बीजेपी सत्ता में नहीं होती तो शायद अटल बिहारी वाजपेयी के निधन पर इतना जबर्दस्त शोक-प्रदर्शन न हुआ होता. इस शोक प्रदर्शन में कई तरह के लोग हैं, पर मोटे तौर पर दो तरह के लोगों को पहचाना जा सकता है. पहले हैं भारतीय जनता पार्टी और नरेन्द्र मोदी के समर्थक और दूसरे हैं भारतीय जनता पार्टी के विरोधी. अटल बिहारी वाजपेयी के प्रशंसकों में बड़ी संख्या उनके विरोधियों की भी रही है, पर आज काफी लोग वर्तमान स्थितियों के संदर्भ में भी अपनी राय व्यक्त कर रहे हैं. वे रेखांकित कर रहे हैं कि अटल क्यों गुणात्मक रूप से मोदी-व्यवस्था से भिन्न थे. यह फर्क अटल की समन्वयवादी रीति-नीति और देश की सामाजिक बहुलता के प्रति दृष्टि के कारण है. अटल बिहारी वाजपेयी ने यह साबित किया कि बीजेपी भी देश पर राज कर सकती है. उसे स्थायी विपक्ष के स्थान पर सत्ता-पक्ष बनाने का श्रेय उन्हें जाता है. उन्होंने वह सूत्र पकड़ा, जिसके कारण कांग्रेस देश की एकछत्र पार्टी थी. इस बात का विश्लेषण अभी लम्बे समय तक होगा कि देश की सामाजिक-सांस्कृतिक अस्मिता की प्रतिनिधि पार्टी कांग्रेस है या बीजेपी, पर यह भी सच है कि आजादी के ठीक पहले तक कांग्रेस को हिन्दू पार्टी माना जाता था. तब बीजेपी थी भी नहीं. उनका निधन ऐसे मौके पर हुआ है, जब बीजेपी के सामने कुछ बड़े सवाल खड़े हैं. बेशक अटल के नाम पर बीजेपी को राजनीतिक लाभ मिलेगा. देखना यह भी होगा कि पार्टी अटल की उदारता और सहिष्णुता की विरासत को आगे बढ़ाने के बारे में सोचेगी या नहीं.
अटल बिहारी वाजपेयी के निधन के बाद रात के टेलीविजन शो में बड़ी संख्या में ऐसे लोग भी, जो अटल बिहारी वाजपेयी के कटु आलोचक हुआ करते थे, तारीफ करते नजर आए. उनकी राय थी कि अटलजी उदार और व्यावहारिक नेता थे. हालांकि इनमें से काफी लोग उन्हें तब भी फासिस्ट बताते थे. आज वे उन्हें उदार मान रहे हैं, तो इसके दो कारण हैं. हमारी संस्कृति में निधन के बाद व्यक्ति की आलोचना नहीं करते, पर यह राजनीति का गुण नहीं है. पिछले डेढ़ दशक की राजनीति के ठोस सत्य से रूबरू होने के बाद यह वास्तव में दिल की आवाज है.
अटल बिहारी वाजपेयी का बड़ा योगदान है बीजेपी को स्थायी विरोधी दल से सत्तारूढ़ दल में बदलना. पार्टी की तूफान से घिरी किश्ती को न केवल उन्होंने बाहर निकाला, बल्कि सिंहासन पर बैठा दिया. देश का दुर्भाग्य है कि जिस वक्त उसे उनके जैसे नेता की सबसे बड़ी जरूरत थी, वे सेवा निवृत्त हो गए और फिर उनके स्वास्थ्य ने जवाब दे दिया. दिसम्बर 1992 के बाद बीजेपी ‘अछूत’ पार्टी बन गई थी. आडवाणीजी के अयोध्या अभियान ने उसे एक लम्बी बाधा-दौड़ में सबसे आगे आने का मौका जरूर दिया, पर मुख्यधारा की वैधता और राष्ट्रीय स्वीकार्यता दिलाने का काम अटल बिहारी ने किया.
हालांकि सन 1996 में वह सबसे बड़े दल के रूप में उभरकर आई, पर वह एक सीमारेखा बन गई. बीजेपी का ‘हिन्दुत्व’ उसे पैन-इंडिया पार्टी बनने में आड़े आ रहा था. सन 1998 और फिर 1999 में बनी अटल-सरकार ने कांग्रेस की उस राष्ट्रीय-छवि को वस्तुतः छीन लिया, जिसे वह स्वतंत्रता संग्राम की अपनी विरासत मानकर चलती थी. अटलजी के निधन के बाद पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने कहा कि अटलजी ने राष्ट्रीय आमराय की राजनीति की और नेहरू की भारत की परिकल्पना से सहमति व्यक्त की.
