जम्मू-कश्मीर के मामले में दो बातें समझ ली जानी चाहिए।
पहली यह कि इस मामले को संयुक्त राष्ट्र में भारत लेकर गया था न कि पाकिस्तान। 1
जनवरी 1948 को भारत ने यह मामला उठाया और इसमें साफ तौर पर पाकिस्तान की ओर से
कबायलियों और पाकिस्तानी सेना के जम्मू-कश्मीर में प्रवेश की शिकायत की गई थी। यह
मसला अंतरराष्ट्रीय कानून के तहत किसी फोरम पर कभी नहीं उठा। भारत की सदाशयता के
कारण पारित सुरक्षा परिषद के प्रस्ताव के एक अंश को पाकिस्तान आज तक रह-रहकर उठाता
रहा है, पर पूरी स्थिति को कभी नहीं बताता। 13 अगस्त 1948 के प्रस्ताव को लागू
कराने को लेकर पाकिस्तान संज़ीदा था तो उसी समय पाकिस्तानी सेना जम्मू-कश्मीर
छोड़कर क्यों नहीं चली गई और उसने कश्मीर में घुस आए कबायलियों को वापस पाकिस्तान
ले जाने की कोशिश क्यों नहीं की? प्रस्ताव के अनुसार पहला काम उसे
यही करना था।
वस्तुतः संयुक्त राष्ट्र प्रस्ताव अपनी मियाद भी खो चुका है
और महत्व भी। सुरक्षा परिषद दिसम्बर 1948 में ही यह बात मान चुकी थी कि यदि
पाकिस्तान की दिलचस्पी अपनी सेना हटाने में नहीं है तो इसे भारत पर भी लागू नहीं
कराया जा सकता। यह बात पाकिस्तान के नेता भी जानते हैं। लम्बे अरसे तक उन्होंने इस
सवाल को उठाना बंद रखा, पर पिछले दो दशक से उन्होंने इसे अंतरराष्ट्रीय मंचों पर उठाना
शुरू कर दिया है। जैसाकि इस बार प्रधानमंत्री नवाज़ शरीफ ने संयुक्त राष्ट्र
महासभा में किया और उनके सुरक्षा सलाहकार सरताज अजीज़ ने संयुक्त राष्ट्र महासचिव
बान-की मून को चिट्ठी लिखकर किया। यह चिट्ठी मूलतः पाकिस्तानी जनता और राजनेताओं
का ध्यान देश की समस्याओं की और से हटाने के लिए लिखी गई थी।
मुशर्रफ ने ‘किनारे’ रख दिया था
अंतरराष्ट्रीय समाचार एजेंसी रायटर ने 18 दिसम्बर 2003 को
पाकिस्तान के राष्ट्रपति परवेज़ मुशर्रफ के इंटरव्यू पर आधारित एक समाचार जारी
किया था, जिसमें उन्होंने कहा था कि हमारा देश संयुक्त राष्ट्र प्रस्ताव को ‘किनारे रख चुका है’
(लेफ्ट एसाइड) और कश्मीर समस्या के समाधान के लिए आधा रास्ता खुद चलने को तैयार
है। यह बात आधा शिखर वार्ता (14-16 जुलाई 2001) के बाद की है। जून 1972 के शिमला
समझौते की तार्किक परिणति थी कि पाकिस्तान की और से इस मामले को अंतरराष्ट्रीय
मंचों पर उठाना बंद हो जाना चाहिए था। इसमें यह प्रावधान किया गया कि दोनों देश
अपने संघर्ष और विवाद समाप्त करने का प्रयास करेंगे और यह वचन दिया गया कि
उप-महाद्वीप में स्थाई मित्रता के लिए कार्य किया जाएगा।
भारत की ओर से प्रधानमंत्री पीवी नरसिंहराव, एचडी देवेगौडा,
इंद्रजीत गुजराल, अटल बिहारी वाजपेयी और मनमोहन सिंह ने इस बात को साफ किया है कि
कश्मीर पर कोई भी समझौता भारतीय संविधान के दायरे में ही सम्भव है। नब्बे के दशक
में जब पाकिस्तानी प्रधानमंत्री बेनज़ीर भुट्टो बार-बार कह रहीं थीं कि कश्मीर का
मसला विभाजन के बाद बचा अधूरा काम है। इस पर प्रधानमंत्री पीवी नरसिंहराव ने कहा
कि पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर की भारत में वापसी ही अधूरा रह गया काम है। वह समय था
जब कश्मीर में हिंसा चरमोत्कर्ष पर थी।
भारतीय संसद का प्रस्ताव
बढ़ती हुई आतंकवादी हिंसा के मद्देनज़र भारतीय संसद के
दोनों सदनों ने 22 फरवरी 1994
को सर्वसम्मति से प्रस्ताव पारित किया और इस बात पर जोर दिया कि सम्पूर्ण
जम्मू-कश्मीर भारत का अभिन्न अंग है। इसलिए पाकिस्तान को अपने कब्जे वाले राज्य के
हिस्सों को खाली करना होगा संकल्प में कहा गया, जम्मू और कश्मीर भारत का अभिन्न
अंग रहा है, और रहेगा तथा उसे देश के बाकी हिस्सों से अलग
करने के किसी भी प्रयास का सभी आवश्यक साधन के द्वारा विरोध किया जाएगा। प्रस्ताव
में कहा गया कि पाकिस्तान बल पूर्वक कब्जाए हुए भारतीय राज्य जम्मू और कश्मीर
क्षेत्रों को खाली करे।
इस प्रस्ताव की जरूरत इसलिए पड़ी क्योंकि उस दौर में कश्मीर
में आतंकी गतिविधियाँ अपने चरम पर थीं। एक दिक्कत यह है कि भारत जिन गतिविधियों को
आतंकी कहता है पाकिस्तान उन्हें आतंकी गतिविधियाँ नहीं मानता। यह बात जगजाहिर है
