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Sunday, December 26, 2021

उम्मीदें जगाकर विदा होता साल

नई वास्तविकताओं से रूबरू रहा 2021 का साल

उम्मीदों और असमंजस की लहरों पर उतराती कागज की नाव जैसी है गुजरते साल 2021 की तस्वीर। जैसे 2020 का साल सपनों पर पानी फेरने वाला था, तकरीबन वैसे ही इस साल ने भी हमारी उम्मीदों और मंसूबों को नाकामयाब बनाया। पर देश और दुनिया का जज़्बा भी इसी साल शिद्दत के साथ देखने को मिला। दिल पर हाथ रखें और कुल मिलाकर देखें, तो इस साल का अंत निराशाजनक नहीं है। उम्मीदें जगाकर ही जा रहा है यह साल।

महामारी का सबसे भयानक दौर इस साल चला। किसान आंदोलन और केंद्र सरकार द्वारा तीनों कृषि-कानूनों की नाटकीय वापसी और अंततः किसान आंदोलन की वापसी इस साल की बड़ी घटनाओं में शामिल हैं। इसके साथ-साथ देश में राजद्रोह बनाम देशद्रोह मामले पर बहस शुरू हुई है। यह मामला अभी सुप्रीम कोर्ट में है, जिसका निर्णय लोकतांत्रिक-व्यवस्था पर गहरा असर डालेगा। पेगासस-जासूसी प्रकरण भी इस साल संसद के मॉनसून सत्र पर छाया रहा। अंततः इस मामले में भी सुप्रीम कोर्ट ने हस्तक्षेप किया है और जाँच के लिए एक एक्सपर्ट कमेटी का गठन कर दिया है जिसके बाद इसका सच सामने आने की संभावनाएं काफी ज्यादा बढ़ गई हैं।

राजनीतिक घटनाक्रम

आमतौर पर देश का घटनाचक्र राजनीति के इर्द-गिर्द घूमता है। पर पिछले साल महामारी ने राजनीतिक घटनाओं को छिपा दिया था। इस साल महामारी के बावजूद राजनीतिक गतिविधियाँ भी जारी रहीं। यह साल पश्चिम बंगाल के चुनावों में ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस की विजय के लिए याद रखा जाएगा। इसके अलावा नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में केंद्रीय मंत्रिपरिषद में भारी फेरबदल भी इस साल की बड़ी घटनाएं रहीं। केंद्र सरकार ने इस साल जम्मू-कश्मीर के राजनेताओं से सीधी बातचीत करके एक और बड़ी पहल की। पिछले साल प्रधानमंत्री ने अयोध्या में राम मंदिर का शिलान्यास किया था, तो इस साल उन्होंने वाराणसी में 'श्री काशी विश्वनाथ धाम' का लोकार्पण किया। इस कार्यक्रम की भव्यता को देखते हुए लगता है कि भारतीय जनता पार्टी अपने सांस्कृतिक-एजेंडा को लगातार चलाए रखेगी। इस साल जिन राज्यों में चुनाव होने वाले हैं उनमें उत्तर प्रदेश भी शामिल है, जो बीजेपी की उम्मीदों का सबसे बड़ा केंद्र है।

आर्थिक-दृष्टि से देश ने इस साल कोरोना के कारण लगे झटकों को पार करके महामारी से पहले की स्थिति को प्राप्त कर लिया है, पर साल का अंत होते-होते ओमिक्रॉन के हमले के अंदेशे ने अनिश्चय को जन्म दे दिया है। चालू वर्ष की दूसरी तिमाही में जीडीपी की 8.4 फीसदी की वृद्धि अनुमान के अनुरूप है। इस आधार पर अनुमान है कि वर्ष के अंत तक अर्थव्यवस्था रिजर्व बैंक के अनुमान के मुताबिक 9.5 फीसदी की वृद्धि दर हासिल कर लेगी या उसे पार कर जाएगी। संवृद्धि के लिए सरकार को निवेश बढ़ाना होगा, खासतौर से इंफ्रास्ट्रक्चर में। पर इसका असर राजकोषीय घाटे के रूप में दिखाई पड़ेगा। चालू वित्तवर्ष में राजकोषीय घाटा 6.8 फीसदी के स्तर पर भी रहा, तो यह राहत की बात होगी।

विदेश-नीति

अंतरराष्ट्रीय राजनीति में अफगानिस्तान में हुए सत्ता-पलट के बाद लगे प्रारंभिक झटकों के बावजूद भारतीय विदेश-नीति का दबदबा इस साल बढ़ा। साल की शुरुआत ही भारत को संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में मिली सदस्यता से हुई, जो दो साल तक रहेगी। भारत सरकार ने अमेरिका के साथ चतुष्कोणीय सुरक्षा (क्वॉड) को पुष्ट किया है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का अमेरिका-यात्रा और क्वॉड के शिखर सम्मेलन से भारत-अमेरिका रिश्तों को मजबूती मिली है, दूसरी तरफ रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन की साल के अंत में भारत यात्रा और दोनों देशों के बीच टू प्लस टू वार्ताके बात भारतीय विदेश-नीति की स्वतंत्रता और संतुलन भी स्थापित हुआ है। 

Tuesday, February 16, 2021

दिशा रवि मामले की पृष्ठभूमि

निकिता जैकब, दिशा रवि और ग्रेटा थनबर्ग

बेंगलुरु की पर्यावरण कार्यकर्ता दिशा रवि को 14 फरवरी को दिल्ली की एक अदालत ने पांच दिनों की पुलिस-रिमांड में भेज दिया है। दिल्ली पुलिस ने उन्हें टूलकिट केस में गिरफ्तार किया था। दिशा पर देशद्रोह का आरोप लगाया गया है। उसकी गिरफ्तारी का अब देशभर में विरोध हो रहा है। सोशल मीडिया पर लोग इसके खिलाफ आवाज उठा रहे हैं। पूर्व गृहमंत्री पी चिदंबरम ने भी दिशा की गिरफ्तारी की आलोचना की है और कहा है कि जलवायु कार्यकर्ता दिशा रवि राष्ट्र के लिए खतरा बन गई है
, तो इसका मतलब है कि भारत बहुत ही कमजोर नींव पर खड़ा है। गिरफ्तारी का समर्थन करने वालों की संख्या भी काफी बड़ी है। कोई नहीं चाहेगा कि लोकतांत्रिक तरीके से आवाज उठाने वालों का दमन किया जाए, पर यह तो समझना ही होगा कि उन्हें गिरफ्तार करने के पीछे के कारण क्या हैं। 

