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Sunday, November 4, 2018

मौद्रिक-व्यवस्था पर निरर्थक टकराव


ऐसे महत्वपूर्ण समय में जब देश को आर्थिक संवृद्धि की दर में तेजी से वृद्धि की जरूरत है विश्व बैंक की 16वीं कारोबार सुगमता (ईज़ ऑफ डूइंग बिजनेस) रैंकिंग में भारत इस साल 23 पायदान पार करके 100वें से 77वें स्थान पर पहुंच गया है। पिछले दो सालों में भारत की रैंकिंग में 53 पायदान का सुधार आया है। माना जा रहा है कि इससे भारत को अधिक विदेशी निवेश आकर्षित करने में मदद मिलेगी। इस खुशखबरी के बावजूद देश में पूँजी निवेश को लेकर निराशा का भाव है। वजह है देश के पूँजी क्षेत्र व्याप्त कुप्रबंध।

पिछले कुछ वर्षों से बैंकों के नियामक रिज़र्व बैंक ऑफ इंडिया और भारत सरकार के बीच तनातनी चल रही है। इस तनातनी की पराकाष्ठा पिछले हफ्ते हो गई, जब केंद्र सरकार ने आरबीआई कानून की धारा 7 के संदर्भ में विचार-विमर्श शुरू किया। इसके तहत केंद्र सरकार जरूरी होने पर रिज़र्व बैंक को सीधे निर्देश भेज सकती है। इस अधिकार का इस्तेमाल आज तक केंद्र सरकार ने कभी नहीं किया। इस खबर को मीडिया ने नमक-मिर्च लगाकर सनसनीखेज बना दिया। कहा गया कि धारा 7 का इस्तेमाल हुआ, तो रिज़र्व बैंक के गवर्नर ऊर्जित पटेल इस्तीफा दे देंगे।

Sunday, October 21, 2018

सबरीमलाई का राजनीतिक संदेश

हाल में हुए अदालतों के दो फैसलों के सामाजिक निहितार्थों को समझने की जरूरत है। इनमें एक फैसला उत्तर भारत से जुड़ा है और दूसरा दक्षिण से, पर दोनों के पीछे आस्था से जुड़े प्रश्न हैं। पिछले कुछ समय में गुरमीत राम रहीम और आसाराम बापू को अदालतों ने सज़ाएं सुनाई। अब बाबा रामपाल को दो मामलों में उम्रकैद की सज़ा सुनाई है। तीनों मामले अपराधों से जुड़े है। पिछले साल अगस्त में जैसी हिंसा राम रहीम समर्थकों ने की, तकरीबन वैसी ही हिंसा उसके पहले मथुरा के जवाहर बाग की सैकड़ों एकड़ सरकारी जमीन पर कब्जा जमाए बैठे रामवृक्ष यादव और उनके हजारों समर्थकों और पुलिस के बीच हिंसक भिड़ंत में हुई थी। बहरहाल बाबा रामपाल प्रकरण में ऐसा नहीं हो पाया।

पिछले हफ्ते केरल के सबरीमलाई (या सबरीमाला) मंदिर में कपाट खुलने के बाद के घटनाक्रम ने देश का ध्यान खींचा है। 12वीं सदी में बने भगवान अयप्पा के इस मंदिर में परम्परा से 10-50 साल की उम्र की स्त्रियों के प्रवेश पर रोक है। हाल में कुछ सुप्रीम कोर्ट ने इस प्रतिबंध को हटा दिया और सभी महिलाओं के प्रवेश की अनुमति दे दी। केरल के परम्परागत समाज ने अदालत की इस अनुमति को धार्मिक मामलों में राज-व्यवस्था का अनुचित हस्तक्षेप माना।

Sunday, October 14, 2018

‘मीटू’ की ज़रूरत थी

देश में हाल के वर्षों में स्त्री-चेतना की सबसे बड़ी परिघटना थी, दिसम्बर 2012 में दिल्ली-रेपकांड के खिलाफ खड़ा हुआ आंदोलन। इस आंदोलन के कारण भले ही कोई क्रांतिकारी बदलाव न हुआ हो, पर सामाजिक-व्यवस्था को लेकर स्त्रियों के मन में बैठी भावनाएं निकल कर बाहर आईं। ऐसे वक्त में जब लड़कियाँ घरेलू बंदिशों से बाहर निकल कर आ रहीं हैं, उनके साथ होने वाला दुर्व्यवहार बड़े खतरे की शक्ल में मुँह बाए खड़ा है। समय क्या शक्ल लेगा हम नहीं कह सकते, पर बदलाव को देख सकते हैं। इन दिनों अचानक खड़ा हुआ ‘मीटू आंदोलन’ इसकी एक मिसाल है। 

लम्बे अरसे से हम मानते रहे हैं कि फिल्मी दुनिया में स्त्रियों का जबर्दस्त यौन-शोषण होता है। पर ऐसा केवल ‘फिल्मी दुनिया’ में नहीं है, जीवन के हर क्षेत्र में है। और यह बात अब धीरे-धीरे खुल रही है। ‘मीटू आंदोलन’ आंदोलन के पहले से देश में कई मामले अदालतों में चल रहे हैं। खासतौर से मीडिया में कुछ लड़कियों ने आत्महत्याएं की हैं। सिनेमा और मीडिया का वास्ता दृश्य जगत से है। उसे लोग ज्यादा देखते हैं। राजनीति के ‘मीटू प्रसंग’ भी सुनाई पड़ेंगे। वैज्ञानिक प्रयोगशालाओं, प्रशासनिक सेवाओं, कॉरपोरेट जगत और शैक्षिक संस्थानों से खबरें मिलेंगी।

