इस साल का नोबेल शांति-पुरस्कार एक विसंगति की ओर इशारा कर रहा है। इस
पुरस्कार की घोषणा जिस वक्त हुई है उस वक्त भारत और पाकिस्तान की सुरक्षा सेनाएं
जम्मू-कश्मीर की नियंत्रण रेखा पर एक अघोषित युद्ध लड़ रहीं है। दोनों देश एटम
बमों से लैस हैं, दोनों के पास दुनिया के बेहतरीन शस्त्रास्त्र हैं, दोनों बदलाव
के एक महत्वपूर्ण दौर से गुज़र रहे हैं और दोनों के नागरिकों के सामने भोजन, आवास,
शिक्षा, स्वास्थ्य और न्याय की बुनियादी सुविधाओं का संकट है। नोबेल पुरस्कार
समिति ने संयुक्त पुरस्कार क्या सोचकर दिया कहना मुश्किल है, पर दोनों देशों के
नागरिकों को इस पुरस्कार के गहरे निहितार्थ को समझने की कोशिश करनी चाहिए। यह
पुरस्कार मलाला और कैलाश सत्यार्थी से ज्यादा इन दोनों देशों के लिए महत्वपूर्ण
है।
इस पुरस्कार का संदेश है कि बे-वजह बारूद का धुआं उड़ाने के बजाय अपनी
दुश्वारियों के हल खोजो। हल जो हमारे ही लोगों ने सुझाए हैं। दुश्वारियों के पहाड़ों
को पार करने वाले इरादे भी हमारे बीच में हैं। मलाला युसुफज़ई को एक कट्टरपंथी
सोच-समझ ने गोली मारी तो बड़ा तबका उसके पक्ष में खड़ा हो गया। वहाँ आज भी इस
मामले के अंतर्विरोध कायम हैं। दूसरी ओर भारत में काफी बड़ी संख्या में लोगों ने
कैलाश सत्यार्थी का नाम भी नहीं सुना था। पता तब लगा, जब उनके काम को दुनिया की
सबसे प्रतिष्ठित अलंकरण समिति ने मान्यता दी। यह पुरस्कार ऐसे तमाम द्वंद्वों को
रेखांकित करता है।
कैलाश सत्यार्थी को प्रेरणा देने वाले समाजसेवी स्वामी अग्निवेश ने इस
पुरस्कार की घोषणा के बाद अपने एक आलेख में लिखा है, “अकेले हमारे भारत
में कोई पांच करोड़ बच्चे बाल मजदूरी, बाल तस्करी, शोषण और अन्य
सामाजिक बुराइयों से त्रस्त हैं। यह संख्या वही है, जो हम आप-सुनते आ
रहे हैं, या जो कहीं आंकड़ों के रूप में उपलब्ध हैं, मगर सच्चाई इससे
भी कड़वी हो सकती है। पड़ोसी देश पाकिस्तान, अफगानिस्तान, बांग्लादेश और
नेपाल में स्थिति और बुरी हो सकती है... लेकिन दुनिया की
शीर्षस्थ सम्मान संस्था ने इस तरफ हमारा ध्यान आकर्षित किया है, इसके लिए हमें
सचमुच नोबेल अकादमी का शुक्रगुजार होना चाहिए।”
यह पुरस्कार हमें सोचने-विचारने का एक मौका देता है। क्या हम अपनी समस्याओं को
समझना चाहते हैं? हाल में नवरात्रि
के दौरान दिल्ली में जगह-जगह कैम्प लगाकर लोग मीठा पानी पिलाने और आलू-कचौड़ी
खिलाने पर जुटे थे। बाकी पूरे साल गरीब आदमी प्यासा रहने को अभिशप्त है। आज़ादी के
पहले तक समाज सेवकों के मन में स्कूल, अस्पताल या प्याऊ खोलने की इच्छा पैदा हो जाती थी। इधर आपने
कोई खैराती दवाखाना या स्कूल खुलते देखा? देश में बाल मजदूरी पर पाबंदी है, पर आपको दिल्ली
के संसद भवन के पास काम करते बच्चे मिल जाएंगे।
सन 1990 में अमेरिकी राजनीति
शास्त्री मायरन वीनर ने इस बात को रेखांकित किया कि बच्चों से मजदूरी करवाने और
उन्हें शिक्षा से वंचित रखने में भारत निराला देश है। दुनिया के तमाम ग़रीब देशों से
भी इस मामले में भारत गिरा हुआ है। हम महाशक्ति बनना चाहते हैं, पर शिक्षा की
भूमिका को समझ नहीं पाए हैं। सामाजिक न्याय की राजनीति करने वालों को भी इस तरफ
सोचने की फुरसत नहीं रही। दिसम्बर 2002 में संविधान के 86वें संशोधन के बाद शिक्षा के अधिकार का कानून बनने में आठ
साल लगे। सही अर्थ में यह शिक्षा का अधिकार है भी नहीं।
संविधान में राज्य के नीति निर्देशक तत्वों के तहत अनुच्छेद 45 में कहा गया था