यह हैरान करने वाली घटना है। पर्यावरण से जुड़े मसलों पर काम करने वाली दिशा ने रुंधे गले से अदालत को कहा कि मैं किसी साजिश में शामिल नहीं थी और कृषि कानूनों के खिलाफ चल रहे आंदोलन में किसानों का सिर्फ समर्थन कर रही थी। दिल्ली पुलिस का आरोप है कि दिशा टूलकिट में संपादन करके खालिस्तानी ग्रुप को मदद कर रही थी। कुछ और गिरफ्तारियाँ हो रही हैं। अंततः अदालत के सामने जाकर बातें साफ होंगी। केवल आंदोलन का समर्थन करने या प्रचार सामग्री का प्रसारण किसी को देशद्रोही साबित नहीं करता, पर यह भी साफ है कि किसी अलगाववादी आंदोलन को लाभ पहुँचाने की मंशा से कोई काम किया गया है, तो पुलिस कार्रवाई करेगी। पुलिस कार्रवाई हमेशा सही होती रही हों, ऐसा भी नहीं, पर वह गलत ही होगी ऐसा क्यों माना जाए।

तमाम सम्भावनाएं हैं। हो सकता है कि दिशा रवि या ग्रेटा थनबर्ग को इस बात का अनुमान ही नहीं हो कि वे किसके हित साध रही हैं। हो सकता है कि यह सब गलत हो। दिशा को ज्यादा-से-ज्यादा सरकारी नीतियों का विरोधी माना जा सकता है, लेकिन सरकार का विरोध करना देशद्रोह नहीं होता। उसकी गिरफ्तारी और हिरासत में रखने की प्रक्रिया को लेकर भी आरोप हैं, इसलिए सुप्रीम कोर्ट या दिल्ली हाई कोर्ट को इस बात का परीक्षण करना चाहिए कि उनकी गिरफ्तारी के सिलसिले में सारी प्रक्रियाएं पूरी की गई थी या नहीं। सरकारी मशीनरी के मुकाबले देश में मानवाधिकार कार्यकर्ताओं की भी पूरी मशीनरी है। वह भी अदालती कार्रवाई कर ही रही होगी। इस मामले में मुम्बई की वकील निकिता जैकब और शांतनु मुलुक ने मुम्बई हाईकोर्ट की शरण ली है, जो उनकी अर्जी पर 17 फरवरी को फैसला सुनाएगी। 

Sunday, June 30, 2019

किस जमीन पर खड़ी है कांग्रेस?


कांग्रेस फिर संकट में है, पर यह संकट बाहर से नहीं भीतर से पैदा हुआ है। राहुल गांधी कांग्रेस अध्यक्ष पद से इस्तीफा देने पर अड़े हैं। पार्टी के भीतर से उनपर अध्यक्ष बने रहने का दबाव है। शुक्रवार को सवा सौ के आसपास कांग्रेस पदाधिकारियों ने अचानक इस्तीफे देकर घटनाक्रम को नाटकीय बना दिया। इस्तीफे देने वालों में युवा कांग्रेस, महिला कांग्रेस और सचिव शामिल हैं। एक तरफ राहुल गांधी ने पार्टी के ज्यादातर कामों से हाथ खींच रखा है, वहीं शुक्रवार को उन्होंने छत्तीसगढ़ प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष पद पर मोहन मार्कम को नियुक्त भी किया है।
पार्टी के भीतर और बाहर संशय की स्थिति है। किसी के समझ में नहीं आ रहा है कि राहुल गांधी की योजना क्या है। क्या वे और अधिकार सम्पन्न होना चाहते हैं? या वे आंतरिक लोकतंत्र की किसी व्यवस्था की स्थापना करना चाहते हैं? क्या पार्टी गांधी-नेहरू परिवार के बगैर काम चला सकती है? शुक्रवार को हुए इस्तीफे अनायास नहीं हुए हैं। बुधवार को राहुल गांधी ने युवा कांग्रेस के कुछ वरिष्ठ पदाधिकारियों से मुलाकात की और उनसे कहा कि मैं अपने इस्तीफे पर कायम हूँ।

Friday, March 5, 2021

'फ्रीडम हाउस' की नजर में भारत अब ‘आंशिक-स्वतंत्र देश’




अमेरिकी थिंकटैंक फ्रीडम हाउस ने भारत को स्वतंत्र से आंशिक-स्वतंत्र देशों की श्रेणी में डाल दिया है। यह रिपोर्ट मानती है कि दुनियाभर में स्वतंत्रता का ह्रास हो रहा है, पर उसमें भारत का खासतौर से उल्लेख किया गया है। फ्रीडम हाउस एक निजी संस्था है और वह अपने आकलन के लिए एक पद्धति का सहारा लेती है। उसकी पद्धति को समझने की जरूरत है। भारत का श्रेणी परिवर्तन हमारे यहाँ चर्चा का विषय नहीं बना है, क्योंकि हमने लोकतंत्र और लोकतांत्रिक स्वतंत्रताओं को महत्व अपेक्षाकृत कम दिया है। हम उसके राजनीतिक पक्ष को आसानी से देख पाते हैं। मेरी समझ से फ्रीडम हाउस के स्वतंत्रता-सूचकांक के भी राजनीतिक निहितार्थ हैं। बेशक मानव-विकास, मानवाधिकार और नागरिक अधिकारों को लेकर देश के भीतर सरकार के आलोचकों की बड़ी संख्या है, पर स्वतंत्रता हमारी बुनियाद में है।

अंग्रेजी के कुछ अखबारों को छोड़ आमतौर पर भारतीय मीडिया में इस रिपोर्ट को लेकर ज्यादा विवेचन हुआ नहीं है। हिंदी के अखबार यों भी गंभीर मसलों पर टिप्पणियाँ करने से बचते हैं। इस रिपोर्ट से हमारे ऊपर सीधे कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा, पर संयुक्त राष्ट्र और मानवाधिकार से जुड़ी संस्थाओं में भारत को निशाने पर लिया जा सकेगा। ऐसा भी नहीं है कि रिपोर्ट में जिन तथ्यों का उल्लेख किया गया है, वे पूरी तरह आधारहीन हैं, पर उनसे जो निष्कर्ष निकाले गए हैं, उनमें कई प्रकार के छिद्र हैं।

आंतरिक राजनीति की प्रतिच्छाया

भारतीय राष्ट्र-राज्य को निशाने पर लेने वाली इस रिपोर्ट में भारत की आंतरिक राजनीति की प्रतिच्छाया भी नजर आती है। रिपोर्ट में इस बात का जिक्र तो है कि भारतीय पुलिस ने मानवाधिकार कार्यकर्ताओं को देशद्रोह के आरोप में गिरफ्तार किया है, पर इस बात का जिक्र नहीं है कि देश की अदालतों ने कई मौकों पर देशद्रोह के आरोपों को लेकर सरकार के विरुद्ध टिप्पणियाँ की हैं। तबलीगी जमात को लेकर आरोप लगे, पर अदालतों ने न केवल पुलिस की आलोचना की, साथ ही मीडिया को भी लताड़ बताई है। यह भी सच है कि देश में अनेक कठोर कानून बने हैं, पर उनके पीछे आतंकवादी गतिविधियों का इतिहास है और इन कानूनों का सीधा रिश्ता 2014 के राजनीतिक बदलाव से नहीं है।  