तब या अब किसी ने इन बातों को सार्वजनिक रूप से उठाया है, तो इसकी तारीफ करनी चाहिए और उस महिला का समर्थन करना चाहिए। पर यह सारी बात का एक पहलू है। इसे ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य को भी समझने की कोशिश करनी चाहिए। ‘मीटू आंदोलन’ यौन उत्पीड़न के खिलाफ एक वैश्विक अभियान है, जिसके अलग-अलग देशों में अलग-अलग रूप हैं। इसका सबसे प्रचलित अर्थ है कार्यक्षेत्र में स्त्रियों का यौन शोषण। अक्तूबर 2017 में अमेरिकी फिल्म निर्माता हार्वे वांइंसटाइन पर कुछ महिलाओं ने यौन शोषण के आरोप लगाए। न्यूयॉर्क टाइम्स और न्यूयॉर्कर ने खबरें प्रकाशित कीं कि एक दर्जन से अधिक स्त्रियों ने वांइंसटाइन पर यौन-विषयक परेशानियाँ पैदा करने, छेड़छाड़, आक्रमण और रेप के आरोप लगाए। इस वाक्यांश को लोकप्रियता दिलाई अमेरिकी अभिनेत्री एलिज़ा मिलानो ने, जिन्होंने हैशटैग के साथ इसका इस्तेमाल 15 अक्टूबर 2017 को ट्विटर पर किया। मिलानो ने कहा कि मेरा उद्देश्य है कि लोग इस समस्या की संजीदगी को समझें। इसके बाद इस हैशटैग का इस्तेमाल सोशल मीडिया पर करोड़ों लोग कर चुके हैं।

Sunday, October 7, 2018

विदेश नीति में बड़े फैसलों की घड़ी

कुछ दिन पहले तक लगता था कि भारत की विदेश नीति की नैया रूस और अमेरिका के बीच संतुलन बैठाने के फेर में डगमग हो रही है। अब रूस के साथ एस-400 मिसाइलों, एटमी बिजलीघरों समेत आठ समझौते होने से लगता है कि हम अमेरिका से दूर जा रहे हैं। ऐसे में अगली गणतंत्र दिवस परेड पर अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप मुख्य अतिथि बनकर आ जाएं तो क्या कहेंगे? भारत की दोनों, बल्कि इसमें चीन को भी शामिल कर लें, तो तीनों के साथ क्या दोस्ती सम्भव है?

क्यों नहीं सम्भव है? हमारी विदेश नीति किसी एक देश के हाथों गिरवी नहीं है। स्वायत्तता का तकाजा है कि हम अपने हितों के लिहाज से रास्ते खोजें। पर स्वायत्तता के लिए सामर्थ्य भी चाहिए। अमेरिका से दोस्ती कौन नहीं चाहता? इसकी वजह है उसकी ताकत। ऐसे ही मौकों पर देश की सामर्थ्य का पता लगता है और इसका प्रदर्शन किया जाना चाहिए।

Sunday, September 30, 2018

बदलते समाज के फैसले

सुप्रीम कोर्ट के कुछ बड़े फैसलों के लिए पिछला हफ्ता याद किया जाएगा। इस हफ्ते कम के कम छह ऐसे फैसले आए हैं, जिनके गहरे सामाजिक, धार्मिक, न्यायिक और राजनीतिक निहितार्थ हैं। संयोग से वर्तमान मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा के कार्यकाल का यह अंतिम सप्ताह भी था। उनका कार्यकाल इसलिए महत्वपूर्ण रहा, क्योंकि वे देश के पहले ऐसे मुख्य न्यायाधीश हैं, जिनके खिलाफ संसद के एक सदन में महाभियोग की सूचना दी गई और यह मामला सुप्रीम कोर्ट के दरवाजे पर भी गया। उनके कार्यकाल में कुछ ऐसे मामले आए, जिन्हें लेकर राजनीति और समाज में तीखे मतभेद हैं। इनमें जज लोया और अयोध्या के मामले शामिल हैं। ये बदलते भारतीय समाज के अंतर्विरोध हैं, जो अदालती फैसलों में नजर आ रहे हैं।

Sunday, September 16, 2018

‘आंदोलनों’ की सिद्धांतविहीनता

बंद, हड़ताल, घेराव, धरना और विरोध प्रदर्शन हमारी राजनीतिक संस्कृति के अटूट अंग बन चुके हैं। स्वतंत्रता आंदोलन से निकली इस राजनीति की धारणा है कि सार्वजनिक हितों की रक्षा का जिम्मा हरेक दल के पास है। ऐसा सोचना गलत भी नहीं है, पर सार्वजनिक हित-रक्षा के लिए हरेक दल अपनी रणनीति, विचार और गतिवधि को सही मानकर पूरे देश को अपनी बपौती मानना शुरू कर दिया है, जिससे आंदोलनों की मूल भावना पिटने लगी है। अक्सर वही आंदोलन सफल माना जाता है, जो हिंसा फैलाने में कामयाब हो। 
स्वतंत्रता आंदोलन से निकली राजनीति के अलावा देश की कम्युनिस्ट पार्टियों के पास रूस और चीन के उदाहरण हैं। कम्युनिस्ट पार्टियों के पास मजदूर और किसान संगठन हैं, जिन्हें व्यवस्था से कई तरह की शिकायतें हैं। देश की प्रशासनिक व्यवस्था से नागरिकों को तमाम शिकायतें हैं। इनका निवारण तबतक नहीं होता जबतक आंदोलन का रास्ता अपनाया न जाए। यह पूरी बात का एक पहलू है। इन आंदोलनों की राजनीतिक भूमिका पर भी ध्यान देना होगा।

