Wednesday, May 4, 2022

बहुत मुश्किल है पाकिस्तान के साथ रिश्तों का सँवर पाना


मजाज़ की दो लाइनें हैं, बहुत मुश्किल है दुनिया का सँवरना/ तिरी ज़ुल्फ़ों का पेच-ओ-ख़म नहीं है। दुनिया की जगह पाकिस्तान पढ़ें, तब हम इससे अपने मतलब भी निकाल सकते हैं। शहबाज़ शरीफ के प्रधानमंत्री बनने के पहले से ही कयास लगने लगे थे कि इमरान का हटना क्या भारत से रिश्तों के लिहाज से अच्छा होगा? नरेंद्र मोदी के बधाई संदेश से अटकलों को और बल मिला, गोकि मोदी 2018 में इमरान के प्रधानमंत्री बनने पर भी ऐसा ही बधाई संदेश दे चुके हैं। ऐसी औपचारिकताओं से गहरे अनुमान लगाना गलत है। भारत से रिश्ते सुधारना फिलहाल पाकिस्तानी वरीयता नहीं है। हाँ, उनकी सेना के दृष्टिकोण में आया बदलाव ध्यान खींचता है।  

रिश्ते सुधरने से दोनों देशों और उनकी जनता का बेशक भला होगा, पर तभी जब राजनीतिक लू-लपेट कम हो। पूरे दक्षिण एशिया पर यह बात लागू होती है। इस इलाके के लोगों को आधुनिकता और इंसान-परस्ती की जरूरत है, धार्मिक और मज़हबी दकियानूसी समझ की नहीं। पाकिस्तान में आ रहे बदलाव पर इसलिए नजर रखने के जरूरत है। फिलहाल रिश्तों को सुधारने का राजनीतिक-एजेंडा दोनों देशों में दिखी नहीं पड़ता, बल्कि दुश्मनी का बाजार गर्म है।

सुधार हुआ भी तो राजनयिक-रिश्तों की बहाली से इसकी शुरुआत हो सकती है। अगस्त 2019 में अनुच्छेद 370 की वापसी के बाद पहले पाकिस्तान ने और उसके बाद भारत ने अपने हाई-कमिश्नरों के वापस बुला लिया था। जो भी हल्का-फुल्का व्यापार हो रहा था, उसे बंद कर दिया गया। इन रिश्तों की बहाली के लिए भी पहल पाकिस्तान को करनी होगी, क्योंकि उन्होंने ही दोनों फैसले किए थे। पर उनकी शर्त है कि अनुच्छेद 370 के फैसले को भारत वापस ले, जिसकी उम्मीद नहीं।

सेना की दृष्टि

पाकिस्तानी सेना मानती है कि अनुच्छेद 370 भारत का अंदरूनी मामला है, हमें इसपर जोर न देकर कश्मीर समस्या के समाधान पर बात करनी चाहिए। शहबाज़ शरीफ ने अपनी पहली प्रेस कांफ्रेंस में भारत के साथ रिश्तों को सुधारने की बात कही है। पर वे चाहते हुए भी जल्दबाजी में कदम नहीं बढ़ाएंगे, क्योंकि इसमें उनके राजनीतिक-जोखिम भी जुड़े हैं। पर उसके पहले पाकिस्तानी राजनीति की कुछ पहेलियों को सुलझना होगा।

शरीफ सरकार खुद में पहेली है। वह कब तक रहेगी और चुनाव कब होंगे? नवम्बर में जनरल कमर जावेद बाजवा का कार्यकाल खत्म हो रहा है। उनकी जगह नया सेनाध्यक्ष कौन बनेगा और उसकी नियुक्ति कौन करेगा? शरीफ या चुनाव के बाद आने वाली सरकार? इमरान खान चाहते हैं कि चुनाव फौरन हों, पर चुनाव आयोग का कहना है कि कम से कम छह महीने हमें तैयारी के लिए चाहिए। इस सरकार के कार्यकाल अगस्त, 2023 तक बाकी है, पर इसमें शामिल पार्टियों की इच्छा है कि चुनाव हो जाएं। अक्तूबर तक चुनाव नहीं हुए, तो सेनाध्यक्ष का फैसला वर्तमान सरकार को ही करना होगा।