'फ्रीडम हाउस' एक अमेरिकी शोध संस्थान है जो हर साल 'फ्रीडम इन द वर्ल्ड' रिपोर्ट निकालता है। इस रिपोर्ट में दुनिया के अलग-अलग देशों में राजनीतिक आजादी और नागरिक अधिकारों के स्तर की समीक्षा की जाती है। ताजा रिपोर्ट में संस्था ने भारत में अधिकारों और आजादी में आई कमी को लेकर गंभीर चिंता व्यक्त की है। इस रिपोर्ट को देखने और समझने के पहले इसकी अंक पद्धति पर भी एक नजर डालना उपयोगी होगा। 2021 की रिपोर्ट में 195 देशों और 15 इलाकों में 1 जनवरी 2020 से लेकर 31 दिसंबर 2020 तक हुए घटनाक्रमों का विश्लेषण किया गया है।

पीछे का नजरिया

'फ्रीडम हाउस' की दृष्टि भी भारतीय मीडिया, लेखकों, राजनीति और अमेरिका तथा अन्य देशों में रहने वाले भारतीयों की दृष्टि से प्रभावित होती है। क्या भारत का पूरा मीडिया गोदी-मीडिया है? क्या मीडिया में नागरिक-स्वतंत्रता के सवाल उठने बंद हो गए हैं? भारत के बारे में यह दृष्टि सन 1947 के बाद से ही बन रही है। कश्मीर के मामले को संयुक्त राष्ट्र संघ में लेकर जाने के समय से। भारतीय स्वतंत्रता और खासतौर से विभाजन से जुड़ी ब्रिटिश राजनीति में भी उसके बीज छिपे हैं। 'फ्रीडम हाउस' के वैबपेज पर भारत का नक्शा इसकी गवाही देता है। उन्होंने जम्मू कश्मीर और लद्दाख को भारत के नक्शे से ही हटा दिया है। 

Saturday, October 8, 2016

वाजपेयी का नेहरू पर प्रहार क्या देशद्रोह था?

क्या भारतीय सेना और सरकार के कदमों पर उँगली उठाना देशद्रोह है? शुक्रवार को बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह के संवाददाता सम्मेलन के बाद हमारे इलेक्ट्रॉनिक मीडिया पर इस बात को लेकर जो बहस शुरू हुई थी वह अब भी जारी है। इस सिलसिले में कांग्रेस के मणिशंकर अय्यर ने सन 1962 के चीन युद्ध के समय राज्यसभा में अटल बिहारी वाजपेयी ने सरकार की जो आलोचना की थी उसका उल्लेख करते हुए कहा कि क्या अटल बिहारी वाजपेयी देशद्रोही साबित हुए? 8 नवम्बर 1962 की यह बहस सरकार की और से लाए गए आपातकाल प्रस्ताव के संदर्भ में शुरू हुई थी। इसमें वाजपेयी ने सवाल किया कि क्या नेहरू जी को पता था कि हमारी सेना नेफा में हमले का सामना करने के लिए तैयार थी? चीन ने पहली हमला 5 सितम्बर को और फिर दूसरा हमला 22 अक्तूबर को किया। इस बीच हमने तैयारी क्यों नहीं की? सेना की तैयारी क्यों नहीं थी और सैनिकों के पास पर्याप्त उपकरण क्यों नहीं थे? नेहरू जी ने विदेश यात्रा से लौटने के बाद चीन पर हमला करने का फैसला क्यों किया?

मणिशंकर अय्यर वाजपेयी के इस बयान का जिक्र पहले भी कर चुके हैं। सन 1962 में वाजपेयी ने नेहरू से कहा था कि राज्यसभा का सत्र बुलाया जाए। नेहरू ने इसे स्वीकार किया और वाजपेयी को निर्बाध बोलने का मौका दिया गया। उस दिन की राज्यसभा की कार्यवाही के दस्तावेजों में से मैने उस चर्चा के अंशों को निकाला है। ये कुछ पन्ने हैं सभी पन्ने यहाँ मिलेंगे

Saturday, July 13, 2019

राहुल की चिट्ठी के अंतर्विरोध


राहुल गांधी के जिस इस्तीफे पर एक महीने से अटकलें चल रही थीं, वह वास्तविक बन गया है। पहला सवाल यही है कि उसे इतनी देर तक छिपाने की जरूरत क्या थी? पार्टी ने इस बात को छिपाया जबकि वह एक महीने से ज्यादा समय से यह बात हवा में है। राहुल गांधी ने चार पेज का जो पत्र लिखा है उसे गौर से पढ़ें, तो उसकी ध्वनि है कि में इस्तीफा तो दे रहा हूँ, पर गलती न तो मेरी है और न मेरी पार्टी की। व्यवस्था ही खराब है। दोष आँगन का है नाचने वाले का नहीं। 

उन्होंने पत्र की शुरुआत में ही स्पष्ट कर दिया कि ‘कांग्रेस प्रमुख के तौर पर 2019 के लोकसभा चुनाव में हार की ज़िम्मेदारी मेरी है। भविष्य में पार्टी के विस्तार के लिए जवाबदेही काफ़ी अहम है। यही कारण है कि मैंने कांग्रेस पार्टी के अध्यक्ष पद से इस्तीफ़ा दिया है। पार्टी को फिर से बनाने के लिए कड़े फ़ैसले की ज़रूरत है। 2019 में हार के लिए कई लोगों की जवाबदेही तय करने की ज़रूरत है। यह अन्याय होगा कि मैं दूसरों की जवाबदेही तय करूं और अपनी जवाबदेही की उपेक्षा करूं।’

इसके बाद पत्र का काफी बड़ा हिस्सा इस बात को समर्पित है कि हार के पीछे उनकी जिम्मेदारी नहीं है। उन्होंने बीजेपी की विचारधारा को पहला निशाना बनाया है। उन्होंने लिखा है, ‘हमें कुछ कड़े फैसले करने होंगे और चुनाव में हार के लिए कुछ लोगों को जिम्मेदार ठहराना होगा। सत्ता के अपने मोह को छोड़े बिना और एक गहरी विचारधारा की लड़ाई लड़े बिना हम अपने विरोधियों को नहीं हरा सकते।’