Sunday, September 9, 2018

समलैंगिकता की हकीकत को स्वीकारें

धारा 377 पर सुप्रीम कोर्ट के संविधान पीठ का फैसला आने के बाद तीन किस्म की प्रतिक्रियाएं सामने आई हैं। एक प्रतिक्रिया इस फैसले के स्वागत में है और दूसरी इसके विरोध में। अंग्रेजी के कुछ अखबारों और चैनलों को देखने से लगता है कि कोई बड़ी क्रांति हो गई है। एक अखबार ने शीर्षक दिया है इंडिपेंडेंस डे-2 यानी कि यह दूसरा स्वतंत्रता दिवस है। इसके विपरीत शुद्धतावादियों की प्रतिक्रिया निराशा से डूबी है। उन्हें लगता है कि व्यवस्था ने पापाचार को वैध और सही मान लिया है। एक तीसरी प्रतिक्रिया है कि ठीक है कि समलैंगिकता को आपराधिक दायरे से बाहर रखें, पर यह समाज को स्वीकार्य नहीं है।
हमारे समाज को ही नहीं, अभी यह दुनिया के तमाम समाजों को स्वीकार नहीं है। सच यह है कि प्राकृतिक रूप से विषमलिंगी सम्बंध ही सहज हैं। पर यह भी सच है कि दुनिया के सभी समाजों में आज से नहीं हजारों साल से समलैंगिक सम्बंध होते रहे हैं। इन्हें रोकने के लिए अनेक देशों में कानून हैं और सजाएं दी जाती हैं। हमारे देश में कुछ समय से समलैंगिकता को अपराध के दायरे से बाहर लाने की मुहिम चल रही थी। इसके पीछे बुनियादी तर्क यह है कि यह व्यक्ति के निजी चयन का मामला है। इसे अपराध के दायरे से बाहर लाना चाहिए। हमारी इसी अदालत में 2013 में इस तर्क को अस्वीकार कर दिया, पर अब स्वीकार किया है, तो उसपर भी विचार करना चाहिए। हकीकत को सभी स्तरों पर स्वीकार किया जाना चाहिए।
व्यावहारिक सच यह है कि देर-सबेर यह फैसला होना ही था। पिछले साल हमारी सुप्रीम कोर्ट ने प्राइवेसी को मौलिक अधिकार का दर्जा दिया था। उस निर्णय की यह तार्किक परिणति है। ऐसा नहीं है कि इस फैसले के बाद पूरा समाज समलैंगिक हो जाएगा। अंततः यह समाज पर निर्भर करेगा कि वह किस रास्ते पर जाना चाहता है। समाज की मुख्य धारा इसे स्वीकार नहीं करेगी, पर कोई इस रास्ते पर जाता है, तो उसे प्रताड़ित भी नहीं करेगी। भारतीय दंड संहिता की धारा 377 के मुताबिक कोई किसी पुरुष, स्त्री या पशुओं से प्रकृति की व्यवस्था के विरुद्ध संबंध बनाता है तो यह अपराध होगा। इस अपराध के लिए उसे उम्रकैद या 10 साल तक की सजा के साथ आर्थिक दंड का भागी होना पड़ेगा। इतनी भारी सजा के बोझ से वे लोग अब बाहर आ जाएंगे, जो इसके दबाव में थे। पर यह बहस जारी रहेगी कि समलैंगिकता प्राकृतिक गतिविधि है या नहीं।

Sunday, September 2, 2018

राफेल पर राजनीति की छाया

केन्द्र सरकार के लिए इस हफ्ते का आखिरी दिन खुशखबरी लेकर आया। खबर है कि इस वित्तीय वर्ष के पहली तिमाही में अर्थ-व्यवस्था में 8.2 फीसदी की दर से इजाफा हुआ है। इसका सबसे सकारात्मक पक्ष है मैन्यूफैक्चरिंग और फार्म सेक्टर का बेहतर प्रदर्शन। ये दोनों सेक्टर रोजगार देते हैं। लगता यह है कि नोटबंदी और जीएसटी के कारण दबाव में आई अर्थव्यवस्था फिर से रास्ते पर आ रही है। इससे पहले 2015-16 की पहली तिमाही में जीडीपी में सबसे तेज वृद्धि दर्ज हुई थी। पिछले वित्त वर्ष की चौथी तिमाही में जीडीपी वृद्घि दर 7.7 फीसदी रही थी। बहरहाल इस तिमाही में भारत एकबार फिर से सबसे तेजी से विकास करने वाली अर्थव्यवस्था बन गया है। चीन की वृद्घि दर पहली तिमाही में घटकर 6.7 फीसदी रह गई है।

