नरेंद्र मोदी की सरकार वोटर को संतुष्ट करने में कामयाब है
या नहीं इसका संकेतक महाराष्ट्र और हरियाणा के चुनावों को माना जाए तो कहा जा सकता
है कि जनता फिलहाल सरकार के साथ खड़ी है। और अब लगता है कि सरकार आर्थिक नीतियों
से जुड़े बड़े फैसले अपेक्षाकृत आसानी से करेगी। सरकार ने कोल सेक्टर और
पेट्रोलियम को लेकर दो बड़े फैसले कर भी लिए हैं। मई में नई सरकार बनने के बाद के
शुरूआती फैसलों में से एक पेट्रोलियम उत्पादों की कीमतों से जुड़ा था। फिर प्याज,
टमाटर और आलू की कीमतों को लेकर सरकार की किरकिरी हुई। मॉनसून भी अच्छा नहीं रहा।
अंदेशा था कि दीपावली के मौके पर मतदाता मोदी सरकार के प्रति अपनी नाराज़गी व्यक्त
करेगा। पर ऐसा हुआ नहीं। जैसाकि हर साल होता है दीपावली के ठीक पहले सब्जी मंडियों
में दाम गिरने लगे हैं। टमाटर और प्याज अब आसानी से खरीदे जा सकते हैं। फूल गोभी
सस्ती होने लगी है। मूली 10 रुपए किलो पर बिक रही है और इसके भी नीचे जाएगी। नया
आलू आने के बाद उसके दाम गिरेंगे। वित्तमंत्री को लगता है कि अर्थ-व्यवस्था की
तीसरी और चौथी तिमाही काफी बेहतर होने वाली है।
जिस सबसे बड़े फैसले का भारत के उद्योग-व्यापार जगत को
इंतज़ार है, वह है ब्याज की दरों का। मुद्रास्फीति के नवीनतम आँकड़े गिरावट का
संकेत दे रहे हैं। फिर भी अभी ब्याज की दरें गिरेंगी नहीं, क्योंकि रिज़र्व बैंक
को भरोसा नहीं है कि वे अपेक्षित सीमा तक गिरेंगी। शायद यही वजह है कि जुलाई और
अगस्त में औद्योगिक उत्पादन 0.5 और 0.4 फीसदी ही बढ़ पाया। हमारी भारी ब्याज दरों
की वजह से पूँजी हासिल कर पाना महंगा सौदा हो गया है। रिज़र्व बैंक ने
मुद्रास्फीति से जुड़े जो मानक बनाए हैं उन्हें देखें तो जनवरी 2016 तक ब्याज दरें
कम कर पाना सम्भव नहीं। पर औद्योगिक उत्पादन, भवन निर्माण और उपभोक्ता सामग्री में
तेजी लाने के लिए ब्याज दरों का भी नीचे आना जरूरी है। ये दोनों सेक्टर रोज़गार
बढ़ाने में भी अपनी भूमिका अदा करते हैं। सम्भव है कि अगले कुछ महीनों में दरें
गिरने का संकेत मिले।
अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष की छमाही रपट में अगले साल भारत
की संवृद्धि दर 6.4 फीसदी होने की सम्भावना व्यक्त की गई है। पिछले साल भारत की
विकास दर पांच फीसद से भी नीचे चली गई थी। कह सकते हैं कि अर्थ-व्यवस्था पटरी पर
वापस आ रही है। संकेत यह भी है कि सरकार अब आर्थिक सुधार से जुड़े बड़े फैसले
करेगी। यह भी सच है कि राजनीतिक लिहाज से सरकार के पास केवल लोकसभा में ताकत है।
राज्यसभा में उसकी स्थिति अच्छी नहीं है। पर महाराष्ट्र और हरियाणा की नई
विधानसभाओं के संख्याबल को देखते हुए कहा जा सकता है कि उसकी स्थिति सुधरेगी। पर
इसमें समय लगेगा। सन 2017 में जाकर राज्यसभा में भाजपा की स्थिति सुखद हो पाएगी।