Tuesday, June 30, 2020

चीन का सिरदर्द हांगकांग


China Threatens to Retaliate If U.S. Enacts Hong Kong Bill - Bloombergऔपचारिक रूप से हांगकांग अब चीन का हिस्सा है, पर एक संधि के कारण उसकी प्रशासनिक व्यवस्था अलग है, जो सन 2047 तक रहेगी। पिछले कुछ समय से हांगकांग में चल रहे आंदोलनों ने चीन की नाक में दम कर दिया है। उधर अमेरिकी सीनेट ने 25 जून 2020 को हांगकांग की सम्प्रभुता की रक्षा के लिए दो प्रस्तावों को पास किया है, जिससे और कुछ हो या न हो, हांगकांग की स्वतंत्र अर्थव्यवस्था को धक्का लगेगा।
चीन के नए सुरक्षा कानून के विरोध में अमेरिका ने यह कदम उठाया है। इस प्रस्ताव में उन बैंकों पर भी प्रतिबंध लगाने की बात है जो हांगकांग की स्वायत्तता के खिलाफ चीन का समर्थन करने वालों के साथ कारोबार करते हैं। ऐसे बैंकों को अमेरिकी देशों से अलग-थलग करने और अमेरिकी डॉलर में लेनदेन की सीमा तय करने का प्रस्ताव है।
हांगकांग ऑटोनॉमी एक्ट नाम से एक प्रस्ताव सर्वसम्मति से पारित किया गया, जिसका उद्देश्य उन व्यक्तियों और संस्थाओं पर पाबंदियाँ लगाना है, जो हांगकांग की स्वायत्तता को नष्ट करने की दिशा में चीनी प्रयासों के मददगार हैं। कानून बनाने के लिए अभी इसे हाउस ऑफ रिप्रेजेंटेटिव्स से पास कराना होगा और फिर इस पर राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के हस्ताक्षर होंगे।

Saturday, April 6, 2019

कांग्रेस फिर ‘सामाजिक कल्याणवाद’ पर वापस

इस बात को शुरू में ही कहना उचित होगा कि भारत में चुनाव घोषणापत्र भ्रामक हैं। जिस देश में चुनाव जीतने के सैकड़ों क्षुद्र हथकंडे इस्तेमाल में आते हों, वहाँ विचारधारा, दर्शन और आर्थिक-सामाजिक अवधारणाएं पाखंड लगती हैं। फिर भी इन घोषणापत्रों का राजनीतिक महत्व है, क्योंकि न केवल चुनाव प्रचार के दौरान, बल्कि चुनाव के बाद भी पार्टियों के कार्य और व्यवहार के बारे में इन घोषणापत्रों के आधार पर सवाल किए जा सकते हैं। उन्हें वायदों की याद दिलाई जा सकती है और लोकमंच पर विमर्श के प्रस्थान-बिन्दु तैयार किए जा सकते हैं।
कांग्रेस के इसबार के घोषणापत्र पर सरसरी निगाह डालने से साफ ज़ाहिर होता है कि पार्टी अपने सामाजिक कल्याणवाद पर वापस आ रही है। बीजेपी के आक्रामक छद्म राष्ट्रवाद के जवाब में कांग्रेस ने अपनी रणनीति को सामाजिक कल्याण और सम्पदा के वितरण पर केन्द्रित किया है। एक अरसे से कहा जा रहा था कि पार्टी को अपने राजनीतिक कार्यक्रम के साथ सामने आना चाहिए। केवल गैर-बीजेपीवाद कोई रणनीति नहीं हो सकती। वह नकारात्मक राजनीति है। अच्छी बात यह है कि कांग्रेस अब अपनी विचारधारा को एक दायरे में बाँधकर पूरी ताकत के साथ मैदान में उतरी है।

Monday, December 27, 2021

क्रूर वर्ष, जो उम्मीदें भी छोड़ गया


इक्कीसवीं सदी का इक्कीसवाँ साल पिछले सौ वर्षों का सबसे क्रूर वर्ष साबित हुआ। महामारी ने जैसा भयानक रूप इस साल दिखाया, वैसा पिछले साल भी नहीं दिखाया था, जब वह तेजी से फैली थी। खासतौर से हमारे देश ने बेबसी के सबसे मुश्किल क्षण देखे। इसी तरह हेलीकॉप्टर दुर्घटना में सीडीएस जनरल बिपिन रावत और उनकी पत्नी समेत कुल 14 लोगों को खोना सबसे दुखद घटनाओं में से एक था। साल जितना क्रूर था, लड़ने के हौसलों की शिद्दत भी इसी साल देखने को मिली। अर्थव्यवस्था पटरी पर वापस आ रही है, वैक्सीनेशन नई ऊँचाई पर है। उम्मीद है बच्चों की पढ़ाई पूरी होगी। राजद्रोह बनाम देशद्रोह मामले पर नई बहस इस साल शुरू हुई, जिसकी परिणति आने वाले वर्ष में देखने को मिलेगी। राजनीतिक जासूसी और टैक्स चोरी से जुड़े दो मामले इस साल उछले। एक पेगासस और दूसरा पैंडोरा पेपर लीक। इन सब बातों के बावजूद साल का अंत निराशाजनक नहीं है। उम्मीदें जगाकर ही जा रहा है यह साल।

महामारी

महामारी इस साल भी सबसे बड़ी परिघटना थी। पिछले दो वर्षों में देश में करीब साढ़े तीन करोड़ लोग संक्रमित हुए हैं। करीब 4.80 लाख लोगों की मौत हुई है। तीन करोड़ 42 लाख से ज्यादा ठीक भी हो चुके हैं, पर अप्रेल के पहले हफ्ते से लेकर जून के दूसरे हफ्ते तक जो लहर चली, उसने देश को हिलाकर रख दिया। अलबत्ता 2 जनवरी को भारत ने दो वैक्सीनों के आपातकालीन इस्तेमाल की अनुमति दी और 16 जनवरी से वैक्सीनेशन शुरू हो गया। शनिवार की सुबह आठ बजे तक देश में 140 करोड़ 31 लाख से ज्यादा टीके लग चुके हैं। आईसीएमआर के अनुसार देश में इस समय  पॉज़िटिविटी रेट एक फीसदी से भी कम है। मृत्यु दर 1.38 फीसदी है और रिकवरी रेट 98.40 फीसदी है। विश्व स्वास्थ्य संगठन ने सीरम इंस्टीट्यूट में बनी कोवोवैक्स को बच्चों पर इमरजेंसी इस्तेमाल की मंजूरी दे दी है। उम्मीद है कि नए साल में हालात सुधरते जाएंगे।

