कोशिश की है. कुछ दिन पहले लग रहा था कि अमेरिका फिर से पाकिस्तान की तरफदारी कर रहा है. ऐसे में यू-टर्न क्यों? वह भी ऐसे मौके पर जब पाकिस्तान सरकार उसके साथ अपने रिश्ते सुधारना चाहती है.

इमरान खान का तो आरोप ही यही है कि शहबाज़ शरीफ की इंपोर्टेड सरकार है. दूसरी तरफ देखना यह भी होगा कि अमेरिका धीरे-धीरे पाकिस्तान की तकलीफों को कम कर रहा है. उसे आईएमएफ से कर्ज मिलने लगा है, इस हफ्ते एफएटीएफ की ग्रे लिस्ट से भी उसके बाहर निकलने की आशा है. 

भौगोलिक स्थिति के कारण अमेरिका की दिलचस्पी पाकिस्तान को अपने साथ जोड़कर रखने में है. पर पाकिस्तान के साथ विसंगतियाँ जुड़ी हैं. उसे खतरनाक देश बताकर बाइडन इस विसंगति की ओर ही इशारा कर रहे हैं. उसके एक हाथ में एटम बम का बटन है, और दूसरा हाथ बेकाबू राजनीति से पंजे लड़ा रहा है. 

राजनीतिक बयान?

बाइडन ने चुनाव-अभियान के दौरान यह बात कही है. इसका मतलब क्या है? क्या अमेरिकी मतदाता की दिलचस्पी ऐसे बयानों में है? या बाइडन ने भारत की नाराज़गी को कम करने की कोशिश की है? या इसका भारत से कोई संबंध नहीं है?

इस महीने के शुरू में पाकिस्तान के सेनाध्यक्ष जनरल क़मर जावेद बाजवा का अमेरिका में भव्य स्वागत किया गया था. अमेरिका के रक्षामंत्री लॉयड ऑस्टिन के आमंत्रण पर जनरल बाजवा अमेरिका गए थे और उनका उसी प्रकार स्वागत हुआ, जैसा अप्रेल के महीने में भारत के रक्षामंत्री राजनाथ सिंह का हुआ था.

बाइडन के बयान को पढ़ने के लिए जनरल बाजवा की यात्रा के उद्देश्य को भी समझना होगा. लगता है कि यह यात्रा भू-राजनीति के बजाय पाकिस्तान की आंतरिक राजनीति से जुड़ी है, जिसमें जनरल बाजवा और सेना की भूमिका है.

सेना की भूमिका

पाकिस्तान की सेना के भीतर राष्ट्रीय राजनीति और अमेरिका के साथ रिश्तों को लेकर दो तरह के विचार हैं. जनरल बाजवा का कार्यकाल हालांकि अब एक महीने का ही बचा है, पर लगता है कि सेना के भीतर उनकी पकड़ अच्छी है. वे कई बार कह चुके हैं कि सेना अब राजनीति में हस्तक्षेप नहीं करेगी.

इसमें दो राय नहीं कि 2018 के चुनाव में वहाँ की सेना ने भूमिका अदा की थी और इमरान खान को गद्दी पर बैठाया. इमरान खान ने न केवल राजनीति में, बल्कि सेना के भीतर भी कुछ बुनियादी पेच पैदा कर दिए हैं, जिन्हें लेकर अमेरिका परेशान है.   

चीन के प्रभाव में इमरान खान ने रूस के साथ रिश्तों को सुधारने की कोशिश भी की थी. यूक्रेन पर हमले के ठीक पहले इमरान खान मॉस्को में थे. पाकिस्तान की वर्तमान सरकार ने अमेरिका से रिश्ते सुधारे जरूर हैं, पर चीन के साथ उसके रिश्ते बदस्तूर हैं.

चीन का मुकाबला

अमेरिका को लग रहा है कि पाकिस्तान का झुकावचीन की ओर बढ़ रहा है, जिसे रोकने के लिए वह पाकिस्तान को एक तरफ खुश करने की कोशिश कर रहा है, वहीं धमका भी रहा है. पिछले साल अफगानिस्तान में तालिबान की वापसी के लिए अमेरिका ने पाकिस्तान को जिम्मेदार माना था.