Sunday, May 1, 2022

गर्म लू की लपेट में कांग्रेस

सतीश आचार्य का कार्टून साभार

पाँच राज्यों के चुनाव परिणाम आने के बाद देश की निगाहें अब गुजरात और हिमाचल प्रदेश के विधानसभा चुनावों पर हैं। पर राजनीति की निगाहें इससे आगे हैं। यानी कि 2024 और 2029 के लोकसभा चुनावों और भविष्य के गठबंधनों के बारे में सोचने लगी हैं। इस सिलसिले में रणनीतिकार प्रशांत किशोर और कांग्रेस के संवाद का एक दौर हाल में हुआ है और अब 13-15 मई को उदयपुर में होने वाले चिंतन शिविर का इंतजार है। दूसरी तरफ प्रशांत किशोर की ही सलाह से तैयार हो रहे एक ऐसे विरोधी गठबंधन की बुनियाद भी पड़ रही है, जिसके केंद्र में कांग्रेस नहीं है। इसकी शुरुआत वे हैदराबाद में टीआरएस के नेता के चंद्रशेखर राव से समझौता करके कर चुके हैं। इस बीच भारतीय जनता पार्टी के उत्तर-मोदी स्वरूप को लेकर भी पर्यवेक्षकों के बीच विमर्श शुरू है, पर यह इस आलेख का विषय नहीं है।

पीके का प्रेज़ेंटेशन

प्रशांत किशोर के प्रेज़ेंटेशन के पहले अटकलें थीं कि शायद वे पार्टी में शामिल होंगे, पर ऐसा हुआ नहीं। मीडिया में इस आशय की अटकलें जरूर हैं कि उन्होंने पार्टी को सलाह क्या दी थी। इस बीच बीबीसी हिंदी के साथ एक विशेष बातचीत में प्रशांत किशोर ने कहा कि मजबूत कांग्रेस देश के हित में है, पर कांग्रेस की कमान किसके हाथ में हो, इस पर उनकी राय 'लोकप्रिय धारणा' से अलग है। राहुल गांधी या उनकी बहन प्रियंका गांधी उनकी पहली पसंद नहीं हैं। उनका सुझाव सोनिया गांधी को ही अध्यक्ष बनाए रखने का है। दूसरी तरफ खबरें यह भी हैं कि प्रशांत किशोर को शामिल करने में सोनिया गांधी की ही दिलचस्पी थी, राहुल और प्रियंका की नहीं।

दूसरी ताकत?

कई सवाल हैं। प्रशांत कुमार के पास क्या कोई जादू की पुड़िया है? क्या राजनीतिक दलों ने अपने तरीके से सोचना और काम करना बंद कर दिया है और उन्हें सेल्समैन की जरूरत पड़ रही है? ऐसा है, तो बीजेपी कैसे अपने संगठन के सहारे जीतती जा रही है और कांग्रेस पिटती जा रही है? प्रशांत किशोर का यह भी कहना है कि बीजेपी एक मजबूत राजनीतिक शक्ति के रूप में इस देश में रहेगी, लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि वे 2024 या 29 जीत जाएंगे। साथ ही वे यह भी जोड़ते हैं कि कोई थर्ड फ्रंट बीजेपी को चुनौती नहीं दे सकता। जिसे भी चुनाव जीतना है, उसे सेकंड फ्रंट बनना होगा। जो भी फ्रंट बीजेपी को हराने की मंशा रख रहा है, उसे 'सेकंड फ्रंट' होना होगा। कांग्रेस देश की दूसरी सबसे बड़ी पार्टी है, लेकिन बीजेपी को चुनौती देने वाला 'सेकंड फ्रंट' नहीं है।

Tuesday, April 26, 2022

एलन मस्क ने क्यों किया ट्विटर पर कब्जा?

