Wednesday, May 15, 2024

चीन का चांग’ई-6 और तेजी पकड़ती स्पेस-रेस

चंद्रमा का दक्षिणी ध्रुव

चीन का नवीनतम चंद्रमा-मिशन चांग’ई-6 तीन कारणों से महत्वपूर्ण है. एक तो यह चंद्रमा की अंधेरी सतह यानी दक्षिणी ध्रुव के एटकेन बेसिन से पत्थरों और मिट्टी के दो किलो नमूने जमा करके धरती पर लाएगा. किसी भी देश ने चंद्रमा के इस सुदूर इलाके से नमूने एकत्र नहीं किए हैं. वस्तुतः चांगई मिशन चीन के महत्वाकांक्षी अंतरिक्ष-अभियान का एक शुरूआती कदम है.

इस अभियान में पाकिस्तान का एक नन्हा सा उपग्रह भी शामिल है, जो वैज्ञानिक-दृष्टि से भले ही मामूली हो, पर उससे पाकिस्तानी अंतरिक्ष-विज्ञान पर रोशनी पड़ती है. तीसरे यह अमेरिका और चीन के बीच एक नई अंतरिक्ष-स्पर्धा की शुरुआत है. 

चीनी अंतरिक्ष एजेंसी ने चांग’ई-6 रोबोटिक लूनर एक्सप्लोरेशन मिशन को वेनचांग अंतरिक्ष प्रक्षेपण केंद्र से शुक्रवार 3 मई की सुबह लॉन्च किया. यह करीब 53 दिन तक काम करेगा. चांग’ई-6 में पाकिस्तान के अलावा फ्रांस, इटली और स्वीडन के भी उपकरण शामिल हैं. पौराणिक आख्यान में चैंगई को चंद्रमा की देवी माना जाता है.

दक्षिणी ध्रुव

पृथ्वी से चंद्रमा का सुदूर भाग कभी दिखाई नहीं देता है. हम हमेशा चंद्रमा के एक ही तरफ के आधे हिस्से को देख पाते हैं. चांग'ई-6 का लक्ष्य दक्षिणी ध्रुव के एटकेन-बेसिन से नमूने एकत्र करना है. भारत का चंद्रयान-3 भी इसी क्षेत्र के पास उतरा था.

वैज्ञानिक अध्ययन के लिहाज से यह महत्वपूर्ण क्षेत्र है. यहाँ ऊँचे पहाड़ और कई बड़े-बड़े क्रेटर हैं. क्रेटरों और पहाड़ों की छाया के कारण यहाँ ऐसे क्षेत्र भी हैं, जहां अरबों साल से सूरज की रोशनी नहीं पहुँची है.

यह अंधेरा अध्ययन का रोचक विषय है. इससे सौरमंडल की संरचना के बारे में नई बातें पता लगेंगी. दक्षिणी ध्रुव के अंधेरे इलाकों में अरबों वर्ष पुराने पानी या बर्फ के अलावा कुछ ऐसे खनिज या तत्व भी हो सकते हैं, जिनके बारे में हम कुछ नहीं जानते हैं.

अरबों साल पुराना पानी

जैसे पृथ्वी के दक्षिणी ध्रुव पर अंटार्कटिका काफी ठंडा है, वैसे ही यह चाँद का सबसे ठंडा इलाका है. इस इलाके की जानकारी पृथ्वी के वैज्ञानिकों को ज्यादा नहीं है. भारत ने भी इसी चुनौती को देखते हुए इस इलाके को चुना था.

चंद्रमा के इस इलाके की अंधेरी गुफाओं में गड्ढों में पानी की बर्फ की खोज और भविष्य के चंद्र ठिकानों के लिए इसके संभावित दोहन से प्रेरित था. इस आसन्न नमूना वापसी के साथ, अब हम यह जानने के करीब पहुँच रहे हैं कि चंद्रमा का सुदूर भाग किस चीज से बना है और इसकी उम्र क्या है.

अमेरिका और चीन की होड़

हाल के वर्षों में चीन और अमेरिका के बीच चंद्र-मिशन को लेकर होड़ भी शुरू हो गई है. 2019 में चीन का चांग’ई-4 मिशन सफलतापूर्वक चाँद पर उतरा था. इसके बाद  2020 में चांग’ई-5 भी लॉन्च किया, जो चंद्रमा की सतह से 1.73 किलोग्राम मिट्टी (रेजोलिथ) बटोरकर लाया था. यह अभियान काफी जटिल था. पहली बार चीन ने अंतरिक्ष यान के प्रक्षेपण में सफलता प्राप्त की थी.

