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Sunday, July 17, 2022

आई2यू2 यानी भारत की ‘लुक-वेस्ट’ नीति


भारत-इजराइल-अमेरिका और यूएई के बीच नवगठित समूह आई2यू2 की गुरुवार 14 जुलाई को हुई पहली शिखर बैठक में भारत के लिए नए अवसर खुले हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन, इजरायल के प्रधानमंत्री येर लेपिड और यूएई के राष्ट्रपति शेख मोहम्मद बिन ज़ायेद अल नाह्यान की इस वर्चुअल बैठक में दो अहम परियोजनाओं को हरी झंडी दिखाई गई, जो भारत में शुरू होंगी। भारत और यूएई के बीच फूड एक कॉरिडोर बनाया जाएगा। दूसरे भारत के द्वारका में अक्षय ऊर्जा हब बनाया जाएगा। यह आर्थिक कार्यक्रम है, पर इसके पीछे पश्चिम एशिया की भावी राजनीति और इसमें भारत की भूमिका को भी देखा जा सकता है। 

बैठक में अमेरिकी राष्ट्रपति और इजराइल के प्रधानमंत्री तेल अवीव से शामिल हुए थे। जो बाइडेन 13 से 16 जुलाई तक पश्चिम एशिया के दौरे पर थे। उनकी इस यात्रा के पीछे पश्चिम एशिया में अपने मित्र देशों के आधार को मजबूत करने के अलावा यूक्रेन युद्ध के कारण इस समय दुनिया में पेट्रोलियम की कीमतों में तेजी को रोकना भी है। इस तेजी का लाभ रूस को मिल रहा है। अमेरिका की कोशिश है कि सऊदी अरब के सहयोग से इस तेजी पर काबू पाया जाए।
फलस्तीन की समस्या

बाइडेन चाहते हैं कि इजरायल और फलस्तीनियों के बीच दीर्घकालीन समझौता हो जाए। पर यह समझौता फलस्तीनी अथॉरिटी के महमूद अब्बास के साथ होगा। जो बाइडेन टू स्टेट अवधारणा क समर्थन कर रहे हैं। उनकी महमूद अब्बास से मुलाकात भी हुई है। पर समझौता आसान नहीं है। खासतौर से हमस का रुख काफी कड़ा है और गज़ा पट्टी पर हमस का ही दबदबा है। महमूद अब्बास के संगठन और इजरायल दोनों के साथ भारत के रिश्ते अच्छे हैं, जिनका लाभ लिया जा सकता है।

हमस मूलतः उग्रवादी संगठन है, पर 2005 के बाद से उसने गज़ा पट्टी के इलाके में राजनीतिक प्रक्रिया में हिस्सा लेना भी शुरू कर दिया। वह फलस्तीनी अथॉरिटी के चुनावों में शामिल होने लगा। गज़ा में फतह को चुनाव में हराकर उसने प्रशासन अपने अधीन कर लिया है। अब फतह गुट का पश्चिमी तट पर नियंत्रण है और गज़ा पट्टी पर हमस का। अंतरराष्ट्रीय समुदाय पश्चिमी तट के इलाके की अल फतह नियंत्रित फलस्तीनी अथॉरिटी को ही मान्यता देता है। 

शिखर बैठक के बाद भारत के विदेश सचिव विनय क्वात्रा ने कहा कि शुरूआती दौर में फिलहाल गुजरात और मध्य प्रदेश में यह पार्क बनाने की कवायद आगे बढ़ी है। उन्होंने बताया कि भारत की केला, चावल, आलू, प्याज और मसालों की फसलों को आरंभिक दौर में चिह्नित भी किया गया है। इन परियोजनाओं के जरिए भारतीय किसानों के उत्पादों को बड़ा बाजार मिलेगा, वहीं रोजगार के नए अवसर भी बनेंगे।

दो अरब डॉलर का निवेश

इस शिखर बैठक के बाद संयुक्त अरब अमीरात ने घोषणा की कि वह एकीकृत फूड पार्कों की श्रृंखला का विकास करने के लिए भारत में दो अरब डॉलर का निवेश करेगा। इसका उद्देश्य दक्षिण और पश्चिम एशिया में खाद्य असुरक्षा की समस्या का सामना करना है। बैठक के बाद जारी संयुक्त बयान में कहा गया है कि इस कार्य के लिए भूमि और किसानों को जोड़ने का काम भारत करेगा। इस बैठक में इस इलाके की खाद्य-सुरक्षा और स्वच्छ ऊर्जा, खाद्य उत्पादन तथा वितरण प्रणाली में बदलावों को सुनिश्चित करने पर विचार हुआ, ताकि वैश्विक खाद्य-सामग्री का भंडार बनाया जा सके।

इस कार्य में अमेरिका और इजराइल से निजी क्षेत्रों को आमंत्रित किया जाएगा और उनकी विशेषज्ञता का लाभ उठाया जाएगा। वे परियोजना की कुल वहनीयता में योगदान देते हुए नवोन्मेषी समाधानों की पेशकश भी करेंगे। पूँजी निवेश से उपज बेहतर होगी और इससे दक्षिण एशिया एवं पश्चिम एशिया में खाद्य असुरक्षा से निपटा जा सकेगा।

आई2यू2 ग्रुप

आई2यू2 यानी अंग्रेजी आई 2 (इंडिया और इजरायल) और यू 2 (यानी यूएसए और यूएई)। इसे पश्चिम एशिया का क्वॉड भी कहा जा रहा है। इस अनौपचारिक समूह की शुरुआत अक्तूबर 2021 में विदेशमंत्री एस जयशंकर की इजरायल यात्रा के दौरान उपरोक्त चारों देशों के विदेशमंत्रियों की एक पहल के रूप में हुई थी। उस समय इसे आर्थिक सहयोग का अंतरराष्ट्रीय फोरम भी कहा गया था।

आई2यू2 समूह को महत्वपूर्ण माना जा रहा है, क्योंकि पश्चिम एशिया में भारत के साथ अमेरिकी साझेदारी गेम चेंजर हो सकती है। यह बात पूर्व इजरायल के पूर्व एनएसए मेजर जनरल याकोव अमिद्रोर ने गत 14 जुलाई को फोरम की पहली उच्च स्तरीय बैठक से पहले कही। भारत सरकार ने मंगलवार 12 जुलाई को आई2यू2 नेताओं के वर्चुअल शिखर सम्मेलन की घोषणा करते हुए कहा कि यह समूह पानी, ऊर्जा, परिवहन, अंतरिक्ष, स्वास्थ्य और खाद्य सुरक्षा जैसे छह पारस्परिक रूप से पहचाने गए क्षेत्रों में संयुक्त निवेश को प्रोत्साहित करने के लिए काम करेगा।

इजरायल  के पूर्व एनएसए ने कहा,  आई2यू2 दुनिया के हितों को ध्यान में रखकर बनाया गया है। इसमें इजरायल  और यूएई में रणनीतिक साझेदारी की घोषणा की उम्मीद है। उन्होंने कहा, भारत की भूमिका यूरोप और इजरायल  के साथ एक सेतु की है और पूरे संदर्भ में भारत एक बड़ा व्यापारिक भागीदार है।

नया क्वॉड

इसमें दो राय नहीं कि हाल के वर्षों में भारत ने इस इलाके में सम्पर्क बढ़ाया है। हाल में जर्मनी में हुई जी-7 की शिखर-बैठक में शामिल होने के बाद प्रधानमंत्री मोदी यूएई की संक्षिप्त-यात्रा पर भी गए थे। अमेरिका की दिलचस्पी इस बात में भी है कि इजरायल के रिश्ते इस क्षेत्र के देशों के साथ बेहतर हों। इसमें यूएई के अलावा सऊदी अरब की भूमिका भी है। इसमें यूएई, मोरक्को और बहरीन के साथ हुआ अब्राहमिक समझौता मददगार होगा। इस प्रक्रिया को आई2यू2 समूह बढ़ाएगा।