यह आलेख जब नवजीवन में प्रकाशित हुआ तब उसका शीर्षक था एलन मस्क ने क्यों की ट्विटर पर कब्जे की कोशिश?पर अब इसका शीर्षक बदल चुका है। औपचारिकताएं होती रहेंगी, पर ट्विटर अब उनका कब्जा हो चुका है या हो जाएगा। सवाल है कि वे अब क्या करेंगे? गत 13 अप्रेल को जब टेस्ला और स्पेस एक्स के बॉस एलन मस्क ने ट्विटर पर कब्जा करने के इरादे से 54.20 डॉलर की दर से शेयर खरीदने की पेशकश की, तो सोशल मीडिया में सनसनी फैल गई। दुनिया का सबसे अमीर आदमी सोशल मीडिया के एक प्लेटफॉर्म की इतनी बड़ी कीमत क्यों देना चाहता है? टेकओवर वह भी जबरन, जिसे रोकने के लिए ट्विटर के प्रबंधन को ‘पॉइज़न पिल’ का इस्तेमाल करना पड़ा। इससे एलन मस्क की कोशिशों को झटका तो लगा है, पर यह खेल फिलहाल खत्म नहीं हुआ है। देखना होगा कि मस्क के इरादे कितने गहरे हैं।

'पॉइज़न पिल' किसी कंपनी को जबरन अधिग्रहण से बचाने का एक तरीक़ा है। एक छोटी अवधि के लिए कम्पनी कुछ दूसरे लोगों को काफी कम कीमत पर शेयर खरीदने की अनुमति दे देती है, ताकि अधिग्रहण की कोशिश करने वाले के शेयरों की कीमत कम पड़ने लगे। यह एक वैध योजना है जो किसी को कम्पनी में 15 प्रतिशत से ज्यादा के शेयर खरीदने से रोकती है। यह योजना एक साल की है। मस्क के पास जितने शेयर हैं वे ट्विटर के संस्थापक जैक डोर्सी के शेयरों से चार गुना ज़्यादा है। डोर्सी ने पिछले साल नवंबर में ट्विटर का सीईओ पद छोड़ दिया था जिसके बाद ये ज़िम्मेदारी अब पराग अग्रवाल संभाल रहे हैं।

फ्री-स्पीच की सदिच्छा

एलन मस्क ट्विटर पर अधिकार क्यों चाहते हैं? उन्होंने अमेरिका की मुख्य वित्तीय नियामक संस्था सिक्योरिटीज़ एंड एक्सचेंज कमीशन को दी गई अर्जी में कहा है कि ट्विटर में ‘फ्री-स्पीच का प्लेटफॉर्म बनने की प्रचुर सम्भावनाएं हैं।’ यह ‘एक सामाजिक-पहल है।’ मैं इस सम्भावना के द्वार खोलना चाहता हूँ। उन्होंने बाद में कहा, मैं यह काम निजी लाभ के लिए नहीं, सार्वजनिक-हित में करना चाहता हूँ।   

Sunday, April 24, 2022

‘ग्रासरूट-लोकतंत्र’ के ध्वजवाहक पंचायती-राज की ताकत को पहचानिए


आज 13वाँ राष्ट्रीय पंचायती राज दिवस है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जम्मू-कश्मीर जा रहे हैं, जहाँ वे कई परियोजनाओं का उद्घाटन करेंगे। 5 अगस्त, 2019 को जम्मू-कश्मीर से अनुच्छेद 370 के निष्प्रभावी होने के बाद से लोकतांत्रिक-दृष्टि से पहला बड़ा फैसला था, राज्य में पंचायत-राज की स्थापना। इसके पहले वहाँ तीन-स्तरीय पंचायती-राज व्यवस्था लागू नहीं थी। अक्तूबर 2020 में यहाँ पंचायती-व्यवस्था लागू की गई और दिसम्बर तक चुनाव भी हो गए। जम्मू-कश्मीर में इस व्यवस्था में एक जिला विकास परिषद (डीडीसी) के नाम से लोकतांत्रिक-व्यवस्था की एक नई परत जोड़ी गई है। हालांकि राज्य में विधानसभा चुनाव अभी तक नहीं हुए हैं, पर उम्मीद है कि परिसीमन का काम पूरा होने के बाद वहाँ जन-प्रतिनिधि प्रशासन की स्थापना भी हो जाएगी। पंचायत चुनावों के कारण वहाँ जन-प्रतिनिधियों की एक नई पीढ़ी तैयार हो गई है। देश के लोगों से जुड़ना है, तो पंचायती-राज के माध्यम से जुड़ना होगा।

