पी चिदंबरम के ताज़ा वक्तव्य से इस बात का आभास नहीं मिलता
कि कांग्रेस के भीतर परिवार से बाहर निकलने की कसमसाहट है। बल्कि विनम्रता के साथ
कहा गया है कि सोनिया गांधी और राहुल को ही पार्टी का भविष्य तय करना चाहिए। हाँ,
सम्भव है भविष्य में नेहरू-गांधी परिवार से बाहर का कोई नेता पार्टी अध्यक्ष बन जाए।
इस वक्त पार्टी का मनोबल बहुत गिरा हुआ है। इस तरफ तत्परता से ध्यान देने और
पार्टी में आंतरिक परिवर्तन करने का अनुरोध उन्होंने ज़रूर किया। पर यह अनुरोध भी
सोनिया और राहुल से है। साथ ही दोनों से यह अनुरोध भी किया कि वे जनता और मीडिया
से ज्यादा से ज्यादा मुखातिब हों। इस मामले में उन्होंने भाजपा को कांग्रेस से
ज्यादा अंक दिए हैं।
एनडीटीवी को कांग्रेस के प्रति झुकाव रखने वाला चैनल माना
जाता है और बरखा दत्त की पहुँच कांग्रेस के सर्वोच्च नेतृत्व तक है। इस नजरिए से
देखें तो चिदंबरम का निहितार्थ स्पष्ट है। अलबत्ता पराजय के बाद मीडिया से मुखातिब
होने की यह पहली गम्भीर कोशिश ज़रूर लगती है। बात जिस तरीके से रखी गई है उससे
लगता है कि शायद यह कांग्रेस के अंतर-मंथन की शुरुआत है या उसका एक हिस्सा है।
इसमें यह अंदेशा नहीं है कि गांधी परिवार का नेतृत्व नहीं रहा तो क्या होगा। हाँ
इस बात को आगे बढ़ाने की कोशिश है कि भविष्य का नेतृत्व किस प्रकार का हो।
सवाल रणनीति से ज्यादा उन शक्तियों का भी है जो कांग्रेस को
चलाती हैं। उनमें से कुछ को लगता है कि परिवार की ताकत अब कारगर नहीं रही। सन 1969
के बाद से कांग्रेस की आंतरिक प्रक्रियाएं उतनी पारदर्शी नहीं रहीं जितनी उसके
पहले थीं। उस वक्त पार्टी की टूट शुद्ध रूप से व्यक्तिगत थी। तब ऐसा लगता था कि
पार्टी का पुरातनपंथी और दक्षिणपंथी तबका इंदिरा गांधी का विरोध कर रहा है। सन
1971 तक पार्टी पूरी तरह इंदिरामय हो गई थी। इमर्जेंसी में देवकांत बरुआ ने ‘इंदिरा इज़ इंडिया’
घोषित कर दिया था। कुछ समय तक पार्टी का नाम कांग्रेस (इंदिरा) था, बाद में कांग्रेस
(संगठन) का अस्तित्व खत्म होता गया और कांग्रेस की नई पारिवारिक शक्ल उभरती गई।
इंदिरा गांधी नए विचार और नई ऊर्जा के साथ सामने आईं थीं।
आज वह ऊर्जा कांग्रेस से नरेंद्र मोदी ने छीन ली।
सोनिया गांधी अपेक्षाकृत संतुलित नेता हैं, पर वे किसी
करिश्मे के कारण शिखर पर नहीं हैं, बल्कि परिवार के कारण हैं। परिवार से बाहर का
कोई नेता कभी पार्टी अध्यक्ष बना भी तब वह राम के इंतज़ार में बैठे भरत जैसा
अध्यक्ष होगा। कांग्रेस के इतिहास में सन 1977 की पराजय का विशेष महत्व है। उसके
बाद ही 1978 में इंदिरा गांधी पाटी की अध्यक्ष बनीं थीं। फिर पहले संजय गांधी और
फिर बाद में राजीव गांधी को राजनीति में लाया गया। सिर्फ इसलिए कि विकल्प परिवार
के भीतर से ही होगा। इंदिरा गांधी 1984 तक अध्यक्ष रहीं और उनकी हत्या के बाद 1984
से 1991 तक राजीव गांधी। पीवी नरसिंह राव और सीताराम केसरी का कार्यकाल पार्टी के
भीतर की ऊहापोह का काल था। उस दौरान पार्टी को खानदान से अलग करने की कोशिशें भी
हुईं। जिस का खामियाजा पद से हटने के बाद नरसिंहराव को और फिर केसरी को भुगतना
पड़ा।
सोनिया गांधी कांग्रेस के इतिहास में सबसे लम्बी अवधि की
अध्यक्ष हैं। राहुल गांधी नम्बर दो हैं। सवाल है कि क्या पार्टी संज़ीदगी के साथ
नए विकल्पों पर विचार कर रही है?
