आज हरियाणा और
महाराष्ट्र के चुनाव परिणाम वैसे ही रहे जैसे कि एक्ज़िट पोल बता रहे हैं तब
भारतीय राजनीति में तीन नई प्रवृत्तियाँ सामने आएंगी। भाजपा निर्विवाद रूप से देश
की सबसे प्रमुख राष्ट्रीय पार्टी बनेगी। दूसरे कांग्रेस के सामने क्षेत्रीय दल
बनने का खतरा पैदा हो जाएगा। तीसरे क्षेत्रीय दलों के पराभव का नया दौर शुरू होगा।
भाजपा को अब दिल्ली विधानसभा के चुनाव कराने का फैसला लाभकारी लगेगा। ‘मोदी लहर’ को खारिज करने वाले खारिज
हो जाएंगे। और अमित शाह के नेतृत्व में पार्टी के नए नेतृत्व को मान्यता मिल
जाएगी।
इन दोनों राज्यों में कांग्रेस
को प्रतीकात्मक सफलता भी मिली तो ठीक। वरना पार्टी अंधे कुएं में जा गिरेगी। दूसरी
ओर गठबंधन सहयोगियों के बगैर चुनाव में सफल हुई भाजपा के आत्मविश्वास में कई गुना
वृद्धि होगी। अब सवाल है कि क्या पार्टी एनडीए को बनाए रखना चाहेगी? क्या क्षेत्रीय दलों के लिए यह खतरे की घंटी है? और क्या इसके कारण राष्ट्रीय स्तर पर भाजपा-विरोधी मोर्चे
को बनाने की मुहिम जोर नहीं पकड़ेगी?
महाराष्ट्र में शिवसेना
और भारतीय जनता पार्टी के पच्चीस साल पुराने गठबंधन का टूटना भारतीय राजनीति में
एक नए दौर की आहट दे रहा है। नरेंद्र मोदी और अमित शाह की जोड़ी ने जोखिम उठाकर जो
फैसला किया वह समय की कसौटी पर सही साबित हुआ। महाराष्ट्र में भाजपा हमेशा दोयम
दर्जे की पार्टी रही। यहाँ के क्षत्रप थे बाला साहेब ठाकरे और शरद पवार। उद्धव
ठाकरे बाला साहेब के वारिस हैं, क्षत्रप नहीं। मोदी के सामने उनका सूर्यास्त हो
गया। इस बात को उद्धव ठाकरे ने देर से पहचाना। उनके ‘सामना’ ने पहले कहा कि
लोकसभा चुनाव में हम साथ न देते तो मोदी को उनके पिताजी जिता पाते। पर चुनाव होते
ही ‘सामना’ लिख रहा है कि
हमें चुनावी कड़वाहटों को भूल जाना चाहिए।
शिवसेना अभी
केंद्र सरकार में शामिल है। चुनाव परिणाम पूरी तरह भाजपा को बहुमत नहीं दे पाए तो
प्रदेश में भाजपा-शिवसेना गठबंधन फिर से कायम हो सकता है। पर मुख्यमंत्री
निर्विवाद रूप से भाजपा का होगा। भाजपा नेतृत्व की इस स्पष्ट नीति का परिणाम यह
हुआ कि प्रदेश में भाजपा नम्बर एक पार्टी के रूप में स्थापित होने जा रही है। और हरियाणा
में भाजपा का लगभग एकछत्र राज कायम होने वाला है। दोनों राज्यों में बहु-कोणीय
मुकाबले भाजपा को प्रतिष्ठापित कराने में सबसे महत्वपूर्ण कारक बनकर उभरे हैं।
भारतीय जनता
पार्टी ने पहले हरियाणा में गठबंधन तोड़ा, फिर महाराष्ट्र में। इसका मतलब यह भी निकाला जा सकता है कि राष्ट्रीय
राजनीति में बड़ा बदलाव आने वाला है। क्या भाजपा को अब राज्यों में गठबंधन के
साथियों की जरूरत नहीं रही? राष्ट्रीय राजनीति में यह
गुणात्मक बदलाव नेता नरेंद्र मोदी की जनता के बीच अपील के कारण है।
राष्ट्रीय क्षितिज पर भाजपा और दूसरी किसी पार्टी के पास इतनी अपील वाला नेता नहीं
है।
लोकसभा चुनाव के
बाद 13 राज्यों में हुए उप चुनावों में भारतीय जनता पार्टी को विफलता मिली। इसके
दो आशय निकाले गए। पहला यह कि ‘मोदी मैजिक’ खत्म हुआ। अब कांग्रेस की वापसी होगी। तीसरा यह कि बिहार
और उत्तर प्रदेश की तरह भाजपा-विरोधी मोर्चा बनाया जाए तो वह सफल होगा। तीनों
बातें महाराष्ट्र और हरियाणा के विधानसभा चुनाव में गलत साबित हुईं। लगता है कि उप