क्रांतिकारी बदलाव

सामाजिक-सांस्कृतिक जीवन में क्रांतिकारी बदलावों की सम्भावनाएं पंचायती-राज के साथ जुड़ी हैं। आज 73वां संविधान संशोधन अधिनियम लागू होने का 30वां साल भी शुरू हो रहा है। यह अधिनियम 1992 में पास हुआ था और 24 अप्रैल,1993 को लागू हुआ था। इस दिन को ‘राष्ट्रीय पंचायती राज दिवस’ के रूप में मनाने की शुरुआत 2010 से हुई थी। जनवरी 2019 तक की जानकारी के अनुसार देश में 630 जिला पंचायतें, 6614 ब्लॉक पंचायतें और 2,53,163 ग्राम पंचायतें हैं। इनमें 30 लाख से अधिक पंचायत प्रतिनिधि हैं। सबसे निचले स्तर पर पंचायत-व्यवस्था में लगभग प्रत्यक्ष-लोकतंत्र है। यानी कि अपनी समस्याओं के समाधान में जनता की सीधी भागीदारी। यह व्यवस्था जितनी पुष्ट होती जाएगी, उतना ही ताकतवर हमारा लोकतंत्र बनेगा।

आत्मनिर्भर गाँव

महात्मा गांधी की परिकल्पना थी कि गाँव आत्मनिर्भर इकाई के रूप में विकसित हों, जो देश की परम्परागत-पंचायत व्यवस्था थी। पंचायतों की आवाज देश के नागरिकों की पहली आवाज है। अंग्रेजी शासनकाल में लॉर्ड रिपन को भारत में स्थानीय स्वशासन का जनक माना जाता है। वर्ष 1882 में उन्होंने स्थानीय स्वशासन सम्बंधी प्रस्ताव दिया।1884 में मद्रास लोकल बोर्ड्स एक्ट पास किया गया। 1919 के भारत शासन अधिनियम के तहत प्रान्तों में दोहरे शासन की व्यवस्था की गई तथा स्थानीय स्वशासन को हस्तांतरित विषयों की सूची में रखा गया। कस्बों और शहरों में जन-प्रतिनिधित्व की शुरुआत हुई। 1920 में ग्राम पंचायत कानून बने।

स्वतंत्र भारत

स्वतंत्रता-प्राप्ति के बाद पंचायती-राज की परिकल्पना की गई, पर बरसों तक स्थानीय-निकाय चुनाव के बगैर केवल सरकारी अफसरों की देखरेख में चलते रहते थे। स्वतंत्रता के बाद 1957 में योजना आयोग ने सामुदायिक विकास कार्यक्रम (वर्ष 1952) और राष्ट्रीय विस्तार सेवा कार्यक्रम (वर्ष 1953) के अध्ययन के लिए ‘बलवंत राय मेहता समिति’ का गठन किया। नवंबर 1957 में समिति ने अपनी रिपोर्ट में तीन-स्तरीय पंचायती राज व्यवस्था लागू करने का सुझाव दिया। 1958 में राष्ट्रीय विकास परिषद ने बलवंत राय मेहता समिति की सिफारिशें स्वीकार की और 2 अक्तूबर, 1959 को राजस्थान के नागौर जिले में तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने पहली तीन-स्तरीय पंचायत का उद्घाटन किया। हालांकि स्वतंत्रता के बाद सबसे पहले पंचायती-राज लागू करने वाला राज्य बिहार था, जिसने 1947 में इसे लागू कर दिया था। पर तीन-स्तरीय व्यवस्था राजस्थान से शुरू हुई।

