Saturday, February 11, 2017

अब शुरू हुई ‘असल उत्तर’ की लड़ाई

देश वो जीतेगा, जो जीता उत्तर प्रदेश
सन 2019 के लोकसभा चुनाव के पहले देश की सबसे बड़ी राजनीतिक लड़ाई उत्तर भारत के मैदानी और पहाड़ी इलाकों में शुरू होने वाली है। दिल्ली का दरवाजा उत्तर प्रदेश से खुलता है। उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव में भी पहले दो दौर बेहद महत्त्वपूर्ण हैं। इन दो दौरों में प्रदेश का पश्चिमी हिस्सा कवर होता है। प्रदेश की 403 में से 140 सीटें इस इलाके में हैं। परम्परा से यह बसपा और एक हद तक सपा का प्रभाव क्षेत्र है, पर सन 2014 के लोकसभा चुनाव में सारे समीकरण बदल गए हैं। इस बार का चुनाव बताएगा कि बीजेपी का वह रसूख अभी बचा है या नहीं।

इस इलाके से पूरी विधानसभा की करीब एक तिहाई सीटें चुनकर जाएंगी। हाल में भाजपा के अध्यक्ष अमित शाह ने कहा कि इस क्षेत्र से हम कम से कम 90 सीटों पर जीतेंगे। ऐसा हुआ तो भाजपा का दबदबा साबित हो जाएगा। पर यह दावा है। ऐसा दावा अखिलेश यादव या मायावती भी करेंगी। समाजवादी पार्टी और कांग्रेस के गठबंधन के बाद से माहौल बदला भी है। यह गठबंधन अखिलेश की बेहतर छवि और मुस्लिम वोटों के एकताबद्ध होने की उम्मीद रखता है। पर कहना मुश्किल है कि सपा का वोट कांग्रेस के प्रत्याशियों को ट्रांसफर हो पाएगा या नहीं। पहले दौर का संदेश यह गया कि भाजपा से टक्कर सपा नहीं बसपा ले रही है तो मुस्लिम वोट का रुख बसपा की ओर भी हो सकता है।
एक सच यह भी है कि बसपा के वोटर का मिज़ाज अक्सर मुख्यधारा का मीडिया पकड़ नहीं पाता है। कुछ महीने पहले तक अनुमान था कि लखनऊ की गद्दी पर बसपा की वापसी होने वाली है। पर अब ज्यादातर ओपीनियन पोल बसपा को खारिज कर रहे हैं। पर ज्यादा बड़ी बात यह है कि ये पोल अपनी साख खो चुके हैं। बहरहाल यह भी देखना है कि बीजेपी को सपा के गैर-यादव ओबीसी वोटों और बसपा के गैर-जाटव दलित वोटों में सेंध लगाने में कामयाबी मिलेगी या नहीं। और यह भी कि साम्प्रदायिक माहौल के बावजूद जाट वोट बीजेपी का साथ देगा या नहीं।
पहले दौर से ही बन जाएगा माहौल
आमतौर पर जब कई चरणों में चुनाव होता है, तब शुरुआती दौरों का माहौल बाद के चुनावों पर भी असर डालता है। सन 2012 के चुनाव में सपा के पक्ष में माहौल बातों-बातों में ही बना था। चुनाव में वोटर के बीच का वर्ड ऑफ माउथ काफी असरदार होता है। ये शुरुआती दो दौर शेष पाँच चरणों के लिए प्रस्थान-बिन्दु साबित होंगे। करीब 350 किलोमीटर लम्बी और 200 किलोमीटर चौड़ी यह पट्टी यमुना और गंगा के बीच फैली है। उत्तर प्रदेश का यह सबसे ज्यादा शहरीकरण और औद्योगीकरण इसी इलाके में हुआ है और खेती के लिहाज से भी यह प्रदेश का सबसे उर्वर इलाका है। बावजूद इसके इस इलाके में सिंचाई पर समय से निवेश न हो पाने के कारण किसानों के सामने संकट है।
इस इलाके में गेहूँ और गन्ने की फसल होती है। खेती इस इलाके का महत्त्वपूर्ण चुनावी मुद्दा है। किसान अपनी फसल का सही मूल्य न मिल पाने से परेशान हैं। गन्ना किसान को उसका पैसा मिलने में विलंब होता है, जो उसकी परेशानी का कारण है। इस इलाके में जाट, दलित और काफी बड़ी मुस्लिम आबादी है।