Wednesday, October 12, 2022

जयशंकर ने कहा, पश्चिम ने हमें रूस की ओर धकेला


भारत के विदेशमंत्री एस जयशंकर ने हाल में अपनी अमेरिका-यात्रा के दौरान कुछ कड़ी बातें सही थीं। वे बातें अनायास नहीं थीं। पृष्ठभूमि में जरूर कुछ चल रहा था, जिसपर से परदा धीरे-धीरे हट रहा है। यूक्रेन पर रूसी हमले को लेकर भारतीय नीति से अमेरिका और यूरोप के देशों की अप्रसन्नता इसके पीछे एक बड़ा कारण है। अमेरिका ने पाकिस्तान को एफ-16 विमानों के लिए उपकरणों को सप्लाई करके इसे प्रकट कर दिया और अब जर्मन विदेशमंत्री के एक बयान से इस बात की पुष्टि भी हुई है।

अमेरिका और जर्मन सरकारों की प्रतिक्रियाओं को लेकर भारतीय विदेशमंत्री ने गत सोमवार और मंगलवार को फिर करारे जवाब दिए हैं। उन्होंने सोमवार 10 अक्तूबर को ऑस्ट्रेलिया में एक प्रेस-वार्ता को दौरान कहा कि हमारे पास रूसी सैनिक साजो-सामान होने की वजह है पश्चिमी देशों की नीति।

स्वतंत्र विदेश-नीति

अपनी विदेश-नीति की स्वतंत्रता को साबित करने के लिए भारत लगातार ऐसे वक्तव्य दे रहा है, जिनसे महाशक्तियों की नीतियों पर प्रहार भी होता है। उदाहरण के लिए भारत ने संयुक्त राष्ट्र महासभा में रूस यूक्रेन युद्ध से जुड़े एक ड्राफ्ट पर पब्लिक वोटिंग के पक्ष में मतदान किया है। यह ड्राफ्ट यूक्रेन के चार क्षेत्रों को मॉस्को द्वारा अपना हिस्सा बना लिए जाने की निंदा से जुड़ा है। इस प्रस्ताव पर भारत समेत 100 से ज्यादा देशों ने सार्वजनिक रूप से मतदान करने के पक्ष में वोट दिया है, जबकि रूस इस मसले पर सीक्रेट वोटिंग कराने की मांग कर रहा था।

जयशंकर ने यह भी साफ कहा कि आम नागरिकों की जान लेना भारत को किसी भी तरह स्वीकार नहीं है। उन्होंने रूस और यूक्रेन, दोनों से आपसी टकराव को कूटनीति व वार्ता के जरिए सुलझाने की राह पर लौटने की सलाह दी है।

भारत इससे पहले यूक्रेन युद्ध को लेकर संरा महासभा या सुरक्षा परिषद में पेश होने वाले प्रस्तावों पर वोटिंग के दौरान अनुपस्थित होता रहा है। इस बार भी निंदा प्रस्ताव के मसौदे पर मतदान को लेकर भारत ने अपना रुख स्पष्ट नहीं किया था। विदेश मंत्री जयशंकर ने कहा था कि यह विवेक और नीति का मामला है, हम अपना वोट किसे देंगे, यह पहले से नहीं बता सकते। हालांकि विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता ने सोमवार को ही कहा था कि रूस-यूक्रेन के बीच तनाव घटाने वाले सभी प्रयासों का समर्थन करने के लिए भारत हमेशा तैयार है।

पश्चिम की नीतियाँ

एस जयशंकर ने सोमवार को ऑस्ट्रेलिया में कहा कि पश्चिमी देशों ने दक्षिण एशिया में एक सैनिक तानाशाही को सहयोगी बनाया था। दशकों तक भारत को कोई भी पश्चिमी देश हथियार नहीं देता था। ऑस्ट्रेलिया के विदेश मंत्री पेनी वॉन्ग के साथ प्रेस-वार्ता में जयशंकर ने कहा कि रूस के साथ रिश्तों के कारण भारत के हित बेहतर ढंग से निभाए जा सके।

