Thursday, March 9, 2023

चीन को काबू करने की कोशिशें और भारत

 देस-परदेश

अमेरिका-चीन और भारत-1

ताज़ा खबर है कि चीन ने इस साल 5 फीसदी संवृद्धि का लक्ष्य तय किया है, जो पिछले 35 वर्षों का सबसे नीचा स्तर है. चीनी संसद में प्रधानमंत्री ली ख छ्यांग ने अपने कार्यकाल के अंतिम दिन यह घोषणा की है. सन 1978 में जबसे चीन ने अपनी अर्थव्यवस्था को खोला है उसकी संवृद्धि औसतन नौ फीसदी तक रही है, पर अब उसमें ठहराव आ रहा है.

इसके पीछे सबसे बड़ा कारण है तीन साल तक चली कोविड-19 महामारी. उधर तरफ अमेरिका के नेतृत्व में पश्चिमी खेमे की कोशिश है कि चीन के आर्थिक और सैनिक विस्तार पर किसी तरह से रोक लगाई जाए. जिस तरह पहले अमेरिका ने सोवियत संघ को काबू में करने की कोशिशें की थीं, अब उसी तर्ज पर वह चीन को काबू करने का प्रयास कर रहा है.

क्या अमेरिका अपने इस प्रयास में सफल होगा? बड़ी संख्या में पर्यवेक्षक मानते हैं कि इसमें देर हो चुकी है. चीन अब अमेरिका के दबाव में आने वाला नहीं है. अब शीतयुद्ध की तरह दुनिया की अर्थव्यवस्था दो भागों में विभाजित नहीं है. वह आपस में जुड़ी हुई है. वह एक-ध्रुवीय भी नहीं है, पर अब दो-ध्रुवीय भी नहीं रहेगी, जैसी कि चीनी मनोकामना है.

दुनिया अब बहुध्रुवीय होने जा रही है. इसमें एक बड़ी भूमिका भारत की होगी. यह भूमिका केवल दुनिया को बहुध्रुवीय बनाने वाली ही नहीं है, बल्कि विश्व-व्यवस्था में संतुलन स्थापित करने की है. पर उसके पहले हमें चीन की जवाबी ताकत बनना होगा.

जी-20 की बैठकें

पिछले कुछ वर्षों में पश्चिमी देशों की चीन-विरोधी रणनीति ने धीरे-धीरे अपनी जगह बनाई है. इसमें सबसे बड़ी भूमिका पिछले साल यूक्रेन पर हुए रूसी सैनिक हस्तक्षेप ने निभाई है. यूक्रेन में रूसी हठ के पीछे चीन का हाथ नज़र आने लगा है. पिछले हफ्ते भारत में हुई जी-20 की दो मंत्रिस्तरीय बैठकों में वैश्विक-राजनीति का यह टकराव खुलकर सामने आया. बेंगलुरु में वित्तमंत्रियों और केंद्रीय बैंकों के गवर्नरों तथा दिल्ली में विदेशमंत्रियों की बैठक, विश्व-व्यवस्था पर कोई आमराय बनाए बगैर ही संपन्न हो गईं.

हालांकि भारतीय-नजरिए में औपचारिक बदलाव नहीं है, पर इस घटनाक्रम का दूरगामी असर होगा, जिसके संकेत मिलने लगे हैं. नवंबर में जी-20 का शिखर सम्मेलन जब होगा, तब ज्यादा बड़ी चुनौतियाँ सामने आएंगी. जी-20 की बैठकों के फौरन बाद शुक्रवार को दिल्ली में हुई क्वॉड विदेशमंत्रियों की बैठक से इस मसले के अंतर्विरोध और ज्यादा खुलकर सामने आए हैं.