ममता का अभियान

पश्चिम बंगाल, केरल, असम, पुदुच्चेरी और तमिलनाडु विधानसभा चुनाव इस साल की सबसे महत्वपूर्ण घटनाक्रम था। इनमें सबसे महत्वपूर्ण परिणाम पश्चिम बंगाल से आए, जहाँ ममता बनर्जी लगातार तीसरी बार सत्ता पर काबिज होने में सफल हुईं। चुनाव के पहले और परिणाम आने के बाद की खूनी हिंसा को भी साल की सुर्खियों में शामिल किया जाना चाहिए। इस चुनाव के बाद ममता बनर्जी ने कांग्रेस के स्थान पर खुद को विपक्ष का नेता साबित करने का अभियान शुरू किया है। जिस तरह से गोवा में उनकी पार्टी सक्रिय हुई है, उससे लगता है कि आने वाले वर्ष के राजनीतिक पिटारे में कई रोचक संभावनाएं छिपी बैठी रखी हैं।

भाजपा की पहल

ज्यादा बड़े फेरबदल इस साल बीजेपी में हुए हैं। जुलाई में कर्नाटक में बीएस येदियुरप्पा के स्थान पर बसवराज बोम्मई को मुख्यमंत्री बनाया गया। सितंबर में गुजरात में विजय रूपाणी के हटाकर भूपेंद्र पटेल को मुख्यमंत्री बनाया गया। पूरे मंत्रिमंडल को बदल दिया गया। उत्तराखंड में दो बार मुख्यमंत्री बदले गए। केंद्रीय मंत्रिपरिषद में भारी फेरबदल भी इस साल की बड़ी घटनाएं रहीं। इसे विस्तार के बजाय नवीनीकरण कहना चाहिए। अतीत में किसी मंत्रिमंडल का विस्तार इतना विस्मयकारी नहीं हुआ होगा। पिछले साल प्रधानमंत्री ने अयोध्या में राम मंदिर का शिलान्यास किया था, तो इस साल उन्होंने वाराणसी में 'श्री काशी विश्वनाथ धाम' का लोकार्पण किया। इस कार्यक्रम की भव्यता को देखते हुए लगता है कि भारतीय जनता पार्टी अपने सांस्कृतिक-एजेंडा को लगातार चलाए रखेगी।

Wednesday, June 7, 2023

इमरान बनाम सेना बनाम पाकिस्तानी लोकतंत्र


पाकिस्तानी राजनीति में इमरान खान का जितनी तेजी से उभार हुआ था, अब उतनी ही तेजी से पराभव होता दिखाई पड़ रहा है. उनकी पार्टी के वफादार सहयोगी एक-एक करके साथ छोड़ रहे हैं. कयास हैं कि उन्हें जेल में डाला जाएगा, देश-निकाला हो सकता है, उनकी पार्टी को बैन किया जा सकता है वगैरह.

पाकिस्तान में कुछ भी हो सकता है. ऊपर जो बातें गिनाई हैं, ऐसा अतीत में कई बार हो चुका है. पहले भी सेना ने ऐसा किया था और इस वक्त इमरान के खिलाफ कार्रवाई भी सेना ही कर रही है. परीक्षा पाकिस्तानी नागरिकों की है. क्या वे यह सब अब भी होने देंगे?

कुल मिलाकर यह लोकतंत्र की पराजय है. इमरान खान ने सेना का सहारा लेकर प्रतिस्पर्धी राजनीतिक दलों को पीटा, अब वे खुद उसी लाठी से मार खा रहे हैं. पर उन्होंने अपनी इस गलती को कभी नहीं माना. 

ब्रिटिश पत्रिका इकोनॉमिस्ट ने लिखा है कि इमरान को पिछले साल अपदस्थ करने के बजाय, लँगड़ाते हुए ही चलने दिया जाता, तो अगले चुनाव में जनता उसे रद्द कर देती. लोकतंत्र में खराब सरकारों को जनता खारिज करती है. इसकी नज़ीर बनती है और आने वाले वक्त की सरकारें डरती हैं.

सेना का हस्तक्षेप

जनरलों ने किसी भी सरकार को पूरे पाँच साल काम करने नहीं दिया. पिछले साल इमरान को हटाने के पीछे भी जनरल ही थे, जिन्होंने एक विफल राजनेता को सफल बनने का मौका दिया. इमरान ने साजिशों की कहानियाँ गढ़ लीं, और उनके समर्थकों की तादाद बढ़ती चली गई.

Saturday, December 3, 2022

केरल के विझिंजम बंदरगाह की परियोजना के कारण बढ़ा सामुदायिक विद्वेष


केरल में बन रहे देश के सबसे बड़े बंदरगाह अडानी पोर्ट को लेकर विवाद पैदा हो गया है। ऐसे विवाद बंदरगाहों, कारखानों, नाभिकीय बिजलीघरों, बाँधों, राजमार्गों और ऐसे ही दूसरे कार्यक्रमों को लेकर होते रहे हैं, पर यह विवाद एक अलग कारण से चर्चित हो रहा है। कारण है इसे लेकर दो प्रकार के आंदोलनों का शुरू होना। एक आंदोलन इसके विरोध में है और दूसरा इसके समर्थन में। दोनों आंदोलनों के पीछे सांप्रदायिक आधार है।

7500 करोड़ रुपये के विझिंजम इंटरनेशनल सीपोर्ट लिमिटेड प्रोजेक्ट जिसे अडानी पोर्ट के नाम से जाना जाता है, गत 16 अगस्त से संकट से जूझ रहा है और विरोध के कारण परियोजना का काम रोक दिया गया है। पिछले हफ्ते शनिवार को बंदरगाह के खिलाफ विरोध-प्रदर्शन हिंसक हो गया। आंदोलनकारियों ने एक पुलिस स्टेशन पर हमला करके वहां तोडफोड़ की। इससे पहले पुलिस ने उन प्रदर्शनकारियों को गिरफ़्तार किया था, जिन्होंने ग्रेनाइट ला रहे ट्रकों का रास्ता रोका था। इससे नाराज़ प्रदर्शनकारियों ने पुलिस स्टेशन पर हमला कर दिया।

राज्य के मुख्यमंत्री पिनाराई विजयन का कहना है, यह सरकार के खिलाफ़ प्रदर्शन नहीं है, बल्कि राज्य के विकास को रोकने की कोशिश है। उनके मंसूबों को कामयाब नहीं होने दिया जाएगा। दूसरी तरफ इसके विरोधी मानते हैं कि बंदरगाह बनने से न केवल आसपास के, बल्कि तिरुवनंतपुरम से लेकर कोल्लम तक पूरे तट पर मछुआरों की आजीविका को नुकसान पहुंचेगा। इसका सांप्रदायिक रूप इसलिए उभरा क्योंकि तटवर्ती मछुआरे लैटिन कैथलिक चर्च के सदस्य हैं और चर्च उनका नेतृत्व कर रहा है। वे

