अटल बिहारी वाजपेयी करीब
पाँच दशक तक देश की राजनीति में सक्रिय रहे। उनकी कुछ बातें उनकी अलग पहचान बनाती
हैं। उन्हें पहचाना जाता है उनके भाषणों से, जो किसी भी सामान्य व्यक्ति को समझ
में आते थे। इन भाषणों की शैली से ज्यादा महत्वपूर्ण वे तथ्य हैं, जिन्हें उन्होंने
रेखांकित किया। उनकी लम्बी संसदीय उपस्थिति ने उन मूल्यों और मर्यादाओं को स्थिर
करने में मदद की, जो भारतीय लोकतंत्र का आधार हैं।
अटल बिहारी ने जवाहर लाल
नेहरू, लाल बहादुर शास्त्री, इंदिरा गांधी, राजीव गांधी, चंद्रशेखर, नरसिंहराव,
देवेगौडा और गुजराल के प्रधानमंत्रित्व में विरोध की कुर्सियों पर बैठकर अपने
विचार व्यक्त किए। उनके संसदीय भाषणों को पढ़ें तो आप पाएंगे कि उनमें कहीं कटुता
नहीं है। विरोध में रहते हुए भी उन्होंने सत्तापक्ष की सकारात्मक गतिविधियों का
समर्थन करने में कभी देर नहीं लगाई। नेहरू जैसे प्रखर वक्ता के मुकाबले न केवल
खड़े रहे बल्कि उनकी प्रशंसा के पात्र भी बने।
अटल बहारी वाजपेयी की
सबसे बड़ी सफलता इस बात में थी कि उन्होंने उदार और सहिष्णु राजनेता की जो छवि
बनाई, वह विलक्षण थी। राजनीति की जटिलताओं को वे अपने लम्बे मौन से सुलझाते थे।
उनके जीवन के तीन-चार बड़े फैसले एटमी परीक्षण, पाकिस्तान के साथ सम्बंध सुधारने
की प्रक्रिया और अमेरिका के साथ रिश्तों को परिभाषित करने से जुड़े थे। उन्होंने
आर्थिक उदारीकरण की प्रक्रिया को न केवल आगे बढ़ाया, बल्कि उसे तेज गति भी दी।
अटलजी ने कहीं भी अपनी
व्यक्तिगत राय को दूसरों पर हावी नहीं होने दिया, पर मौका आया तो धारा के खिलाफ
फैसला किया। सन 2004 में भारतीय क्रिकेट टीम के पाकिस्तान दौरे के ठीक पहले पेच
फँस गया था। शिवसेना का तो विरोध था ही आडवाणी जी का गृह मंत्रालय भी इस दौरे के
पक्ष में नहीं था। लेकिन अटल बिहारी वाजपेयी ने दौरे की अनुमति दे दी। यह दौरा
बेहद सफल रहा और भारतीय क्रिकेट के इतिहास में सुनहरे अक्षरों में अंकित हो गया। उस
साल भारत की टीम ने जब लाहौर में पाकिस्तान को हराया था तो स्टेडियम में पटाखे दग
रहे थे। दोनों देशों के बीच वैसा सद्भाव ऐतिहासिक था।
राजनीतिक दृष्टि से देखें
तो उनका बड़ा योगदान है बीजेपी को स्थायी विरोधी दल से सत्तारूढ़ दल में बदलना। सन
1984 में पार्टी के केवल दो सांसद जीतकर आए थे, जिनकी संख्या 1989 में 85 हुई, फिर
1991 में 120, 1996 में 161 और 1998 में 182। तूफान से घिरी पार्टी की किश्ती को न
केवल उन्होंने बाहर निकाला, बल्कि सिंहासन बैठा दिया। मंदिर आंदोलन ने उत्तर भारत
में पार्टी के जनाधार को बढञाया जरूर था, पर वह सरकार बनाने में सफल नहीं थी। दिसम्बर
1992 के बाबरी प्रकरण के बाद वह मुख्यधारा के राजनीतिक दलों के बीच ‘अछूत’ बन गई थी। मुख्यधारा की वैधता
और राष्ट्रीय स्वीकार्यता दिलाने का काम अटल बिहारी ने किया।
हालांकि सन 1996 में वह
सबसे बड़े दल के रूप में उभरकर आई, पर वह एक सीमारेखा थी। पार्टी को कुल मिलाकर
20.29 फीसदी वोट मिले थे। उसके सहयोगी तीन दलों को कुल 4.01 फीसदी हासिल हुए थे।
ऐसे में 13 दिन की सरकार के बनने और गिरने की राजनीति ने चमत्कार किया। विश्वास मत