यह मिशन चंद्रमा के ओशनस प्रोसीलैरम यानी ‘तूफानों का सागर’ पर उतरा, जहाँ इसके पहले धरती का कोई यान नहीं उतरा था. यह मिशन पूरा होने के बाद चीन ऐसा तीसरा देश बना, जिसे चंद्रमा की सतह से नमूने धरती पर लाने में सफलता मिली है. इसके पहले अमेरिका और सोवियत संघ को इसमें सफलता मिली थी.  

चांग’ई-6

चांग’ई-6  और भी अधिक महत्वाकांक्षी और जटिल मिशन है. इसके चार अलग-अलग अंतरिक्ष यानों को चंद्रमा के दूर से दो किलोग्राम तक चंद्रमा की धूल (रेजोलिथ) को लाने का काम सौंपा गया है. चीन का लक्ष्य 2030 तक अपने यात्रियों को चंद्रमा पर उतारना है.

अमेरिका का नासा पहले ही घोषणा कर चुका है कि 2026 तक हम, चीन से पहले चंद्रमा पर पहुँच जाएँगे. आर्टेमिस अभियान के तहत नासा 2026 तक इनसान को चाँद पर उतारने की योजना पर काम कर रहा है. इसबार महिला-यात्री चंद्रमा पर जाएँगी.

नासा का मून मिशन अंततः मंगल पर इंसान को उतारने की तैयारी है, जिसके लिए वह चाँद के जरिए अनुभव हासिल कर रहा है. नासा की योजना 2030 के दशक में या उसके ठीक बाद मंगल पर इंसान को भेजने की है.

आर्टेमिस समझौता

आर्टेमिस समझौता अमेरिकी विदेश विभाग और नासा द्वारा सात अन्य संस्थापक सदस्यों-ऑस्ट्रेलिया, कनाडा, इटली, जापान, लक्ज़ेम्बर्ग, संयुक्त अरब अमीरात और यूनाइटेड किंगडम के साथ 2020 में हुआ था. पिछले साल जून में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अमेरिका यात्रा के दौरान भारत भी इस कार्यक्रम में शामिल हो गया.

जिस समय भारत इसमें शामिल हुआ, तब 27 देश उसमें शामिल थे, जिनकी संख्या अब बढ़कर 39 हो चुकी है. इसके तहत नासा और इसरो ह्यूस्टन, टेक्सास के जॉनसन स्पेस सेंटर से प्रशिक्षित भारतीय अंतरिक्ष यात्रियों को अंतर्राष्ट्रीय अंतरिक्ष स्टेशन में भेजने के लिए कार्य चल रहा है. ध्यान देने वाली बात यह भी है कि अमेरिकी कानून के तहत चीन के साथ अंतरिक्ष-अनुसंधान में सहयोग नहीं किया जा सकता है.  

पाकिस्तान की उपलब्धि

पाकिस्तान ने चीनी यान पर रखकर पर अपना मिशन भेजा है. ऑर्बिटर आईक्यूब-क़मर पाकिस्तान का पहला मून मिशन है. इसमें दो ऑप्टिकल कैमरा हैं, जिन्होंने चंद्रमा की तस्वीरें भेजी हैं. यह अपेक्षाकृत छोटी उपलब्धि है, पर पाकिस्तान के लिए बड़ी है.

आईक्यूब-क़मर को चीन के शंघाई जिओ टोंग विश्वविद्यालय और सुपारको के सहयोग से इस्लामाबाद स्थित इंस्टीट्यूट ऑफ स्पेस टेक्नोलॉजी (आईएसटी) ने डिजाइन और विकसित किया है.

पाकिस्तान के अंतरिक्ष अनुसंधान संस्थान का नाम है स्पेस एंड अपर एटमॉस्फ़ियर रिसर्च कमीशन (सुपारको), जो 1961 में स्थापित हुआ था. अमेरिका के अपोलो मिशन के लिए इसका काम शुरू हुआ, लेकिन वह अपनी गति जारी नहीं रख सका.

इसकी एक वजह यह भी है कि वहाँ के ज्यादातर कार्यक्रम सैनिक उद्देश्यों से चलते रहे हैं. उसने मिसाइलें बनाईं, पर लॉन्चर नहीं बना पाया. उसकी क्षमताएं भी सीमित हैं. 52 किलोग्राम वजन के उसके पहले उपग्रह बदर-1 का प्रक्षेपण एक चीनी रॉकेट से 1990 में हुआ.