कांग्रेस के फैसले, मर्जी परिवार की


राहुल गांधी की भारत-जोड़ो यात्रा और कांग्रेस के नवा रायपुर-अधिवेशन को जोड़कर देखें, तो लगता है कि विचारधारा, संगठन और चुनावी रणनीति की दृष्टि से पार्टी नया कुछ गढ़ना नहीं चाहती है। वह राहुल गांधी सिद्धांतपर चल रही है, जो 2019 के चुनाव के पहले तय हुआ था। पार्टी के कार्यक्रमों पर नजर डालें, तो 2019 के घोषणापत्र के न्याय कार्यक्रम की कार्बन कॉपी हैं। इसमें न्यूनतम आय और स्वास्थ्य के सार्वभौमिक अधिकार को भी शामिल किया गया है। तब और अब में फर्क केवल इतना है कि पार्टी अध्यक्ष अब मल्लिकार्जुन खड़गे हैं, जिनकी अपनी कोई लाइन नहीं है। संयोग से परिणाम वसे नहीं आए, जिनका दावा किया जा रहा है, तो जिम्मेदारी खड़गे साहब ले ही लेंगे।  

कार्यक्रमों पर नज़र डालें, तो दिखाई पड़ेगा कि पार्टी ने बीजेपी के कार्यक्रमों की तर्ज पर ही अपने कार्यक्रम बनाए हैं। नयापन कोई नहीं है। इस महाधिवेशन से दो-तीन बातें और स्पष्ट हुई हैं। कांग्रेस अब सोनिया गांधी से बाद की राहुल-प्रियंका पीढ़ी के पूरे नियंत्रण में है। अधिवेशन में जो भी फैसले हुए, वे परिवार की मर्जी को व्यक्त करते हैं। पार्टी में पिछली पीढ़ी के ज्यादातर नेता या तो किनारे कर दिए गए हैं या राहुल की शरण में चले गए हैं। जी-23 जैसे ग्रुप का दबाव खत्म है।

दूसरी तरफ राहुल-सिद्धांत की विसंगतियाँ भी कायम हैं। राहुल ने खुद को ‘सत्याग्रही’ और भाजपा को ‘सत्ताग्रही’ बताया। नौ साल सत्ता से बाहर रहना उनकी व्यथा है। दूसरी तरफ पार्टी का अहंकार बढ़ा है। वह विरोधी दलों से कह रही है कि हमारे साथ आना है, तो हमारे नेतृत्व को स्वीकार करो। बगैर किसी चुनावी सफलता के उसका ऐसा मान लेना आश्चर्यजनक है। सवाल है कि गुजरात में मिली जबर्दस्त हार के बावजूद पार्टी के गौरव-गान के पीछे कोई कारण है या सब कुछ हवा-हवाई है?  पार्टी मान कर चल रही है कि राहुल गांधी का कद बढ़ा है। उनकी भारत-जोड़ो यात्रा ने चमत्कार कर दिया है। छोटे से लेकर बड़े नेताओं तक ने भारत-जोड़ो जैसा यशोगान किया, वह रोचक है।  

यात्रा की राजनीति

हालांकि यात्रा को पार्टी के कार्यक्रम के रूप में शुरू नहीं किया गया था और उसे राजनीतिक कार्यक्रम बताया भी नहीं गया था, पर पार्टी यह भी मानती है कि इस यात्रा ने पार्टी में प्राण फूँक दिए हैं और अब ऐसे ही कार्यक्रम और चलाए जाएंगे, ताकि राहुल गांधी के ही शब्दों में उनकी तपस्या के कारण पैदा हुआ उत्साह भंग न होने पाए। तपस्या बंद नहीं होनी चाहिए। जयराम रमेश ने फौरन ही पासीघाट (अरुणाचल) से पोरबंदर (गुजरात) की पूर्व से पश्चिम यात्रा की घोषणा भी कर दी है, जो जून या नवंबर में आयोजित की जाएगी। यह यात्रा उतने बड़े स्तर पर नहीं होगी और पदयात्रा के साथ दूसरे माध्यमों से भी हो सकती है।