समृद्धि के बावजूद यह इलाका सामाजिक-दोषों का शिकार है। साक्षरता के लिहाज से यह इलाका राज्य के औसत से नीचे है। प्रति 1000 लड़कों पर 859 लड़कियों का अनुपात यहाँ की सामाजिक स्थिति को बताता है। मुजफ्फरनगर के दंगों के बाद से इस इलाके का साम्प्रदायिक माहौल भी खराब है। इन सब बातों का इस चुनाव पर प्रभाव पड़ेगा।
नई सोशल इंजीनियरी
जिस राजनीतिक सोशल इंजीनियरी का देश शिकार है उसके कुछ नए प्रयोग इस चुनाव में देखने को मिल रहे हैं। दलित और ओबीसी जातियों के भीतर कम प्रतिनिधित्व पाने वाली जातियाँ अपनी पहचान के लिए खड़ी होती नजर आ रही हैं। अभी तक बसपा को दलित जातियों की प्रतिनिधि पार्टी माना जाता है। इस पार्टी पर जाटव वर्चस्व है। इसी तरह समाजवादी पार्टी को ओबीसी की प्रतिनिधि पार्टी माना जाता है, जिसपर यादव वर्चस्व है।
जिन दलित या पिछड़ी उप जातियों का राजनीतिक प्रतिनिधित्व कम है, वे प्रतिनिधित्व के लिए सामने आ रही है। यह चुनाव इस लिहाज से महत्त्वपूर्ण साबित होगा। पिछले ढाई दशक में उत्तर प्रदेश की राजनीति जाति और सम्प्रदाय के चक्रव्यूह में फँसी रही। दूसरी और इस चुनाव में तय होगा कि प्रदेश का वोटर चाहता क्या है। सोशल इंजीनियरी का मकड़जाल या विकास की सीधी-सपाट सड़क
इस चुनाव में अखिलेश और मोदी की लोकप्रियता की परीक्षा भी होगी। केंद्र में मोदी को प्रधानमंत्री बनाने में यूपी की बड़ी भूमिका थी। प्रदेश का वोटर रास्ते खोज रहा है। उसका एक वर्ग नरेंद्र मोदी को पसंद करता है तो उसकी वजह साम्प्रदायिक नहीं हैं, बल्कि यह समझ है कि मोदी कुछ नया करना चाहते हैं। अखिलेश यादव की लोकप्रियता के पीछे भी इसी किस्म के वोटर का हाथ है।
भारतीय जनता पार्टी ने कुछ छोटे दलों से जो समझौते किए हैं वे माइक्रो लेवल पर सोशल इंजीनियरी का काम करेंगे। पार्टी ने अपना दल को और सुहेल देव भारतीय समाज पार्टी को कुछ सीटें दी हैं। पार्टी को दो नए सहयोगी और मिले हैं। आरके चौधरी की राष्ट्रीय स्वाभिमान पार्टी और कन्हैया लाल निषाद की राष्ट्रीय महान गणतंत्र पार्टी को भी एक-एक सीट दी है। ओम प्रकाश राजभर की सुहेल देव भारतीय समाज पार्टी (सुभासपा) का आधार राजभर समाज है, जिनका पूर्वी उत्तर प्रदेश में प्रभाव है।
इसी तरह अनुप्रिया पटेल के अपना दल का कुर्मी जनाधार है। सुभासपा ने सन 2007 के चुनाव में 97 सीटों पर और 2012 के चुनाव में 52 सीटों पर चुनाव लड़ा था। उसके प्रत्याशियों को 2012 में 4,77,330 वोट मिले। अपना दल ने 2012 में 76 सीटों पर चुनाव लड़ा जिसमें उसके प्रत्याशियों को 6,78, 924 वोट मिले थे। सन 2014 के लोकसभा चुनाव में अपना दल और भाजपा का गठबंधन हुआ। अब अनुप्रिया पटेल केंद्र में मंत्री हैं। इन छोटे दलों की भूमिका उन क्षेत्रों में होगी, जहाँ भाजपा के प्रत्याशी 2012 में छोटे अंतर से हारे थे।
चार पार्टियों का तिकोना मुकाबला
मैदान में अनेक छोटे दल भी हैं, पर मुख्य मुकाबले में जो चार पार्टियाँ हैं उनका अब त्रिकोणीय मुकाबला है। तीन पक्ष होने के बावजूद रणनीतियाँ चार हैं। एक नजर डालें इन चारों पर:-
