संसद के मॉनसून सत्र के पूरा होते ही राजनीतिक जोड़-घटाना शुरू हो गया है। जिस तरह महाभारत में युद्ध के पहले दोनों पक्षों की ओर से लड़ने वाले महारथियों के नाम सामने आने लगे थे, करीब उसी तरह राज्यसभा के उप-सभापति पद के चुनाव के बाद देश की राजनीतिक स्थिति नज़र आने लगी है। एनडीए प्रत्याशी हरिवंश की जीत की उम्मीद थी भी, तो इतनी आसान नहीं थी। सत्ता पक्ष ने पहले टाला और फिर अचानक चुनाव करा लिया। इस दौरान उसने अपने समीकरणों को ठीक कर लिया। फिलहाल एनडीए के चुनाव मैनेजमेंट की चुस्ती साबित हुई, वहीं विरोधी-एकता के अंतर्विरोध भी उभरे। अभी बहुत से किन्तु-परन्तु फिर भी बाकी हैं।
एनडीए जहाँ नरेन्द्र मोदी को आगे रखकर चुनाव मैदान में उतर रहा है वहीं विरोधी दलों का कहना है कि नेतृत्व का सवाल चुनाव परिणाम आने के बाद देखा जाएगा। कांग्रेस ने संकेत दिया है कि नेतृत्व को लेकर वह खुले मन से विचार कर रही है। उसे कोई दूसरा नेता भी स्वीकार हो सकता है। यानी कि ममता बनर्जी और मायावती के दावों को भी स्वीकार कर सकते हैं। अभी बातें संकेतों में हैं, जिन्हें स्पष्ट शब्दों में कहने के रणनीतिक जोखिम हैं। वस्तुतः अभी महागठबंधन की शक्ल भी साफ नहीं है। फिलहाल महागठबंधन का ‘कोर’ यानी कि केन्द्र नजर आने लगा है, पर यह भी करीब-करीब तय सा लग रहा है कि बीजद, टीआरएस और अद्रमुक इसके साथ नहीं है। कांग्रेस पार्टी को राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ के विधानसभा चुनाव परिणामों का इंतजार है। यदि उसे अपेक्षित सफलता मिली तो उसकी बातों का वजन बढ़ जाएगा। देखना यह भी होगा कि पार्टी इन राज्यों में अपने सहयोगी दलों को साथ लेकर मोर्चा बनाएगी या नहीं। कांग्रेस के ‘नेतृत्व’ में विरोधी दलों की रणनीति अलग-अलग राज्यों में संयुक्त प्रत्याशी खड़े करने की है, ताकि बीजेपी-विरोधी वोट बँटने न पाएं। यह रणनीति उत्तर प्रदेश, बिहार, कर्नाटक और एक हद तक महाराष्ट्र में कारगर साबित होगी। पर उसके जिरह-बख्तरों की दरारें भी नजर आने लगी हैं। पिछले चार साल से विरोधी दल बीजेपी को राज्यसभा में घेरने में कामयाब थे। पिछले कुछ समय से वहाँ बीजेपी की स्थिति में बेहतर हुई है, पर इतनी बेहतर वह फिर भी नहीं थी कि उसका प्रत्याशी आसानी से चुनाव जीत जाता। पिछले महीने लोकसभा में अविश्वास प्रस्ताव पर एनडीए की जीत के बाद इस दूसरी जीत से उसका आत्मविश्वास बढ़ेगा।
राज्यसभा उपसभापति के चुनाव में बीजद, टीआरएस और अद्रमुक ने एनडीए का साथ देकर 2019 के चुनाव की रणनीति का ऐलान कर दया है। बीजद के इरादे मई में कर्नाटक चुनाव के वक्त समझ में आने लगे थे, जब नवीन पटनायक ने एचडी कुमारस्वामी के शपथ ग्रहण समारोह में जाने से मना कर दिया था। ममता बनर्जी टीआरएस के साथ मिलकर संघीय मोर्चा बनाना चाहती थीं, पर लगता है कि वह योजना अब खटाई में है।
पिछले साल अगस्त के महीने में ही अहमद पटेल ने विपरीत परिस्थितियों में गुजरात से राज्यसभा की सीट जीती थी। पर अब कांग्रेस को मिली विफलता के अलग-अलग मतलब निकाले जा रहे हैं। क्या सहयोगी दलों के साथ कांग्रेस के सम्पर्क में कोई खामी है? या कांग्रेस के भीतर कोई संशय है? क्या कांग्रेस मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में महागठबंधन बनाकर चुनाव लड़ेगी? मध्य प्रदेश में समाजवादी पार्टी, बहुजन समाज पार्टी और गोंडवाना गणतंत्र पार्टी का कुछ हिस्सों में असर है। ये वोट-कटुवा पार्टियाँ हैं। ये कांग्रेस का साथ दें, तो बुंदेलखंड और पूर्वी मध्य प्रदेश की 53 सीटों पर बीजेपी के लिए मुकाबला मुश्किल हो जाएगा। पर बदले में कांग्रेस इन्हें क्या देगी? छत्तीसगढ़ में अजीत जोगी की बसपा के बातचीत चल रही है। कांग्रेस का यूपी में बसपा से सहयोग हो सकता है तो छत्तीसगढ़ में क्यों नहीं?