Sunday, May 8, 2022

मोदी की यात्रा से खुली यूरोप की खिड़की


प्रधानमंत्री की छोटी सी, लेकिन बेहद सफल विदेश-यात्रा ने भारत और यूरोप के बीच सम्बंधों को नई दिशा दी है। वह भी ऐसे मौके पर, जब यूरोप संकट से घिरा है और भारत के सामने रूस और अमेरिका के साथ रिश्तों को परिभाषित करने की दुविधा है। स्वतंत्रता के बाद से अब तक भारत और यूरोप के रिश्ते असमंजस से भरे रहे हैं। एक अरसे से उम्मीद की जा रही थी कि असमंजस का यह दौर टूटेगा। अब पहली बार लग रहा है कि भारत ने यूरोप के साथ बेहतरीन रिश्तों की आधार-भूमि तैयार कर ली है। आर्थिक-राजनीतिक सहयोग, तकनीकी और वैज्ञानिक रिश्तों और भारत के सामरिक हितों के नजरिए से नए दरवाजे खुले हैं। इस घटनाक्रम के समांतर हमें रूस पर लग रही पाबंदियों के प्रभाव को भी समझना होगा। यूक्रेन का युद्ध अभी तार्किक-परिणति पर नहीं पहुँचा है। फिलहाल लगता है कि यूक्रेन एक विभाजित देश के रूप में बचेगा। यहाँ से वैश्विक-राजनीति का एक नया दौर शुरू होगा।

यूक्रेन पर नजरिया

इस यात्रा का दूसरा पहलू यह है कि भारत ने यूक्रेन युद्ध के बाबत अपनी दृष्टि को यूरोपीय देशों के सामने सफलता के साथ स्पष्ट किया है और यूरोप के देशों ने उसे समझा है। भारत ने यूक्रेन पर रूस के हमले की स्पष्ट शब्दों में निंदा नहीं की है, पर परोक्ष रूप से इस हमले को निरर्थक और अमानवीय भी माना है। अंदेशा था कि यूरोप के देश इस बात को पसंद नहीं करेंगे, पर इस पूरी यात्रा के दौरान भारत और यूरोपीय देशों ने एक-दूसरे के हितों को पहचानते हुए, असहमतियों के बिंदुओं को रेखांकित ही नहीं किया। साथ ही इस युद्ध से जुड़े मानवीय पहलुओं को लेकर आपसी सहयोग की सम्भावनाओं को रेखांकित किया।

दबाव कम हुआ

भारत ने स्पष्ट किया है कि हम तीनों पक्षों अमेरिका, यूरोप और रूस के साथ बेहतर संबंध चाहते है। किसी एक को नजरंदाज नहीं करेंगे। अभी तक यूरोपीय देशों की तरफ़ से भारत पर दबाव था, पर अब माना जा रहा है कि यूरोपीय देश यूक्रेन युद्ध को लेकर भारत की नीति को समझ गए हैं।  अब उन्होंने ये कहना शुरू कर दिया है कि भारत रूस पर अपने प्रभाव का इस्तेमाल करे ताकि रूस की तरफ़ से युद्ध को समाप्त करने के लिए बात शुरू हो। यूक्रेन युद्ध पर भारत की दृष्टि यूरोप से अलग है। हमें यह भी स्पष्ट करना है कि हम रूस का साथ छोड़ेंगे नहीं। हमें रक्षा-सामग्री के लिए उसकी जरूरत है। अफ़ग़ानिस्तान में सक्रिय रहने और चीन को काउंटर करने के लिए भी हमें रूस के साथ रहना होगा। यदि हम रूस का साथ छोड़ देंगे, तब रूस-चीन गठजोड़ पूरा हो जाएगा।

स्वतंत्र विदेश-नीति

भारत की स्वतंत्र विदेश-नीति से जुड़ी बातें भी अब स्पष्ट हो रही हैं। पिछले 75 वर्षों में भारत ने कमोबेश वैश्विक घटनाचक्र से एक दूरी बनाकर रखी, पर अब वह भागीदार बनकर उभर रहा है। शीतयुद्ध के बाद भारत ने चीन और रूस के सम्भावित गठजोड़ के साथ जुड़ने का प्रयास भी किया, पर पिछले दो वर्षों में इस नीति पर भी गहन विचार हुआ है। अब हम अमेरिका, यूरोप और रूस-चीन के साथ विकसित होती बहुध्रुवीय दुनिया में स्वाभाविक पार्टनर के रूप में उभर कर आ रहे हैं। यूरोप के देशों ने भारत के आर्थिक-विकास में भागीदार बनने का इरादा जताया है। प्रधानमंत्री मोदी ने यूरोप में रह रहे भारतीयों के साथ रोचक-संवाद किया और उन्हें जिम्मेदारी दी कि वे दुनिया और भारत के बीच सेतु का काम करें। पहली बार यह बात भी सामने आ रही है कि भारत की सॉफ्ट-पावर में बड़ी भूमिका भारतवंशियों की है, जो दुनियाभर में फैले हैं और अच्छी स्थिति में हैं।

Wednesday, May 4, 2022

बहुत मुश्किल है पाकिस्तान के साथ रिश्तों का सँवर पाना


मजाज़ की दो लाइनें हैं, बहुत मुश्किल है दुनिया का सँवरना/ तिरी ज़ुल्फ़ों का पेच-ओ-ख़म नहीं है। दुनिया की जगह पाकिस्तान पढ़ें, तब हम इससे अपने मतलब भी निकाल सकते हैं। शहबाज़ शरीफ के प्रधानमंत्री बनने के पहले से ही कयास लगने लगे थे कि इमरान का हटना क्या भारत से रिश्तों के लिहाज से अच्छा होगा? नरेंद्र मोदी के बधाई संदेश से अटकलों को और बल मिला, गोकि मोदी 2018 में इमरान के प्रधानमंत्री बनने पर भी ऐसा ही बधाई संदेश दे चुके हैं। ऐसी औपचारिकताओं से गहरे अनुमान लगाना गलत है। भारत से रिश्ते सुधारना फिलहाल पाकिस्तानी वरीयता नहीं है। हाँ, उनकी सेना के दृष्टिकोण में आया बदलाव ध्यान खींचता है।  

रिश्ते सुधरने से दोनों देशों और उनकी जनता का बेशक भला होगा, पर तभी जब राजनीतिक लू-लपेट कम हो। पूरे दक्षिण एशिया पर यह बात लागू होती है। इस इलाके के लोगों को आधुनिकता और इंसान-परस्ती की जरूरत है, धार्मिक और मज़हबी दकियानूसी समझ की नहीं। पाकिस्तान में आ रहे बदलाव पर इसलिए नजर रखने के जरूरत है। फिलहाल रिश्तों को सुधारने का राजनीतिक-एजेंडा दोनों देशों में दिखी नहीं पड़ता, बल्कि दुश्मनी का बाजार गर्म है।