वस्तुतः एनडीए और यूपीए सरकारों ने एक-दूसरे के कार्यों को आगे बढ़ाया. अलबत्ता अटल सरकार को अमेरिका और पाकिस्तान के साथ रिश्तों को बेहतर करने का श्रेय जाता है. अटल सरकार को उसके राजमार्ग कार्यक्रम के लिए भी याद किया जाना चाहिए, जो यूपीए सरकार के दौर में ढीला पड़ गया. अलबत्ता अटल सरकार ने कांग्रेस की वैकल्पिक राजनीति की बुनियाद रखी, जो शायद अभी आगे जाएगी. उसकी ज्यादा बड़ी देन है गठबंधन राजनीति को सुपरिभाषित करना.
देश की राजनीति में सबसे लम्बे अरसे तक कांग्रेस का वर्चस्व रहा है, पर गठबंधन की राजनीति उसकी देन नहीं, मजबूरी रही है. तीन मौकों पर उसने गठबंधन सरकारें बनाईं और दो मौकों पर उसने बाहर से गठबंधन सरकारों को समर्थन दिया. हर बार सहयोगी दलों को कांग्रेस से शिकायतें रहीं. जब उसने बाहर से समर्थन दिया तो बैमौके समर्थन वापस लेकर सरकारें गिराईं. सन 2004 में पहली बार यूपीए बना, तो 2008 में वामदलों के हाथ खींच लेने के कारण सरकार गिरते-गिरते बची. यूपीए-2 के दौर में उसे लगातार ममता बनर्जी, शरद पवार और करुणानिधि के दबाव में रहना पड़ा.
यूपीए-2 ने जुलाई 2012 के अंतिम सप्ताह में समन्वय समिति बनाई, वह भी कांग्रेस और एनसीपी के बीच विवाद को निपटाने के उद्देश्य से. इसके विपरीत भारतीय जनता पार्टी ने सन 1996 की तेरह दिन की सरकार बनाने के बाद समझ लिया था कि गठबंधन के बिना काम नहीं चलेगा. इसके लिए उसने राम मंदिर का अपना लक्ष्य छोड़ दिया. 1998 के चुनाव में बीजेपी ने नौ राज्यों में 13 दलों के साथ चुनाव-पूर्व गठबंधन किया और चुनाव के पहले एनडीए का गठन कर लिया. सन 1999 के चुनाव में उसका 24 दलों के साथ गठबंधन था.
गठबंधन बनाने के अलावा 1996 में 13 दिन की सरकार गिरने और उसके बाद 1998 में एक वोट से हारने के बावजूद अटल बिहारी वाजपेयी संसद में अपने भाषणों से देश का ध्यान इस तरफ खींचने में कामयाब हुए थे कि हमारे साथ अन्याय हो रहा है. संयोग से 1996 में पहली बार इस प्रकार की महत्वपूर्ण संसदीय बहस का सीधा राजनीतिक प्रसारण हुआ. देश के संसदीय इतिहास में यह पहला मौका था जब किसी प्रधानमंत्री ने सदन में इतने विस्तार से बोला और देश-दुनिया की जनता अवाक् सुनती रही. भविष्य के चुनावों पर उस भाषण का गहरा असर पड़ा. इसके बाद बीजेपी की स्वीकार्यता बढ़ती चली गई. वह अटल जैसे राजनेता के लिए बेहतरीन मौका था. आज भी उनके भाषणों के यूट्यूब क्लिप लाखों की तादाद में देखे जाते हैं.
28 मई 1996 के भाषण के अंत में उन्होंने कहा, ‘हम संख्याबल के सामने सिर झुकाते हैं.’ इसके पहले उन्होंने कहा, आज मेरी सरकार के प्रति अविश्वास प्रकट करने के लिए जो दल एक हो रहे हैं, वे एक-दूसरे के खिलाफ गम्भीर आरोप लगाते हुए लड़े थे. उन्होंने अपने विरोधियों के अंतर्विरोधों को वोटर के सामने रखने में काफी समझदारी बरती. इस तरह उनका गठबंधन-चातुर्य और राजनीतिक चतुराई अंततः रंग लाई. जिस पार्टी को 1984 के चुनाव में केवल दो सीटें मिली थीं, वह 1998 और फिर 1999 में सरकार बनाने में कामयाब हुई.