Monday, April 18, 2022

दक्षिण एशिया में उम्मीदों की सरगर्मी


इस हफ्ते तीन ऐसी घटनाएं हुई हैं, जिनसे भारत की विदेश-नीति और भू-राजनीति पर असर पड़ेगा। सोमवार को भारत और अमेरिका के बीच चौथी 'टू प्लस टू' मंत्रिस्तरीय बैठक हुई, की, जिसमें यूक्रेन सहित वैश्विक-घटनाचक्र पर बातचीत हुई। पर सबसे गम्भीर चर्चा रूस के बरक्स भारत-अमेरिका रिश्तों, पर हुई। इसके अलावा पाकिस्तान में हुए राजनीतिक बदलाव और हिंद-प्रशांत क्षेत्र में चीनी गतिविधियों के निहितार्थ को समझना होगा। धीरे-धीरे एक बात साफ होती जा रही है कि यूक्रेन के विवाद का जल्द समाधान होने वाला नहीं है। अमेरिका के नेतृत्व में पश्चिमी देश अब रूस को निर्णायक रूप से दूसरे दर्जे की ताकत बनाने पर उतारू हैं। भारत क्या रूस को अपना विश्वस्त मित्र मानकर चलता रहेगा? व्यावहारिक सच यह है कि वह अब चीन का जूनियर सहयोगी है।

स्वतंत्र विदेश-नीति

यूक्रेन के युद्ध ने कुछ बुनियादी सवाल खड़े किए हैं, जिनमें ऊर्जा से जुड़ी सुरक्षा सबसे प्रमुख हैं। हम किधर खड़े हैं? रूस के साथ, या अमेरिका के? किसी के साथ नहीं, तब इस टकराव से आग से खुद को बचाएंगे कैसे? स्वतंत्र विदेश-नीति के लिए मजबूत अर्थव्यवस्था और सामरिक-शक्ति की जरूरत है। क्या हम पर्याप्त मजबूत हैं? गुरुवार 7 अप्रेल को संयुक्त राष्ट्र महासभा के आपात सत्र में हुए मतदान से अनुपस्थित रहकर भारत ने अपनी तटस्थता का परिचय जरूर दिया, पर प्रकारांतर से यह वोट रूस-विरोधी है।

भारत समेत 58 देश संयुक्त राष्ट्र महासभा के आपात सत्र में हुए मतदान से अनुपस्थित रहे। इनमें दक्षिण एशिया के सभी देश थे। म्यांमार ने अमेरिकी-प्रस्ताव का समर्थन किया, जबकि उसे चीन के करीब माना जाता है। रूस का निलंबन बता रहा है कि वैश्विक मंच पर रूस-चीन गठजोड़ की जमीन कमज़ोर है।

हिन्द महासागर में चीन

हिन्द महासागर में चीनी उपस्थिति बढ़ती जा रही है। म्यांमार में सैनिक-शासकों से हमने नरमी बरती, पर फायदा चीन ने उठाया। इसकी एक वजह है कि सैनिक-शासकों के प्रति अमेरिकी रुख कड़ा है। बांग्लादेश के साथ हमारे रिश्ते सुधरे हैं, पर सैनिक साजो-सामान और इंफ्रास्ट्रक्चर में चीन उसका मुख्य-सहयोगी है। अफगानिस्तान में तालिबान का राज कायम होने के बाद वहाँ भी चीन ने पैर पसारे हैं। पाकिस्तान के वर्तमान राजनीतिक-गतिरोध के पीछे जितनी आंतरिक राजनीति की भूमिका है, उतनी ही अमेरिका के बरक्स रूस-चीन गठजोड़ के ताकतवर होने की है।

दक्षिण एशिया में पाकिस्तान के साथ निरंतर टकराव के कारण भारत ने दक्षेस के स्थान पर बंगाल की खाड़ी से जुड़े पाँच देशों के संगठन बिम्स्टेक पर ध्यान देना शुरू किया है। हाल में विदेशमंत्री एस जयशंकर बिम्स्टेक के कार्यक्रम के सिलसिले में श्रीलंका के दौरे पर भी गए, और मदद की पेशकश की। श्रीलंका के आर्थिक-संकट के पीछे कुछ भूमिका नीतियों की है और कुछ परिस्थितियों की। महामारी के कारण श्रीलंका का पर्यटन उद्योग बैठ गया है। उसे रास्ते पर लाने के लिए केवल भारत की सहायता से काम नहीं चलेगा। इसके लिए उसे अंतरराष्ट्रीय मुद्राकोष के पास जाना होगा।