समाजवादी पार्टी: इस पार्टी ने अपने ओबीसी आधार को बनाए रखते हुए विकास के रास्ते पर चलने की रणनीति अपनाई है। विकास की डोर उन्होंने नरेंद्र मोदी की सन 2014 की जीत से प्रेरित होकर थामी है। अखिलेश सरकार ने हाल के वर्षों में ग्रामीण गरीबों के अलावा शहरी सुविधाओं और इंफ्रास्ट्रक्चर पर ध्यान दिया है। लखनऊ मेट्रो के प्रतीक को उन्होंने सबसे आगे किया है। लखनऊ-आगरा एक्सप्रेसवे, नए पुलों के निर्माण, लैपटॉप वितरण के साथ-साथ उन्होंने बिजली वितरण को बेहतर बनाने की कोशिश की है। किसानों को सिंचाई के लिए मुफ्त पानी, समाजवादी पेंशन, कन्याधन जैसी योजनाएं देहाती वोटरों को आकर्षित करने के लिए हैं। कहा जाता है कि पार्टी ने छवि निर्माण के लिए विदेशी विशेषज्ञों की मदद भी ली है। बताया जाता है कि हारवर्ड के प्रोफेसर स्टीव जार्डिंग के साथ एक सौ के आसपास लोगों की टीम काम कर रही है। पार्टी को ओबीसी के यादव वोटों के अलावा मुसलमान वोटों का सहारा है।
कांग्रेस: कांग्रेस पार्टी ने हालांकि समाजवादी पार्टी के साथ गठबंधन कर लिया है, पर उसकी रणनीति कभी स्पष्ट नहीं रही है। पार्टी के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष राहुल गांधी ने सितम्बर 2016 में 2500 किलोमीटर लम्बी किसान यात्रा की, जिसके दौरान खाट चर्चाएं आयोजित की गईं। इसके दौरान उन्होंने लोन माफ, बिजली का बिल हाफ का नारा दिया। हालांकि इस यात्रा के दौरान उन्होंने अखिलेश सरकार पर कम और मोदी सरकार पर ज्यादा हमले किए, पर ‘27 साल, यूपी बेहाल’ का नारा उन्हीं दिनों गढ़ा गया। कांग्रेस को अब इस नारे को भूलना पड़ेगा। अब दोनों पार्टियों का संदेश है,यूपी को ये साथ पसंद है।’ राहुल और अखिलेश को यह स्पष्ट करना पड़ रहा है कि गठबंधन की जरूरत क्यों पड़ी। राहुल गांधी ने दो बातें और कहीं. एक तो यह कि बीजेपी को हराना हमारा मकसद है. और दूसरे यह कि बीजेपी की विचारधारा से खतरा है, बीएसपी से नहीं। इस गठबंधन की घोषणा जल्दबाजी में हुई है। इस वजह से कई सीटों पर असमंजस की स्थिति है। उत्तर प्रदेश फतह करने की कल्पनाएं ही कांग्रेसी नहीं हैं। फिलहाल उसका नेतृत्व उत्तर प्रदेश में भाजपा को हराना ज्यादा ज़रूरी समझता है। बिहार की तरह यहाँ भी भाजपा को हरा लिया तो हर गंगा। यही बड़ी उपलब्धि होगी। उनके गठबंधन की सरकार बनी तो कांग्रेस के कुछ नेताओं को मंत्रिपद मिलेंगे। उत्तर प्रदेश में पार्टी ने सपा से गठबंधन करके अपनी न्यूनतम सफलता का बीमा जरूर करा लिया है, पर यह सफलता कितनी होगी इसका अनुमान अभी नहीं है। सन 1996 में बसपा के साथ गठबंधन में कांग्रेस ने 126 सीटों पर चुनाव लड़ा था, पर जीत उसे 33 सीटों पर ही मिली थी। इस बीच दूसरी बात यह साबित हुई कि कांग्रेस इस गठबंधन के लिए व्यग्र थी।
बहुजन समाज पार्टी: सन 2012 के चुनाव में भारी पराजय और सन 2014 के लोकसभा चुनाव में पूरी तरह सफाये के बाद बहुजन समाज पार्टी ने अपनी रणनीति में बदलाव किया है। सन 2007 में उसकी विजय में प्रदेश के ब्राह्मण वोटरों की भूमिका भी थी। प्रदेश में 10 फीसदी वोटर ब्राह्मण हैं। पर लगता नहीं कि ब्राह्मण वोटर इसबार बसपा का साथ देगा। पिछले साल दयाशंकर प्रकरण के बाद से ठाकुर तो पार्टी से नाराज हुए ही सवर्ण जातियों ने