जुलाई 2011 में, पाकिस्तान के राष्ट्रीय कमान प्राधिकरण ने अंतरिक्ष कार्यक्रम-2040 को मंजूरी दी थी. इसके तहत 2040 तक पाँच उपग्रह भू-समकालिक भूमध्यरेखीय कक्षा (जियोसिंक्रोनस इक्वेटोरियल ऑर्बिट) में और पाँच उपग्रह पृथ्वी की निचली कक्षा (लो अर्थ ऑर्बिट) में स्थापित किए जाएंगे.

विज़न 2040 की शुरुआत 11 अगस्त 2011 को संचार उपग्रह पाकसैट-1आर के प्रक्षेपण के साथ हुई. उसके पहले 1996 में अमेरिकी प्रक्षेपक की मदद से पाकसैट-1 को पृथ्वी की कक्षा में स्थापित किया गया था. पाकसैट-1आर का विकास चीन की वित्तीय और तकनीकी सहायता से हुआ था और प्रक्षेपण भी चीन ने किया.

इसके बाद पाकिस्तान ने चीन से एक रिमोट सेंसिंग सैटेलाइट खरीदा, जिसका प्रक्षेपण 2018 में चीन ने किया. यह उपग्रह सैनिक-उपयोगिता का लगता है. वैसे भी पाकिस्तान ने एटम बम और मिसाइलें बनाने को हमेशा प्राथमिकता दी. विज्ञान और तकनीक की सामाजिक-उपयोगिता भी है.

मामले में वह भारत के साथ सहयोग कर सकता था, पर जब 2014 में भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने दक्षेस-उपग्रह से जुड़े कार्यक्रम में शामिल होने की पेशकश की, तो पाकिस्तान ने इनकार कर दिया. इस उपग्रह का प्रक्षेपण 2017 में किया गया.

स्पेस-रेस

बीसवीं सदी में शीतयुद्ध के दौरान अमेरिका और रूस के बीच प्रतिस्पर्धा की देन थी स्पेस-रेस. नाभिकीय-अस्त्रों और मिसाइलों के विकास के साथ दोनों देशों ने अंतरिक्ष-अभियानों के माध्यम से एक-दूसरे को परास्त करने का बीड़ा उठाया. राष्ट्रीय-प्रतिष्ठा की यह प्रतीकात्मक-प्रतिस्पर्धा थी.

29 जुलाई,1955 को अमेरिका ने अंतरराष्ट्रीय भू-भौतिकी वर्ष मनाने के लिए 1957-58 में एक उपग्रह पृथ्वी की कक्षा में भेजने की घोषणा की. इस घोषणा के चार दिन बाद ही रूस ने कहा कि हम भी जल्द ही भेजेंगे. 4 अक्तूबर,1957 को रूस ने स्पूतनिक-1 को पृथ्वी की कक्षा में स्थापित करके बाजी मार ली.

इतना ही नहीं, 12 अप्रेल, 1961 में वोस्तोक-1 पर सवार होकर यूरी गागारिन पृथ्वी की परिक्रमा करने वाले पहले इनसान बने. इन दो रूसी सफलताओं ने अमेरिका को स्तब्ध कर दिया, तब 25 मई, 1961 में राष्ट्रपति जॉन एफ कैनेडी ने संसद में घोषणा की कि हम इस दशक के खत्म होने के पहले चंद्रमा पर अपना अंतरिक्ष-यात्री भेजेंगे.

कैनेडी के स्वप्न का पहला चरण जुलाई, 1969 में पूरा हो गया, जब अपोलो-11 चंद्रमा पर उतरा. यह प्रतियोगिता चलती रही, पर 1991 में सोवियत संघ के विघटन के बाद यह एकतरफा हो गई. अब चीन के उदय के बाद यह एक नए रूप में सामने आ रही है.

चीनी हौसले

अब चीन इसे राष्ट्रीय प्रतिष्ठा के रूप में ले रहा है। अमेरिकी संसद से जुड़े अमेरिका-चीन आर्थिक एवं सुरक्षा समीक्षा आयोग के अनुसार ‘अंतरिक्ष को चीन भू-राजनीतिक और राजनयिक प्रतिस्पर्धा का औजार मानता है।’ इसके अलावा साइबरस्पेस और स्पेस का अब सामरिक इस्तेमाल भी हो रहा है।

चीन ने 2015 में एक पाँच वर्षीय अंतरिक्ष कार्यक्रम तैयार किया था, जो 2020 में पूरा हो गया है। इसके तहत 140 से अधिक अंतरिक्ष उड़ानें आयोजित की गईं। अब एक नए अंतरिक्ष स्टेशन, मंगल ग्रह से चट्टानों के नमूने लाने और वृहस्पति अभियान पर काम चल रहा है।

चीन ने मंगल और चंद्रमा पर रोबोटिक रोवर्स को उतारने में सफलता पाई है. उसकी योजना चंद्रमा पर बेस बनाने की भी है.