भारत को हिन्द-प्रशांत क्षेत्र में सामरिक-शक्ति को बढ़ाने की जरूरत है, वहीं अपने पड़ोस में चीनी-प्रभाव को रोकने की चुनौती है। पड़ोस में भारत-विरोधी भावनाएं एक अर्से से पनप रही हैं। पिछले कई महीनों से मालदीव में ‘इंडिया आउट’ अभियान चल रहा है, जिसपर हमारे देश के मीडिया का ध्यान नहीं है। बांग्लादेश में सरकार काफी हद तक भारत के साथ सम्बंध बनाकर रखती है, पर चीन के साथ उसके रिश्ते काफी आगे जा चुके हैं।

इतिहास का बोझ

अफगानिस्तान में सत्ता-परिवर्तन के बाद भारतीय-डिप्लोमेसी में फिर से कदम बढ़ाए हैं। वहाँ की स्थिति स्पष्ट होने में कुछ समय लगेगा। बहुत कुछ चीन-अफगानिस्तान-पाकिस्तान रिश्तों पर भी निर्भर करेगा। इतना स्पष्ट है कि अंततः अफगानिस्तान-पाकिस्तान रिश्तों में खलिश पैदा होगी, जिसका लाभ भारत को मिलेगा। ऐसा कब होगा, पता नहीं। भारत को नेपाल और भूटान के साथ अपने रिश्तों को बेहतर आधार देना होगा, क्योंकि इन दोनों देशों में चीन की घुसपैठ बढ़ रही है।

दक्षिण एशिया का इतिहास भी रह-रहकर बोलता है। शक्तिशाली-भारत की पड़ोसी देशों के बीच नकारात्मक छवि बनाई गई है। मालदीव और बांग्लादेश का एक तबका भारत को हिन्दू-देश के रूप में देखता है। पाकिस्तान की पूरी व्यवस्था ही ऐसा मानती है। इन देशों में प्रचार किया जाता है कि भारत में मुसलमान दूसरे दर्ज़े के नागरिक हैं। श्रीलंका में भारत को बौद्ध धर्म विरोधी हिन्दू-व्यवस्था माना जाता है। हिन्दू-बहुल नेपाल में भी भारत-विरोधी भावनाएं बहती हैं। वहाँ मधेशियों, श्रीलंका में तमिलों और बांग्लादेश में हिन्दुओं को भारत-हितैषी माना जाता है। दूसरी तरफ चीन ने इन देशों को बेल्ट रोड इनीशिएटिव (बीआरआई) और इंफ्रास्ट्रक्चर में भारी निवेश का लालच दिया है। पाकिस्तान और चीन ने भारत-विरोधी भावनाओं को बढ़ाने में कसर नहीं छोड़ी है।

पाकिस्तान में बदलाव

पाकिस्तान में सत्ता-परिवर्तन हो गया है। नए प्रधानमंत्री शहबाज़ शरीफ ने भारत के साथ रिश्ते बेहतर बनाने की बात कही है, साथ ही कश्मीर के मसले का उल्लेख भी किया है। नवाज शरीफ के दौर में भारत-पाकिस्तान बातचीत शुरू होने के आसार बने थे। जनवरी 2016 में दोनों देशों के विदेश-सचिवों की बातचीत के ठीक पहले पठानकोट कांड हो गया। उसके बाद से रिश्ते बिगड़ते ही गए हैं। यह भी पिछले कुछ समय से पाकिस्तानी सेना के दृष्टिकोण में बदलाव आया है। फिलहाल हमें इंतजार करना होगा कि वहाँ की राजनीति किस रास्ते पर जाती है। अच्छी बात यह है कि पिछले साल नियंत्रण-रेखा पर गोलाबारी रोकने का समझौता अभी तक कारगर है।

दक्षिण एशिया का हित इस बात में है कि यहाँ के देशों को बीच आपसी-व्यापार और आर्थिक-गतिविधियाँ बढ़ें। भारत और पाकिस्तान का टकराव ऐसा होने से रोकता है। संकीर्ण धार्मिक-भावनाएं वास्तविक समस्याओं पर हावी हैं। पाकिस्तान के राजनीतिक-परिवर्तन से बड़ी उम्मीदें भले ही न बाँधें, पर इतनी उम्मीद जरूर रखनी चाहिए कि समझदारी की कुछ हवा बहे, ताकि ज़िन्दगी कुछ आसान और बेहतर बने। 

नवजीवन में प्रकाशित