Thursday, March 17, 2022

लड़ाई लम्बी चली तो चक्रव्यूह में फँस जाएगा रूस

यूक्रेन की लड़ाई के पीछे दो पक्षों के सामरिक हित ही नहीं, वैश्विक-राजनीति के अनसुलझे प्रश्न भी हैं। संयुक्त राष्ट्र क्या उपयोगी संस्था रह गई है? वैश्वीकरण का क्या होगा, जो नब्बे के दशक में धूमधाम से शुरू हुआ था? रूस चाहता क्या है? किस शर्त पर यह लड़ाई खत्म होगी? रूस और पश्चिमी देशों से ज्यादा महत्वपूर्ण है यूक्रेन की जनता। व्लादिमीर पुतिन ने कई बार कहा है कि यूक्रेन हमारा है, पर यह गलतफहमी है। नागरिकों का एक वर्ग रूस के साथ है, पर ज्यादा बड़ा तबका स्वतंत्र यूक्रेनी राष्ट्रवाद का समर्थक है।

लड़ाई खत्म कैसे हो?

रूस को लड़ाई खत्म करने के लिए बहाने की जरूरत है। अमेरिका और नेटो क्या यूक्रेन को तटस्थ बनाने पर राजी हो जाएंगे? ऐसा संभव है, तो वे अभी तक माने क्यों नहीं हैं? पुतिन के मन को पढ़ना आसान नहीं, पर उनके गणित को पढ़ा जा सकता है। उन्हें लगता है कि अमेरिका ढलान पर है। नए राष्ट्रपति के चुनौतियाँ हैं। आंतरिक राजनीति-विभाजित है। अपनी कमजोरियों की वजह से वह अफगानिस्तान से भागा। सीरिया से सेना हटाई। नेटो भी विभाजित है। जर्मनी ने नाभिकीय ऊर्जा का परित्याग करके खुद को रूसी गैस पर निर्भर कर लिया है। फ्रांस अपने राष्ट्रपति के चुनाव में फँसा है और यूके कोविड-19, ब्रेक्जिट और बोरिस जॉनसन के अजब-गजब तौर-तरीकों का शिकार है।

रूस आंशिक रूप से भी सफल हुआ, तो मान लीजिएगा कि अमेरिका का सूर्यास्त शुरू हो गया है। पर लड़ाई जारी रखना रूस के लिए नुकसानदेह है। वह चक्रव्यूह में फँसता जाएगा। अमेरिका ने हाइब्रिड वॉर और शहरी छापामारी का इंतजाम किया है। ठेके पर सैनिक मुहैया करने वाली ब्लैकवॉटर जैसी संस्थाओं ने यूक्रेन में मोर्चे संभाल लिए हैं। रूस के वैग्नर ग्रुप के भाड़े के सैनिक भी यूक्रेन में सक्रिय हैं। संयुक्त राष्ट्र और दूसरे मंचों पर पश्चिमी देशों का दबाव है। वैश्विक-व्यवस्थाएं अभी पश्चिमी प्रभाव में हैं। खबरें हैं कि पश्चिमी देश रूसी तेल की खरीद पर रोक लगाने जा रहे हैं। इन बातों से निपटना आसान नहीं है।

चीन का सहारा

रूस ने इस लड़ाई के पहले अपने आप को आर्थिक-प्रतिबंधों के लिए भी तैयार कर लिया था। पिछले दिसंबर में उसका विदेशी मुद्राकोष 630 अरब डॉलर के रिकॉर्ड स्तर पर था। उसे विश्वास है कि चीन का राजनयिक-समर्थन उसके साथ है और जरूरत पड़ी, तो आर्थिक सहायता भी वहाँ से मिलेगी। पिछली 4 फरवरी को बीजिंग में शी चिनफिंग के साथ पुतिन की शिखर-वार्ता से यह भरोसा बढ़ा है। पर चीन किस हद तक रूस का सहायक होगा?  रूस से दोस्ती बढ़ाने का मतलब अमेरिका से रिश्तों को और ज्यादा बिगाड़ना है, जो पहले से ही बिगड़े हुए हैं।