कि राज्य यह संविधान लागू होने के दस वर्ष के भीतर 14 साल की उम्र के सभी बच्चों को नि:शुल्क
अनिवार्य शिक्षा देने की व्यवस्था करेगा। ऐसा नहीं हो पाया। 86वें संशोधन के
बाद संविधान के भाग 3 में अनुच्छेद 21-ए जोड़ा गया है।
इसके अनुसार राज्य 6 से 14 साल तक के
बच्चों को फ्री और अनिवार्य शिक्षा देगा। यानी 6 वर्ष तक की आयु के बच्चों की ज़िम्मेदारी अब भी
सरकारी नहीं है। 6 साल तक के
बच्चों की देख-रेख और शिक्षा की ज़िम्मेदारी नीति-निर्देशक तत्वों के अनुच्छेद 45 में डाल दी गई
है।
शिक्षा के अधिकार के पहले सन 2002 से सरकार का सर्वशिक्षा अधिकार कार्यक्रम चल रहा था। इसका
लक्ष्य सन 2010 तक 6-14 आयु वर्ग के सभी
बच्चों को स्कूल में दाखिला दिलाना था। यह लक्ष्य पूरा नहीं हो पाया। ये सिर्फ
दाखिला दिलाने के लक्ष्य हैं। बच्चे स्कूलों में रहते हैं या नहीं और वे कक्षा 8 तक पढ़ते हैं या
नहीं इसे देखने की व्यवस्था नहीं है। सन 1990 में मायरन वीनर का अनुमान था कि 6 से 14 साल की उम्र के
करीब 8.2 करोड़ बच्चों
में आधे से ज्यादा शिक्षा प्रणाली से बाहर थे। आज भी सरकार का अनुमान है कि तकरीबन एक करोड़ बच्चे शिक्षा
प्रणाली से बाहर हैं।
बुनियादी बात यह है कि बच्चों को और शिक्षा को ज़रूरी एजेंडा मानें, उसके बाद रास्ते
पर आगे बढ़ें। पाकिस्तान में केवल पढ़ाई का ही नहीं लड़कियों की पढ़ाई का विरोध
करने वाली ताकतें सक्रिय हैं। उस समाज में मलाला बदलाव की लहर लेकर आई हैं और
लड़कियों की रोल मॉडल बनकर उभरी हैं। इसके विपरीत वहाँ मलाला का विरोध भी है। मलाला
की जीत पर जहां एक ओर खुशी मनाई जा रही है वहीं दूसरी ओर इसको लेकर विरोध के स्वर
भी सुनाई दे रहे हैं। सोशल मीडिया पर बधाई के साथ-साथ अपमानजनक टिप्पणियां भी
देखने को मिल रही हैं। पाकिस्तानी टीवी चैनलों में भी इसे मामूली ढंग से पेश किया
गया है। 'पाकिस्तान ऑब्ज़र्वर' अख़बार के संपादक
तारिक़ खटक़ ने इस फ़ैसले की आलोचना करते हुए कहा, "यह राजनीतिक
फ़ैसला है और एक साजिश है।"
सीमा पर गोलाबारी की पृष्ठभूमि में नोबेल शांति पुरस्कार की घोषणा की ओर सबका
ध्यान गया है। नोबेल पुरस्कार समिति के अध्यक्ष और नॉर्वे के पूर्व प्रधानमंत्री ठॉर्यन
जागलैंड से जब भारत के एक अख़बार ने पूछा कि क्या यह दोनों देशों के बीच टकराव
रोकने की कोशिश है तब उन्होंने कहा कि दुनिया में कहीं भी टकराव रोका जा सके तो
इससे बेहतर और क्या होगा। सबसे अच्छा प्रतिक्रिया मलाला की है। उसने कहा, मैं
चाहती हूँ कि 10 दिसम्बर को नोबेल पुरस्कार समारोह में दोनों देशों के प्रधानमंत्री
आएं। शायद सायास या अनायास हुआ है कि नरेंद्र मोदी ने मलाला को भी बधाई दी, पर
पाकिस्तानी प्रधानमंत्री का बधाई संदेश सिर्फ मलाला के नाम है। बहरहाल इस फैसले के
राजनीतिक पहलू पर ध्यान न दें। सामाजिक लिहाज से यह दोनों देशों के लिए ही नहीं
पूरी दुनिया के लिए महत्वपूर्ण मौका है।
यह पुरस्कार मलाला और कैलाश सत्यार्थी से ज्यादा इन दोनों देशों के लिए महत्वपूर्ण है।..
ReplyDeleteदोनों देशो के नाम सन्देश छोड़ते अशांति में शांति पुरूस्कार
ReplyDeleteसमकालीन मुद्दे उठाती बेहतरीन पोस्ट। भारत की सर्वग्राही गरीबी ही अपढ़ता की जड़ है भला कौन नहीं अपने बच्चों को पढ़ाना न चाहेगा जीवन की मूलभूत ज़रूरियातें तो पूरी होवें। प्रमोद जोशी जी ने विमर्श के लिए दरवाज़े खोल दिए हैं दोनों देश के बीच।
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