यूपीए-1 ने न्यूनतम साझा कार्यक्रम बनाया था. पर उसके पहले अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में एनडीए ने समन्वय समिति की अवधारणा दे दी थी. जॉर्ज फर्नांडिस उसके संयोजक थे. गठबंधन की वैश्विक प्रवृत्तियों को देखें तो यह काम आसान नहीं है. सन 2010 में ब्रिटेन में लिबरल डेमोक्रेट और कंजर्वेटिव पार्टियों के बीच अचानक गठबंधन बना, पर दोनों पार्टियों ने काफी पेपरवर्क करके उसे सलीके से औपचारिक रूप दिया. सन 2004 के चुनाव में एनडीए की पराजय के पीछे काफी लोग ‘इंडिया शाइनिंग’ को दोष देते हैं, पर ठीक से देखें तो पाएंगे कि बीजेपी ने आंध्र और तमिलनाडु में सही गठजोड़ नहीं किए.
आंतरिक लोकतंत्र के लिहाज से अटल बिहारी के नेतृत्व वाली बीजेपी की स्थिति कांग्रेस से बेहतर हो गई थी. कोई वजह है कि अपने वक्त में भले ही तारीफ नहीं की हो, पर आज तमाम कांग्रेसी नेता उनकी तारीफ कर रहे हैं.
अटल बिहारी वाजपेयी का बड़ा योगदान है बीजेपी को स्थायी विरोधी दल से सत्तारूढ़ दल में बदलना. पार्टी की तूफान से घिरी किश्ती को न केवल उन्होंने बाहर निकाला, बल्कि सिंहासन पर बैठा दिया. देश का दुर्भाग्य है कि जिस वक्त उसे उनके जैसे नेता की सबसे बड़ी जरूरत थी, वे सेवा निवृत्त हो गए और फिर उनके स्वास्थ्य ने जवाब दे दिया. दिसम्बर 1992 के बाद बीजेपी ‘अछूत’ पार्टी बन गई थी. आडवाणीजी के अयोध्या अभियान ने उसे एक लम्बी बाधा-दौड़ में सबसे आगे आने का मौका जरूर दिया, पर मुख्यधारा की वैधता और राष्ट्रीय स्वीकार्यता दिलाने का काम अटल बिहारी ने किया.
हालांकि सन 1996 में वह सबसे बड़े दल के रूप में उभरकर आई, पर वह एक सीमारेखा बन गई. बीजेपी का ‘हिन्दुत्व’ उसे पैन-इंडिया पार्टी बनने में आड़े आ रहा था. सन 1998 और फिर 1999 में बनी अटल-सरकार ने कांग्रेस की उस राष्ट्रीय-छवि को वस्तुतः छीन लिया, जिसे वह स्वतंत्रता संग्राम की अपनी विरासत मानकर चलती थी. अटलजी के निधन के बाद पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने कहा कि अटलजी ने राष्ट्रीय आमराय की राजनीति की और नेहरू की भारत की परिकल्पना से सहमति व्यक्त की.
वस्तुतः एनडीए और यूपीए सरकारों ने एक-दूसरे के कार्यों को आगे बढ़ाया. अलबत्ता अटल सरकार को अमेरिका और पाकिस्तान के साथ रिश्तों को बेहतर करने का श्रेय जाता है. अटल सरकार को उसके राजमार्ग कार्यक्रम के लिए भी याद किया जाना चाहिए, जो यूपीए सरकार के दौर में ढीला पड़ गया. अलबत्ता अटल सरकार ने कांग्रेस की वैकल्पिक राजनीति की बुनियाद रखी, जो शायद अभी आगे जाएगी. उसकी ज्यादा बड़ी देन है गठबंधन राजनीति को सुपरिभाषित करना.
देश की राजनीति में सबसे लम्बे अरसे तक कांग्रेस का वर्चस्व रहा है, पर गठबंधन की राजनीति उसकी देन नहीं, मजबूरी रही है. तीन मौकों पर उसने गठबंधन सरकारें बनाईं और दो मौकों पर उसने बाहर से गठबंधन सरकारों को समर्थन दिया. हर बार सहयोगी दलों को कांग्रेस से शिकायतें रहीं. जब उसने बाहर से समर्थन दिया तो बैमौके समर्थन वापस लेकर सरकारें गिराईं. सन 2004 में पहली बार यूपीए बना, तो 2008 में वामदलों के हाथ खींच लेने के कारण सरकार गिरते-गिरते बची. यूपीए-2 के दौर में उसे लगातार ममता बनर्जी, शरद पवार और करुणानिधि के दबाव में रहना पड़ा.