कि पाकिस्तान में सेना की मदद से सैनिक प्रशिक्षण के कैम्प चलते हैं। यही नहीं 26
नवम्बर 2008 को मुम्बई पर हुए हमले के बाद यह बताने के लिए किसी प्रमाण की जरूरत
भी नहीं रही कि इस हिंसा के पीछे पाकिस्तान के सत्ता प्रतिष्ठान का हाथ है।
पाकिस्तान खुद को आतंकवाद से पीड़ित देश कहता है, पर यह स्वीकार नहीं करता कि सब
कुछ उसका ही किया-धरा है। पाकिस्तान की विडंबना है कि कश्मीर को उसने राष्ट्रीय
राजनीति का केंद्रीय विषय बना लिया है, जबकि उसका इससे कोई वास्ता नहीं है। भारत
की ओर से इस मसले पर उतना कठोर रवैया नहीं अपनाया गया, जितना पाकिस्तान की और से
अपनाया गया है।
अप्रासंगिक हो सकती है नियंत्रण रेखा
हालांकि पीवी नरसिंह राव ने कहा था कि पाकिस्तान अधिकृत
कश्मीर की मुक्ति का काम ही विभाजन के बाद का बचा अधूरा काम है, पर भारतीय दृष्टि
इस मसले को व्यावहारिक धरातल पर सुलझाना चाहती है। नियंत्रण रेखा पर आवागमन को
स्वीकार करके एक प्रकार से भारत सरकार ने उस तरफ के कश्मीर के अस्तित्व को स्वीकार
कर लिया है। 13 अप्रैल 1956 को जवाहर लाल नेहरू ने पाकिस्तान से कहा था, “मैं मानता हूँ कि युद्ध विराम रेखा के पार
का क्षेत्र आपके पास रहे। हमारी इच्छा उसे लड़ाई लड़कर वापस लेने की नहीं है।” पिछले दस साल में तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह कहते रहे हैं कि
नियंत्रण रेखा को भी अप्रासंगिक बनाया जा सकता है। उन्होंने यह भी कहा है कि अब
कोई नई सीमा रेखा नहीं खींची जाएगी। कश्मीर के लिए अब कोई अभिनव समाधान चाहिए।
सीमा पर आवागमन शुरू करके दोनों देश इस समाधान की और बढ़े भी हैं, पर कट्टरपंथी
ताकतें उसमें अड़ंगा लगा देती हैं।
9 दिसम्बर 2003 को भारत में पाकिस्तान के उच्चायुक्त अजीज
खान ने कोलकाता में कहा, ‘हम
मानते हैं कि भारत और पाकिस्तान हमेशा रंज़िश के लिए नहीं बने हैं...हमें सहयोग
चाहिए, टकराव नहीं।’ पर सच यह है कि पाकिस्तान के भीतर एक तबका
है जिसे भारत के साथ टकराव बनाए रखना पाकिस्तान के अस्तित्व को बनाए रखने वाली
जीवन रेखा जैसा लगता है। पाकिस्तान के साथ रिश्ते सामान्य न हो पाने का प्रभाव
पूरे दक्षिण एशिया पर पड़ रहा है। यह इलाका यदि सहयोग के रास्ते पर चले तो दुनिया
के सफलतम इलाकों में शामिल हो सकता है, यहाँ की राजनीति इसमें बाधा बन रही है।
मोदी सरकार का कड़ा रुख
दिल्ली में नरेंद्र मोदी की सरकार आने के बाद कम से कम दो
बातें ऐसी हुईं हैं जिनसे संकेत मिलता है कि अब भारत सरकार का रुख कश्मीर को लेकर
कड़ा होगा। जुलाई में भारत सरकार ने दिल्ली स्थित संयुक्त राष्ट्र सैनिक
पर्यवेक्षक आयोग का दफ्तर खाली करने का आदेश दिया। यह आयोग सन 1949 में कश्मीर में
युद्ध विराम रेखा पर होने वाले घटनाक्रम पर नजर रखने के लिए बनाया गया था। इसके
दफ्तर श्रीनगर और दिल्ली के अलावा मुजफ्फराबाद और इस्लामाबाद में भी हैं। भारत
सरकार का दूसरा महत्वपूर्ण कदम था पाकिस्तानी उच्चायुक्त द्वारा हुर्रियत के
प्रतिनिधियों से बातचीत करने पर 25 अगस्त को होने वाली सचिव स्तर की वार्ता को
रद्द करना। ये दोनों बातें प्रतीकात्मक हैं, पर बदले हुए हालात को बता रहीं हैं। पाकिस्तान
का रह-रहकर संयुक्त राष्ट्र की और भागना बता रहा है कि वह भारत के ताज़ा रुख से
परेशान है। इसमें दो राय नहीं कि समस्या के समाधान के लिए बातचीत होनी चाहिए, पर
सीमा पर गोलीबारी और संयुक्त राष्ट्र महासचिव से गुहार करने से तो काम नहीं चलेगा।
बेहतर हो कि पाकिस्तान संयुक्त राष्ट्र प्रस्ताव का जिक्र करना बंद करे।
आपकी उत्कृष्ट प्रस्तुति रविवार के - चर्चा मंच पर ।।
ReplyDeleteDispute between india and Pakistan sguld be settled by indian government, amendment in article 377,is not a hard nut to creak. Indian prime minister shuld be a dictator for this matter. We are enough strong to defend our mother land...if America can invasion in Afghanistan then why we need the permission of United nation organisation???
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