इस परियोजना के तहत ऐसा निर्माण किया जाएगा, जिससे भारतीय तट पर बड़े मालवाहक जहाज़ आ सकेंगे। अभी छोटे भारतीय जहाज़ों के लिए भी कोलंबो, सिंगापुर या दुबई के बंदरगाह इस्तेमाल करने पड़ते हैं और आयात निर्यात के लिए वहाँ सामग्री का लदान होता है।

केरल सरकार की कंपनी वीआईएसएल के प्रबंध निदेशक के गोपालकृष्णन ने बीबीसी हिंदी को बताया, हम हर 20-फ़ुट के कंटेनर के लिए 80 अमेरिकी डॉलर का भुगतान करते हैं क्योंकि हम भारत में कहीं भी बड़ा जहाज़ (मदर शिप) पार्क नहीं कर सकते। इससे सात दिनों का नुकसान तो होता ही है साथ-साथ बहुत पैसों की भी बरबादी होती है। यह छोटी रकम नहीं है। 2016-17 के आंकड़ों के मुताबिक हम अकेले इस काम के लिए 1,000 करोड़ रुपये का भुगतान करते हैं। इसके अलावा हम माल ढुलाई पर 3,000-4,000 करोड़ रुपये खर्च करते हैं। कोविड के बाद ये सभी शुल्क चार से पांच गुना बढ़ गए हैं। 20-फुट के कंटेनर में (जिसे टीईयू यानी ट्वेंटी इक्विपमेंट यूनिट कहते हैं) लगभग 24 टन माल लदता है। मदर शिप में 10,000 से 15,000 टीईयू तक भेजा जा सकता है।

Sunday, June 28, 2020

सीमा पर चीन और घर में सियासी शोर!

मंगलवार को हुई कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक में अध्यक्ष सोनिया गांधी ने सरकार पर निशाना साधा और सवाल पूछा कि चीन ने जिस जमीन पर कब्जा कर लिया है, उसे वापस कैसे लिया जाएगा? लगता है कि पार्टी ने चीन के साथ वर्तमान तनातनी को लेकर सरकार पर हमले करने की रणनीति तैयार की है। राहुल गांधी ने भी एक वीडियो जारी करके कहा है कि चीन ने लद्दाख के तीन इलाकों में घुसपैठ की है। चीनी घुसपैठ और 20 जवानों की शहादत को लेकर राहुल गांधी लगातार सरकार से तीखे सवाल कर रहे हैं। उन्होंने जापान टाइम्स के एक लेख को ट्वीट कर लिखा है, ‘नरेंद्र मोदी असल में सरेंडर मोदी हैं।’

पार्टी ने शुक्रवार को भारत-चीन सीमा पर शहीद हुए जवानों को श्रद्धांजलि देने के लिए ‘शहीदों को सलाम दिवस’ मनाया। इस मौके पर सोनिया गांधी ने वीडियो संदेश के जरिए कहा, देश जानना चाहता है कि अगर चीन ने लद्दाख में हमारी सरजमीन पर कब्जा नहीं किया, तो फिर हमारे 20 सैनिकों की शहादत क्यों और कैसे हुई? मनमोहन सिंह की टिप्पणी भी आई। कुछ फौजी अफसरों की टिप्पणियाँ भी सोशल मीडिया पर प्रकट हुईं, जिनमें सरकार से सवाल पूछे गए हैं। क्या ये टिप्पणियाँ अनायास थीं या किसी ने इशारा करके कराई थीं?

Saturday, June 29, 2019

कांग्रेस का नया तराना ‘कोई लौटा दे मेरे बीते हुए दिन!’

अचानक न्यू इंडिया शब्द विवाद के घेरे में आ गया है। हाल में अंतरराष्ट्रीय योग दिवस पर सेना की ‘डॉग यूनिट' के कार्यक्रम से जुड़ी तस्वीरें शेयर करते हुए कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने ट्वीट किया, जिसमें लिखा, न्यू इंडिया'। उनका आशय क्या था, इसे लेकर अपने-अपने अनुमान हैं, पर सरकारी पक्ष ने उसे देश की नई व्यवस्था पर तंज माना। लोकसभा चुनाव में पराजय के बाद कांग्रेस पार्टी के कुछ सदस्यों ने देशद्रोह, राष्ट्रप्रेम और राष्ट्रवाद जैसी बातों को चुनाव में पराजय का कारण माना। हालांकि कांग्रेस ने इस आशय का कोई औपचारिक बयान जारी नहीं किया है, पर परोक्ष रूप से बीजेपी के नए भारत पर लानतें जरूर भेजी जा रही हैं।

संसद में राष्ट्रपति के अभिभाषण पर धन्यवाद प्रस्ताव पर चली बहस के दौरान संसद के दोनों सदनों में कांग्रेस के सदस्यों ने पिछली सरकार के पाँच साल पर निशाना लगाया। खासतौर से राज्यसभा में कांग्रेस के नेता गुलाम नबी आजाद ने ध्यान खींचा। उन्होंने कहा, मैं आपसे निवेदन करता हूं कि नया भारत आप अपने पास रखें और हमें हमारा पुराना भारत दे दें जहां प्‍यार और भाईचारा था। जब मुस्‍लिम और दलित को चोट पहुंचती थी, तब हिंदुओं को पीड़ा का अहसास होता था और जब हिंदुओं की आंखों में कुछ पड़ जाता था तब मुस्लिमों और दलितों की आंखों से आंसू निकल जाते थे।

Sunday, April 10, 2022

इमरान का गुब्बारा फूटा, अहंकार नहीं टूटा


पाकिस्तान की राष्ट्रीय असेंबली में इमरान खान सरकार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव सफल रहने के बाद सोमवार से पाकिस्तानी राजनीति का एक नया अध्याय शुरू होगा, जिसमें संभवतः शहबाज़ शरीफ देश के नए प्रधानमंत्री बनेंगे। सोमवार को असेंबली का एक विशेष सत्र होने वाला है जिसमें नए प्रधानमंत्री का चुनाव किया जाएगा, जो अगले चुनावों तक कार्यभार संभालेंगे। चुनाव समय से पहले नहीं  हुए, तो वे अक्तूबर 2023 तक प्रधानमंत्री बने रह सकते हैं। अगले एक साल और कुछ महीने का समय पाकिस्तान के लिए काफी महत्वपूर्ण होगा, क्योंकि देश की अर्थव्यवस्था और विदेश-नीति से जुड़े कुछ बड़े फैसले इस दौरान होंगे। खासतौर से अमेरिका-विरोधी झुकाव में कमी आएगी। उसे अंतरराष्ट्रीय मुद्राकोष से सहायता लेने और एफएटीएफ की ग्रे-लिस्ट से बाहर आने के लिए अमेरिकी मदद की जरूरत है।