Sunday, September 18, 2022

समरकंद में बढ़ा भारत का रसूख


वैश्विक राजनीति और भारतीय विदेश-नीति की दिशा को समझने के लिए समरकंद में हुए शंघाई सहयोग संगठन (एससीओ) के शिखर सम्मेलन के संवाद पर ध्यान देना होगा। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ रूसी राष्ट्रपति पुतिन की आमने-सामने की बैठक ने दुनिया के मीडिया ने ध्यान खींचा है। मोदी ने प्रकारांतर से पुतिन से कह दिया कि आज लड़ाइयों का ज़माना नहीं है। यूक्रेन की लड़ाई बंद होनी चाहिए। पुतिन ने जवाब दिया कि मैं भारत की चिंता को समझता हूँ और लड़ाई जल्द से जल्द खत्म करने का प्रयास करूँगा। इन दो वाक्यों में छिपे महत्वपूर्ण संदेश को पढ़ें। भारत की स्वतंत्र विदेश-नीति को रूस, चीन और अमेरिका की स्वीकृति और असाधारण सम्मान मिला है। इस साल फरवरी में रूस और यूक्रेन के बीच शुरू हुए संघर्ष के बाद दोनों नेताओं के बीच पहली मुलाकात थी। दोनों के बीच कई बार फ़ोन पर बातचीत हुई है।

समरकंद का संदेश

भारत ने यूक्रेन पर आक्रमण के लिए रूस की आलोचना नहीं की है, पर यह संदेश महत्वपूर्ण है। युद्ध के मोर्चे पर रूस थक रहा है। चीन भी रूस से दूरी बना रहा है। मोदी-पुतिन वार्ता से पहले शी चिनफिंग ने भी पुतिन से कहा कि हम युद्ध को लेकर चिंतित हैं। इस साल जनवरी-फरवरी में रूस-चीन रिश्ते आसमान पर थे, तो वे अब ज़मीन पर आते दिखाई पड़ रहे हैं। अलबत्ता चीन का प्रभाव मध्य एशिया के देशों पर है। उसके वन बेल्ट, वन रोड कार्यक्रम का भारत को छोड़ सभी देश समर्थन करते हैं। संयुक्त घोषणापत्र में इसका उल्लेख है। भारत के साथ ये देश कारोबार चाहते हैं, पर पाकिस्तान जमीनी रास्ता देने को तैयार नहीं हैं। मोदी ने अपने वक्तव्य में पारगमन सुविधा का जिक्र किया है।  

भारत की भूमिका

इस संगठन में चीन और रूस के बाद भारत तीसरा सबसे बड़ा देश है, जिसका कद अंतरराष्ट्रीय स्तर पर बढ़ रहा है। एससीओ भी धीरे-धीरे दुनिया का सबसे बड़ा क्षेत्रीय संगठन बनता जा रहा है। भारत की दिलचस्पी अपनी ऊर्जा की जरूरतों को पूरा करने के अलावा आतंकवाद के खिलाफ कार्रवाई में है। सम्मेलन में प्रधानमंत्री मोदी ने कहा कि हम भारत को मैन्युफैक्चरिंग हब बनाना चाहते हैं। भारत की अर्थव्यवस्था में इस साल 7.5 फीसदी की वृद्धि की उम्मीद है जो दुनिया की बड़ी अर्थव्यवस्थाओं में सबसे अधिक होगी। उन्होंने मिलेट्स यानी बाजरे का भी ज़िक्र किया और कहा, दुनिया की खाद्य-समस्या का एक समाधान यह भी है। इसकी खेती में लागत कम होती है। इसे एससीओ देशों के अलावा दूसरे देशों में हज़ारों साल से उगाया जाता रहा है। एससीओ देशों के बीच आयुर्वेद और यूनानी जैसी पारंपरिक औषधियों का सहयोग बढ़ाया जा सकता है। इसके लिए भारत पारंपरिक दवाओं पर एक नया एससीओ वर्किंग ग्रुप बनाने की पहल करेगा।