Sunday, March 13, 2022

‘फूल-झाड़ू’ की सफलता के निहितार्थ


घरों की सफाई में काम आने वाली ‘फूल-झाड़ू’ राजनीतिक रूपक बनकर उभरी है। पाँच राज्यों के चुनाव परिणामों से तीन बातें दिखाई पड़ रही हैं। भारतीय जनता पार्टी के लिए यह असाधारण विजय है, जिसकी उम्मीद उसके बहुत से समर्थकों को नहीं थी। वहीं, कांग्रेस की यह असाधारण पराजय है, जिसकी उम्मीद उसके नेतृत्व ने नहीं की होगी। तीसरे, पंजाब में आम आदमी पार्टी की असाधारण सफलता ने ध्यान खींचा है। चार राज्यों में भाजपा की असाधारण सफलता साल के अंत में होने वाले गुजरात और हिमाचल प्रदेश के चुनावों को भी प्रभावित और अंततः 2024 के लोकसभा चुनाव को भी। इस परिणाम को मध्यावधि राष्ट्रीय जनादेश माना जा सकता है, खासतौर से उत्तर प्रदेश में। पंजाब में आम आदमी पार्टी के पक्ष में आए इतने बड़े जनादेश के कारण राष्ट्रीय राजनीति में उसकी भूमिका बढ़ेगी। वहीं पुराने राजनीतिक दलों से निराश जनता के सामने उपलब्ध विकल्पों का सवाल खड़ा हुआ है। पंजाब में तमाम दिग्गजों की हार की अनदेखी नहीं की जा सकती। पर आम आदमी पार्टी अपेक्षाकृत नई पार्टी है। क्या वह पंजाब के जटिल प्रश्नों का जवाब दे पाएगी

उत्तर प्रदेश का ध्रुवीकरण

हालांकि पार्टी को चार राज्यों में सफलता मिली है, पर उत्तर प्रदेश की सफलता इन सब पर भारी है। उत्तर प्रदेश से लोकसभा की कुल 80 सीटें हैं, जो कई राज्यों की कुल सीटों से भी ज्यादा बैठती हैं। उसे यह जीत तब मिली है, जब भाजपा-विरोधी राजनीति ने पूरी तरह कमर कस रखी थी। उसकी विफलता, बीजेपी की सफलता है। महामारी की तीन लहरों, शाहीनबाग की तर्ज पर उत्तर प्रदेश के शहरों में चले नागरिकता-कानून विरोधी आंदोलन, किसान आंदोलन, लखीमपुर-हिंसा और आर्थिक-कठिनाइयों से जुड़ी नकारात्मकता के बावजूद योगी आदित्यनाथ सरकार को लगातार दूसरी बार फिर से गद्दी पर बैठाने का फैसला वोटर ने किया है। पिछले तीन-चार दशक में ऐसा पहली बार हुआ है। बीजेपी को मिली सीटों की संख्या में पिछली बार की तुलना में करीब 50 की कमी आई है। बावजूद इसके कि वोट प्रतिशत बढ़ा है। 2017 में भाजपा को जो वोट प्रतिशत 39.67 था, वह इसबार 41.3 है। समाजवादी पार्टी का वोट प्रतिशत भी बढ़ा है। उसे 32.1 प्रतिशत वोट मिले हैं, जो 2017 में 21.82 प्रतिशत थे। यह उसके राजनीतिक जीवन की सबसे बड़ी उपलब्धि है। इसकी कीमत बीएसपी और कांग्रेस ने दी है। कांग्रेस का वोट प्रतिशत इस चुनाव में 2.33 प्रतिशत है, जो 2017 में 6.25 प्रतिशत था। बसपा का वोट प्रतिशत इस चुनाव में 12.8 है, जो 2017 में 22 से ज्यादा था। राष्ट्रीय लोकदल का प्रतिशत 3.36 प्रतिशत है, जो 2017 में 1.78 प्रतिशत था। ध्रुवीकरण का लाभ सपा+ को मिला जरूर, पर वह इतना नहीं है कि उसे बहुमत दिला सके।