विरोधी-एकता के लिए भी कुछ सकारात्मक निष्कर्ष हैं। विरोधी-एकता के कोर दलों की दृढ़ता इस चुनाव में भी व्यक्त हुई है। कांग्रेस, तृणमूल, वाम दलों, एनसीपी, राजद, सपा, बसपा, इंडियन यूनियन मुस्लिम लीग और केरल कांग्रेस (एम) के सदस्यों ने बीके हरिप्रसाद के पक्ष में मतदान किया। द्रमुक ने हरिप्रसाद के पक्ष में वोट डालकर स्पष्ट कर दिया कि वह बीजेपी के खिलाफ है। तेदेपा को लेकर संशय बना रहेगा, क्योंकि वह मूलतः कांग्रेस-विरोधी पार्टी है। चूंकि आंध्र में जगनमोहन रेड्डी की वाईएसआर कांग्रेस अब बीजेपी के करीब जाती नजर आ रही है, इसलिए तेदेपा को मजबूरन कांग्रेस के करीब आना होगा।
कांग्रेस ने आम आदमी पार्टी को निर्णायक रूप से अस्वीकार कर दिया है। पिछले कुछ समय से ‘आप’ की कोशिश थी कि कांग्रेस के साथ उसका समझौता हो जाए। राज्यसभा-चुनाव में कांग्रेस ने बीके हरिप्रसाद के पक्ष में ‘आप’ से वोट तक नहीं माँगा। ‘आप’ ने चुनाव का बहिष्कार किया और अरविंद केजरीवाल ने घोषणा की कि हम अगले आम चुनाव में विपक्ष के गठबंधन में शामिल नहीं होंगे। दिल्ली में कांग्रेस का आत्मविश्वास बढ़ा है। वह ‘आप’ के साथ नहीं जाएगी।
सन 2019 में बीजेपी को फिर से सत्ता में आने के लिए स्पष्ट बहुमत हासिल करना होगा। यदि दूसरे दलों की मदद से उसे सरकार बनानी पड़ी, तो मोदी के नेतृत्व को लेकर सवाल उठेंगे। महागठबंधन को सफलता मिली तो सवालों के ढेर खड़े होंगे। सन 2014 में चमत्कार हुआ था। बीजेपी ने गुजरात की 26 में से 26, राजस्थान की सभी 25, दिल्ली की सभी 7, उत्तराखंड की 5, हिमाचल की 4 और गोवा की 2 सीटें जीतीं। यूपी में 80 में से 71, मप्र में 29 में से 27, छत्तीसगढ़ में 11 में 10, झारखंड में 14 में 12 सीटें मिलीं। सामान्य समझ कहती है कि विरोधी-एकता और एंटी-इनकम्बैंसी के कारण उसे कुछ सीटों से हाथ धोना होगा। उसे 2014 की स्थिति पर पहुँचने के लिए 60-70 सीटों की व्यवस्था उन क्षेत्रों से करनी होगी, जहाँ उसकी पैठ नहीं है। बंगाल में उसे 42 में 2, ओडिशा 20 में एक, तमिलनाडु 39 में एक, तेलंगाना 17 में से एक सीट उसे मिली। केरल में 20 में से एक भी सीट उसके पास नहीं है। उसे पूर्वोत्तर में सफलता मिलेगी, जहाँ असम को मिलाकर कुल 25 सीटें हैं। पार्टी यहाँ से 21 सीटों की उम्मीद कर रही है। जबकि उसके पास 8 सीटें हैं। अब सारे समीकरण इसी गणित के लिए बनेंगे।