सुधार हुआ भी तो राजनयिक-रिश्तों की बहाली से इसकी शुरुआत हो सकती है। अगस्त 2019 में अनुच्छेद 370 की वापसी के बाद पहले पाकिस्तान ने और उसके बाद भारत ने अपने हाई-कमिश्नरों के वापस बुला लिया था। जो भी हल्का-फुल्का व्यापार हो रहा था, उसे बंद कर दिया गया। इन रिश्तों की बहाली के लिए भी पहल पाकिस्तान को करनी होगी, क्योंकि उन्होंने ही दोनों फैसले किए थे। पर उनकी शर्त है कि अनुच्छेद 370 के फैसले को भारत वापस ले, जिसकी उम्मीद नहीं।

सेना की दृष्टि

पाकिस्तानी सेना मानती है कि अनुच्छेद 370 भारत का अंदरूनी मामला है, हमें इसपर जोर न देकर कश्मीर समस्या के समाधान पर बात करनी चाहिए। शहबाज़ शरीफ ने अपनी पहली प्रेस कांफ्रेंस में भारत के साथ रिश्तों को सुधारने की बात कही है। पर वे चाहते हुए भी जल्दबाजी में कदम नहीं बढ़ाएंगे, क्योंकि इसमें उनके राजनीतिक-जोखिम भी जुड़े हैं। पर उसके पहले पाकिस्तानी राजनीति की कुछ पहेलियों को सुलझना होगा।

शरीफ सरकार खुद में पहेली है। वह कब तक रहेगी और चुनाव कब होंगे? नवम्बर में जनरल कमर जावेद बाजवा का कार्यकाल खत्म हो रहा है। उनकी जगह नया सेनाध्यक्ष कौन बनेगा और उसकी नियुक्ति कौन करेगा? शरीफ या चुनाव के बाद आने वाली सरकार? इमरान खान चाहते हैं कि चुनाव फौरन हों, पर चुनाव आयोग का कहना है कि कम से कम छह महीने हमें तैयारी के लिए चाहिए। इस सरकार के कार्यकाल अगस्त, 2023 तक बाकी है, पर इसमें शामिल पार्टियों की इच्छा है कि चुनाव हो जाएं। अक्तूबर तक चुनाव नहीं हुए, तो सेनाध्यक्ष का फैसला वर्तमान सरकार को ही करना होगा।

Saturday, April 9, 2022

वैश्विक असमंजस के दौर में भारतीय विदेश-नीति

संरा महासभा में हुए मतदान का परिणाम

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सरकार पिछले आठ साल में पहली बार कुछ जटिल सवालों का सामना कर रही है। वैश्विक-महामारी से देश बाहर निकलने का प्रयास कर रहा है। पटरी से उतरी अर्थव्यवस्था को वापस लाने की कोशिशें शुरू हुई हैं। ऐसे में यूक्रेन के युद्ध ने कुछ बुनियादी सवाल खड़े कर दिए हैं। हम किसके साथ हैं
? ‘किसकेसे एक आशय है कि हम रूस के साथ हैं या अमेरिका के? किसी के पक्षधर नहीं हैं, तब हम चाहते क्या हैं? स्वतंत्र विदेश-नीति को चलाए रखने के लिए जिस ताकतवर अर्थव्यवस्था और फौजी ताकत की जरूरत है, अभी वह हमारे पास नहीं है। हमारा प्रतिस्पर्धी दबाव बढ़ा रहा है। हम क्या करें?


गुरुवार 7 अप्रेल को संयुक्त राष्ट्र महासभा के आपात सत्र में हुए मतदान से अनुपस्थित रहकर भारत ने यों तो अपनी तटस्थता का परिचय दिया है, पर प्रकारांतर से यह वोट रूस-विरोधी है। चीन ने इस प्रस्ताव के विरोध में वोट देकर रूस का सीधा समर्थन किया। अमेरिका और उसके सहयोगी देशों के प्रस्ताव पर संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद (यूएनएचआरसी) से रूस को निलंबित कर दिया गया। भारत समेत 58 देश संयुक्त राष्ट्र महासभा के आपात सत्र में हुए मतदान से अनुपस्थित रहे। इनमें दक्षिण एशिया के सभी देश थे, पर ध्यान देन वाली बात यह है कि म्यांमार ने अमेरिकी-प्रस्ताव का समर्थन किया, जबकि उसे चीन के करीब माना जाता है। यूएनएचआरसी से रूस का निलंबन बता रहा है कि वैश्विक मंच पर रूस-चीन गठजोड़ की जमीन कमज़ोर है। निलंबन-प्रस्ताव के समर्थन में 93 वोट पड़े और 24 वोट विरोध में पड़े। अर्थात 92 देशों ने अमेरिका का साथ दिया और चीन सहित 23 देश रूस के साथ खड़े हुए।

हिंद महासागर में चीनी उपस्थिति बढ़ती जा रही है। म्यांमार में सैनिक-शासकों से हमने नरमी बरती, पर फायदा चीन ने उठाया। इसकी एक वजह है कि सैनिक-शासकों के प्रति अमेरिकी रुख कड़ा है। बांग्लादेश के साथ हमारे रिश्ते सुधरे हैं, पर सैनिक साजो-सामान और इंफ्रास्ट्रक्चर में चीन उसका मुख्य-सहयोगी है। अफगानिस्तान में तालिबान का राज कायम होने के बाद वहाँ भी चीन ने पैर पसारे हैं। पाकिस्तान के वर्तमान राजनीतिक-गतिरोध के पीछे जितनी आंतरिक राजनीति की भूमिका है, उतनी ही अमेरिका के बरक्स रूस-चीन गठजोड़ के ताकतवर होने की है।

Monday, March 28, 2022

भारत ने झटका, चीनी ‘दोस्ती’ का हाथ


दो साल की तल्ख़ियों, टकरावों और हिंसक घटनाओं के बाद चीन ने भारत की ओर फिर से दोस्ती का हाथ बढ़ाया है। दोस्ती मतलब फिर से उच्च स्तर पर द्विपक्षीय संवाद का सिलसिला। इसकी पहली झलक 25 मार्च को चीनी विदेशमंत्री वांग यी की अघोषित दिल्ली-यात्रा में देखने को मिली। दिल्ली में उन्हें वैसी गर्मजोशी नहीं मिली, जिसकी उम्मीद लेकर शायद वे आए थे। भारत ने उनसे साफ कहा कि पहले लद्दाख के गतिरोध को दूर करें। इतना ही नहीं वे चाहते थे कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी से उनकी मुलाकात हो, जिसे शालीनता से ठुकरा दिया गया। इन दोनों कड़वी बातों से चीन ने क्या निष्कर्ष निकाला, पता नहीं, पर भारत का रुख स्पष्ट हो गया है।

दिल्ली आने के पहले वांग यी पाकिस्तान और अफगानिस्तान भी गए थे। पाकिस्तान में ओआईसी विदेशमंत्रियों के सम्मेलन में उन्होंने कश्मीर को लेकर पाकिस्तानी-दृष्टिकोण की ताईद करके उन्होंने भारत को झटका दिया है। पाकिस्तान ने इस सम्मेलन का इस्तेमाल कश्मीर के सवाल को उठाने के लिए ही किया था। उसमें चीन को शामिल करना भी दूरगामी रणनीति का हिस्सा है। अगस्त 2018 में जब भारत ने जम्मू-कश्मीर में अनुच्छेद 370 को निष्प्रभावी किया था, तब से चीन पाकिस्तानी-दृष्टिकोण का खुलकर समर्थन कर रहा है। चीन ने उस मामले को सुरक्षा-परिषद में उठाने की कोशिश भी की थी, जिसमें उसे सफलता नहीं मिली।