या फिर राहुल के हाथ में बागडोर सौंपने के लिए सही समय का इंतजार है? क्या अब औपचारिक रूप से उन्हें अध्यक्ष बनाया जाएगा? सोनिया का पदारोहण सहज नहीं था। मार्च 1998 में उन्हें अध्यक्ष बनाने के
पहले तत्कालीन अध्यक्ष सीताराम केसरी को नाटकीय तरीके से हटाया गया था।
सोनिया 1997 के कोलकाता अधिवेशन में पार्टी की प्राथमिक
सदस्य बनीं और उसके कुछ महीनों के भीतर उन्हें पार्टी अध्यक्ष बनाया गया। उन्हें
नेता पद पर लाने में पार्टी के ही वरिष्ठ नेताओं की भूमिका थी।
सवाल है कि क्या कांग्रेस के प्रभावी नेता पार्टी को
नेहरू-गांधी परिवार की छाया से बाहर ले जाना चाहते हैं? क्या परिवार से बाहर पार्टी के प्रभावी
नेता हैं? या पार्टी में केवल वे लोग ही बचे हैं जो परिवार
की छाया के सहारे खुद को स्थापित करने का उपक्रम करते हैं?
इस बात पर यकीन नहीं होता कि कांग्रेस पार्टी परिवार की छाया से बाहर निकलने की कभी
कोशिश करेगी और यह काम शांतिपूर्वक तरीके से हो जाएगा। चिदंबरम ने भी ऐसा नहीं कहा
कि पार्टी परिवार की छत्रछाया से बाहर निकलेगी। उन्होंने सिर्फ माना कि शायद कभी
ऐसा हो। परिवार पार्टी की धुरी है और कमज़ोरी भी।
श्रीमती सोनिया गांधी की उम्र 67 वर्ष है। वे इतनी उम्रदराज
नहीं हैं कि संन्यास लें। उनके स्वास्थ्य को लेकर चिंताएं जरूर हैं, पर परिवार के
भीतर से नए नेता का उभर कर नहीं आ पाना चिंता की असली वजह है। बहरहाल पार्टी के
आंतरिक चुनाव का कार्यक्रम घोषित हो गया है। मार्च-अप्रैल तक चुनाव होंगे। पार्टी
के नए अध्यक्ष के बारे में बातचीत का ज्यादा समय नहीं बचा। महाराष्ट्र और हरियाणा
की रैलियों में राहुल गांधी कोई खास प्रभावशाली साबित नहीं हुए। वे पार्टी के
संगठनात्मक ढाँचे में बदलाव की कोशिश कर रहे हैं, पर उसका चुनावी लाभ नहीं मिल
रहा। क्या वे अब अपने कार्यक्रम को आगे ले जाएंगे? क्या वे प्रदेशों में युवा अध्यक्षों को स्थापित करने की
स्थिति में हैं? क्या
वे पार्टी में नए और पुरानों के टकराव को रोकने की स्थिति में हैं?
ऐसे तमाम सवाल अब उठने वाले हैं।
दो राज्यों में पराजय के बाद कांग्रेस अब क्षेत्रीय पार्टी
के रूप में भी नहीं बची है। हालांकि कहने को देश के नौ राज्यों में उसका अब भी शासन
है, पर ये राज्य कौन से हैं?
कर्नाटक, केरल, हिमाचल प्रदेश और उत्तराखंड। इन चार के बाद हैं असम, अरुणाचल
प्रदेश, मिजोरम, मेघालय और मणिपुर। लोकसभा में इन नौ राज्यों की कुल जमा 78 सीटें
हैं। यानी उत्तर प्रदेश की कुल सीटों से दो कम। जिस तरह पार्टी का आंध्र प्रदेश,
उड़ीसा, तमिलनाडु और बंगाल से सफाया हुआ है उसे देखते हुए लगता है कि पूर्वोत्तर
के राज्यों में भी उसकी यही दशा होगी। है। मई में पराजय के बाद पार्टी की ओर से
कहा गया कि हम दुबारा जीतकर आएंगे। पर कैसे? उम्मीद का कारण कांग्रेस की नई छवि या आक्रामक नेतृत्व न होकर यह भरोसा
है कि मोदी भी एक दिन फेल होंगे। सच यह है कि कई राज्यों में पार्टी दूसरे नम्बर
पर भी नहीं है। मोदी फेल भी हुए और भाजपा हार भी गई तो क्या कांग्रेस की वापसी हो
जाएगी? आपके पास है इस सवाल का जवाब?
हरिभूमि में प्रकाशित
achcha lekh hai
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