पंजाब का गुस्सा

उत्तर प्रदेश के अलावा उत्तराखंड में भी बीजेपी को लगातार दूसरी बार सफलता मिली है, जो इसलिए महत्वपूर्ण है, क्योंकि यहाँ सीधे दो दलों के बीच मुकाबला होता है। इसे कांग्रेस के पराभव के रूप में भी देखना होगा, क्योंकि पिछले साल केरल में वाम मोर्चा ने कांग्रेस को हराकर लगातार दूसरी बार जीत हासिल की थी। इसी क्रम में पंजाब, मणिपुर और गोवा में कांग्रेस की पराजय को देखना चाहिए, जहाँ वह या तो सत्ताच्युत हुई है या उसने सबसे बड़े दल की हैसियत को खोया है। आम आदमी पार्टी ने पंजाब की 117 सीटों में से 92 पर जीत हासिल की है। कांग्रेस 18 सीट के साथ दूसरे स्थान पर रही। मुख्यमंत्री चरणजीत सिंह चन्नी दो सीटों से लड़े थे। दोनों में हार गए। उनके प्रतिस्पर्धी नवजोत सिंह सिद्धू भी हार गए। वहीं पूर्व मुख्यमंत्री प्रकाश सिंह बादल, अमरिंदर सिंह और राजिंदर कौर भट्टल को भी हार का सामना करना पड़ा। लगता है कि पंजाब की जनता परम्परागत राजनीति को फिर से देखना नहीं चाहती। आम आदमी पार्टी नई पार्टी है। फिलहाल उसकी स्लेट साफ है, पर अब उसकी परख होगी। 

Friday, March 11, 2022

राजनीतिक-व्यवहार के सामाजिक-संदेशों को पढ़िए


चुनाव परिणामों से दो निष्कर्ष आसानी से निकाले जा सकते हैं। भारतीय जनता पार्टी के लिए यह असाधारण विजय है, जिसकी उम्मीद उसके बहुत से समर्थकों को नहीं रही होगी। साथ ही कांग्रेस की यह असाधारण पराजय है, जिसकी उम्मीद उसके नेतृत्व ने नहीं की होगी। भारतीय जनता पार्टी को चार राज्यों में मिली असाधारण सफलता इस साल होने वाले गुजरात और हिमाचल प्रदेश के चुनावों को भी प्रभावित करेगी। उत्तर प्रदेश के परिणाम को मध्यावधि राष्ट्रीय जनादेश माना जा सकता है। पंजाब में भारतीय जनता पार्टी का न तो कोई बड़ा दावा था और किसी ने उससे बड़े प्रदर्शन की अपेक्षा भी नहीं की थी। अब सवाल कांग्रेस के भविष्य का है। उसके शासित राज्यों की सूची में एक राज्य और कम हुआ। इन परिणामों में भाजपा-विरोधी राजनीति या महागठबंधन के सूत्रधारों के विचार के लिए कुछ सूत्र भी हैं। 

उत्तर प्रदेश का ध्रुवीकरण

हालांकि पार्टी को चार राज्यों में सफलता मिली है, पर उत्तर प्रदेश की अकेली सफलता इन सब पर भारी है। देश का सबसे बड़ा राज्य होने के कारण इस राज्य का महत्व है। माना जाता है कि दिल्ली की सत्ता का रास्ता उत्तर प्रदेश से होकर गुजरता है। उत्तर प्रदेश से लोकसभा की कुल 80 सीटें हैं, जो कई राज्यों की कुल सीटों से भी ज्यादा बैठती हैं। इसी वजह से भाजपा-विरोधी राजनीति ने इसबार पूरी तरह कमर कस रखी थी। उसकी विफलता, बीजेपी की सफलता है।

भारतीय और विदेशी-मीडिया और विदेशी-विश्वविद्यालयों से जुड़े अध्येताओं का एक बड़ा तबका महीनों पहले से घोषणा कर रहा था, अबकी बार अखिलेश सरकार। अब लगता है कि यह विश्लेषण नहीं, मनोकामना थी। बेशक जमीन पर तमाम परिस्थितियाँ ऐसी थीं, जिनसे एंटी-इनकम्बैंसी सिद्ध हो सकती है, पर भारतीय राजनीति का यह दौर कुछ और भी बता रहा है। आप इसे साम्प्रदायिकता कहें, फासिज्म, हिन्दू-राष्ट्रवाद या सांस्कृतिक-भावनाएं, पिछले 75 वर्ष की राजनीतिक-दिशा पर गहराई से विचार करने की जरूरत है। केवल हिन्दू-राष्ट्रवादी दृष्टिकोण को ही नहीं मुस्लिम-दृष्टिकोण और कथित प्रगतिशील-वामपंथी दृष्टिकोण पर नजर डालने की जरूरत है।

इस चुनाव के ठीक पहले कर्नाटक के हिजाब-विवाद के पीछे भारतीय जनता पार्टी की रणनीति सम्भव है, पर जिस तरह से देश के प्रगतिशील-वर्ग ने हिजाब का समर्थन किया, उससे उसके अंतर्विरोध सामने आए। प्रगतिशीलता यदि हिन्दू और मुस्लिम समाज के कोर में नहीं होगी, तब उसका कोई मतलब नहीं है।