उसके पहले सरकार को महत्वपूर्ण विधेयकों को पास कराने के लिए कांग्रेस तथा अन्य
दलों की मदद लेनी होगी।
हाल के दो बड़े फैसलों ने सरकार की दिशा का संकेत दिया है। शनिवार
को सरकार ने पेट्रोलियम क्षेत्र से जुड़े कुछ बड़े फैसले किए थे। और अब कोयला
क्षेत्र में सरकार ने काफी बड़ा कदम उठाया है। कोल ब्लॉक आवंटन को रद्द करने के
सुप्रीम कोर्ट के फैसले से जो असमंजस पैदा हुआ था उसे दूर करते हुए सरकार ने कोयला
ब्लॉकों की नीलामी का रास्ता साफ कर दिया है और नीलामी की पारदर्शी व्यवस्था की
घोषणा की है। यह नीलामी इंटरनेट के जरिए होगी। कैबिनेट ने अध्यादेश जारी करने की
सिफारिश राष्ट्रपति को भेज भी दी है। अध्यादेश इन ब्लॉकों की जमीन सरकार के पास
लौटाने का रास्ता साफ करेगा।
इसके पहले सरकार ने डीजल को नियंत्रण मुक्त करने की घोषणा
की थी। इसके साथ ही डीज़ल की कीमतों में कीमतें 3 रुपए 37 पैसे की कमी आ गई। वित्तमंत्री अरुण जेटली ने बताया कि जिस
प्रकार पेट्रोल की कीमतों को बाजार से जोड़ दिया गया था उसी प्रकार अब डीजल भी
बाजार के हवाले कर दिया गया है। एलपीजी सिलेंडरों की सब्सिडी सीधे उपभोक्ताओं के
खाते में ट्रांसफर की जाएगी। 10 नवंबर से खाता में राशि ट्रांसफर का काम शुरू कर दिया
जाएगा। इसी उद्देश्य से जन-धन योजना के तहत करोडों खाते खुलवाए गए हैं। पेट्रोलियम
सब्सिडी खत्म होने का सीधा प्रभाव मुद्रास्फीति पर भी पड़ेगा। हमारा आयात व्यय कम
होने से विदेशी मुद्रा का दबाव कम होगा। रुपए की कीमत बढ़ेगी। संयोग से डीजल के
दाम नियंत्रण मुक्त करने का यह सुनहरा मौका था। अंतरराष्ट्रीय बाजार में तेल के
दाम चार साल के सबसे निचले स्तर पर हैं। रिजर्व बैंक के गवर्नर रघुराम राजन ने हाल
में सरकार को सुझाव दिया था कि 'इस मौके का फायदा उठाएं।' इस वक्त मुद्रास्फीति पाँच साल के सबसे निचले स्तर पर है और
तेल कंपनियां पहली बार डीजल पर मुनाफा कमा रही हैं।
पेट्रोलियम सब्सिडी का इतिहास भारत की राजनीति के खोखलेपन
की कहानी कहता है। देश में पेट्रोलियम की कीमतों को नियंत्रण-मुक्त करने का मूल
प्रस्ताव सन 1997 में तत्कालीन प्रधानमंत्री इन्द्र कुमार गुजराल ने रखा था। सरकार
ने उसे पूरी तरह लागू करने की तारीख मार्च 2002 तय कर दी थी। हालांकि तब तक केंद्र
में एनडीए की सरकार आ चुकी थी, पर उसने भी सन 2001 के बजट में आश्वस्त किया था कि
मार्च 2002 तक पेट्रोलियम को नियंत्रण मुक्त कर दिया जाएगा। ऐसा हुआ भी पर वह
सरकार भी मौके पर घबरा गई और 2004 के चुनावों को ध्यान में रखते हुए उसने पेट्रोल
की कीमतों को बढ़ने से रोक लिया और राजकीय कोष पर एक बोझ बढ़ा दिया। इसके बाद आई
यूपीए सरकार के पेट्रोलियम मंत्री मणिशंकर अय्यर ने नियंत्रण फिर से लागू कर दिए।