एनडीए जहाँ नरेन्द्र मोदी को आगे रखकर चुनाव मैदान में उतर रहा है वहीं विरोधी दलों का कहना है कि नेतृत्व का सवाल चुनाव परिणाम आने के बाद देखा जाएगा। कांग्रेस ने संकेत दिया है कि नेतृत्व को लेकर वह खुले मन से विचार कर रही है। उसे कोई दूसरा नेता भी स्वीकार हो सकता है। यानी कि ममता बनर्जी और मायावती के दावों को भी स्वीकार कर सकते हैं। अभी बातें संकेतों में हैं, जिन्हें स्पष्ट शब्दों में कहने के रणनीतिक जोखिम हैं। वस्तुतः अभी महागठबंधन की शक्ल भी साफ नहीं है। फिलहाल महागठबंधन का ‘कोर’ यानी कि केन्द्र नजर आने लगा है, पर यह भी करीब-करीब तय सा लग रहा है कि बीजद, टीआरएस और अद्रमुक इसके साथ नहीं है। कांग्रेस पार्टी को राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ के विधानसभा चुनाव परिणामों का इंतजार है। यदि उसे अपेक्षित सफलता मिली तो उसकी बातों का वजन बढ़ जाएगा। देखना यह भी होगा कि पार्टी इन राज्यों में अपने सहयोगी दलों को साथ लेकर मोर्चा बनाएगी या नहीं। कांग्रेस के ‘नेतृत्व’ में विरोधी दलों की रणनीति अलग-अलग राज्यों में संयुक्त प्रत्याशी खड़े करने की है, ताकि बीजेपी-विरोधी वोट बँटने न पाएं। यह रणनीति उत्तर प्रदेश, बिहार, कर्नाटक और एक हद तक महाराष्ट्र में कारगर साबित होगी। पर उसके जिरह-बख्तरों की दरारें भी नजर आने लगी हैं। पिछले चार साल से विरोधी दल बीजेपी को राज्यसभा में घेरने में कामयाब थे। पिछले कुछ समय से वहाँ बीजेपी की स्थिति में बेहतर हुई है, पर इतनी बेहतर वह फिर भी नहीं थी कि उसका प्रत्याशी आसानी से चुनाव जीत जाता। पिछले महीने लोकसभा में अविश्वास प्रस्ताव पर एनडीए की जीत के बाद इस दूसरी जीत से उसका आत्मविश्वास बढ़ेगा।
राज्यसभा उपसभापति के चुनाव में बीजद, टीआरएस और अद्रमुक ने एनडीए का साथ देकर 2019 के चुनाव की रणनीति का ऐलान कर दया है। बीजद के इरादे मई में कर्नाटक चुनाव के वक्त समझ में आने लगे थे, जब नवीन पटनायक ने एचडी कुमारस्वामी के शपथ ग्रहण समारोह में जाने से मना कर दिया था। ममता बनर्जी टीआरएस के साथ मिलकर संघीय मोर्चा बनाना चाहती थीं, पर लगता है कि वह योजना अब खटाई में है।
पिछले साल अगस्त के महीने में ही अहमद पटेल ने विपरीत परिस्थितियों में गुजरात से राज्यसभा की सीट जीती थी। पर अब कांग्रेस को मिली विफलता के अलग-अलग मतलब निकाले जा रहे हैं। क्या सहयोगी दलों के साथ कांग्रेस के सम्पर्क में कोई खामी है? या कांग्रेस के भीतर कोई संशय है? क्या कांग्रेस मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में महागठबंधन बनाकर चुनाव लड़ेगी? मध्य प्रदेश में समाजवादी पार्टी, बहुजन समाज पार्टी और गोंडवाना गणतंत्र पार्टी का कुछ हिस्सों में असर है। ये वोट-कटुवा पार्टियाँ हैं। ये कांग्रेस का साथ दें, तो बुंदेलखंड और पूर्वी मध्य प्रदेश की 53 सीटों पर बीजेपी के लिए मुकाबला मुश्किल हो जाएगा। पर बदले में कांग्रेस इन्हें क्या देगी? छत्तीसगढ़ में अजीत जोगी की बसपा के बातचीत चल रही है। कांग्रेस का यूपी में बसपा से सहयोग हो सकता है तो छत्तीसगढ़ में क्यों नहीं?