इन परिणामों के राजनीतिक संदेशों क पढ़ने के लिए मतदान के रुझान, वोट प्रतिशत और अलग-अलग चुनाव-क्षेत्रों की प्रवृत्तियों का विश्लेषण करना होगा। खासतौर से उत्तर प्रदेश में, जहाँ जातीय और सांप्रदायिक ध्रुवीकरण से जुड़े कुछ जटिल सवालों का जवाब इस चुनाव में मिला है। इसके लिए हमें चुनाव के बाद विश्लेषणों के लिए समय देना होगा।

Monday, March 7, 2022

यूक्रेन की लड़ाई से पैदा हुई पेचीदगियाँ


यूक्रेन की लड़ाई ने दुनिया के सामने कुछ ऐसी पेचीदगियों को पैदा किया है, जिन्हें सुलझाना आसान नहीं होगा। नब्बे के दशक में सोवियत संघ के विघटन के साथ शीतयुद्ध की समाप्ति हुई थी। उसके साथ ही वैश्वीकरण की शुरुआत भी हुई थी। दूसरे शब्दों में वैश्विक-अर्थव्यवस्था का एकीकरण। विश्व-व्यापार संगठन बना और वैश्विक-पूँजी के आवागमन के रास्ते खुले। राष्ट्रवाद की सीमित-संकल्पना के स्थान पर विश्व-बंधुत्व के दरवाजे खुले थे। यूक्रेन की लड़ाई ने इन दोनों परिघटनाओं को चुनौती दी है। इस लड़ाई के पीछे दो पक्षों के सामरिक हित ही नहीं हैं, बल्कि वैश्विक-राजनीति के कुछ अनसुलझे प्रश्न भी हैं। इन सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण है संयुक्त राष्ट्र की भूमिका। क्या यह संस्था उपयोगी रह गई है?

चक्रव्यूह में रूस

रूस ने लड़ाई शुरू कर दी है, पर क्या वह इस लड़ाई को खत्म कर पाएगा? खत्म होगी, तो किस मोड़ पर होगी?  फिलहाल वह किसी निर्णायक मोड़ पर पहुँचती नजर नहीं आती है। यह भी स्पष्ट नहीं है कि रूस ने किस इरादे से कार्रवाई शुरू की है। क्या वह पूरे यूक्रेन पर कब्जा चाहता है और राष्ट्रपति वोलोदिमीर ज़ेलेंस्की को हटाकर अपने किसी समर्थक को बैठाना चाहता है? क्या यूक्रेनी जनता ऐसा होने देगी? क्या अमेरिका और नेटो अपने कदम वापस खींचकर यूक्रेन को तटस्थ देश बनाने पर राजी हो जाएंगे? ऐसा संभव है, तो वे अभी तक माने क्यों नहीं हैं?

रूस भी चक्रव्यूह में फँसता नजर आ रहा है। अमेरिका ने हाइब्रिड वॉर और शहरी छापामारी का काफी इंतजाम यूक्रेन में कर दिया है। दूसरी तरफ संयुक्त राष्ट्र और दूसरे मंचों पर पश्चिमी देशों ने रूस पर दबाव बनाना शुरू कर दिया है। वैश्विक-व्यवस्थाएं अभी पश्चिमी प्रभाव में हैं। हाँ रूस यदि अपने इस अभियान में आंशिक रूप से भी सफल हुआ, तो मान लीजिए कि अमेरिका का सूर्यास्त शुरू हो चुका है। फिलहाल ऐसा संभव लगता नहीं, पर बदलाव के संकेतों को आप पढ़ सकते हैं।

एटमी खतरा

यूक्रेन के ज़ापोरिज्जिया परमाणु ऊर्जा संयंत्र में शुक्रवार तड़के रूसी हमले के कारण आग लग गई। अब यह बंद है और रूसी कब्जे में है। इस घटना के खतरनाक निहितार्थ हैं। हालांकि आग बुझा ली गई है, पर इससे संभावित खतरों पर रोशनी पड़ती है। यूक्रेन में 15 नाभिकीय संयंत्र हैं। यह दुनिया के उन देशों में शामिल हैं, जो आधी से ज्यादा बिजली के लिए नाभिकीय ऊर्जा पर निर्भर हैं। जरा सी चूक से पूरे यूरोप पर रेडिएशन का खतरा मंडरा रहा है।