भी उससे दूरी बनाई है। पार्टी ने हाल में दलित-मुस्लिम एकता पर भी काम किया है। पसमांदा मुसलमानों का एक तबका जातीय कारणों से हमेशा बसपा के साथ रहा है। उत्तर प्रदेश में मुसलमानों की 68 जातियाँ हैं, जिनमें से 35 ओबीसी हैं। प्रदेश में करीब 20 फीसदी मुसलिम वोट है। आमराय है कि मुसलमान टैक्टिकल वोटिंग करते हैं। यानी कि जो प्रत्याशी भाजपा को हराता दिखाई पड़ता है उसे वोट देते हैं। बावजूद इस धारणा के मुस्लिम वोट भी बँटता है। बसपा की उम्मीदों के पीछे मुसलमान वोट भी है।
भारतीय जनता पार्टी: बीजेपी भी अपनी जटिल सोशल इंजीनियरी और विकास के सहारे मैदान में उतरी है। उसके पास राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का मजबूत संगठनात्मक आधार है, पर पार्टी अब काडरबेस के बजाय मासबेस की दिशा में बढ़ गई है। पार्टी ने चुनाव के तीन महीने पहले से परिवर्तन यात्राओं और नरेंद्र मोदी की रैलियों के सहारे मैदान को पहले से रंग दिया है। पार्टी ‘मिशन 265 प्लस’ का लक्ष्य लेकर उतर रही है। उसने यह भी शुरू में साफ कर दिया था कि प्रदेश में मुख्यमंत्री पद के किसी प्रत्याशी का नाम घोषित नहीं किया जाएगा, इसलिए नरेंद्र मोदी ही पार्टी के ‘फेस’ या मुख के रूप में सामने हैं। बिहार में यह रणनीति सफल नहीं हुई थी, पर पार्टी की समझ है कि दोनों राज्यों की स्थिति एक जैसी नहीं है। हाल में अमित शाह ने कहा कि हमने महाराष्ट्र, झारखंड और हरियाणा में भी किसी चेहरे को आगे किए बगैर चुनाव जीते थे। जहाँ सपा-कांग्रेस गठबंधन को नोटबंदी के नकारात्मक प्रभाव से उम्मीदें हैं वहीं बीजेपी के रणनीतिकार अमित शाह को लगता है कि प्रदेश का वोटर पिछले 15 साल की अराजकता और भ्रष्टाचार के खिलाफ अपना फैसला सुनाएगा। उनका दावा है कि पार्टी को दो-तिहाई बहुमत मिल जाएगा। पार्टी को सर्जिकल स्ट्राइक से भी उम्मीद है। वह ट्रिपल तलाक से लेकर राम मंदिर तक के मुद्दे को लेकर चल रही है। सन 2014 में बीजेपी की सफलता में पश्चिमी उत्तर प्रदेश के जाट वोटर की खासी भूमिका थी। पिछले साल भाजपा के सांसद हुकुम सिंह ने कहा कि कैराना के मुस्लिम बहुल इलाके से हिन्दू परिवार पलायन कर रहे हैं। यह इलाका मुजफ्फरनगर से लगा हुआ है। पार्टी अध्यक्ष का कहना है कि देश की डबल डिजिट ग्रोथ के लिए उत्तर प्रदेश में डबल डिजिट ग्रोथ की जरूरत है। बीजेपी की सरकार आई तो वह पाँच साल में पिछले 15 साल के पिछड़ेपन को दूर करने की कोशिश करेगी। यह बात कहकर वे एकसाथ बसपा, सपा और कांग्रेस को घेरे में खड़ा कर देते हैं।
Box
पहले दो दौर में 26 जिले 140 सीटें
इन दोनों दौर में 26 जिलों की 140 सीटों पर मतदान होगा। 11 फरवरी को होने वाले पहले चरण के मतदान में 15 जिलों की 73 सीटें शामिल हैं। ये जिले हैं शामली, मुजफ्फरनगर, बागपत, मेरठ, गाजियाबाद, गौतम बुद्ध नगर, हापुड़, बुलंदशहर, अलीगढ़, मथुरा, हाथरस, आगरा, फिरोजाबाद, एटा और कासगंज। चुनाव का दूसरा चरण 15 फरवरी को होगा, जिसमें 11 जिलों के 67 विधानसभा क्षेत्रों में वोट डाले जाएंगे। ये जिले हैं सहारनपुर, बिजनौर, मुरादाबाद, संभल, रामपुर, बरेली, अमरोहा, पीलीभीत, खीरी, शाहजहांपुर और बदायूं।