विरोधी-एकता के लिए भी कुछ सकारात्मक निष्कर्ष हैं। विरोधी-एकता के कोर दलों की दृढ़ता इस चुनाव में भी व्यक्त हुई है। कांग्रेस, तृणमूल, वाम दलों, एनसीपी, राजद, सपा, बसपा, इंडियन यूनियन मुस्लिम लीग और केरल कांग्रेस (एम) के सदस्यों ने बीके हरिप्रसाद के पक्ष में मतदान किया। द्रमुक ने हरिप्रसाद के पक्ष में वोट डालकर स्पष्ट कर दिया कि वह बीजेपी के खिलाफ है। तेदेपा को लेकर संशय बना रहेगा, क्योंकि वह मूलतः कांग्रेस-विरोधी पार्टी है। चूंकि आंध्र में जगनमोहन रेड्डी की वाईएसआर कांग्रेस अब बीजेपी के करीब जाती नजर आ रही है, इसलिए तेदेपा को मजबूरन कांग्रेस के करीब आना होगा।
कांग्रेस ने आम आदमी पार्टी को निर्णायक रूप से अस्वीकार कर दिया है। पिछले कुछ समय से ‘आप’ की कोशिश थी कि कांग्रेस के साथ उसका समझौता हो जाए। राज्यसभा-चुनाव में कांग्रेस ने बीके हरिप्रसाद के पक्ष में ‘आप’ से वोट तक नहीं माँगा। ‘आप’ ने चुनाव का बहिष्कार किया और अरविंद केजरीवाल ने घोषणा की कि हम अगले आम चुनाव में विपक्ष के गठबंधन में शामिल नहीं होंगे। दिल्ली में कांग्रेस का आत्मविश्वास बढ़ा है। वह ‘आप’ के साथ नहीं जाएगी।
सन 2019 में बीजेपी को फिर से सत्ता में आने के लिए स्पष्ट बहुमत हासिल करना होगा। यदि दूसरे दलों की मदद से उसे सरकार बनानी पड़ी, तो मोदी के नेतृत्व को लेकर सवाल उठेंगे। महागठबंधन को सफलता मिली तो सवालों के ढेर खड़े होंगे। सन 2014 में चमत्कार हुआ था। बीजेपी ने गुजरात की 26 में से 26, राजस्थान की सभी 25, दिल्ली की सभी 7, उत्तराखंड की 5, हिमाचल की 4 और गोवा की 2 सीटें जीतीं। यूपी में 80 में से 71, मप्र में 29 में से 27, छत्तीसगढ़ में 11 में 10, झारखंड में 14 में 12 सीटें मिलीं। सामान्य समझ कहती है कि विरोधी-एकता और एंटी-इनकम्बैंसी के कारण उसे कुछ सीटों से हाथ धोना होगा। उसे 2014 की स्थिति पर पहुँचने के लिए 60-70 सीटों की व्यवस्था उन क्षेत्रों से करनी होगी, जहाँ उसकी पैठ नहीं है। बंगाल में उसे 42 में 2, ओडिशा 20 में एक, तमिलनाडु 39 में एक, तेलंगाना 17 में से एक सीट उसे मिली। केरल में 20 में से एक भी सीट उसके पास नहीं है। उसे पूर्वोत्तर में सफलता मिलेगी, जहाँ असम को मिलाकर कुल 25 सीटें हैं। पार्टी यहाँ से 21 सीटों की उम्मीद कर रही है। जबकि उसके पास 8 सीटें हैं। अब सारे समीकरण इसी गणित के लिए बनेंगे।
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