महात्मा गांधी के चरखा यज्ञ की सामाजिक भूमिका पर कम लोगों
ने ध्यान दिया होगा। देशभर के लाखों लोग जब चरखा चलाते थे, तब कपड़ा बनाने के लिए
सूत तैयार होता था साथ ही करोड़ों लोगों की ऊर्जा एकाकार होकर राष्ट्रीय ऊर्जा में
तबदील होती थी। प्रतीकात्मक कार्यक्रमों का कुशलता से इस्तेमाल व्यावहारिक रूप से
बड़े परिणाम भी देता है। जैसे लाल बहादुर शास्त्री के ‘जय जवान, जय किसान’ के
नारे ने संकट के मौके पर देश को एक कर दिया। यह एकता केवल संकटों का सामना करने के
लिए ही नहीं चाहिए, बल्कि राष्ट्रीय निर्माण के लिए भी इसकी जरूरत है। भ्रष्टाचार
के खिलाफ अन्ना-आंदोलन या निर्भया मामले में जनता के रोष के पीछे भी यह राष्ट्रीय
एकता खड़ी थी। इस एकता या सर्वानुमति की अक्सर जरूरत होगी, क्योंकि हमारी व्यवस्था
इतनी प्रभावशाली नहीं है कि सारे काम हल करके दे दे। उसे प्रभावशाली बनाने के लिए
भी जनांदोलनों की जरूरत है।
गांधी के राष्ट्रीय आंदोलन के पहले महाराष्ट्र की गणेश-पूजा
और बंगाल की दुर्गा पूजा ने जनता की ऊर्जा को संघनित करने का चमत्कार किया था।
इसके समांतर आर्य समाज के सामाजिक सुधार आंदोलन, डीएवी स्कूल, अलीगढ़ मुस्लिम
विश्वविद्यालय और खालसा विद्यालय जैसे शिक्षा आंदोलनों ने बदलाव में महत्वपूर्ण
भूमिका निभाई थी। व्यक्ति और समष्टि के रिश्ते को लगातार बनाए रखने की जरूरत है। 2
अक्तूबर के ‘स्वच्छ भारत’ को इस नजरिए से देखें तो यह कार्यक्रम राष्ट्रीय परिवर्तन का एक
महत्वपूर्ण संदेश देता है। यदि हम इसमें शामिल हो जाएं तो इसे सफल बनते देर नहीं
लगेगी। यह केवल सफाई का कार्यक्रम नहीं है। यह सामाजिक स्वास्थ्य का कार्यक्रम है,
जिसे ठीक से लागू किया जाए तो तमाम बुनियादी समस्याओं को हम हल कर सकते हैं।
नव-गठित लोकसभा के पहले सत्र में राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी
ने अपने अभिभाषण में नई सरकार की प्राथमिकताओं को गिनाया था। इनमें एक प्राथमिकता
थी, ‘स्वच्छ भारत’ की
स्थापना। नरेंद्र मोदी का नारा है, 'पहले शौचालय, फिर देवालय।' राष्ट्रपति ने इसी तर्ज पर कहा,
देश भर मे ‘स्वच्छ भारत मिशन’ चलाया जाएगा और ऐसा करना
महात्मा गांधी को उनकी 150वीं जयंती पर हमारी श्रद्धांजलि होगी जो वर्ष 2019 में
मनाई जाएगी। सरकार चाहती है कि देश के लोग खुले में शौचालय जाने की मजबूरी से
मुक्त हों। ज्यादा बड़े लक्ष्य बाद में पूरे हों, पहले यह लक्ष्य तो पूरा हो। इस
साल 2 अक्तूबर को सरकारी कर्मचारियों ने छुट्टी के बजाय दफ्तरों में जाकर सफाई का
अभियान शुरू किया।
मोदी सरकार के इस अभियान का एक राजनीतिक पहलू भी है। इसके
आलोचकों ने इसमें दो खामियाँ खोजीं। पहली खामी यह कि इसके पीछे प्रतीकात्मकता
ज्यादा है, वास्तविकता कम। यानी यह सब प्रचार पाने की बातें हैं। और दूसरा यह कि
यह कार्यक्रम तो कांग्रेस पार्टी की सरकार पहले से ‘निर्मल भारत’ अभियान के रूप से चला रही थी। इसमें नया क्या है? नरेंद्र मोदी की सरकार अपने लक्ष्यों
को पूरा कर पाएगी या नहीं यह बात तो भविष्य में साबित होगी। अलबत्ता इतना नजर आ
रहा है कि मोदी जन-भावनाओं को जगाने में सफल हैं। उनके अभियान में तमाम लोग बेमन
से शामिल हुए, पर यह मानने वालों की संख्या बड़ी है कि हम सब मिलकर चाहेंगे तो
सूरत बदलेगी।
यह सच है कि ‘निर्मल भारत’ और ‘स्वच्छ भारत’ में शब्दों का हेर-फेर है। पर दोनों के ट्रीटमेंट में फर्क है। इस लिहाज
से ‘गरीबी-हटाओ’
तो और भी पुराना कार्यक्रम है। अब यदि कोई अगले पाँच साल में गरीबी हटाने में