इस खुशखबरी के बावजूद केन्द्र सरकार पर विरोधियों के हमले बढ़ जा रहे हैं। चुनाव नजदीक आ रहे हैं। मानवाधिकार कार्यकर्ताओं की गिरफ्तारी के कारण सरकार दबाव में आई है। कांग्रेस ने राफेल विमान के सौदे को चुनाव का मुद्दा बनाने का फैसला किया है। राहुल गांधी ने कई बार कहा है कि राफेल-डील में कोई घोटाला है। क्या घोटाला है, यह पार्टी ने स्पष्ट नहीं किया है। पार्टी इतना जरूर कह रही है कि हमने जो सौदा किया था, उसके मुकाबले सरकार अब बहुत ज्यादा कीमत दे रही है। दूसरे इसके ऑफसेट में सरकार की पसंदीदा कम्पनियों को फायदा पहुँचाने का आरोप भी है।

Sunday, August 19, 2018

उदारता और सहिष्णुता की राजनीति

अटल बिहारी वाजपेयी करीब पाँच दशक तक देश की राजनीति में सक्रिय रहे। उनकी कुछ बातें उनकी अलग पहचान बनाती हैं। उन्हें पहचाना जाता है उनके भाषणों से, जो किसी भी सामान्य व्यक्ति को समझ में आते थे। इन भाषणों की शैली से ज्यादा महत्वपूर्ण वे तथ्य हैं, जिन्हें उन्होंने रेखांकित किया। उनकी लम्बी संसदीय उपस्थिति ने उन मूल्यों और मर्यादाओं को स्थिर करने में मदद की, जो भारतीय लोकतंत्र का आधार हैं।
अटल बिहारी ने जवाहर लाल नेहरू, लाल बहादुर शास्त्री, इंदिरा गांधी, राजीव गांधी, चंद्रशेखर, नरसिंहराव, देवेगौडा और गुजराल के प्रधानमंत्रित्व में विरोध की कुर्सियों पर बैठकर अपने विचार व्यक्त किए। उनके संसदीय भाषणों को पढ़ें तो आप पाएंगे कि उनमें कहीं कटुता नहीं है। विरोध में रहते हुए भी उन्होंने सत्तापक्ष की सकारात्मक गतिविधियों का समर्थन करने में कभी देर नहीं लगाई। नेहरू जैसे प्रखर वक्ता के मुकाबले न केवल खड़े रहे बल्कि उनकी प्रशंसा के पात्र भी बने।
अटल बहारी वाजपेयी की सबसे बड़ी सफलता इस बात में थी कि उन्होंने उदार और सहिष्णु राजनेता की जो छवि बनाई, वह विलक्षण थी। राजनीति की जटिलताओं को वे अपने लम्बे मौन से सुलझाते थे। उनके जीवन के तीन-चार बड़े फैसले एटमी परीक्षण, पाकिस्तान के साथ सम्बंध सुधारने की प्रक्रिया और अमेरिका के साथ रिश्तों को परिभाषित करने से जुड़े थे। उन्होंने आर्थिक उदारीकरण की प्रक्रिया को न केवल आगे बढ़ाया, बल्कि उसे तेज गति भी दी।

Sunday, August 12, 2018

गठबंधन-प्रति-गठबंधन

संसद के मॉनसून सत्र के पूरा होते ही राजनीतिक जोड़-घटाना शुरू हो गया है। जिस तरह महाभारत में युद्ध के पहले दोनों पक्षों की ओर से लड़ने वाले महारथियों के नाम सामने आने लगे थे, करीब उसी तरह राज्यसभा के उप-सभापति पद के चुनाव के बाद देश की राजनीतिक स्थिति नज़र आने लगी है। एनडीए प्रत्याशी हरिवंश की जीत की उम्मीद थी भी, तो इतनी आसान नहीं थी। सत्ता पक्ष ने पहले टाला और फिर अचानक चुनाव करा लिया। इस दौरान उसने अपने समीकरणों को ठीक कर लिया। फिलहाल एनडीए के चुनाव मैनेजमेंट की चुस्ती साबित हुई, वहीं विरोधी-एकता के अंतर्विरोध भी उभरे। अभी बहुत से किन्तु-परन्तु फिर भी बाकी हैं।

एनडीए जहाँ नरेन्द्र मोदी को आगे रखकर चुनाव मैदान में उतर रहा है वहीं विरोधी दलों का कहना है कि नेतृत्व का सवाल चुनाव परिणाम आने के बाद देखा जाएगा। कांग्रेस ने संकेत दिया है कि नेतृत्व को लेकर वह खुले मन से विचार कर रही है। उसे कोई दूसरा नेता भी स्वीकार हो सकता है। यानी कि ममता बनर्जी और मायावती के दावों को भी स्वीकार कर सकते हैं। अभी बातें संकेतों में हैं, जिन्हें स्पष्ट शब्दों में कहने के रणनीतिक जोखिम हैं। वस्तुतः अभी महागठबंधन की शक्ल भी साफ नहीं है। फिलहाल महागठबंधन का ‘कोर’ यानी कि केन्द्र नजर आने लगा है, पर यह भी करीब-करीब तय सा लग रहा है कि बीजद, टीआरएस और अद्रमुक इसके साथ नहीं है।