बहरहाल यात्रा की राजनीति ही अब कांग्रेस का रणनीति है। उनकी समझ से बीजेपी के राष्ट्रवाद का जवाब। बीजेपी पर हमला करने के लिए कांग्रेस ने वर्तमान चीनी-घुसपैठ के राजनीतिकरण और 1962 में चीनी-आक्रमण के दौरान तैयार हुई राष्ट्रीय-चेतना का श्रेय लेने की रणनीति तैयार की है। नरेंद्र मोदी के मेक इन इंडिया औरआत्मनिर्भर भारत जैसे कार्यक्रमों की देखादेखी अधिवेशन में पारित एक प्रस्ताव में कहा गया है कि देश के उत्पादों के बढ़ावा देने का समय आ गया है। इसके लिए मझोले और छोटे उद्योगों, छोटे कारोबारियों को संरक्षण देने तथा जीएसटी को सरल बनाने की जरूरत है।

Sunday, March 5, 2023

पूर्वोत्तर के परिणामों के निहितार्थ


पूर्वोत्तर के तीनों राज्यों के चुनाव परिणामों को कम से कम तीन नज़रियों से देखने की ज़रूरत है। एक, बीजेपी की इस इलाके में पकड़ मजबूत होती जा रही है, कांग्रेस की कम हो रही है और तीसरे विरोधी दलों की एकता का कोई फॉर्मूला इस इलाके में सफल होता दिखाई नहीं पड़ रहा है। त्रिपुरा, मेघालय और नगालैंड में बन रही तीनों सरकारों में बीजेपी का शामिल होने का राजनीतिक संदेश है। बहरहाल बीजेपी उत्तर में पंजाब और दक्षिण के दो राज्यों तमिलनाडु और केरल में अपेक्षाकृत कमज़ोर है। फिर भी कांग्रेस के मुकाबले उसकी अखिल भारतीय उपस्थिति बेहतर हो गई है। तीन राज्यों के चुनावों के अलावा हाल में कुछ और घटनाएं आने वाले समय की राजनीति की दिशा का संकेत कर रही हैं।

चुनावों का मौसम

कांग्रेस के नजरिए से इनमें पहली घटना है राहुल गांधी की भारत-जोड़ो यात्रा और फिर उसके बाद नवा रायपुर में हुआ पार्टी का 85वाँ महाधिवेशन। इन दोनों कार्यक्रमों में बीजेपी को पराजित करने की रणनीति और बनाने और विरोधी-एकता कायम करने की बातें हुईं। विरोधी-एकता की दृष्टि से तेलंगाना के खम्मम में और फिर पटना में हुई दो रैलियों और चेन्नई में द्रमुक सुप्रीमो एमके स्टालिन के जन्मदिन के समारोह पर भी नजर डालनी चाहिए। इन तीनों कार्यक्रमों में विरोधी दलों के नेता जमा हुए, पर तीनों की दिशाएं अलग-अलग थीं। बहरहाल 2024 का बिगुल बज गया है। अब इस साल होने वाले छह विधानसभा चुनावों पर नजरें रहेंगी, जिनमें लोकसभा चुनाव का पूर्वाभ्यास होगा। अगले दो-तीन महीनों में कर्नाटक में विधानसभा-चुनाव होंगे। इसके बाद नवंबर में छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश और मिजोरम में। फिर दिसंबर में राजस्थान और तेलंगाना में।

परिणाम कुछ कहते हैं

पूर्वोत्तर के तीनों राज्यों में यथास्थिति बनी रही। तीनों जगह बीजेपी सत्ता में थी और इसबार भी तकरीबन वही स्थिति है। त्रिपुरा में मामूली फर्क पड़ा है, जहाँ बीजेपी की ताकत पिछली बार के मुकाबले कम हुई है, पर वहाँ वाममोर्चे और कांग्रेस के गठबंधन को वैसी सफलता नहीं मिली, जिसकी उम्मीद की जा रही थी। बीजेपी ने चुनाव के कुछ महीने पहले राज्य में नेतृत्व परिवर्तन करके माणिक साहा को लाने का जो दाँव खेला था, वह सफल रहा। पूर्वोत्तर के इस राज्य को बीजेपी कितना महत्व दे रही है, इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि नई सरकार के शपथ-ग्रहण समारोह में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृहमंत्री अमित शाह के उपस्थित रहने की संभावनाएं जताई जा रही हैं। यह समारोह 8 मार्च को होगा, जब देश होली मना रहा होगा।