अगला अध्यक्ष

भारत को एससीओ के अगले अध्यक्ष के रूप में मनोनीत किया गया है। अगला शिखर सम्मेलन अब 2023 में भारत में होगा। एससीओ में नौ देश पूर्ण सदस्य हैं-भारत, चीन, रूस, पाकिस्तान, क़ज़ाक़िस्तान, किर्गिस्तान, ताजिकिस्तान, उज़्बेकिस्तान और ईरान। ईरान की सदस्यता अगले साल अप्रेल से मानी जाएगी। तीन देश पर्यवेक्षक हैं-अफ़ग़ानिस्तान, बेलारूस और मंगोलिया। छह डायलॉग पार्टनर हैं-अजरबैजान, आर्मीनिया, कंबोडिया, नेपाल, तुर्की, श्रीलंका। नए डायलॉग पार्टनर हैं-सऊदी अरब, मिस्र, क़तर, बहरीन, मालदीव, यूएई, म्यांमार। शिखर सम्मेलन में इनके अलावा आसियान, संयुक्त राष्ट्र और सीआईएस के प्रतिनिधियों को भी बुलाया जाता है। मूलतः यह राजनीतिक, आर्थिक और सुरक्षा सहयोग का संगठन है, जिसकी शुरुआत चीन और रूस के नेतृत्व में यूरेशियाई देशों ने की थी। अप्रैल 1996 में शंघाई में हुई एक बैठक में चीन, रूस, कजाकिस्तान, किर्गिस्तान और ताजिकिस्तान जातीय और धार्मिक तनावों को दूर करने के इरादे से आपसी सहयोग पर राज़ी हुए थे। इसे शंघाई फाइव कहा गया था। इसमें उज्बेकिस्तान के शामिल हो जाने के बाद जून 2001 में शंघाई सहयोग संगठन की स्थापना हुई। पश्चिमी मीडिया मानता है कि एससीओ का मुख्य उद्देश्य नेटो के बराबर खड़े होना है। भारत इसमें सबसे बड़ी संतुलनकारी शक्ति के रूप में उभर कर आ रहा है।

चीनी तेवर ढीले

चीन के तेवर ढीले पड़े हैं। एससीओ का प्रवर्तन चीन ने किया है। वह अपने राजनयिक-प्रभाव का विस्तार करने के लिए इस संगठन का इस्तेमाल करना चाहता है। साथ ही यह भी लगता है कि पश्चिमी देशों का दबाव उसपर बहुत ज्यादा है। उसकी अर्थव्यवस्था धीरे-धीरे मंदी की ओर बढ़ रही है। समरकंद में चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग और पाकिस्तान के प्रधानमंत्री शाहबाज़ शरीफ़ भी मौजूद थे, लेकिन सम्मेलन में औपचारिक भेंट के अलावा इन दोनों से पीएम मोदी की अलग से मुलाक़ात नहीं हुई। ईरानी राष्ट्रपति इब्राहिम रईसी से मुलाकात जरूर हुई। पर्यवेक्षकों का अनुमान था कि पूर्वी लद्दाख के कुछ इलाकों में हाल में हुई सेनाओं की वापसी के बाद शायद शी चिनफिंग और शहबाज़ शरीफ से उनकी सीधी बात हो। चीन और पाकिस्तान के प्रति अपने रुख को नरम करने के लिए भारत तैयार नहीं है। भारत-चीन सीमा पर तनाव कम करने के लिए दोनों पक्षों में कोर कमांडर स्तर पर बातचीत के 16 दौर हो चुके हैं, लेकिन तनाव पूरी तरह कम नहीं हो सका है।

पाकिस्तान से रिश्ते

पाकिस्तान के साथ भी भारत के रिश्ते बीते कई साल से बिगड़ते गए हैं। 2019 में पुलवामा-बालाकोट हमलों और अनुच्छेद 370 को निष्प्रभावी बनाए जाने के बाद दोनों देशों के राजनयिकों को वापस बुला लिया गया और सभी व्यापार संबंधों को रद्द कर दिया गया। करतारपुर कॉरिडोर के ज़रिए संबंधों को पटरी पर लाने की कोशिश की गई थी, लेकिन उसमें सफलता नहीं मिली। पिछले साल फरवरी में नियंत्रण रेखा पर गोलाबारी बंद करने का समझौता हुआ था, जिसके बाद उम्मीदें बढ़ी थीं कि दोनों के कारोबारी रिश्ते फिर से शुरू होंगे, पर पाकिस्तान की आंतरिक राजनीति के कारण वह भी संभव नहीं हुआ। इमरान ख़ान के बाद शहबाज़ शरीफ़ जब पाकिस्तान के प्रधानमंत्री बने तो उन्होंने भारत के साथ संबंधों को बेहतर बनाने के संकेत दिए थे। वे समरकंद में मौजूद थे, पर वहाँ से किसी नई पहल की खबर नहीं मिली है।