Sunday, August 5, 2018

ममता बनर्जी की राष्ट्रीय दावेदारी

बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी साल के बारहों महीने किसी न किसी वजह से खबरों में रहती हैं। इन दिनों वे दो कारणों से खबरों में हैं। एक, उन्होंने असम में राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर (एनआरसी) की प्रक्रिया का न केवल विरोध किया है, बल्कि कहा है कि इससे देश में गृहयुद्ध (सिविल वॉर) की स्थिति पैदा हो जाएगी। यह उत्तेजक बयान है और इसके पीछे देश के ‘टुकड़े-टुकड़े’ योजना के स्वर सुनाई पड़ रहे हैं। दूसरे से वे अचानक दिल्ली पहुँचीं और विरोधी दलों की एकता को लेकर विचार-विमर्श शुरू कर दिया। वे जितनी तेजी से दिल्ली में सक्रिय रहीं, उससे अनुमान लगाया जा रहा है कि वे भी प्रधानमंत्री पद की दावेदार हैं।

ममता बनर्जी लोकप्रिय नेता हैं और बंगाल में उनका दबदबा कायम है। पर उनकी विश्वसनीयता को लेकर सवाल हैं। पिछले दो दशक में उनकी गतिविधियों में कई तरह के उतार-चढ़ाव आए हैं। केंद्रीय मंत्री अरुण जेटली ने हाल में असमें में घुसपैठ को लेकर ममता के 4 अगस्त 2005 के एक बयान का हवाला दिया, जिसमें उन्होंने आज से उलट बातें कहीं थीं। राजनीति में बयान अक्सर बदलते हैं, पर ममता की विसंगतियाँ बहुत ज्यादा हैं। वे अपनी आलोचना तो बर्दाश्त करती ही नहीं हैं। दूसरे वे जिस महागठंधन के सहारे राष्ट्रीय राजनीति में प्रवेश करना चाहती हैं, उसे अपने राज्य में बनने नहीं देंगी। 

Sunday, July 29, 2018

इमरान के इस ताज में काँटे भी कम नहीं

पाकिस्तान के चुनाव परिणामों से यह बात साफ हुई कि मुकाबला इतना काँटे का नहीं था, जितना समझा जा रहा था। साथ ही इमरान खान की कोई आँधी भी नहीं थी। उन्हें नए होने का फायदा मिला, जैसे दिल्ली में आम आदमी पार्टी को मिला था। जनता नए को यह सोचकर मौका देती है कि सबको देख लिया, एकबार इन्हें भी देख लेते हैं। ईमानदारी और न्याय की आदर्श कल्पनाओं को लेकर जब कोई सामने आता है तो मन कहता है कि क्या पता इसके पास जादू हो। इमरान की सफलता में जनता की इस भावना के अलावा सेना का समर्थन भी शामिल है।
पाकिस्तान के धर्म-राज्य की प्रतीक वहाँ की सेना है, जो जनता को यह बताती है कि हमारी बदौलत आप बचे हैं। सेना ने नवाज शरीफ के खिलाफ माहौल बनाया। यह काम पिछले तीन-चार साल से चल रहा था। पाकिस्तान के इतिहास में यह पहला मौका था, जब सेना ने खुलकर चुनाव में हिस्सा लिया और नवाज शरीफ का विरोध और इमरान खान का समर्थन किया। वह खुद पार्टी नहीं थी, पर इमरान खान उसकी पार्टी थे। देश के मीडिया का काफी बड़ा हिस्सा उसके प्रभाव में है। नवाज शरीफ ने देश के सत्ता प्रतिष्ठान से पंगा ले लिया था, जिसमें अब न्यायपालिका भी शामिल है।

Sunday, July 22, 2018

हमला अग्निवेश पर नहीं, देश पर है


शुक्रवार की राज संसद में लाए गए अविश्वास प्रस्ताव का जवाब देते हुए प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने तमाम बातों के अलावा मॉब लिंचिंग की घटनाओं का जिक्र भी किया है। उन्होंने कहा, मॉब लिंचिंग की घटनाएं निंदनीय हैं। इसके पहले गृहमंत्री राजनाथ सिंह ने लोकसभा में कहा कि यह सच है कि देश के कई भागों में लिंचिंग के घटनाओं में कई लोगों की जान गई, लेकिन ऐसा पहली बार नहीं हो रहा है। लिंचिंग के कारण जिनकी भी मौत हुई उसकी मैं सरकार की ओर से कड़ी निंदा करता हूं।
अखबारों के पन्नों में लगभग रोज मॉब लिंचिंग की खबरें दिखाई पड़ रहीं हैं। पर सामाजिक कायर्कर्ता स्वामी अग्निवेश पर झारखंड में हुए हमले ने परेशान कर दिया है। यह हमला निजी रंजिश के कारण नहीं, वैचारिक कारणों से हुआ था। ज्यादातर हिंसा अफवाहों के कारण हो रहीं हैं, पर यह हिंसा अफवाह के कारण नहीं थी। इस मामले में पुलिस की बेरुखी भी चिंता का बड़ा कारण है। हमले के बाद अग्निवेश ने कहा कि उनके आने की सूचना पुलिस और प्रशासन को दी गई थी। 79 साल के एक बुजुर्ग व्यक्ति की पगड़ी उतार कर पीटा गया। कपड़े तार-तार कर दिए गए। यह कैसा देश है और कैसी संस्कृति और समाज है, जो यह सब होते हुए देख रहा है? 