पहले प्रधानमंत्री

शनिवार देर रात नेशनल असेंबली में उनकी सरकार के ख़िलाफ़ अविश्वास प्रस्ताव पर हुए मतदान में 174 सदस्यों ने प्रस्ताव के पक्ष में वोट दिया। मतदान से पहले नेशनल असेंबली के अध्यक्ष असद कैसर ने अपने पद से इस्तीफा दे दिया। असद कैसर के बाद पीएमएल-एन नेता अयाज़ सादिक ने सत्र की अध्यक्षता की। पाकिस्तान के इतिहास में इमरान देश के पहले प्रधानमंत्री हैं, जिन्हें अविश्वास-प्रस्ताव के मार्फत हटाया गया है। इसके पहले 2006 में शौकत अजीज और 1989 में बेनजीर भुट्टो के विरुद्ध अविश्वास-प्रस्ताव लाए गए थे, पर उन्हें हटाया नहीं जा सका था।

पिछले दो  हफ्ते के घटनाक्रम में बार-बार इमरान खान के तुरुप क पत्त का जिक्र होता रहा, जिसे कुछ पर्यवेक्षकों ने ट्रंप-कार्ड कहा। सत्ता से चिपके रहने, हार को अस्वीकार करने और भीड़ को उकसाने और भड़काने की अराजक-प्रवृत्ति। उन्होंने संसद में अविश्वास-प्रस्ताव को जिस तरीके से खारिज कराया, उससे इस बात की पुष्टि हुई। उनके समर्थकों ने उसे मास्टर-स्ट्रोक बताया। अपनी ही सरकार का कार्यकाल खत्म होने का जश्न मनाया गया। साथ ही उन 197 सांसदों को देशद्रोही घोषित कर दिया गया, जो उनके खिलाफ खड़े थे। इनमें वे सहयोगी दल भी शामिल थे, जो कुछ दिन पहले तक सरकार के साथ थे। उन्होंने इस बात पर भी विचार नहीं किया कि उनकी अपनी पार्टी के करीब दो दर्जन सदस्य उनसे नाराज क्यों हो गए। ये सब बिके हुए नहीं, असंतुष्ट लोग हैं।

Sunday, June 19, 2022

'अग्निपथ' पर पेट्रोल किसने छिड़का?


सेना में भरती से जुड़े 'अग्निपथ' कार्यक्रम के विरोध में देश के कई क्षेत्रों में हिंसा की जैसी लहर पैदा हुई है, उसे रोकने की जरूरत है। यह जिम्मेदारी केवल सरकार की ही नहीं है, विरोधी दलों की भी है। नौजवानों को भड़काना बंद कीजिए। बेशक उनकी सुनवाई होनी चाहिए, पर विरोध को शांतिपूर्ण तरीके से व्यक्त करना चाहिए। जिस प्रकार की हिंसा सड़कों पर देखने को मिली है, वह देशद्रोह है। रेलगाड़ियों, बसों और सरकारी बसों में आग लगाने वाले सेना में भरती के हकदार कैसे होंगे? सरकार ने फौरी तौर पर इस स्कीम भरती होने वालों की आयु में इस साल दो साल की छूट भी दी है। साथ ही रक्षा मंत्रालय से जुड़ी अन्य सेवाओं में अग्निवीरों को 10 प्रतिशत का आरक्षण देने की घोषणा की है। सरकार ने यह भी कहा है कि भविष्य में अर्धसैनिक बलों की भरती में अग्निवीरों को वरीयता दी जाएगी। राज्य सरकारों की पुलिस में भी इन्हें वरीयता दी जा सकती है। वायुसेना ने भरती की प्रक्रिया 24 जून से शुरू करने का कार्यक्रम भी घोषित कर दिया है। इससे माहौल को सुधारने में मदद मिलेगी। 14 जून को जिस दिन केंद्रीय मंत्रिमंडल ने अग्निपथ कार्यक्रम को स्वीकृति दी, उसी दिन प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने सभी विभागों और मंत्रालयों में मानव संसाधन की स्थिति की समीक्षा की और निर्देश दिया कि अगले डेढ़ साल में सरकार द्वारा मिशन मोड में 10 लाख लोगों की भरती की जाए। इन दोनों फैसलों का असर सकारात्मक असर होने के बजाय नकारात्मक होना चिंता का विषय है।

हिंसा के पीछे कौन?

यह देखने की जरूरत भी है कि अचानक शुरू हुए इस आंदोलन के पीछे किन लोगों की भूमिका है और वे चाहते क्या हैं। यह संदेश नहीं जाना चाहिए कि सरकार को आंदोलन की धमकियाँ देकर दबाया जा सकता है। शाहीनबाग, किसान आंदोलन और नूपुर शर्मा से जुड़े मामलों में सरकार की नरम नीति से बेजा फायदे उठाने की कोशिशों को सफलता नहीं मिलनी चाहिए। अग्निपथ कार्यक्रम सेनाओं के आधुनिकीकरण और देश के सुधार कार्यक्रमों का हिस्सा है। देश को अत्याधुनिक हथियारों से लैस एक युवा सशस्त्र बल की ज़रूरत है। यह रोजगार गारंटी कार्यक्रम नहीं है। उसे इस प्रकार आंदोलनों का शिकार बनने से रोकना चाहिए। शुक्रवार तक की जानकारी के अनुसार विरोध प्रदर्शनों के कारण 300 से अधिक ट्रेनें प्रभावित हुई हैं, जबकि 200 से अधिक रद्द की जा चुकी हैं। इनमें 94 मेल व एक्सप्रेस और 140 पैसेंजर ट्रेन रद्द की जा चुकी हैं। वहीं 65 मेल व एक्सप्रेस ट्रेन और 30 यात्री ट्रेन आंशिक रूप से रद्द की गई हैं। तेलंगाना, बिहार और उत्तर प्रदेश में प्रदर्शनकारियों ने तमाम स्थानों पर रेलवे स्टेशनों को नुकसान पहुँचाया है, कैश-काउंटरों से रुपयों की लूट की है और ट्रेनों में आग लगाई है। यह भयावह स्थिति है और इसे किसी कीमत पर स्वीकार नहीं किया जा सकता है।