कश्मीर का मसला

पाकिस्तान में हुए ओआईसी के सम्मेलन में वांग यी ने कहा, कश्मीर के मुद्दे पर हम कई इस्लामी दोस्तों की आवाज़ सुन रहे हैं, चीन की भी इसे लेकर यही इच्छा है। कश्मीर समेत दूसरे विवादों के समाधान के लिए इस्लामी देशों के प्रयासों का चीन समर्थन जारी रखेगा। उनके इस वक्तव्य की भारत ने भर्त्सना की और कहा कि कश्मीर हमारा आंतरिक मामला है, जिसे लेकर कोई बात कहने का चीन को अधिकार नहीं है।

Sunday, February 27, 2022

यूक्रेन में फौजी ताकत का खेल


यूक्रेन पर रूस का धावा अब उतनी महत्वपूर्ण बात नहीं है, बल्कि उसके बाद उभरे सवाल ज्यादा महत्वपूर्ण हैं। अब क्या होगा? राजनीतिक फैसले क्या अब ताकत के जोर पर होंगे? कहाँ है संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद?  पश्चिमी देशों ने यूक्रेन को पिटने क्यों दिया?  पिछले अगस्त में अफगानिस्तान में तालिबानी विजय के बाद अमेरिकी शान पर यह दूसरा हमला है। हमले की निंदा करने की सुरक्षा परिषद की कोशिश को रूस ने वीटो कर दिया। क्या यह क्षण अमेरिका के क्षय और रूस के पुनरोदय का संकेत दे रहा है? क्या वह चीन के साथ मिलकर अमेरिका की हैसियत को कमतर कर देगा? भारत ने साफ तौर पर हमले की निंदा करने से इनकार कर दिया है। अमेरिका से बढ़ती दोस्ती के दौर में क्या यह रुख सही है? क्या अब हमें अमेरिका के आक्रामक रुख का सामना करना होगा? हमने हमले का विरोध भले ही नहीं किया है, पर शांति स्थापित करने और रूसी सेनाओं की वापसी के लिए हमें प्रयास करने होंगे। सैनिक-शक्ति से किसी राजनीतिक-समस्या का समाधान नहीं किया जा सकता है।

ताकत के जोर पर

रूस ने इस बात को स्थापित किया है कि ताकत और हिम्मत है, तो इज्जत भी मिलती है। अमेरिका ने इराक, अफगानिस्तान, सीरिया और लीबिया जैसे तमाम देशों में क्या ऐसा ही नहीं किया? बहरहाल अब देखना होगा कि रूस का इरादा क्या है?  शायद उसका लक्ष्य यूक्रेन के राष्ट्रपति वोलोदिमीर ज़ेलेंस्की को हटाकर उनके स्थान पर अपने समर्थक को बैठाना है। दूसरी तरफ पश्चिमी देश यूक्रेनी नागरिकों को हथियार दे रहे हैं, ताकि वे छापामार लड़ाई जारी रखें। बेशक वे प्रतिरोध कर रहे हैं और जो खबरें मिल रही हैं, उनसे लगता है कि रूस के लिए इस लड़ाई को निर्णायक रूप से जीत पाना आसान नहीं होगा।

राष्ट्रपति ज़ेलेंस्की देश में मौजूद हैं और उनकी सेना आगे बढ़ती रूसी सेना के शरीर में घाव लगा रही है। बहरहाल आगे की राह सबके लिए मुश्किल है। रूस, यूक्रेन तथा पश्चिमी देशों के लिए भी। अमेरिका और यूरोप के देश सीधे सैनिक हस्तक्षेप करना नहीं चाहते और लड़ाई के बगैर रूस को परास्त करना चाहते हैं। फिलहाल वे आर्थिक-प्रतिबंधों का सहारा ले रहे हैं। यह भी सच है कि उनके सैनिक हस्तक्षेप से लड़ाई बड़ी हो जाती।

रूसी इरादा

इस हफ्ते जब रूस ने पूर्वी यूक्रेन में अलगाववादियों के नियंत्रण वाले लुहांस्क और दोनेत्स्क को स्वतंत्र क्षेत्र के रूप में मान्यता दी और फिर सेना भेजी, तभी समझ में आ गया था कि वह सैनिक कार्रवाई करेगा। पहले लगता था कि वह इस डोनबास क्षेत्र पर नियंत्रण चाहता है, जो काफी हद तक यूक्रेन के नियंत्रण से मुक्त है। अब लगता है कि वह पूरे यूक्रेन को जीतेगा। फौजी विजय संभव है, पर उसे लम्बे समय तक निभा पाना आसान नहीं। यूक्रेन के कुछ हिस्से को छोड़ दें, जहाँ रूसी भाषी लोग रहते हैं, मुख्य भूमि पर दिक्कत है। यह बात 2014 में साबित हो चुकी है, जब वहाँ रूस समर्थक सरकार थी। उस वक्त राजधानी कीव में बगावत हुई और तत्कालीन राष्ट्रपति विक्टर यानुकोविच को भागकर रूस जाना पड़ा। उसी दौरान रूस ने क्रीमिया प्रायद्वीप पर कब्जा किया, जो आज तक बना हुआ है।

Monday, December 27, 2021

भारत-बांग्ला रिश्तों के खट्टे-मीठे पचास साल


भारत-बांग्लादेश रिश्तों में विलक्षणता है। दोनों एक-दूसरे के लिए ‘विदेश’ नहीं हैं। 1947 में जब पाकिस्तान बना था, तब वह ‘भारत’ की एंटी-थीसिस के रूप में उभरा था, और आज भी खुद को भारत के विपरीत साबित करना चाहता है। अपने ‘सकल-बांग्ला’ परिवेश में बांग्लादेश, ‘भारत’ जैसा लगता है, विरोधी नहीं। ऐसे लोग भी हैं, जिन्हें ऐसी एकता पसंद नहीं, हमारे यहाँ और उनके यहाँ भी। बांग्लादेश के कुछ विश्लेषक, शेख हसीना के विरोधी खासतौर से मानते हैं कि पिछले एक दशक में भारत का प्रभाव कुछ ज़्यादा ही बढ़ा है। तब इन दिनों जो मैत्री नजर आ रही है, वह क्या केवल शेख हसीना की वजह से है? ऐसा है, तो उनके बाद क्या होगा?

विभाजन की कड़वाहट

दक्षिण एशिया में विभाजन की कड़वाहट अभी तक कायम है, पर यह एकतरफा और एक-स्तरीय नहीं है। पाकिस्तान का सत्ता-प्रतिष्ठान भारत-विरोधी है, फिर भी वहाँ जनता के कई तबके भारत में अपनापन भी देखते हैं। बांग्लादेश का सत्ता-प्रतिष्ठान भारत-मित्र है, पर कट्टरपंथियों का एक तबका भारत-विरोधी भी है। भारत में भी एक तबका बांग्लादेश के नाम पर भड़कता है। उसकी नाराजगी ‘अवैध-प्रवेश’ को लेकर है या उन भारत-विरोधी गतिविधियों के कारण जिनके पीछे सांप्रदायिक कट्टरपंथी हैं। पर भारतीय राजनीति, मीडिया और अकादमिक जगत में बांग्लादेश के प्रति आपको कड़वाहट नहीं मिलेगी। शायद इन्हीं वजहों से पड़ोसी देशों में भारत के सबसे अच्छे रिश्ते बांग्लादेश के साथ हैं।