कामयाब हो जाए तो क्या यह माना जाएगा कि यह इंदिरा गांधी ने पहले ही कह दिया था। केन्द्रीय
ग्रामीण स्वच्छता कार्यक्रम 1986 में शुरू हुआ था। उसे 2012 में संपूर्ण स्वच्छता अभियान में
रूपांतरित किया गया। इसमें सन 2022 तक के कुछ लक्ष्य रखे गए हैं। बेशक यह
महत्वपूर्ण कार्यक्रम है, पर इसकी गति धीमी है। अब सरकार अगले पाँच साल में इसे
पूरा कर लेना चाहती है। इस लिहाज से इसमें नयापन है। दूसरे इसमें देश के हर वर्ग
की भूमिका बढ़ाने की बात है। जन-अभियान के रूप में भी यह नया है। तीसरे यह
सार्वजनिक स्वास्थ्य, पेयजल और प्रदूषण से जुड़ा मसला भी है। अंततः यह गरीबी हटाओ
के ज्यादा बड़े लक्ष्य से जुड़ता है। इसे देश के नए शहरी विकास के साथ भी जोड़ा
जाना चाहिए। यह आधुनिक भारत के निर्माण की दिशा में पहला कदम है।
हम अपने शहरों को सिंगापुर जैसा चमकदार और नदियों को लंदन
की टेम्स नदी की तरह साफ बनाना चाहते हैं। सिंगापुर और टेम्स को चमकदार और साफ
बनने के पहले मुश्किल सफर पूरा करना पड़ा है। करीब डेढ़ सौ साल पहले लंदन टाइम्स
ने टेम्स नदी की सड़ांध पर कलम चलानी शुरू की थी। सन 1858 की उस ‘ग्रेट स्टिंक’ के कारण
ब्रिटेन की संसद कुछ समय के लिए बंद कर दी गई थी। औद्योगीकरण और शहरीकरण ने
बर्मिंघम, लंदन और मैनचेस्टर जैसे शहरों में कचरे के अम्बार लगा दिए थे। सीवर
लाइनें उफन गईं। उनका पानी टेम्स नदी में मिलने लगा। यह समस्या बढ़ती गई। हैजे और
दस्त से बच्चे मरने लगे। सन 1890 के दशक में ग्रेट ब्रिटेन में जन्म लेने वाले
प्रति 1000 बच्चों में से 160 की मौत होने लगी। यह दर आज के कई अफ्रीकी देशों की
शिशु मृत्यु दर के आसपास है। बहरहाल सार्वजनिक स्वच्छता के महत्व को उस समाज ने
पहचाना। सार्वजनिक स्वास्थ्य की परिकल्पना भी लगभग उसी समय विकसित हुई।
आप रेलगाड़ी से सफर करें तो तकरीबन हर महानगर में प्रवेश के
पहले जब गाड़ी धीमी होती है तब आप पटरी के किनारे शौच के लिए बैठे लोगों को देखते
हैं। हम इसे मजबूरी के रूप में देखते हैं। लगता है कि इसका समाधान कभी होगा ही
नहीं। लड़कियाँ स्कूल पढ़ने नहीं जातीं, क्योंकि उनके लिए वहाँ शौचालय नहीं हैं।
मंगल तक अपना यान भेजने वाला देश अपने नागरिकों के लिए इतनी बुनियादी व्यवस्था
नहीं कर पाया। ऐसा इसलिए नहीं हुआ क्योंकि हमने इसे बड़ी समस्या नहीं माना। हम अभी
तक सिर्फ गरीबी, सिर्फ सामाजिक न्याय, सिर्फ सार्वजनिक स्वास्थ्य, सिर्फ स्त्रियों
की दशा या इसी किस्म की किसी एक समस्या पर खुद को केंद्रित करते रहे हैं। बुनियादी
समस्याएं एक-दूसरे से जुड़ी हैं। इनके हल इसलिए नहीं होते क्योंकि हमारी इच्छा
शक्ति में कमी है। गंदगी हमारे दिमाग में बैठी है। सफाई सम्भव है बशर्ते सरकार और
जनता के बीच करार हो। बेशक रातों-रात समस्याएं दूर नहीं होतीं, पर इच्छा हो तो कुछ
देर में ही सही दूर होती हैं।
सही कहा आपने बिना सामूहिक इच्छा शक्ति के आशातीत सफलता मिलना सम्भव नहीं ....
ReplyDeleteबहुत बढ़िया प्रेरक सामयिक चिंतन ..
अच्छी रचना !
ReplyDeleteकृपया मेरे ब्लॉग पर भी आये और फॉलो कर अपने सुझाव दे !
Aap ne bahut theek kaha hai. Sarkaar dwara ghoshit ker dene se hi ABHIYAN safal nahi ho sakte. Pooran ichha shakti aur sahyog se hi saflta milegi.Janta ko saath aana hoga.
ReplyDeletePost it
ReplyDeleteपूरी तरह से सहमत हूँ आपसे। स्वयं शून्य
ReplyDeleteबहुत सारगर्भित आलेख...
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