Sunday, July 15, 2018

रास्ते से भटक क्यों रहा है हमारा लोकतंत्र?

लोकतांत्रिक व्यवस्था की पारदर्शिता को लेकर हाल में दो खबरों से दो तरह के निष्कर्ष निकलते हैं। पिछले हफ्ते तरह केन्द्र ने उच्चतम न्यायालय को बताया कि देश भर में अदालती कार्यवाही का सीधा प्रसारण किया जा सकता है। प्रधान न्यायाधीश दीपक मिश्रा, न्यायमूर्ति ए एम खानविलकर और न्यायमूर्ति धनन्जय वाई चन्द्रचूड़ की तीन सदस्यीय खंडपीठ ने सभी पक्षकारों से कहा कि वे अदालत की कार्यवाही के सीधे प्रसारण के लिए दिशा निर्देश तैयार करने के बारे में अटार्नी जनरल केके वेणुगोपाल को अपने सुझाव दें। अटार्नी जनरल ने इससे पहले न्यायालय से कहा था कि अदालती कार्यवाही का सीधा प्रसारण दुनिया के अनेक देशों में एक स्वीकार्य परंपरा है। शीर्ष अदालत ने न्यायिक कार्यवाही में पारदर्शिता लाने के इरादे से पिछले साल प्रत्येक राज्य की निचली अदालतों और न्यायाधिकरणों में सीसीटीवी लगाने का निर्देश दिया था।

इस खबर के विपरीत  राज्यसभा के निवृत्तमान उप-सभापति पीजे कुरियन ने कहा कि संसद की कार्यवाही का सीधा प्रसारण बंद कर देना चाहिए, क्योंकि इससे सदन की छवि खराब होती है। कुरियन का कहना था कि सदन की कार्यवाही के दौरान भले ही पीठासीन अध्यक्ष असंसदीय शब्दों को रिकॉर्ड के बाहर कर देते हों, लेकिन डिजिटल मीडिया के इस दौर में ये बातें आसानी से जनता तक पहुंच जाती हैं। इस वजह से सदन में शालीनता और व्यवस्था कायम रखने की कोशिशें बेमतलब हो जाती हैं। उपरोक्त दोनों बातों को मिलाकर पढ़ें, तो क्या निष्कर्ष निकलता है?

Sunday, July 8, 2018

कैंसर, एक रोग और एक लक्षण


हाल में खबर मिली है कि फिल्म अभिनेत्री सोनाली बेंद्रे कैंसर की बीमारी से जूझ रही हैं। उन्होंने अपने इंस्टाग्राम अकाउंट पर इस बारे में जानकारी दी है कि मुझे हाईग्रेड मेटास्टेटिस कैंसर है। उनकी इस पोस्ट के बाद काफी लोग जानना चाहते हैं कि यह कैसा कैंसर है और कितना खतरनाक है। मेटास्टेटिस कैंसर का मतलब यह है कि शरीर में किसी एक जगह कैंसर के सेल मौजूद नहीं हैं। जहां से कैंसर की उत्पत्ति हुई, उससे शरीर के दूसरे अंग में वह फैल चुका है। सोनाली न्यूयॉर्क में अपना इलाज करवा रही हैं। बॉलीवुड एक्टर इरफान खान भी कैंसर से जूझ रहे हैं। वे कुछ महीनों से लंदन में इलाज करा रहे हैं। अमेरिकी कंप्यूटर कंपनी एपल के सह-संस्थापक स्टीव जॉब्स का कैंसर से लम्बी लड़ाई लड़ने के बाद कुछ साल पहले निधन हो गया।

हॉलीवुड अभिनेत्री जेन फोंडा से लेकर सीएनएन के मशहूर शो के प्रस्तोता लैरी किंग तक इस बीमारी के शिकार हुए हैं। बॉलीवुड के अभिनेता राजेश खन्ना और विनोद खन्ना इसके शिकार थे। हाल में संजय दत्त पर बनी बायोपिक फिल्म संजू में कैंसर से लड़ती नर्गिस दत्त का जिक्र था। संयोग से फिल्म में नर्गिस की भूमिका में फिल्म अभिनेत्री मनीषा कोईराला भी कैंसर से पीड़ित रही हैं। फिल्म निर्देशक अनुराग बसु, अभिनेत्री लीजा रे और मुमताज से लेकर क्रिकेटर युवराज सिंह भी कैंसर से पीड़ित हो चुके हैं। बहुत से मामलों में लोग कैंसर के खिलाफ लड़ाई में जीतकर वापस लौटे हैं, पर यह बीमारी ऐसी है, जिसका नाम सुनते ही दिल काँपता है।

Sunday, June 17, 2018

शुजात बुखारी की हत्या के मायने

राइजिंग कश्मीर के सम्पादक शुजात बुखारी की हत्या,जिस रोज हुई, उसी रोज सेना के एक जवान औरंगजेब खान की हत्या की खबर भी आई थी। इसके दो-तीन दिन पहले से कश्मीर में अचानक हिंसा का सिलसिला तेज हो गया था। नियंत्रण रेखा पर पाकिस्तानी गोलीबारी से बीएसएफ के चार जवानों की हत्या की खबरें भी इसी दौरान आईं थीं। हिंसा की ये घटनाएं कथित युद्ध-विराम के दौरान तीन हफ्ते की अपेक्षाकृत शांति के बाद हुई हैं। कौन है इस हिंसा के पीछे?भारतीय विशेषज्ञों का अनुमान है कि इसमें लश्कर या हिज्बुल मुजाहिदीन का हाथ है।

Sunday, June 10, 2018

नागपुर में किसे, क्या मिला?