चंद्र-अभियान

पिछले साल भारत ने चंद्रमा की सतह पर चंद्रयान-3 को उतारा था. उसके बाद इस साल जनवरी ने जापान ने भी अपना एक यान चंद्रमा की सतह पर उतारा. इस यान ने ज्यादा समय काम नहीं किया, क्योंकि इस यान के उतरते समय कोण कुछ बदल गया, जिसके कारण इसकी बैटरी जल्द खत्म हो गई.

अपोलो-11 के यात्रियों नील आर्मस्ट्रांग और बज़ एल्ड्रिन के अभियान के बाद से 10 और यात्री चंद्रमा पर विचरण कर चुके हैं. कैनेडी के सपने के 43 साल बाद 2004 में तत्कालीन राष्ट्रपति जॉर्ज बुश ने घोषणा की कि 2020 तक अमेरिका फिर से चाँद पर जाएगा. वहाँ जाकर वापस लौटने के लिए नहीं, बल्कि सौर मंडल में और आगे जाने के लिए चाँद पर अड्डा बनाने के वास्ते.

वैश्विक-रेस

इस स्पर्धा में चीन के अलावा कुछ दूसरे ग्रुप भी सामने आ रहे हैं, खासतौर से प्राइवेट कम्पनियाँ. जहाँ अमेरिका को चीन चुनौती दे रहा है, वहीं चीन को भारत की चुनौती मिल रही है.

2010 के बाद से ऑस्ट्रेलिया, मैक्सिको, न्यूजीलैंड, पोलैंड, पुर्तगाल, दक्षिण अफ्रीका और तुर्की की स्पेस एजेंसियाँ बनी है. अमेरिका की प्राइवेट एजेंसी स्पेसएक्स ने सन 2026 में मंगल ग्रह पर अपना यान भेजने की घोषणा की है.

भारत के मुकाबले नाइजीरिया पिछड़ा देश है. उसकी तकनीक भी विकसित नहीं है,  पर इस वक्त नाइजीरिया के पाँच उपग्रह पृथ्वी की कक्षा में चक्कर लगा रहे हैं. 2003 से नाइजीरिया अंतरिक्ष विज्ञान में महारत हासिल करने के प्रयास में है. उसके ये उपग्रह इंटरनेट और दूरसंचार सेवाओं के अलावा मौसम की जानकारी देने का काम कर रहे हैं.

यूएई का कार्यक्रम

सबसे रोचक यूएई का अभियान है. सन 2014 में यूएई ने इस अभियान की घोषणा की थी. उसके पास अभी प्रक्षेपण-क्षमता नहीं है, पर उसके उपग्रह अंतरिक्ष में दूसरे देशों की सहायता से भेजे जा रहे हैं. इसका संचालन मोहम्मद बिन रशीद स्पेस सेंटर अमेरिका के कैलिफोर्निया विवि, बर्कले, एरिज़ोना स्टेट युनिवर्सिटी तथा युनिवर्सिटी ऑफ कोलोरेडो-बोल्डर के सहयोग से किया जा रहा है.

2020 में यूएई ने मंगल ग्रह की ओर अपना एक यान भेजा. यह एक ऑर्बिटर है, जिसने फरवरी 2021 में अपना प्रोब मंगल की कक्षा में स्थापित कर दिया. यह यान एक जापानी रॉकेट पर सवार होकर गया था. 2022 में उसने एक मिशन चंद्रमा की ओर भी भेजा, जो सफल नहीं हो सका.

यूएई ने भविष्य में अंतरिक्ष-अनुसंधान का एक शानदार कार्यक्रम तैयार कर रखा है. मंगल-अभियान के सिलसिले में यूएई और भारत के अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) के बीच समझौता है. इसके अलावा भारत के सऊदी अरब, कुवैत, मिस्र और ट्यूनीशिया के साथ भी अंतरिक्ष-सहयोग के समझौते हैं. ज्यादातर समझौते अंतरिक्ष-विज्ञान और तकनीक की मदद से विकास के रास्तों की खोज के लिए हैं.

आवाज़ द वॉयस में प्रकाशित

 

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