सीपीएम का गढ़ टूटा

पश्चिमी बंगाल के साथ त्रिपुरा वाममोर्चे का गढ़ हुआ करता था। वह गढ़ अब टूट गया है। इसकी शुरुआत 2018 में हो गई थी, जब बीजेपी 35 सीटें जीतकर सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी थी। उसने सीपीएम के 25 साल के गढ़ को ध्वस्त किया था। इसबार सीपीएम और कांग्रेस का गठबंधन था। पिछले चुनाव में जीत के बाद बीजेपी ने बिप्लब देव को मुख्यमंत्री बनाया था, लेकिन मई 2022 में माणिक साहा को मुख्यमंत्री बनाया गया। इसबार के चुनाव में भाजपा ने सभी 60 सीटों पर चुनाव लड़ा।  उसे 32 सीटें मिली हैं। एक सीट उसके सहयोगी संगठन आईपीएफटी को मिली। लेफ्ट-कांग्रेस के गठबंधन ने (क्रमश: 47 और 13 सीटों) पर और टिपरा मोथा पार्टी ने 42 सीटों पर चुनाव लड़ा। इस तरह राज्य में त्रिकोणीय मुकाबला था। सीपीएम को 11 और कांग्रेस को 3 और टिपरा मोथा पार्टी को 13 सीटें मिली हैं। असम के बाद त्रिपुरा दूसरा ऐसा राज्य है, जहाँ बीजेपी ने अपना आधार काफी मजबूत कर लिया है।

Friday, March 3, 2023

विरोधी-एकता या अनेकता की आहट


कांग्रेस के रायपुर महाधिवेशन और पूर्वोत्तर के तीन राज्यों से मिले चुनाव-परिणामों से आगामी लोकसभा चुनाव से जुड़ी कुछ संभावित प्रवृत्तियों के दर्शन होने लगे हैं। खासतौर से विरोधी दलों की एकता और कांग्रेस की रणनीति स्पष्ट हो रही है। राहुल गांधी की भारत-जोड़ो यात्राके बाद कांग्रेस का उत्साह बढ़ा है, पर इस उत्साह का लाभ चुनावी राजनीति में फिलहाल मिलता दिखाई नहीं पड़ रहा है। सबसे बड़ी बात है कि विरोधी-दलों की एकता के रास्ते में उसी किस्म की बाधाएं दिखाई पड़ रही हैं, जो पिछले कई दशकों में देखी गई हैं।

तृणमूल कांग्रेस की नेता ममता बनर्जी ने कहा है कि बीजेपी, कांग्रेस और सीपीएम के बीच लेन-देन का रिश्ता कायम हो गया है और आने वाले दिनों में हम इनके राजनीतिक नाटक का पटाक्षेप करेंगे। 2024 के चुनाव में तृणमूल और जनता का सीधा गठबंधन होगा और हम किसी पार्टी के साथ गठबंधन नहीं करेंगे। जनता के समर्थन से हम अकेले लड़ेंगे।

ममता बनर्जी के बयान से यह नहीं मान लेना चाहिए कि भविष्य में वे किसी गठबंधन में शामिल नहीं होंगी। राजनीति में किसी भी वक्त कुछ भी संभव है और चुनाव-24 का असली गठबंधन चुनाव के ठीक पहले ही होगा। दूसरे भारत की राजनीति में अब पोस्ट-पोल गठबंधनों का मतलब ज्यादा होता है। फिर भी कांग्रेस और तृणमूल के बीच बढ़ती बदमज़गी की अनदेखी भी नहीं की जा सकती है।

