मुहावरा है
तुर्की-ब-तुर्की। जिस अंदाज में बोलेंगे, जवाब उसी अंदाज में मिलेगा। शब्द
अमर्यादित नहीं हैं तो उनपर आपत्ति नहीं होनी चाहिए। साथ ही राजनीति के मैदान में
उतरे हैं तो खाल मोटी करनी होगी। किसी पर हमला करें तो जवाब सुनने के लिए तैयार भी
रहना चाहिए। लोकसभा और राज्यसभा में प्रधानमंत्री के हाल के भाषण को लेकर कांग्रेस
पार्टी ने मर्यादा के सवाल खड़े किए हैं। देर से ही सही मर्यादा का सवाल आया है, पर
यह तब जब मनमोहन सिंह पर मोदी ने चुटकी ली।
इस चुटकी में अमर्यादित बात तो कुछ भी नहीं थी, पर
खिल्ली जरूर थी। या कहें कि सामान्य सा व्यंग्य था। दुनिया के संसदीय
इतिहास में ऐसी तमाम चुटकियाँ दर्ज मिलेंगी। भारतीय संदर्भों में भी। सन 1977 में
जनता पार्टी की सरकार बनने के बाद मोरारजी देसाई और चौधरी चरण सिंह को लेकर जो
टिप्पणियाँ हुईं थीं, वे इससे आगे की श्रेणी में थीं। फिर भी इसमें दो राय नहीं कि
राजनीतिक शब्दावली को लेकर संयम बरतने की जरूरत है।
मर्यादा का मतलब
आलोचना से भागना नहीं है। प्रधानमंत्री या पूर्व प्रधानमंत्री कोई भी आलोचना से
परे नहीं हैं। पर इसका दूसरा पहलू भी है। वोट की राजनीति ने हमारे समाज के
ताने-बाने में बुरी तरह कड़वाहट भर दी है। उसे दूर करने की जरूरत है। व्यंग्य का
आनन्द स्वस्थ समाज ही ले सकता है। बीजेपी और कांग्रेस के बीच पिछले दस बरस से चल
रहे संवाद पर गौर करें तो पाएंगे कि इस नफरत में क्रमबद्धता है। दोनों पक्षों ने एक-दूसरे
को जवाब दिए हैं।
प्रधानमंत्री ने राज्यसभा
में मनमोहन सिंह पर ‘रेनकोट पहन कर नहाने’ के जिस रूपक इस्तेमाल किया, उसे
कांग्रेस ‘तल्ख और बेहूदा’ मानती है। पर बेहूदा बातें
तो इससे बड़ी हो चुकी हैं। पिछले पाँच दशक में संसद के भीतर मर्यादाएं टूटी हैं। पन्द्रहवीं
लोकसभा के आखिरी सत्र में सदन के भीतर मिर्ची स्प्रे छोड़ने से लेकर चाकू निकालने
तक की घटनाएं हुई। उस सत्र में एक विधेयक पास करते वक्त ऐसी उत्तेजना थी कि लोकसभा
टीवी के जीवंत प्रसारण को कुछ देर के लिए रोका गया था। क्यों? ताकि कुछ तस्वीरें देश को दिखाई न
पड़ें।
कांग्रेस चाहती है कि पूर्व प्रधानमंत्री की मर्यादाएं हैं। उनका सम्मान होना
चाहिए। पर क्या कांग्रेस ने प्रधानमंत्री के पद की गरिमा को माना है? राज्यसभा में मोदी के
भाषण के दौरान विरोधी कुर्सियों से हो रही टिप्पणियाँ क्या कह रही थीं? वे भी अनुचित थीं। संभव है कि यह किसी
योजना के तहत नहीं हुआ हो, पर माहौल में उत्तेजना पहले से थी। बीच में एकबार
वेंकैया नायडू ने उठकर कहा भी कि क्या यह ऐसे ही चलता रहेगा?
क्या रनिंग कमेंट्री चलती रहेगी?