Box

सपा
कांग्रेस
बसपा
भाजपा
अन्य
2012 पहला दौर 73 सीटें
24
05
24
11
09
2012 दूसरा दौर 67 सीटें
34
03
18
10
02


Box
उत्तर प्रदेश 1985 से 2012 तक सीटें और वोट प्रतिशत
लाल संख्या वोट प्रतिशत
वर्ष
1985
1989
1991
1993
1996
2002
2007
2014
2017
सीटें
425
425
419
422
424
403
403
403
403
कांग्रेस
269
39.25
94
27.90
46
17.32
28
15.08
33
8.35
25
8.96
22
8.61
28
11.65

भाजपा
16
9.8
57
11.61
221
31.45
177
33.30
174
32.52
88
20.08
51
16.97
47
15.00

सपा



109
17.94
110
21.80
143
25.37
97
25.43
224
29.13

बसपा

13
9.41
12
9.44
67
11.12
67
19.64
98
23.06
206
30.43
80
25.91

जद

208
29.71
92
18.84
27
12.33





लोद
84
21.43








जपा


34
12.52







1996 में कांग्रेस-बसपा गठबंधन। कांग्रेस 126 सीटों पर लड़ी 33 जीतीं वोट 8.36 फीसदी। बसपा 296 सीटों पर लड़ी 67 जीतीं 19.64 फीसदी वोट।
सपा 1993 में रजिस्टर्ड (गैर-मान्यता प्राप्त दल के रूप में उतरी)

नवोदय टाइम्स में प्रकाशित

No comments:

Post a Comment