पूर्वोत्तर के चुनाव

तीन राज्यों के चुनाव पर नज़र डालें, तो साफ दिखाई पड़ता है कि कांग्रेस ने अपनी बची-खुची ज़मीन भी खो दी है। चुनाव के पहले मेघालय में कांग्रेस के भीतर हुई बगावत का परिणाम सामने है। ममता बनर्जी का कहना है कि उनकी पार्टी ने इस राज्य में केवल छह महीने पहले ही प्रवेश किया था, फिर भी उसे 13.78 फीसदी वोट मिले, जो कांग्रेस के 13.14प्रतिशत के करीब बराबर ही हैं। दोनों पार्टियों को पाँच-पाँच सीटें मिली हैं। 2018 के चुनाव में यहाँ से कांग्रेस को 21 सीटें मिली थीं और उसे 28.5 प्रतिशत वोट मिले थे। इन 21 में से 12 विधायकों ने हाल में कांग्रेस को छोड़कर तृणमूल का दामन थाम लिया था।

Wednesday, March 1, 2023

भारत-पाक संवाद: रास्ते बनाइए, भले ही पथरीले हों


 देस-परदेश

भारत और पाकिस्तान के रिश्तों को लेकर हाल में कुछ खबरें ऐसी सुनाई पड़ीं, जिन्हें एकसाथ जोड़कर पढ़ने की इच्छा होती है. हालांकि इन खबरों की पृष्ठभूमि अलग है और उनका आपस में सीधे कोई संबंध नहीं है, पर उनसे दोनों देशों के ठंडे-गर्म रिश्तों की शिद्दत का पता लगता है.

पहली खबर है पाकिस्तानी सेना के पूर्व डीजी आईएसपीआर मेजर जनरल (सेनि) अतहर अब्बास ने हाल में 14वें कराची लिटरेचर फेस्टिवल के दौरान हुई एक चर्चा में कहा कि भारत और पाकिस्तान के बीच सेना के बजाय किसी दूसरे स्तर पर बातचीत होनी चाहिए. ऐसा पाकिस्तान के हित में जरूरी है.

दूसरी खबर है पाकिस्तान की मदद को लेकर भारत के विदेशमंत्री एस जयशंकर का दो टूक बयान. पाकिस्तान इन दिनों गंभीर आर्थिक संकट का सामना कर रहा है. जयशंकर से एक इंटरव्यू में पूछा गया कि क्या ऐसे में हम पाकिस्तान की सहायता कर सकते हैं?  

उन्होंने जवाब दिया कि स्वाभाविक रूप से पड़ोसियों की  चिंताएं हैं और एक भावना है कि हमें उनकी मदद करनी चाहिए. कल अगर किसी और पड़ोसी को कुछ हो जाता है तो भी यही होगा, लेकिन आप जानते हैं कि पाकिस्तान के लिए देश में क्या भावना है?  जयशंकर ने श्रीलंका के आर्थिक संकट के दौरान भारत की सहायता का जिक्र किया और कहा कि श्रीलंका के साथ हमारे संबंध अलग हैं.

पड़ोसी का धर्म

ध्यान दें पिछले साल पाकिस्तान में जबर्दस्त बाढ़ आई थी, जिसमें भारी जान-माल का नुकसान हुआ था. आमतौर पर अतीत में दोनों देशों में जिसपर भी प्राकृतिक आपदा आई, दूसरे ने मदद की है. पर इसबार की आपदा में भारत ने पाकिस्तान की सहायता नहीं की. भारत ने संभवतः सहायता का मन बनाया था, पर पाकिस्तान ने मदद की प्रार्थना नहीं की. दूसरी तरफ हाल में तुर्किये के भूकंप के बाद भारत ने आगे बढ़कर मदद की.