मनमोहन
सिंह सामान्यतः रोजमर्रा की राजनीति पर टिप्पणी नहीं करते हैं। कांग्रेस पार्टी ने
नोटबंदी को लेकर बीजेपी पर हमला बोला तो उसमें मनमोहन सिंह को भी शामिल किया। नवम्बर में उन्होंने राज्यसभा में कहा, नोटबंदी का फैसला ‘संगठित लूट और कानूनी डाकाजनी’ (ऑर्गनाइज्ड लूट एंड लीगलाइज्ड
प्लंडर) है। अपने प्रधानमंत्रित्व के आखिरी संवाददाता सम्मेलन में जब उनसे किसी ने
नरेंद्र मोदी के देश का प्रधानमंत्री बनने की संभावनाओं को लेकर सवाल किया था तो
उन्होंने जवाब दिया यह देश के साथ त्रासदी होगी।
मोदी के अमेरिकी वीजा प्रकरण के पीछे भी राजनीति थी। कड़वाहट सन 2007 के
गुजरात विधानसभा चुनाव के बाद पैदा हुई है। मई 2016 में उनके प्रधानमंत्री बनने के
बाद से टकराव की शक्ल बदल गई है। यों भी पिछले दो-तीन सत्र से संसद में दोनों
पक्षों के बीच खुला टकराव चल रहा है। पूरा शीत सत्र इस टकराव के कारण बेकार हो
गया।
सत्र के खत्म होते-होते राहुल गांधी ने वह बयान दिया, ‘मैं बोलूँगा तो भूकम्प आ जाएगा।’ मोदी ने लोकसभा में अपने
भाषण की शुरुआत वहीं से की। उन्होंने कहा, ‘...लेकिन आखिर भूकम्प आ ही गया...धमकी तो बहुत पहले
सुनी थी।’ उस दिन मोदी ने संसद में अब तक का सबसे लम्बा भाषण दिया। इसमें उन्होंने काफी
चुटकियाँ लीं।
बुधवार को
राज्यसभा में जो टकराव हुआ वह संयोगवश नहीं था। मनमोहन सिंह के ‘संगठित और कानूनी डाकाजनी’ शब्द बीजेपी ने नोट करके रखे थे। ये बातें
राज्यसभा में ही कही गईं थीं। मोदी ने कहा, इतने बड़े व्यक्ति ने सदन में ‘लूट और प्लंडर’ जैसे शब्द प्रयोग किए थे। तब पचास बार उधर भी
सोचने की जरूरत थी कि मर्यादा-रेखा पार करने का मतलब क्या होता है। हम भी उसी ‘क्वॉइन’ में वापस देने की ताकत रखते हैं।
कांग्रेस और मोदी
की कड़वाहट सन 2007 में शुरू हुई, जब सोनिया गांधी ने पहली बार उन्हें ‘मौत का सौदागर’ कहा था। हाल में प्रमोद तिवारी ने
राज्यसभा में नोटबंदी के सिलसिले में कहा, किसी सभ्य देश ने यह नहीं किया, जिसने किया उनके नाम इतिहास में है। पहला गद्दाफी, दूसरा मुसोलिनी, तीसरा हिटलर और चौथा मोदी। सर्जिकल स्ट्राइक के
संदर्भ में राहुल गांधी का ‘खून की दलाली’ बयान हाल की बात है।
यह जवाबी राजनीति है। नरेंद्र मोदी ने राहुल गांधी और मनमोहन सिंह की कम फज़ीहत
नहीं की है। वे पन्द्रह अगस्त को दिल्ली में प्रधानमंत्री का भाषण पूरा होने के
बाद गुजरात में अपना भाषण देते थे। इसे मर्यादा का उल्लंघन कहें या मोदी की नए
किस्म की राजनीति? यह राजनीति है हमले
का जवाब हमला। मोदी की आक्रामकता से कांग्रेस कमजोर हुई। ‘पप्पू’ शब्द उसी दौर की देन है। पर ऐसा क्यों हुआ? क्या कांग्रेस केवल मोदी के कारण हारी? नहीं, वह अपने कारणों
से हारी। मोदी उसके निमित्त मात्र बने।
जो भी है इसे बहुत ज्यादा व्यक्तिगत होने से बचाना चाहिए। मनमोहन सिंह ने नवंबर
में जब राज्यसभा में ‘कानूनी डाकाजनी’ कहा, कड़वाहट उस दिन नहीं थी। उस भाषण
के बाद लंच ब्रेक के वक्त नरेंद्र मोदी ने मनमोहन सिंह के पास जाकर उनसे हाथ
मिलाया था। पर जब मोदी ने मनमोहन सिंह पर पलट-वार किया तो कांग्रेस ने हाथ नहीं
मिलाया।
संयोग की बात है कि पिछले हफ्ते तृणमूल कांग्रेस की नेता ममता बनर्जी ने अपनी
पार्टी के नेताओं को निर्देश दिया है कि वे नोटबंदी की आलोचना जरूर करें, पर
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर सीधे हमले करने से बचें। कहना मुश्किल है कि तृणमूल
की इस रणनीति के पीछे संसदीय मर्यादा है या बदलते हालात। जो भी है, कड़वाहट को
खत्म करना चाहिए।
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