पचास साल का अनुभव है कि बांग्लादेश जब उदार होता है, तब भारत के करीब होता है। जब कट्टरपंथी होता है, तब भारत-विरोधी। शेख हसीना के नेतृत्व में अवामी लीग की सरकार के साथ भारत के अच्छे रिश्तों की वजह है 1971 की वह ‘विजय’ जिसे दोनों देश मिलकर मनाते हैं। वही विजय कट्टरपंथियों के गले की फाँस है। पिछले 12 वर्षों में अवामी लीग की सरकार ने भारत के पूर्वोत्तर में चल रही देश-विरोधी गतिविधियों पर रोक लगाने में काफी मदद की है। भारत ने भी शेख हसीना के खिलाफ हो रही साजिशों को उजागर करने और उन्हें रोकने में मदद की है।

लोकतांत्रिक अनुभव

शायद इन्हीं कारणों से जब 2014 के चुनाव हो रहे थे, तब भारत ने उन चुनावों में दिलचस्पी दिखाई थी और हमारी तत्कालीन विदेश सचिव सुजाता सिंह ढाका गईं थीं। उस चुनाव में खालिदा जिया के मुख्य विरोधी-दल बांग्लादेश नेशनलिस्ट पार्टी ने चुनाव का बहिष्कार किया था। दुनिया के कई देश उस चुनाव की आलोचना कर रहे थे। भारत ने समर्थन किया था, इसलिए कि बांग्लादेश में अस्थिरता का भारत पर असर पड़ता है।

उस विवाद से सबक लेकर भारत ने 2018 के चुनाव में ऐसा कोई प्रयास नहीं किया, जिससे लगे कि हम उनकी चुनाव-व्यवस्था में हस्तक्षेप कर रहे हैं। उस चुनाव में अवामी लीग ने कुल 300 में से 288 सीटों पर विजय पाई। दुनिया के मुस्लिम-बहुल देशों में बांग्लादेश का एक अलग स्थान है। वहाँ धर्मनिरपेक्षता बनाम शरिया-शासन की बहस है। बांग्लादेश इस अंतर्विरोध का समाधान करने में सफल हुआ, तो उसकी सबसे महत्वपूर्ण सफलता माना जाएगा।

Saturday, October 23, 2021

पश्चिमी क्वॉड यानी भारत की ‘एक्ट-वेस्ट पॉलिसी’


भारत, इसराइल, संयुक्त अरब अमीरात और अमेरिका के विदेश मंत्रियों की हाल में हुई एक वर्चुअल बैठक के दौरान एक नए चतुष्कोणीय फोरम की पेशकश को पश्चिम एशिया में एक नए सामरिक और राजनीतिक ध्रुव के रूप में देखा जा रहा है। राजनयिक क्षेत्र में इसे 'न्यू क्वॉड' या नया 'क्वॉडिलेटरल सिक्योरिटी डायलॉग' कहा जा रहा है। गत 18 अक्तूबर को यह बैठक उस दौरान हुई, जब भारत के विदेशमंत्री एस जयशंकर, इसराइल के दौरे पर थे।

इस बैठक में वे इसराइल के विदेशमंत्री येर लेपिड के साथ यरुसलम में साथ-साथ बैठे। अमेरिकी विदेश मंत्री एंटनी ब्लिंकेन और यूएई के विदेश मंत्री शेख अब्दुल्ला बिन ज़ायेद अल नाह्यान वर्चुअल माध्यम से इसमें शामिल हुए। बैठक में  एशिया और पश्चिम एशिया में अर्थव्यवस्था के विस्तार, राजनीतिक सहयोग, व्यापार और समुद्री सुरक्षा जैसे मुद्दों पर चर्चा हुई। कुल मिलाकर इस समूह का कार्य-क्षेत्र बहुत व्यापक है।

जिस समय जयशंकर इसराइल की यात्रा पर थे, उसी समय इसराइल में 'ब्लू फ्लैग 2021' बहुराष्ट्रीय हवाई युद्धाभ्यास चल रहा था। इसराइल के अब तक के सबसे बड़े इस एयर एक्सरसाइज़ में भारत समेत सात देशों की वायु सेनाओं ने भाग लिया। इनमें जर्मनी, इटली, ब्रिटेन, फ़्रांस, ग्रीस और अमेरिका की वायु सेनाएं भी शामिल थीं। भारतीय वायुसेना के कुछ दस्ते मिस्र के अड्डे पर उतरे थे। इस युद्धाभ्यास और नए क्वॉड के आगमन को आने वाले समय में पश्चिम एशिया की नई सुरक्षा-प्रणाली के रूप में देखना चाहिए।

पश्चिम पर निगाहें

एक अरसे से भारतीय विदेश-नीति की दिशा पूर्व-केन्द्रित रही है। पूर्व यानी दक्षिण-पूर्व और सुदूर पूर्व, जिसे पहले लुक-ईस्ट और अब एक्ट-ईस्ट पॉलिसी कहा जा रहा है। पिछले कुछ समय से भारत ने पश्चिम की ओर देखना शुरू किया है। पाकिस्तान और अफगानिस्तान भी हमारे पश्चिम में हैं। वैदेशिक-संबंधों के लिहाज से यह हमारा समस्या-क्षेत्र रहा है। बहुसंख्यक इस्लामी देशों के कारण कई प्रकार के जोखिम रहे हैं। एक तरफ इसराइल और अरब देशों के तल्ख-रिश्तों और दूसरी तरफ ईरान और सऊदी अरब के अंतर्विरोधों के कारण काफी सावधानी बरतने की जरूरत भी रही है।

भारतीय विदेश-नीति को इस बात का श्रेय दिया जा सकता है कि हमने सबके साथ रिश्ते बनाकर रखे। पाकिस्तान की नकारात्मक गतिविधियों के बावजूद। खासतौर से मुस्लिम देशों के संगठन ओआईसी में पाकिस्तान ने भारत के हितों पर चोट करने में कभी कसर नहीं रखी। भारतीय नजरिए से पश्चिम एशिया समस्या-क्षेत्र रहा है। एक वजह यह भी थी कि भारत और अमेरिका के दृष्टिकोण में साम्य नहीं था। अमेरिका ने भी पश्चिम-एशिया में भारत को अपने साथ नहीं रखा। पर अब हवा का रुख बदल रहा है। पूर्वी और पश्चिमी दोनों क्वॉड में भारत और अमेरिका साथ-साथ हैं।

Thursday, September 23, 2021

मोदी की अमेरिका यात्रा

 

गुरुवार को वॉशिंगटन में भारतीय मूल की महिलाओं से मुलाकात करते हुए प्रधानमंत्री मोदी।

कोविड महामारी के समय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी इस साल मार्च में बांग्लादेश की एक संक्षिप्त यात्रा के बाद अपनी पहली अंतरराष्ट्रीय यात्रा के लिए अमेरिका पहुँच गए हैं। वे 26 सितंबर को देर रात दिल्ली लौटेंगे। फिलहाल निगाहें 24 सितम्बर को उनकी अमेरिका के राष्ट्रपति जो बाइडन के साथ बैठक पर होगी। शुक्रवार को ही ह्वाइट हाउस में क्वाड देशों के नेताओं की बैठक होगी। इसके बाद मोदी न्यूयॉर्क के लिए रवाना हो जाएंगे और 25 सितंबर को वहां संयुक्त राष्ट्र महासभा के 76वें सत्र को संबोधित करेंगे।

मोदी वॉशिंगटन के होटल बिलार्ड में ठहरे हैं, वे यहां भी लोगों के अभिवादन का जवाब देते नजर आए। मोदी आज वे एपल के सीईओ टिम कुक समेत क्वालकॉम, एडोबी और ब्लैकस्टोन जैसी कंपनियों के प्रमुखों से भी होटल में ही मुलाकात कर रहे हैं। हरेक सीईओ को 15 मिनट का समय देने का निश्चय हुआ है।