चुनावों के सदमे को नरेंद्र मोदी ने गम्भीरता से लिया या उसे रणनीति का हिस्सा
बनाया। मोदी ने उन चुनावों में प्रचार की काम नहीं किया।
वस्तुतः उन
चुनावों से किसी बड़े किस्म के राजनीतिक उलट-फेर की सम्भावना भी नहीं थी। उनके
मुद्दे स्थानीय थे, प्रचार के तरीके परम्परागत थे। पर उससे बड़ी बात यह कि उनमें
प्रभावी वोटर भी वही नहीं था, जो लोकसभा चुनाव में मोदी की जीत का कारण बना था। इस
वजह से उपचुनावों में वोट प्रतिशत काफी कम था। इसके विपरीत हरियाणा और महाराष्ट्र
विधान सभा चुनाव में रिकॉर्ड मतदान हो गया। यह तथ्य इस बात को रेखांकित करता है ‘मोदी माइनस भाजपा’ को हराना आसान
है, ‘मोदी प्लस भाजपा’ का महत्व समझना
चाहिए। पार्टी के कार्यकर्ता का मोदी पर भरोसा है। मोदी ही वह चेहरा है जो वोट
खींच सकता है।
पार्टी नेतृत्व
को समझ में आ रहा है कि इस वक्त भाजपा सहयोगियों पर अपनी निर्भरता कम कर सकती है। क्या
पंजाब में अकाली दल और आंध्र में तेदेपा के साथ भाजपा के रिश्ते बदलेंगे? इस सवाल का जवाब फिलहाल हाँ में नहीं दिया जा सकता। दोनों
ही राज्यों में भाजपा का आधार इतना मजबूत नहीं है कि वह अकेले चल सके। यह भी सच है
कि पंजाब में अकाली दल का साथ लोकसभा चुनाव में भाजपा पर भारी पड़ा। अरुण जेटली की
हार के पीछे एक बड़ा कारण अकाली दल की अलोकप्रियता भी थी।
हरियाणा में
भाजपा की जीत पंजाब में भाजपा की आत्मनिर्भरता को बढ़ाएगी, हालांकि आज वहाँ
अकाली-भाजपा गठबंधन टूटने की कल्पना नहीं करनी चाहिए। यदि दिल्ली में चुनाव हुए और
वहाँ भाजपा सरकार बनी तो उत्तर भारत में भाजपा कार्यकर्ताओं के आत्मविश्वास में
वृद्धि होगी। भाजपा के सामने उत्तर प्रदेश और बिहार फिर भी पहेली बने रहेंगे,
क्योंकि वहाँ के जातीय समीकरणों का तोड़ उसके पास नहीं है। फिलहाल शाह-मोदी रणनीति
है कि वे इन चुनावों में पार्टी को जितना आगे ले जा पाएंगे, उतना ही भविष्य
के लिए अच्छा होगा।
फिर भी यह कहना
अभी सम्भव नहीं कि गठबंधन युग खत्म हो गया। फिलहाल यही कह सकते हैं कि भाजपा की महत्वाकांक्षा
अब और बढ़ेंगी। देश की सामाजिक संरचना को देखते हुए राज्यों में क्षेत्रीय क्षत्रप
रहेंगे। वे भाजपा के हों या किसी और पार्टी के। जिन राज्यों में भाजपा के अपने
क्षत्रप हैं वहाँ की बात अलग है, पर जहाँ उसकी उपस्थिति नई है वहाँ उसे स्थानीय
सहयोगियों की जरूरत होगी ही। जैसे तमिलनाडु, केरल और आंध्र। हाल में बंगाल में
उसने बगैर किसी सहयोगी के प्रवेश किया है।
यदि कांग्रेस का
ह्रास हुआ तो उसकी जगह भाजपा को अपने आप मिल जाएगी जैसे पूर्वोत्तर के राज्यों
में। दूसरे मोदी सरकार के पाँच साल यदि ठीक से चले तो पार्टी की राष्ट्रीय
उपस्थिति बेहतर हो जाएगी। फिर भी यह देश गठबंधनों से मुक्त नहीं होगा। फिलहाल देश
में गठबंधनों का फॉर्मूला है कि राज्य में क्षेत्रीय दल की प्रमुखता और केंद्र में
राष्ट्रीय दल की सत्ता। पर हरियाणा और महाराष्ट्र में भाजपा ने इस सूत्र को पलट
दिया है। इसका एक बड़ा कारण यह है कि शिवसेना के पास अब क्षेत्रीय क्षत्रप नहीं
हैं और न हरियाणा में देवी लाल जैसा नेता। इनका स्थान मोदी ले रहे हैं। यह बात सभी
राज्यों पर लागू नहीं होती। संयोग है कि मोदी के उत्थान के समांतर कांग्रेसी
नेतृत्व का पराभव हो रहा है।
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