यूक्रेन जब सोवियत संघ का हिस्सा था, तब उसके पास नाभिकीय अस्त्र भी थे। सोवियत संघ के ज्यादातर नाभिकीय अस्त्र यूक्रेन में थे। फेडरेशन ऑफ अमेरिकन साइंटिस्ट के अनुसार उस समय यूक्रेन के पास 3000 टैक्टिकल यानी छोटे परमाणु हथियार मौजूद थे। इनके अलावा उसके पास 2000 स्ट्रैटेजिक यानी बड़े एटमी हथियार थे, जिनसे शहर ही नहीं, छोटे-मोटे देशों का सफाया हो सकता है।

दिसंबर 1994 में बुडापेस्ट, हंगरी में तीन समझौतों पर हस्ताक्षर हुए थे, जिनके तहत यूक्रेन, बेलारूस और कजाकिस्तान ने अपने नाभिकीय हथियारों को इस भरोसे पर त्यागा था कि जरूरत पड़ने पर उनकी रक्षा की जाएगी। यह आश्वासन, रूस, अमेरिका और ब्रिटेन ने दिया था। फ्रांस और चीन ने एक अलग दस्तावेज के मार्फत इसका समर्थन किया था।

आज यदि यूक्रेन के पास नाभिकीय-अस्त्र होते तो क्या रूस उसपर इतना बड़ा हमला कर सकता था? यूक्रेन पर हुए हमले ने नाभिकीय-युद्ध को रोकने की वैश्विक-नीतियों पर सवाल खड़े किए हैं। जो देश नाभिकीय-अस्त्र हासिल करने की परिधि पर हैं या हासिल कर चुके हैं और उसे घोषित किया नहीं है, उनके पास अब यूक्रेन का उदाहरण है। दुनिया ईरान को समझा रही थी, पर क्या उसे समझाना आसान होगा?

Sunday, March 6, 2022

दुनिया चुकाएगी युद्ध की भारी कीमत


यूक्रेन के ज़ापोरिज्जिया परमाणु ऊर्जा संयंत्र में शुक्रवार तड़के रूसी हमले के कारण आग लग गई। अब यह बंद है और रूसी कब्जे में है। हालांकि आग बुझा ली गई है, पर इससे संभावित खतरों पर रोशनी पड़ती है। यूक्रेन दुनिया के उन देशों में शामिल हैं, जो आधी से ज्यादा बिजली के लिए नाभिकीय ऊर्जा पर निर्भर हैं। जरा सी चूक से पूरे यूरोप पर रेडिएशन का खतरा मंडरा रहा है। रूस गारंटी चाहता है कि यूक्रेन, नाटो के पाले में नहीं जाएगा। वस्तुतः उसकी यह लड़ाई यूक्रेन के साथ नहीं, सीधे अमेरिका के साथ है। पर उसके सामने इस लड़ाई की फौजी और डिप्लोमैटिक दोनों तरह की कीमत चुकाने के जोखिम भी हैं। इस हमले से केवल विश्व-शांति को ठेस ही नहीं लगी है, बल्कि दूसरे सवाल भी खड़े हुए हैं, जिनके दूरगामी असर होंगे। पहला असर आर्थिक है। पेट्रोलियम की कीमतें 120 डॉलर प्रति बैरल को पार कर गई हैं। अंदेशा है कि भारत में पेट्रोल की कीमतें 12 से 15 रुपये की बीच बढ़ेंगी। दूसरी उपभोक्ता सामग्री की कीमतें भी बढ़ेंगी। रूस पर आर्थिक-बंदिशों का असर भी हमपर पड़ेगा। दुनिया के शक्ति-संतुलन में बुनियादी बदलाव होंगे, जिनसे हम भी प्रभावित होंगे।