लालकृष्ण आडवाणी इसे अपने नज़रिए से देखते हैं, पर उनकी इस बात से सहमति व्यक्त की जा सकती है कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के मंच से पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी का भाषण ऐतिहासिक था। एक अरसे से देश में राष्ट्रवाद, देशभक्ति और विविधता में एकता की बातें हो रहीं हैं, पर किसी एक मंच से दो अंतर्विरोधी-दृष्टिकोणों का इतने सहज-भाव से आमना-सामना नहीं हुआ होगा। इन भाषणों में नई बातें नहीं थीं, और न ऐसी कोई जटिल बात थी, जो लोगों को समझ में नहीं आती हो। प्रणब मुखर्जी और सरसंघचालक मोहन भागवत के वक्तव्यों को गहराई से पढ़ने पर उनका भेद भी समझा जा सकता है, पर इस भेद की कटुता नजर नहीं आती। सवाल यह है कि इस चर्चा से हम क्या निष्कर्ष निकालें? क्या संघ की तरफ से अपने विचार को प्रसारित करने की यह कोशिश है? या प्रणब मुखर्जी के मन में कोई राजनीतिक भूमिका निभाने की इच्छा है? 

Sunday, June 3, 2018

बंगाल में राजनीतिक हिंसा

हाल में जब कर्नाटक विधानसभा चुनाव का प्रचार चल रहा था, पश्चिम बंगाल में पंचायत चुनाव हो रहे थे। मीडिया पर कर्नाटक छाया था, बंगाल पर ध्यान नहीं था। अब खबरें आ रहीं हैं कि बंगाल में लोकतंत्र के नाम हिंसा का तांडव चल रहा था। पिछले हफ्ते पुरुलिया जिले में बीजेपी कार्यकर्ता की हत्या का मामला सामने आने पर इसकी वीभत्सता का एहसास हुआ है। 20 साल के त्रिलोचन महतो की लाश घर के पास ही नायलन की रस्सी ने लटकती मिली। महतो ने जो टी-शर्ट पहनी थी, उसपर एक पोस्टर चिपका मिला जिसपर लिखा था, बीजेपी के लिए काम करने वालों का यही अंजाम होगा। जाहिर है कि इस हत्या की प्रतिक्रिया भी होगी। वह बंगाल, जो भारत के आधुनिकीकरण का ध्वजवाहक था। जहाँ रवीन्द्रनाथ ठाकुर और शरत चन्द्र जैसे साहित्यकारों ने शब्द-साधना की। कला, संगीत, साहित्य, रंगमंच, विज्ञान, सिनेमा जीवन के तमाम विषयों पर देश का ऐसा कोई श्रेष्ठतम कर्म नहीं है, जो बंगाल में नहीं हुआ हो। क्या आपने ध्यान दिया कि उस बंगाल में क्या हो रहा है? 

Sunday, May 27, 2018

विरोधी-एकता के पेचो-ख़म



कर्नाटक विधान सौध के मंच पर विरोधी दलों की जो एकता हाल में दिखाई पड़ी है, उसमें नयापन कुछ भी नहीं था। यह पहला मौका नहीं था, जब कई दलों के नेताओं ने हाथ उठाकर अपनी एकता का प्रदर्शन करते हुए फोटो खिंचाई है। एकता के इन नए प्रयासों में सोशल इंजीनियरी की भूमिका ज्यादा बड़ी है। यह भूमिका भी उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड और हरियाणा जैसे उत्तर भारत के कुछ राज्यों पर केन्द्रित है। लोकसभा की सीटें भी इसी इलाके में सबसे ज्यादा हैं। चुनाव-केन्द्रित इस एकता के फौरी फायदे भी मिले हैं। उत्तर प्रदेश के गोरखपुर, फूलपुर चुनावों में यह एकता नजर आई और सम्भव है कि अब कैराना में इस एकता की विजय हो। इतना होने के बावजूद इस एकता को लेकर कई सवाल हैं।

कर्नाटक विधानसभा चुनाव के बाद बनी विरोधी-एकता ने कुछ प्रश्नों और प्रति-प्रश्नों को जन्म दिया है। बिहार विधानसभा चुनाव में महागठबंधन की सफलता के बाद पूरे देश में ऐसा ही गठबंधन बनाने की कोशिशें चल रहीं हैं। पिछले साल राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति पद पर गठबंधन के प्रत्याशियों ने चुनाव लड़ा भी था। बावजूद इसके पिछले डेढ़ साल में तीन महत्वपूर्ण राज्यों में चुनाव हुए, जिनमें ऐसा गठबंधन मैदान में नहीं उतरा। उत्तर प्रदेश में कांग्रेस और समाजवादी पार्टी का गठबंधन बना, पर उसमें बहुजन समाज पार्टी नहीं थी। गुजरात में कांग्रेस के साथ एनसीपी नहीं थी। कर्नाटक में चुनाव परिणाम आने के दिन बारह बजे तक गठबंधन नहीं था। फिर अचानक गठबंधन बन गया।

Sunday, May 20, 2018

कर्नाटक में हासिल क्या हुआ?