बहरहाल सन 2008 की वैश्विक मंदी के बाद से केंद्र सरकार पर
सब्सिडी को काबू में लाने का दबाव था। यह काम चरण बद्ध तरीके से अब पूरा हो पाया
है। जून 2010 में पेट्रोल की कीमतों को नियंत्रण मुक्त किया गया। इसके
साथ ही पिछले साल जनवरी में डीजल के दाम में हर महीने 50 पैसे लीटर वृद्धि का फैसला किया। पेट्रोल के दाम अब कच्चे
तेल की अंतरराष्ट्रीय कीमतों के हिसाब से ही तय होते हैं। पिछले अगस्त के बाद से इसमें
पांच बार कमी की जा चुकी है। उधर डीजल बिक्री से होने वाला नुकसान या अंडर रिकवरी
समाप्त हो चुकी है और तेल कंपनियों को सितंबर के दूसरे पखवाड़े से मुनाफा होने
लगा। वित्त मंत्री ने पेट्रोलियम सब्सिडी के लिए इस साल के बजट में 63,400 करोड रुपये का प्रावधान किया था जो कि पिछले वित्त वर्ष के
मुकाबले 25 प्रतिशत कम था। अब लगता है कि सरकार पर सब्सिडी का बोझ और
कम हो जाएगा।
डीजल कीमतों को नियंत्रण मुक्त करना मोदी सरकार का बड़ा
सुधारवादी कदम माना जा रहा है। देशी और विदेशी निवेशकों के लिए यह इस बात का संदेश
है कि सरकार अब आर्थिक मजबूती पर ध्यान देगी। अब बाजार बीमा संशोधन विधेयक जैसे कई
अन्य सुधारों की उम्मीद कर रहा है। घरेलू शेयर बाजार में इस साल अब तक करीब 26
फीसदी की तेजी आ चुकी है और यह भविष्य के अनुमानों के आगे चला गया है। बहरहाल
सरकार अब बीमा संशोधन, जीएसटी और इंफ्रास्ट्रक्चर की रुकी परियोजनाओं को चालू
कराने तथा ग्रामीण रोजगार योजना की शक्ल बदलने के काम में लग सकती है। वस्तु एवं
सेवा कर (जीएसटी) पर संविधान संशोधन विधेयक पारित कराने के लिए उसे अन्य दलों के
समर्थन की भी जरूरत होगी। इस विधेयक के लिए उसे करीब आधे राज्यों से भी स्वीकृत
कराना होगा।
अभी वित्त आयोग की रिपोर्ट का इंतज़ार भी है। यह रिपोर्ट
केंद्र-राज्य संसाधनों को लेकर जितनी महत्वपूर्ण है उतनी ही अब योजना आयोग को
समाप्त करने की प्रक्रिया के लिहाज से भी महत्वपूर्ण है। इसके साथ ही उसके ऊपर
भारतीय उद्यमियों के पास फँसी पड़ी राष्ट्रीय बैंकों की काफी बड़ी रकम को वापस
लाने और विदेशी बैंकों में जमा भारत के काले धन का विवरण हासिल करने की जिम्मेदारी
भी है। इस दौरान सरकार ने अपनी संरचना में भी बदलाव किया है। एक नए मुख्य आर्थिक
सलाहकार अरविंद सुब्रह्मण्यम और वित्त सचिव राजीव महर्षि की नियुक्ति की घोषणाएं
इस दिशा में पहला कदम है। इस साल अरुण जेटली ने जो बजट पेश किया था वह कमोबेश यूपीए
के बजट का ही अगला चरण था। अगला बजट नई सरकार का मौलिक बजट होगा। फिलहाल हम अभी
संकट के बाहर नहीं हैं, पर कह सकते हैं कि यह दीपावली अर्थव्यवस्था और सरकार दोनों
के लिए शुभ संकेत दे रही है।
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