उन्होंने सबसे पहले क्वालकॉम के सीईओ  क्रिस्टियानो आर अमोन से मुलाकात की। मोदी ने क्रिस्टियानो को भारत में मिलने वाले अवसरों के बारे में बताया। क्वालकॉम के सीईओ ने भारत के 5जी सेक्टर समेत कई क्षेत्रों में मिलकर काम करने की इच्छा जाहिर की। क्वालकॉम एक मल्टीनेशनल फर्म है, जो सेमीकंडक्टर, सॉफ्टवेयर और वायरलेस टेक्नोलॉजी सर्विस पर काम करती है।

वे उपराष्ट्रपति कमला हैरिस से भी बातचीत करेंगे। दिन के आखिर में वे जापान के प्रधानमंत्री सुगा और ऑस्ट्रेलिया के प्रधानमंत्री स्कॉट मॉरिसन से बातचीत करेंगे। ये दोनों देश क्वॉड ग्रुप में शामिल हैं। भारत और अमेरिका भी क्वॉड में शामिल हैं।

Saturday, August 21, 2021

भारतीय विदेश-नीति की विफलता

कांग्रेस के वरिष्ठ नेता और पूर्व विदेशमंत्री सलमान खुर्शीद ने अफगानिस्तान के घटनाक्रम को लेकर भारतीय विदेश-नीति के बारे में कहा है कि कई साल से हम सबके मन में यह सवाल घुमड़ता रहा था कि क्या अफगानिस्तान लंबे समय से चले आ रहे संकट के दौर से निकल पाएगा और क्या वहां स्थिर सरकार देने की दिशा में किए जा रहे अथक प्रयास आगे भी जारी रहेंगे? यूपीए सरकार के दौरान हमने नए संसद भवन, स्कूलों-जैसे अहम संस्थानों के पुनर्निर्माण के अतिरिक्त सलमा बांध-जैसी विकास परियोजनाओं पर भारी धनराशि खर्च की। अब सब कुछ तालिबान के हाथ में है और लोकतांत्रिक संस्थानों को मजबूत करने के प्रयास छिन्न-भिन्न हो गए हैं। हम पूर्व राष्ट्रपति हामिद करजई जैसे अपने दोस्तों की खैरियत के लिए फिक्रमंद ही हो सकते हैं जो अपने परिवार के साथ, जिसमें छोटी-छोटी बच्चियां भी हैं, काबुल में ही रह रहे हैं। मैं मानकर चलता हूं कि सरकार ने हमारे नागरिकों के साथ-साथ भारत से दोस्ती निभाने वाले अफगानों को वहां से सुरक्षित निकालने के लिए पर्याप्त राजनीतिक उपाय बचाकर रखे होंगे।

Friday, July 16, 2021

सवालों के घेरे में अफगानिस्तान और भारतीय विदेश-नीति की परीक्षा


अफगानिस्तान से अमेरिकी सेना के हटने के साथ ही तालिबान हिंसा के सहारे फिर से अपने पैर पसार रहा है। करीब बीस साल से सत्ता से बाहर रह चुके इस समूह की ताकत क्या है, उसे हथियार कौन दे रहा है और उसका इरादा क्या है, और अफगानिस्तान क्या एकबार फिर से गृहयुद्ध की आग में झुलसने जा रहा है? क्या अफगानिस्तान में फिर से कट्टरपंथी तालिबानी-व्यवस्था की वापसी होगी, जिसमें नागरिकों के लोकतांत्रिक अधिकार शून्य थे? स्त्रियों के बाहर निकलने पर रोक और उनकी पढ़ाई पर पाबंदी थी। उन्हें कोड़े मारे जाते थे। पिछले बीस वर्षों में वहाँ व्यवस्था सुधरी है। कम से कम शहरों में लड़कियाँ पढ़ने जाती हैं। काम पर भी जाती हैं। उनके पहनावे को लेकर भी पाबंदियाँ नहीं हैं।

हम क्या करें?

ऐसे तमाम सवाल हैं, जिनके जवाब पाने की हमें कोशिश करनी चाहिए, पर फिलहाल हमारे लिए सबसे बड़ा सवाल है कि इस घटनाक्रम से भारत के ऊपर क्या प्रभाव पड़ने वाला है और हमें करना क्या चाहिए? हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि तालिबान बुनियादी तौर पर पाकिस्तान की देन हैं। अस्सी के दशक में पाकिस्तानी मदरसों ने इन्हें तैयार किया था और उसके पीछे अफगानिस्तान को पाकिस्तान का उपनिवेश बनाकर रखने का विचार है। पिछले बीस वर्षों में अफगानिस्तान सरकार ने अपने देश को पाकिस्तान की भारत-विरोधी गतिविधियों का केंद्र बनने से रोका है। भारत ने इस दौरान करीब तीन अरब डॉलर की धनराशि से वहाँ के इंफ्रास्ट्रक्चर में सुधार के लिए प्रयास किए हैं। भारत ने वहाँ बाँध, पुल, सड़कें, रेल लाइन, पुस्तकालय और यहाँ तक कि देश का नया संसद भवन भी बनाकर दिया है। अफ़ग़ानिस्तान के सभी 34 प्रांतों में भारत की 400 से अधिक परियोजनाएं चल रही हैं।

इन सबकी तुलना में ईरान के चाबहार के रास्ते मध्य एशिया तक जाने वाले उत्तर-दक्षिण कॉरिडोर की आधार-शिला भी भारत ने डाली है। यह कॉरिडोर चीन और पाकिस्तान के सी-पैक के समानांतर होगा और यह अंततः हमें यूरोप से सीधा जोड़ेगा। चूंकि पाकिस्तान ने सड़क के रास्ते अफगानिस्तान और मध्य एशिया के देशों से भारत को जोड़ने की योजनाओं में अड़ंगा डाल रखा है, इसलिए यह एक वैकल्पिक-व्यवस्था थी। दुर्भाग्य से अमेरिका और ईरान के बिगड़ते रिश्तों के कारण इस कार्यक्रम को आघात लगा है। पाकिस्तान की कोशिश लगातार भारतीय हितों को चोट पहुँचाने की रही है और अब भी वह येन-केन प्रकारेण चोट पहुँचाने का प्रयास कर रहा है।

रूस और चीन की भूमिका

अफगानिस्तान में इस समय वैश्विक स्तर पर दो धाराएं सक्रिय हैं। एक है अमेरिका के नेतृत्व में पश्चिमी देशों की और दूसरी रूस और चीन के नेतृत्व में मध्य एशिया के देशों की। पाकिस्तान चाहता है कि अफगानिस्तान में चीन अब ज्यादा बड़ी भूमिका निभाए। उसकी आड़ में उसे अपनी गतिविधियाँ चलाने का मौका मिलेगा। चीन चाहता है कि उसके शिनजियांग प्रांत में सक्रिय वीगुर उग्रवादी अफगानिस्तान में सक्रिय न होने पाएं। पाकिस्तान ने पिछले दो वर्षों में चीन और तालिबान के बीच तार बैठाए हैं। चीन ने अफगानिस्तान में पूँजी निवेश का आश्वासन भी दिया है।