स्वतंत्र विदेश-नीति

इस दौरान भारतीय विदेश-नीति की दृढ़ता और स्वतंत्र-राह स्थापित हो रही है। हाल में चीनी मीडिया के हवाले से खबर थी कि चीनी जनता मानती है कि भारत अमेरिका की पिट्ठू नहीं है, जैसाकि वहाँ की सरकार दावा करती है। पिछले दो-तीन वर्षों में भारत ने रूस के सामने भी इस बात को दृढ़ता से रखा है कि हमारी दिलचस्पी राष्ट्रीय-हितों में है। हम किसी के पिछलग्गू नहीं हैं और दब्बू भी नहीं हैं। अमेरिकी दबाव के बावजूद भारत ने रूसी एस-400 एयर डिफेंस सिस्टम को अपने यहाँ स्थापित कर लिया है। दूसरी तरफ अमेरिका को भी आश्वस्त किया है कि हम लोकतांत्रिक मूल्यों से आबद्ध हैं और चीनी आक्रामकता से दबने को तैयार नहीं हैं। अमेरिका ने हाल में पाकिस्तान को एफ-16 विमानों के कल-पुर्जे सप्लाई करने का फैसला किया है, जिसका भारत ने पुरज़ोर विरोध किया है।  

राष्ट्रहित सर्वोपरि

अपनी रक्षा-व्यवस्था को लेकर हम किसी प्रकार का समझौता नहीं करेंगे। हिंद प्रशांत क्षेत्र में हम क्वॉड में शामिल हैं। सुदूर पूर्व में जापान के साथ हमारी दोस्ती भी बहुत मजबूत है। समरकंद सम्मेलन के एक हफ्ते पहले भारत और जापान के बीच टू प्लस टू वार्ता हुई है, जिसमें कारोबारी रिश्तों के साथ-साथ सहयोग पर भी विचार किया गया। बंगाल की खाड़ी में 11 सितंबर से शुरू हुआ जिमेक्स (जापान-इंडिया मैरीटाइम एक्सरसाइज़) नौसैनिक युद्धाभ्यास चल रहा है, जो 22 सितंबर तक चलेगा। हर साल होने वाले मालाबार-युद्धाभ्यास में अब भारत और अमेरिका के अलावा जापान और ऑस्ट्रेलिया भी शामिल हैं। दूसरी तरफ भारत ने रूसी युद्धाभ्यास वोस्तोक-2022 में भी भाग लिया, जो 30 अगस्त से 5 सितंबर तक चला। इसमें चीन भी शामिल था। इस अभ्यास में तीनों तरह के बलों का इस्तेमाल करते हुए उसे आतंकवाद-विरोधी अभ्यास बताया गया। यह अभ्यास रूस के सुदूर पूर्व और जापान सागर में दक्षिणी कुरील द्वीप समूह (जिस पर जापान और रूस दोनों अपना दावा करते हैं) के निकटवर्ती क्षेत्र में हुआ था। भारत ने इस युद्धाभ्यास में गोरखा रेजिमेंट की थलसेना की एक टुकड़ी को भेजा, पर जापान की संवेदनशीलता को देखते हुए नौसैनिक अभ्यास से खुद को अलग रखा और अपने पोत नहीं भेजे। यह बात राजनयिक सूझ-बूझ और स्वतंत्र विदेश-नीति को रेखांकित करती है। रूसी-चीनी गरमाहट के बावजूद हमने रूस से किनाराकशी नहीं की।

रूस-चीन ठंडापन

दूसरी तरफ रूस और चीन के रिश्ते कुछ महीने पहले जितने सरगर्म लग रहे थे, उतने इस समय नज़र नहीं आ रहे हैं। इस साल क शुरु में रूस और चीन के नेताओं ने कहा था कि हमारी दोस्ती की कोई सीमा नहीं है, पर समरकंद में रिश्ते ठंडे पड़ते दिखाई पड़े। इस सम्मेलन में शी जिनपिंग ने यूक्रेन युद्ध का ज़िक्र भी नहीं किया। पिछले कुछ महीनों का अनुभव है कि आर्थिक प्रतिबंधों की मार झेल रहे रूस की चीन ने किसी किस्म की आर्थिक सहायता नहीं की। उसने रूस की सीधे तौर पर मदद करने से खुद को रोका, ताकि अपनी अर्थव्यवस्था को पश्चिमी देशों के प्रतिबंधों के असर से बचा सके। पश्चिमी देशों के साथ चीन अपने रिश्ते बिगाड़ना नहीं चाहता, क्योंकि उसकी अर्थव्यवस्था पश्चिम से जुड़ी है।

हरिभूमि में प्रकाशित