हासिल करने के लिए 27 और 28 मई, 1996 के उनके भाषणों का काफी बड़ा प्रभाव पड़ा।
देश में पहली बार संसदीय कार्यवाही का इस स्तर पर सीधा प्रसारण पहली बार हुआ था।
बीजेपी की 13 दिन की
सरकार की विफलता के कुछ सबक साफ थे। बीजेपी का ‘हिन्दुत्व’ उसे पैन-इंडिया पार्टी
बनने में आड़े आ रहा था। अटल के नेतृत्व में पार्टी ने इसके तोड़ के लिए देश अलग-अलग
इलाकों सन 19में अपने सहयोगियों की तलाश शुरू की। एनडीए का गठन हुआ, जिसने 1998 के
चुनाव में 46.61 फीसदी वोट हासिल किए। यह सरकार कुछ समय बाद केवल एक वोट से हारी
तो जनता की हमदर्दी और बढ़ी। सन 1999 में बनी फिर से बनी अटल-सरकार ने कांग्रेस की
उस राष्ट्रीय-छवि को वस्तुतः छीन लिया, जिसे वह स्वतंत्रता संग्राम की अपनी विरासत
मानकर चलती थी।
अटलजी को गठबंधन राजनीति
का जनक भी माना जा सकता है। उन्होंने एनडीए बनाने के साथ-साथ समन्वय समिति की
अवधारणा भी दी। यूपीए-2 ने जुलाई 2012 के अंतिम सप्ताह में समन्वय समिति बनाई, वह
भी कांग्रेस और एनसीपी के बीच विवाद को निपटाने के उद्देश्य से। भाजपा ने तेरह दिन
की सरकार बनाने के बाद समझ लिया था कि गठबंधन के बिना काम नहीं चलेगा। इसके लिए
उसने राम मंदिर का अपना लक्ष्य छोड़ दिया। 1998 के चुनाव में बीजेपी ने नौ राज्यों
में 13 दलों के साथ चुनाव-पूर्व गठबंधन किया और चुनाव के पहले एनडीए का गठन कर
लिया। सन 1999 के चुनाव में उसका 24 दलों के साथ गठबंधन था।
गठबंधन बनाने के अलावा
1996 में 13 दिन की सरकार गिरने और उसके बाद 1998 में एक वोट से हारने के बावजूद
अटल बिहारी वाजपेयी संसद में अपने भाषणों से देश का ध्यान इस तरफ खींचने में
कामयाब हुए थे कि हमारे साथ अन्याय हो रहा है। अटल के भाषणों को जनता अवाक् सुनती
रही। भविष्य के चुनावों पर उस भाषण का गहरा असर पड़ा। इसके बाद बीजेपी की
स्वीकार्यता बढ़ी। वह अटल जैसे राजनेता के लिए बेहतरीन मौका था। आज भी उनके भाषणों
के यूट्यूब क्लिप लाखों की तादाद में देखे जाते हैं।
28 मई 1996 के भाषण के
अंत में उन्होंने कहा, ‘हम संख्याबल के सामने सिर झुकाते हैं।’ इसके पहले उन्होंने कहा,
आज मेरी सरकार के प्रति अविश्वास प्रकट करने के लिए जो दल एक हो रहे हैं, वे
एक-दूसरे के खिलाफ गम्भीर आरोप लगाते हुए लड़े थे। उन्होंने अपने विरोधियों के
अंतर्विरोधों को वोटर के सामने रखने में काफी समझदारी बरती। इस तरह उनका
गठबंधन-चातुर्य और राजनीतिक चतुराई अंततः रंग लाई।
आंतरिक लोकतंत्र के लिहाज
से अटल बिहारी के नेतृत्व वाली बीजेपी की स्थिति कांग्रेस से बेहतर थी। कोई वजह है
कि अपने वक्त में भले ही तारीफ नहीं की हो, पर आज तमाम कांग्रेसी नेता उनकी तारीफ
कर रहे हैं। इस तारीफ के पीछे तमाम कारण हैं, पर यह बीजेपी नेतृत्व की समझदारी पर
निर्भर करेगा कि वह अटल बिहारी की विरासत को किस रूप में सुरक्षित और संरक्षित
करेगी।
आपको सूचित किया जा रहा है कि आपकी इस प्रविष्टि की चर्चा कल सोमवार (20-08-2018) को "आपस में मतभेद" (चर्चा अंक-3069) पर भी होगी!
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सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
नमन
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