चीन ने रूस में भी पूँजी निवेश किया है और वह रूसी पेट्रोलियम भी खरीद रहा है, जिसके कारण रूस का झुकाव चीन की तरफ है। अमेरिका के साथ रूसी रिश्ते भी बिगड़े हैं, जिस कारण से ये दोनों देश करीब हैं। इसके अलावा रूस इस बात को भूल नहीं सकता कि अस्सी के दशक में अमेरिका ने अफगानिस्तान में रूसी कब्जे के खिलाफ लड़ाई में मुजाहिदीन का साथ दिया था। उधर अमेरिकी शक्ति क्षीण हो रही है। वह अफगानिस्तान से हटना चाहता है। पिछले दो साल से वह तालिबान के साथ बातचीत चला रहा था। इस बातचीत के निहितार्थ को समझते हुए रूस और चीन ने भी तालिबान के साथ सम्पर्क स्थापित किया था। इसका ज्यादा स्पष्ट रूप अब हमें देखने को मिल रहा है।

अस्सी के दशक में भारत और रूस के रिश्ते बेहतर थे, अब हम अमेरिका के करीब हैं। इस साल 18 मार्च को मॉस्को में अफगानिस्तान को लेकर एक बातचीत हुई, जिसमें रूस, चीन, अमेरिका की तिकड़ी के अलावा पाकिस्तान, अफ़ग़ान सरकार और तालिबान प्रतिनिधियों ने भाग लिया। इसमें भारत को नहीं बुलाया गया, जबकि फरवरी 2019 में हुई मॉस्को-वार्ता में भारत भी शामिल हुआ था। बहरहाल कई कारणों से रूस अब भी भारत की उपेक्षा नहीं कर सकता। पर भारत को हाशिए पर रखने की पाकिस्तानी कोशिशें लगातार जारी हैं।

Thursday, June 3, 2021

क्या भारत की फलस्तीन-नीति में बड़ा बदलाव आ रहा है?


हाल में इसराइल और हमस के बीच हुए टकराव के दौरान भारत की विदेश-नीति में जो बदलाव दिखाई पड़ा है, उसकी ओर पर्यवेक्षक इशारा कर रहे हैं। संरा सुरक्षा परिषद में भारत ने जो कहा, वह महासभा की बहस में बदल गया। इसके बाद मानवाधिकार परिषद की बैठक में भारत ने उस प्रस्ताव पर मतदान में हिस्सा नहीं लिया, जिसमें गज़ा में इसराइली कार्रवाई की जाँच की माँग की गई है। भारत की इस अनुपस्थिति पर फलस्तीन के विदेशमंत्री डॉ रियाद मल्की ने कड़े शब्दों में आलोचना की है।

इस आलोचना के जवाब में भारत के विदेश मंत्रालय ने गुरुवार को कहा कि भारत की नीति इस मामले में स्पष्ट रही है। इसके पहले भी हम मतदान से अनुपस्थित होते रहे हैं। जहाँ तक फलस्तीन के विदेशमंत्री के पत्र का सवाल है, उन्होंने यह पत्र उन सभी देशों को भेजा है, जो मतदान से अनुपस्थित रहे। 

उधर इसराइल में प्रधानमंत्री बिन्यामिन नेतन्याहू के विरोधियों के बीच गठबंधन सरकार बनाने को लेकर सहमति बन गई है जिसके बाद नेतन्याहू की विदाई का रास्ता साफ़ हो गया है। नेतन्याहू इसराइल में सबसे लंबे समय तक प्रधानमंत्री रहने वाले नेता हैं और पिछले 12 साल से देश की राजनीति उनके ही इर्द-गिर्द घूमती रही है। मार्च में हुए चुनाव में नेतन्याहू की लिकुड पार्टी को बहुमत नहीं मिला था। उन्हें बुधवार 2 जून की मध्यरात्रि तक बहुमत साबित करना था और समय-सीमा समाप्त होने के कुछ ही देर पहले विपक्षी नेता येर लेपिड ने घोषणा की कि आठ दलों के बीच गठबंधन हो गया है और अब वे सरकार बनाएँगे। बहरहाल इस घटनाक्रम से इसराइल-फलस्तीन मसले पर कोई बड़ा फर्क पड़ने वाला नहीं है।

Wednesday, May 19, 2021

पश्चिम एशिया में भारत किसके साथ है?

हिन्दू में वासिनी वर्धन का कार्टून

गज़ा पट्टी में चल रहे टकराव को रोकने के लिए संरा सुरक्षा परिषद की खुली बैठक में की जा रही कोशिशें अभी तक सफल नहीं हो पाई हैं, क्योंकि ऐसा कोई प्रस्ताव अभी तक सामने नहीं आया है, जिसपर आम-सहमति हो। नवीनतम समाचार यह है कि फ्रांस ने संघर्ष-विराम का एक प्रस्ताव आगे बढ़ाया है, जिसकी शब्दावली पर अमेरिका की राय अलग है। हालांकि राष्ट्रपति जो बाइडेन ने औपचारिक रूप से जो बयान जारी किया है, उसमें दोनों पक्षों से संघर्ष-विराम की अपील की है, पर अमेरिका का सुझाव है कि इसपर सुरक्षा परिषद की खुली बैठक के बजाय बैकरूम बात की जाए। एक तरह से उसने सुप को बयान जारी करने से रोका है।

अब फ्रांस ने कहा है कि हम अब बयान नहीं एक प्रस्ताव लाएंगे, जो कानूनन लागू होगा। इसपर सदस्य मतदान भी करेंगे। फ्रांस के राष्ट्रपति इमैनुएल मैक्रों ने यह बात मिस्र और जॉर्डन के राष्ट्राध्यक्षों से बात करने के बाद कही है। अनुमान है कि इस प्रस्ताव में केवल संघर्ष-विराम की पेशकश ही नहीं है, बल्कि गज़ा में हालात का अध्ययन करने और मानवीय-सहायता पहुँचाने की पेशकश भी है। सम्भवतः अमेरिका को इसपर आपत्ति है। देखना होगा कि ऐसी स्थिति आई, तो अमेरिका उसे वीटो करेगा या नहीं।  

भारत किसके साथ?

उधर इस संघर्ष के दौरान भारत में बहस है कि हम संयुक्त राष्ट्र में किसका साथ दे रहे हैं, इसराइल का या फलस्तीनियों का? भारतीय प्रतिनिधि टीएस त्रिमूर्ति ने रविवार को सुरक्षा परिषद में जो बयान दिया था, उसे ठीक से पढ़ें, तो वह फलस्तीनियों के पक्ष में है, जिससे इसराइल को दिक्कत होगी। साथ ही भारत ने हमस के रॉकेट हमले की भी भर्त्सना की है।

Thursday, May 13, 2021

बांग्लादेश का चीन को जवाब

बांग्लादेश ने क्वॉड को लेकर चीन की चिंता का न केवल जवाब दिया है, बल्कि यह भी कहा है कि हमें विदेश-नीति को लेकर रास्ता न दिखाएं। हम खुद रास्ते देख लेंगे। के विदेश मंत्री डॉ अब्दुल मोमिन ने मंगलवार को कहा कि बांग्लादेश की विदेश नीति गुट-निरपेक्ष और संतुलनकारी सिद्धांत पर आधारित है और हम इसी के हिसाब से आगे बढ़ते हैं। बांग्लादेश के अखबार दे डेली स्टार ने भी अपने विदेशमंत्री के विचारों से मिलते-जुलते विचार व्यक्त किए हैं।

डॉ मोमिन ने मंगलवार को पत्रकारों के सवालों का जवाब देते हुए कहा, ''हम स्वतंत्र और संप्रभु राष्ट्र हैं। हम अपनी विदेश नीति पर ख़ुद फ़ैसला करेंगे। लेकिन हाँ, कोई देश अपनी स्थिति स्पष्ट कर सकता है। अगला क्या कहता है हम इसका आदर करते हैं लेकिन हम चीन से ऐसे व्यवहार की उम्मीद नहीं करते हैं।'' उन्होंने इस बयान को खेदजनक बताया है।