येदियुरप्पा की पराजय के बाद सवाल है कि क्या कर्नाटक-चुनाव की तार्किक परिणति यही थी? एचडी कुमारस्वामी की सरकार बन जाने के बाद क्या मान लिया जाए कि कर्नाटक की जनता उन्हें राज्य की सत्ता सौंपना चाहती थी?  इस सवाल का जवाब मिलने में कुछ समय लगेगा, क्योंकि राजनीति में तात्कालिक परिणाम ही अंतिम नहीं होते।


बीजेपी की दृष्टि से देखें तो कांग्रेस और जेडीएस का गठबंधन अपवित्र है। येदियुरप्पा ने कांग्रेस और जेडीएस के विधायकों से अंतरात्मा की आवाज पर समर्थन माँगा था, जिसमें विफल रहने के बाद उन्होंने इस्तीफा दे दिया। उधर कांग्रेस-जेडीएस के नज़रिए से देखें, तो दो धर्मनिरपेक्ष दलों ने साम्प्रदायिक भाजपा को रोकने के लिए गठबंधन किया। यह राजनीति अब से लेकर 2019 के चुनाव तक चलेगी। बीजेपी के विरोधी दल एक साथ आएंगे।


उपरोक्त दोनों दृष्टिकोणों के अंतर्विरोध हैं। बीजेपी का पास स्पष्ट बहुमत नहीं था। निर्दलीयों और अन्य दलों के सदस्यों की संख्या इतनी नहीं थी कि बहुमत बन पाता। ऐसे में सरकार बनाने का दावा करने की कोई जरूरत नहीं थी। अंतरात्मा की जिस आवाज पर वे कांग्रेस और जेडीएस के विधायकों को तोड़ने की उम्मीद कर रहे थे, वह संविधान-विरोधी है। संविधान की दसवीं अनुसूची का वह उल्लंघन होता। दल-बदल कानून अब ऐसी तोड़-फोड़ की इजाजत नहीं देता। कांग्रेस और जेडीएस ने समझौता कर लिया था, तो राज्यपाल को उन्हें ही बुलाना चाहिए था। बेशक अपने विवेकाधीन अधिकार के अंतर्गत वे सबसे बड़े दल को भी बुला सकते हैं, पर येदियुरप्पा सरकार के बहुमत पाने की कोई सम्भावना थी ही नहीं। ऐसे में सुप्रीम कोर्ट का हस्तक्षेप सही हुआ।


कर्नाटक के बहाने राज्यपाल, स्पीकर और सुप्रीम कोर्ट की भूमिकाओं को लेकर, जो विचार-विमर्श शुरू हुआ है, वह इस पूरे घटनाक्रम की उपलब्धि है। कांग्रेस की याचिका पर अदालत में अब सुनवाई होगी और सम्भव है कि ऐसी परिस्थिति में राज्यपालों के पास उपलब्ध विकल्पों पर रोशनी पड़ेगी कि संविधान की मंशा क्या है। हमने ब्रिटिश संसदीय पद्धति को अपनाया जरूर है, पर उसकी भावना को भूल चुके हैं। राज्यपालों और पीठासीन अधिकारियों की राजनीतिक भूमिका को लेकर सवाल उठते रहे हैं। कर्नाटक के राज्यपाल पहले नहीं हैं, जिनपर राजनीतिक तरफदारी का आरोप लगा है। सन 1952 से लेकर अबतक अनेक मौके आए हैं, जब यह भूमिका खुलकर सामने आई है।


विधायिका के पीठासीन अधिकारियों के मामले में आदर्श स्थिति यह होती है कि वे अपना दल छोड़ें। आदर्श संसदीय व्यवस्था में जब स्पीकर चुनाव लड़े तो किसी राजनीतिक दल को उसके खिलाफ प्रत्याशी खड़ा नहीं करना चाहिए। हमारी संसद में चर्चा के दौरान जो अराजकता होती है, वह भी आदर्शों से मेल नहीं खाती। कर्नाटक प्रकरण हमें इन सवालों पर विचार करने का मौका दे रहा है। कर्नाटक का यह चुनाव सारे देश की निगाहों में था। इसके पहले शायद ही दक्षिण के किसी राज्य की राजनीति पर पूरे देश की इतनी गहरी निगाहें रहीं हों। इस चुनाव की यह उपलब्धि है। मेरा यह आलेख दैनिक हरिभूमि में प्रकाशित हुआ है। इसका यह इंट्रो मैंने 20 मई की सुबह लिखा है। इस प्रसंग को ज्यादा बड़े फलक पर देखने का मौका अब आएगा। 
हमें कोशिश करनी चाहिए कि यथा सम्भव तटस्थ रहकर देखें कि इस चुनाव में हमने क्या खोया और क्या पाया। राजनीतिक शब्दावली में हमारे यहाँ काफी प्रचलित शब्द है जनादेश। तो कर्नाटक में जनादेश क्या था? कौन जीता और कौन हारा? चूंकि किसी को स्पष्ट बहुमत नहीं मिला, तो किसी की जीत नहीं है। पर क्या हार भी किसी की नहीं हुई? चुनाव में विजेता की चर्चा होती है, हारने वाले की चर्चा भी तो होनी चाहिए। गठबंधन की सरकार बनी, पर यह चुनाव बाद का गठबंधन है।