यूपीए-2 ने जुलाई 2012 के अंतिम सप्ताह में समन्वय समिति बनाई, वह भी कांग्रेस और एनसीपी के बीच विवाद को निपटाने के उद्देश्य से. इसके विपरीत भारतीय जनता पार्टी ने सन 1996 की तेरह दिन की सरकार बनाने के बाद समझ लिया था कि गठबंधन के बिना काम नहीं चलेगा. इसके लिए उसने राम मंदिर का अपना लक्ष्य छोड़ दिया. 1998 के चुनाव में बीजेपी ने नौ राज्यों में 13 दलों के साथ चुनाव-पूर्व गठबंधन किया और चुनाव के पहले एनडीए का गठन कर लिया. सन 1999 के चुनाव में उसका 24 दलों के साथ गठबंधन था.
गठबंधन बनाने के अलावा 1996 में 13 दिन की सरकार गिरने और उसके बाद 1998 में एक वोट से हारने के बावजूद अटल बिहारी वाजपेयी संसद में अपने भाषणों से देश का ध्यान इस तरफ खींचने में कामयाब हुए थे कि हमारे साथ अन्याय हो रहा है. संयोग से 1996 में पहली बार इस प्रकार की महत्वपूर्ण संसदीय बहस का सीधा राजनीतिक प्रसारण हुआ. देश के संसदीय इतिहास में यह पहला मौका था जब किसी प्रधानमंत्री ने सदन में इतने विस्तार से बोला और देश-दुनिया की जनता अवाक् सुनती रही. भविष्य के चुनावों पर उस भाषण का गहरा असर पड़ा. इसके बाद बीजेपी की स्वीकार्यता बढ़ती चली गई. वह अटल जैसे राजनेता के लिए बेहतरीन मौका था. आज भी उनके भाषणों के यूट्यूब क्लिप लाखों की तादाद में देखे जाते हैं.
28 मई 1996 के भाषण के अंत में उन्होंने कहा, ‘हम संख्याबल के सामने सिर झुकाते हैं.’ इसके पहले उन्होंने कहा, आज मेरी सरकार के प्रति अविश्वास प्रकट करने के लिए जो दल एक हो रहे हैं, वे एक-दूसरे के खिलाफ गम्भीर आरोप लगाते हुए लड़े थे. उन्होंने अपने विरोधियों के अंतर्विरोधों को वोटर के सामने रखने में काफी समझदारी बरती. इस तरह उनका गठबंधन-चातुर्य और राजनीतिक चतुराई अंततः रंग लाई. जिस पार्टी को 1984 के चुनाव में केवल दो सीटें मिली थीं, वह 1998 और फिर 1999 में सरकार बनाने में कामयाब हुई.
यूपीए-1 ने न्यूनतम साझा कार्यक्रम बनाया था. पर उसके पहले अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में एनडीए ने समन्वय समिति की अवधारणा दे दी थी. जॉर्ज फर्नांडिस उसके संयोजक थे. गठबंधन की वैश्विक प्रवृत्तियों को देखें तो यह काम आसान नहीं है. सन 2010 में ब्रिटेन में लिबरल डेमोक्रेट और कंजर्वेटिव पार्टियों के बीच अचानक गठबंधन बना, पर दोनों पार्टियों ने काफी पेपरवर्क करके उसे सलीके से औपचारिक रूप दिया. सन 2004 के चुनाव में एनडीए की पराजय के पीछे काफी लोग ‘इंडिया शाइनिंग’ को दोष देते हैं, पर ठीक से देखें तो पाएंगे कि बीजेपी ने आंध्र और तमिलनाडु में सही गठजोड़ नहीं किए.
आंतरिक लोकतंत्र के लिहाज से अटल बिहारी के नेतृत्व वाली बीजेपी की स्थिति कांग्रेस से बेहतर हो गई थी. कोई वजह है कि अपने वक्त में भले ही तारीफ नहीं की हो, पर आज तमाम कांग्रेसी नेता उनकी तारीफ कर रहे हैं.
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