Sunday, August 5, 2018

ममता बनर्जी की राष्ट्रीय दावेदारी

बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी साल के बारहों महीने किसी न किसी वजह से खबरों में रहती हैं। इन दिनों वे दो कारणों से खबरों में हैं। एक, उन्होंने असम में राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर (एनआरसी) की प्रक्रिया का न केवल विरोध किया है, बल्कि कहा है कि इससे देश में गृहयुद्ध (सिविल वॉर) की स्थिति पैदा हो जाएगी। यह उत्तेजक बयान है और इसके पीछे देश के ‘टुकड़े-टुकड़े’ योजना के स्वर सुनाई पड़ रहे हैं। दूसरे से वे अचानक दिल्ली पहुँचीं और विरोधी दलों की एकता को लेकर विचार-विमर्श शुरू कर दिया। वे जितनी तेजी से दिल्ली में सक्रिय रहीं, उससे अनुमान लगाया जा रहा है कि वे भी प्रधानमंत्री पद की दावेदार हैं।

ममता बनर्जी लोकप्रिय नेता हैं और बंगाल में उनका दबदबा कायम है। पर उनकी विश्वसनीयता को लेकर सवाल हैं। पिछले दो दशक में उनकी गतिविधियों में कई तरह के उतार-चढ़ाव आए हैं। केंद्रीय मंत्री अरुण जेटली ने हाल में असमें में घुसपैठ को लेकर ममता के 4 अगस्त 2005 के एक बयान का हवाला दिया, जिसमें उन्होंने आज से उलट बातें कहीं थीं। राजनीति में बयान अक्सर बदलते हैं, पर ममता की विसंगतियाँ बहुत ज्यादा हैं। वे अपनी आलोचना तो बर्दाश्त करती ही नहीं हैं। दूसरे वे जिस महागठंधन के सहारे राष्ट्रीय राजनीति में प्रवेश करना चाहती हैं, उसे अपने राज्य में बनने नहीं देंगी। 
जून 2012 की बात है, बंगाल में ममता बनर्जी की सरकार का एक साल पूरा होने पर अंग्रेजी के एक चैनल ने एक ओपन हाउस सैशन आयोजित किया, जिसमें नौजवानों को बुलाया गया था। ममता बनर्जी शुरूआती एक-दो सवालों पर सामान्य रहीं, पर जैसे ही कुछ आलोचनात्मक सवाल सामने आए वे नाराज होने लगीं। उनसे एक छात्रा ने बंगाल के एक मंत्री और एक सांसद के सार्वजनिक आचरण को लेकर सवाल तो वे तैश में आ गईं और उठकर चल दीं। ऐसे भी प्रसंग हैं, जब उन्होंने सभाओं में सवाल पूछने वालों को गिरफ्तार करवा दिया।

फायरब्रैंड, लड़ाकू, योद्धा वगैरह विशेषण उनके नाम के पहले लगाए जाते हैं। यह सब उनकी तारीफ है, पर वे अविश्वसनीय हैं। सन 1991 में वे पहली बार मानव संसाधन विकास, युवा और खेल तथा महिला और बाल कल्याण राज्य मंत्री बनाई गईं। खेल नीतियों को लेकर मंत्री रहते हुए भी उन्होंने कोलकाता की एक रैली में सरकार पर तमाम लानतें भेजीं और इस्तीफे की घोषणा कर दी। इसके बाद उन्होंने आरोप लगाना शुरू कर दिया कि कांग्रेस पार्टी सीपीएम की चेरी है। और 1997 में पार्टी छोड़कर अखिल भारतीय तृणमूल कांग्रेस नाम से नई पार्टी बना ली। सन 1999 में वे भाजपा-नीत एनडीए सरकार में शामिल हो गईं। सन 2000 में पेट्रोलियम कीमतों में वृद्धि के विरोध में उन्होंने और उनके पार्टी सहयोगी अजित कुमार पांजा ने कैबिनेट से इस्तीफा दिया और बाद में वापस ले लिया। सन 2001 में तहलका मामला सामने आने पर फिर वे एनडीए छोड़कर बाहर चली गईं। उस साल उन्होंने बंगाल में कांग्रेस के साथ मिलकर चुनाव लड़ा कि शायद वाम मोर्चा परास्त हो जाए, पर ऐसा हुआ नहीं। 2004 के चुनाव के पहले वे फिर एनडीए में वापस आ गईं। फिर यूपीए का सीपीएम से रिश्ता टूटा तो उसके साथ चली गईं। और सरकार का कार्यकाल पूरा होने से पहले उसे छोड़ दिया।