भारत पर दबाव

आर्थिक परेशानियों के अलावा भारत के सामने विदेश-नीति को स्वतंत्र और दबाव-मुक्त बनाए रखने और यूक्रेन में फँसे भारतीय नागरिकों को बाहर निकालने की चुनौतियाँ हैं। काफी छात्रों को निकाला जा चुका है और बाकी को अगले कुछ दिन में निकाल लिया जाएगा। यह मसला विदेश-नीति से ज्यादा स्थानीय राजनीति का विषय है। यह समस्या तब खड़ी हुई है, जब उत्तर प्रदेश के चुनाव अंतिम चरण में थे। ऐसे वीडियो वायरल हुए, जिनसे सरकार की अक्षमता उजागर हो। भारत ने संरा में हुए मतदानों से अलग रहकर तटस्थ बने रहने की कोशिश जरूर की है, पर इसे ज्यादा समय तक चलाने में दिक्कत होगी। इसका पहला संकेत गुरुवार को हुई क्वॉड देशों की वर्चुअल बैठक में मिला। इसमें जो बाइडन ने यूरोप में सुरक्षा और यूक्रेन युद्ध का मुद्दा उठाया। बैठक के बाद एक संयुक्त बयान भी जारी किया गया, लेकिन भारत के पीएमओ ने अलग से भी एक बयान जारी किया, जिसमें कहा गया कि क्वाड को अपने उद्देश्यों पर ही केंद्रित रहना चाहिए।

चीन-फैक्टर

भारत ने रूसी हमले की निंदा नहीं की है, पर संयुक्त राष्ट्र में भारत के राजदूत टीएस तिरुमूर्ति के बयान को ध्यान से पढ़ें। उन्होंने कहा है कि संरा चार्टर, अंतरराष्ट्रीय कानूनों और राष्ट्रीय सम्प्रभुता का सम्मान होना चाहिए। ये तीनों बातें रूसी कार्रवाई की ओर इशारा कर रही हैं। रूस और चीन का साझा यदि दीर्घकालीन है, तो भारतीय दृष्टिकोण बदलेगा। भारत और चीन दीर्घकालीन प्रतिस्पर्धी हैं। बदलते वैश्विक-परिप्रेक्ष्य में निर्भर यह भी करेगा कि रूस अपने उद्देश्यों में किस हद तक सफल होता है। हाल में अमेरिका के साथ भारत के जो सामरिक रिश्ते बने हैं, वे टूट नहीं जाएंगे। इन सब बातों को हमें दूरगामी पहलुओं से सोचना चाहिए। एक संभावना यह भी व्यक्त की जा रही है कि यूरोप में तनाव को देखते हुए अमेरिका शायद चीन के प्रति अपने रुख को नरम करे। शायद इसी वजह से अमेरिका क्वॉड को यूक्रेन से जोड़ना चाहता है। इन शायद और किन्तु-परन्तुओं का जवाब कुछ देर से मिलेगा।  

रूसी-कूच की गति धीमी

यूक्रेन की स्थिति का अनुमान लगाना आसान भी नहीं है। पश्चिमी और रूसी मीडिया की सूचनाएं एक-दूसरे की विरोधी हैं। अलबत्ता लगता है कि रूसी सेना का कूच धीमा पड़ा है। पूर्वोत्तर से सैनिक ट्रकों का करीब 64 किलोमीटर लम्बा काफिला राजधानी कीव की तरफ बढ़ता देखा गया है, पर छह दिन में वह गंतव्य पर पहुँच नहीं पाया है। इस क़ाफ़िले की सैटेलाइट से ली गई तस्वीरें 28 फ़रवरी को सामने आई थीं। इसके धीमे पड़ने की वजह यह है कि रूसी सेना ने इन ट्रकों-टैंकों और बख्तरबंद गाड़ियों के लिए ईंधन, रसद, स्पेयर पार्ट्स और भोजन-पानी की जो व्यवस्था की है, वह चरमरा रही है। ब्रेकडाउन समस्या बन रहा है। यूक्रेन के नागरिकों ने भी हथियार हासिल कर लिए हैं, जो प्रतिरोध कर रहे हैं। पश्चिमी देशों के भाड़े या ठेके के सैनिकों ने भी मोर्चा संभाल रखा है। अमेरिका को पता था कि रूस किसी दिन हमला करेगा। अफगानिस्तान के अनुभव के बाद अमेरिका ने यूक्रेन में इस काउंटर-रणनीति को इस्तेमाल किया है। अमेरिका के रिटायर्ड फौजी अधिकारियों की कम्पनी ब्लैकवॉटर या एकेडमी नाम से काम करती है। खबरें है कि ब्लैकवॉटर के सैनिक यूक्रेन के नागरिकों को ट्रेनिंग दे रहे हैं। अमेरिका ने बड़ी संख्या में स्टिंगर, जैवलिन और दूसरे किस्म मिसाइलें और छोटे रॉकेट इन्हें उपलब्ध कराए हैं, जिनसे विमानों और टैंकों को निशाना बनाया जा सकता है। शहरी इमारतों से आगे बढ़ते टैंकों को निशाना बनाया जा रहा है।