डॉ मोमिन ने कहा, ''स्वाभाविक रूप से चीनी राजदूत अपने देश का प्रतिनिधित्व करते हैं। वे जो चाहते हैं, उसे कह सकते हैं। शायद वे नहीं चाहते हैं कि हम क्वॉड में शामिल हों। लेकिन हमें किसी ने क्वॉड में शामिल होने के लिए संपर्क नहीं किया है। चीन की यह टिप्पणी असमय (एडवांस में) आ गई है।''

चीनी बयान को लेकर केवल सरकार ने ही प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं की है, बल्कि वहाँ के विदेश-नीति विशेषज्ञों और मीडिया ने भी कहा है कि हमारा देश अपनी विदेश-नीति की दिशा खुद तय करेगा। इसके लिए किसी को बाहर से कुछ कहने की जरूरत नहीं है। हाँ, हम सभी की बात सुनेंगे, पर जो करना है वह खुद तय करेंगे।

राजदूत का बयान

गत सोमवार को, बांग्लादेश में चीनी राजदूत ली जिमिंग ने ढाका में कहा, बांग्लादेश किसी भी तरह से क्वॉड में शामिल हुआ, तो चीन के साथ द्विपक्षीय संबंध गंभीर रूप से क्षतिग्रस्त हो जाएंगे। जिमिंग ने कहा, हम नहीं चाहते कि बांग्लादेश इस गठबंधन में भाग ले।

Tuesday, May 11, 2021

एशिया में तेज गतिविधियाँ और भारतीय विदेश-नीति की चुनौतियाँ

 


पश्चिम एशिया, दक्षिण एशिया और हिंद-प्रशांत क्षेत्र में अचानक गतिविधियाँ तेज हो गई हैं। एक तरफ अमेरिकी सेना की अफगानिस्तान से वापसी शुरू हो गई है, वहीं अमेरिका के हटने के बाद की स्थितियों को लेकर आपसी विमर्श तेज हो गया है। अफगानिस्तान में हाल में हुए एक आतंकी हमले में 80 के आसपास लोगों की मृत्यु हुई है, जिनमें ज्यादातर स्कूली लड़कियाँ हैं। ये लड़कियाँ शिया मूल के हज़ारा समुदाय से ताल्लुक रखती हैं।

ऐसा माना जा रहा है कि यह हमला दाएश यानी इस्लामिक स्टेट ने किया है। इस हमले के बाद अमेरिका ने कहा है कि अफगान सरकार और तालिबान को मिलकर इस गिरोह से लड़ना चाहिए। दूसरी तरफ पाकिस्तान के प्रधानमंत्री सऊदी अरब का दौरा करके आए हैं। इस दौरे के पीछे भी असली वजह अमेरिका के पश्चिम एशिया से हटकर हिंद-प्रशांत क्षेत्र पर जाना है।

सऊदी अरब का प्रयास है कि भारत और पाकिस्तान के बीच तनाव खत्म हो, ताकि अफगानिस्तान में हालात पर काबू पाया जा सके, साथ ही इस इलाके में आर्थिक सहयोग का माहौल बने। इस बीच सऊदी अरब और ईरान के बीच भी सम्पर्क स्थापित हुआ है। जानकारों के अनुसार अमेरिका के नए राष्ट्रपति जो बाइडेन का ईरान के साथ परमाणु समझौते को दोबारा बहाल करने की कोशिश करना और चीन का ईरान में 400 अरब डॉलर के निवेश के फ़ैसले के कारण सऊदी अरब के रुख़ में बदलाव नज़र आ रहा है।

अमेरिका की कोशिश भी ईरान से रिश्तों को सुधारने में है। इतना ही नहीं सऊदी और तुर्की रिश्तों में भी बदलाव आने वाला है। इस प्रक्रिया में भारत की नई भूमिका भी उभर कर आएगी। भारत ने प्रायः सभी देशों के साथ रिश्तों को सुधारा है। पाकिस्तान के कारण या किसी और वजह से तुर्की के साथ खलिश बढ़ी है, पर उसमें भी बदलाव आएगा।

Tuesday, February 9, 2021

बाइडेन-मोदी वार्ता में चीनी दादागिरी रोकने पर सहमति


अमेरिका के राष्‍ट्रपति जो बाइडेन ने पद संभालने के बाद पहली बार भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से फोन पर जो बात की, उसमें केंद्रीय विषय हिंद-प्रशांत क्षेत्र में स्‍वतंत्र और मुक्‍त आवागमन और चीनी दादागिरी था। दोनों नेताओं ने कहा कि क्वॉड के जरिए हिंद-प्रशांत क्षेत्र में क्षेत्रीय अखंडता और मजबूत क्षेत्रीय ढांचे को समर्थन दिया जाएगा। 

विश्‍लेषकों का मानना है कि भारतीय प्रधानमंत्री के साथ पहली ही बातचीत में क्‍वॉड पर जोर देकर अमेरिकी राष्‍ट्रपति जो बाइडेन ने अपने इरादे साफ कर दिए हैं। क्‍वॉड एक ऐसा समूह है जिसे लेकर चीन परेशान है। वह कई बार भारत को इससे दूर रहने के लिए धमका चुका है। 

द क्वॉड्रिलैटरल सिक्‍यॉरिटी डायलॉग में भारत, अमेरिका, जापान और ऑस्ट्रेलिया शामिल हैं और इसमें ब्रिटेन के भी शामिल होने की बात चल रही है। कनाडा ने भी इस संगठन की ओर सकारात्‍मक रुख दिखाया है। वहीं चीन की आक्रामकता झेल रहे कई दक्षिण पूर्वी एशियाई देश जैसे वियतनाम भी इस संगठन में जुड़ सकते हैं। 

Thursday, December 10, 2020

भारत के ‘क्वाड’ में शामिल होने से परेशान है रूस

 

रूसी विदेश मंत्री सर्गेई लावरोव

सन 2020 में भारत की विदेश नीति में एक बड़ा मोड़ आया है। यह मोड़ चीन के खिलाफ कठोर नीति अपनाने और साथ ही अमेरिका की ओर झुकाव रखने से जुड़ा है। इसका संकेत पहले से मिल रहा था, पर इस साल लद्दाख में भारत और चीन के टकराव और फिर उसके बाद तोक्यो में भारत, जापान, अमेरिका और ऑस्ट्रेलिया के विदेश मंत्रियों की बैठक के बाद चतुष्कोणीय सुरक्षा योजना को मजबूती मिली। फिर भारत में अमेरिका के साथ टू प्लस टूवार्ता और नवंबर के महीने में मालाबार अभ्यास में ऑस्ट्रेलिया के भी शामिल हो जाने के बाद यह बात और स्पष्ट हो गई कि भारत अब काफी हद तक पश्चिमी खेमे में चला गया है।

भारतीय विदेश-नीति सामान्यतः किसी एक गुट के साथ चलने की नहीं रही है। नब्बे के दशक में शीत-युद्ध की समाप्ति के बाद भारत पर दबाव भी नहीं रह गया था। पर सच यह भी है कि उसके पहले भारत की असंलग्नतापूरी नहीं थी, अधूरी थी। भारत का रूस की तरफ झुकाव छिपाया नहीं जा सकता था। बेशक उसके पीछे तमाम कारण थे, पर भारत पूरी तरह गुट निरपेक्षता का पालन नहीं कर रहा था। फर्क यह है कि तब हमारा झुकाव रूस की तरफ था और अब अमेरिका की तरफ हो रहा है।