ममता की इन दिनों याजना क्या है और उनकी महत्वाकांक्षा स्तर क्या है, इसे लेकर सिर्फ अनुमान लगाया जा सकता है, पर गठबंधन राजनीति के वर्तमान दौर को देखते हुए उनकी मनोकामना को खारिज नहीं किया जा सकता। वे मौका लगते ही राष्ट्रीय राजनीति के केन्द्र में आने का प्रयास करती हैं, पर वे अविश्वसनीय भी हैं। नवम्बर 2016 में नोटबंदी के खिलाफ विरोध की पहल उन्होंने ही की। पिछले कुछ समय से वे देश में संघीय मोर्चा बनाने की कोशिश कर रही हैं। कर्नाटक में सरकार बनाने के लिए एचडी देवेगौडा को मनाने में उनकी भी भूमिका रही। असम पर अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करने के लिए शायद वे पहले से तैयार थीं। सन 2012 में राष्ट्रपति चुनाव के ठीक पहले वे अचानक मुलायम सिंह को साथ लेकर एपीजे कलाम के नाम की पैरवी करने लगीं, फिर उनका विचार दल गया।

ममता बनर्जी कब किसी छोटी सी बात को बड़ा कर दें और बड़ी-बड़ी बातों को छोटा बता दें, कहा नहीं जा सकता। सन 2012 के रेल बजट में किराया बढ़ने पर उन्होंने रेलमंत्री दिनेश त्रिवेदी को जिस तरह हटाया उसकी मिसाल भारत के इतिहास में नहीं मिलेगी। उसके पहले मनमोहन सिंह सरकार ने जब रिटेल कारोबार में एफडीआई की घोषणा की तो बंगाल की मुख्यमंत्री के रूप में उन्होंने उस नीति को खारिज करने की घोषणा कर दी, बावजूद इसके कि उनकी पार्टी सरकार में शामिल थी।

ममता की राजनीति पर नजर रखने वालों का कहना है कि कई मसलों को जोड़कर विरोध की लहर पैदा करना उनकी रणनीति रही है। सन 2006 से 2008 के बीच सिंगुर-नंदीग्राम आंदोलन के साथ उन्होंने कई तरह के मसलों को जोड़ा और वाममोर्चा के खिलाफ माहौल बनाया था। इसमें उन्होंने रिजवानुर रहमान की मौत और सच्चर आयोग की रपट का सहारा लेकर मुसलमानों के बीच जगह बनाई। उनके आरोप कितने ही बेदम हों, उन्हें वे पूरी ताकत से दोहराती हैं। साथ ही उसके पक्ष में समर्थन हासिल करने की कोशिश करती हैं।

ममता के विरोधी उन्हें जुनूनी, लड़ाका और विघ्नसंतोषी मानते हैं। जमीनी स्तर पर हमारा समाज ऐसे नेताओं को पसंद करता है। उन्होंने वाम मोर्चा के 34 साल पुराने मजबूत गढ़ को गिरा कर दिखा दिया। पर लगता है कि वे गिराना जानती हैं, बनाना नहीं। अग्निकन्या होना एक बात है और कुशल प्रशासक होना दूसरी बात है। उन्होंने सिर्फ अपने बलबूते एक पार्टी खड़ी कर दी, यह बात उन्हें महत्वपूर्ण बनाती है, पर इसी कारण से उनका पूरा संगठन व्यक्ति केन्द्रित बन गया है।

यह सच है कि वे लोकप्रिय हैं और वे लगातार दूसरी बार चुनाव जीतकर मुख्यमंत्री बनी हैं। पर चुनाव जीतने की उनकी शैली हैरान भी करती है। हाल में हुए स्थानीय निकाय चुनावों में बड़ी संख्या में उनके प्रत्याशी निर्विरोध चुनाव जीते, क्योंकि चुनौती देने वालों को खड़ा होने नहीं दिया गया। इन सारी बातों को देखते हुए ममता का राष्ट्रीय राजनीति में हस्तक्षेप महत्वपूर्ण परिघटना है। क्या उनकी लड़ाका छवि ऐसे पद के लिए उपयुक्त है, जिसकी एक अनिवार्य शर्त विचारशीलता भी है? क्या वे राष्ट्रीय नेता बन सकती हैं? हमें इन बातों पर भी विचार करना चाहिए। 

1 comment:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (07-08-2018) को "पड़ गये झूले पुराने नीम के उस पेड़ पर" (चर्चा अंक-3056) पर भी होगी।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    --
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

    ReplyDelete