अग्निपथ योजना

योजना के तहत 90 दिनों के भीतर क़रीब 40 हजार युवकों की सेना में भरती की जाएगी। उन्हें 6 महीने की ट्रेनिंग दी जाएगी। भरती होने के लिए उम्र साढ़े 17 साल से 21 साल के बीच होनी चाहिए। चूंकि पिछले दो साल भरती नहीं हो पाई थी, इसलिए पहले बैच के लिए अधिकतम आयु सीमा दो साल बढ़ाई गई है। इसमें भाग लेने के लिए शैक्षणिक योग्यता 10वीं या 12वीं पास होगी। जनरल ड्यूटी सैनिक में प्रवेश के लिए, शैक्षणिक योग्यता कक्षा 10 है। इस स्कीम के तहत भरती चार साल के लिए होगी। पहले साल का वेतन प्रति महीने 30 हज़ार रुपये होगा, जो हर साल बढ़ते हुए चौथे साल में प्रति माह 40 हज़ार रुपये हो जाएगा। चार साल बाद सेवाकाल में प्रदर्शन के आधार पर मूल्यांकन होगा और 25 प्रतिशत लोगों को नियमित किया जाएगा। योजना का विरोध करने वाले कहते हैं कि चार साल की सेवा के बाद उनका भविष्य सुरक्षित नहीं है।

सामयिक परिवर्तन

कुछ लोगों का कहना है कि चार साल बाद नौजवान एटीएम का गार्ड बनकर रह जाएगा। इस कार्यक्रम को बदलते समय के दृष्टिकोण से भी देखा चाहिए। सभी देशों की सेनाओं का आकार छोटा हो रहा है, क्योंकि युद्धों में सैनिकों की भूमिका कम हो रही है और तकनीकी भूमिका बढ़ रही है। चीन की सेना ने पिछले तीन-चार साल में अपना आकार करीब आधा कर लिया है। भारतीय सेना की थिएटर कमांड योजना और इंटीग्रेटेड बैटल ग्रुप्स बेहतर समन्वय और संसाधनों के इस्तेमाल को देखते हुए बनाए जा रहे हैं। सेना को बदलती चुनौतियों के बीच अपनी गैर-परंपरागत युद्ध क्षमताओं और साइबर और खुफ़िया इकाइयों का विस्तार करने की ज़रूरत है। पूर्व सेनाध्यक्ष जनरल वीके सिंह ने एक टेलीविज़न चैनल से कहा, योजना अभी आई ही है। इसे शुरू तो होने दें, इसमें पहली नियुक्तियां होने दें। ये देखें कि ये योजना कैसे काम करती है। सुधार सभी योजनाओं में होते हैं। शॉर्ट सर्विस कमीशन को पांच साल के लिए शुरू किया गया था और बाद में उसे कोई पेंशन और चिकित्सकीय सुविधा नहीं मिलती थी।

Monday, December 9, 2019

इमरान खान की कुर्सी डोल रही है


पाकिस्तान में जनरल कमर जावेद बाजवा का कार्यकाल सुप्रीम कोर्ट ने छह महीने के लिए बढ़ा तो दिया है, पर इस प्रकरण ने इमरान खान की सरकार को कमजोर कर दिया है। सरकार को अब संसद के मार्फत देश के सेनाध्यक्ष के कार्यकाल और उनकी सेवा-शर्तों के लिए नियम बनाने होंगे। क्या सरकार ऐसे नियम बनाने में सफल होगी? और क्या यह कार्यकाल अंततः तीन साल के लिए बढ़ेगा? और क्या तीन साल की यह अवधि ही इमरान खान सरकार की जीवन-रेखा बनेगी? इमरान खान को सेना ने ही खड़ा किया है। पर अब सेना विवाद का विषय बन गई है, जिसके पीछे इमरान सरकार की अकुशलता है। तो क्या वह अब भी इस सरकार को बनाए रखना चाहेगी? सेना के भीतर इमरान खान को लेकर दो तरह की राय तो नहीं बन रही है?
सुप्रीम कोर्ट ने भी अपनी सुनवाई के दौर यह सवाल किया था कि आखिर तीन साल के पीछे रहस्य क्या है?  देश की सुरक्षा के सामने वे कौन से ऐसे मसले हैं जिन्हें सुलझाने के लिए तीन साल जरूरी हैं? पहले उन परिस्थितियों पर नजर डालें, जिनमें इमरान खान की सरकार ने जनरल बाजवा का कार्यकाल तीन साल बढ़ाने का फैसला किया था। यह फैसला भारत में कश्मीर से अनुच्छेद 370 और 35ए को निष्प्रभावी बनाए जाने के दो हफ्ते बाद किया गया था। संयोग से उन्हीं दिनों मौलाना फज़लुर रहमान के आज़ादी मार्च की खबरें हवा में थीं।

Monday, April 15, 2013

सज़ा नहीं हत्या है फाँसी


मौत की सज़ा क्या सोची-समझी ऐसी हत्या नहीं है, जिसकी तुलना हम किसी भी सुविचारित अपराध से नहीं कर सकते? तुलना करनी ही है तो यह उस अपराधी को दी गई सजा है, जिसने अपने शिकार को पहले से बता दिया हो कि मैं फलां तारीख को तुझे मौत की नींद सुला दूँगा। और उसका शिकार महीनों तक उस हत्यारे की दया पर जीता हो। ऐसे वहशी सामान्य जीवन में नहीं मिलते। -अल्बेर कामू

इस साल हम फ्रांसीसी साहित्यकार पत्रकार अल्बेयर कामू की जन्मशती मना रहे हैं। कामू का जन्म फ्रांसीसी उपनिवेश अल्जीरिया में हुआ था। वहीं उनकी शुरूआती पढ़ाई भी हुई। सन 1957 में कामू को नोबेल पुरस्कार दिया गया था। उसी साल कामू और आर्थर कोस्लर ने मिलकर मौत की सजा के खिलाफ एक लम्बा निबंध लिखा। यह निबंध मनुष्य की प्रकृति का विवेचन करता है। अलबेयर कामू मानवाधिकारों को लेकर बेहद संवेदनशील थे। वामपंथी झुकाव के बावज़ूद उन्हें वामपंथियों की आलोचना का विषय बनना पड़ा। व्यष्टि और समष्टि की इस दुविधा के कारण उन्होंने बहुत से मित्रों को दुश्मन बना लिया। मानवाधिकार को लेकर उन्होंने सोवियत रूस, पोलैंड और जर्मनी की सरकारों के कई निर्णयों की खुलकर आलोचना की। जब कामू लिख ही रहे थे तभी 1954 में अल्जीरिया का स्वतंत्रता संग्राम शुरू हो गया। यहाँ कामू की दुविधाएं सामने आईं। बहरहाल विचार का वह अलग विषय है। मृत्युदंड पर अपने निबंध की शुरूआत कामू एक व्यक्ति की सरेआम गर्दन काटे जाने के प्रसंग से करते हैं, जिसे उनके पिता देखकर आए थे। उस व्यक्ति को एक परिवार की हत्या के कारण मौत की सजा दी गई थी। उसने महिलाओं-बच्चों समेत परिवार के सभी लोगों को मार डाला था। जब पिता इस सजा को देखकर वापस आए तो वे बेहद व्यथित थे। उनके मन में मारे गए बच्चों की छवि नहीं थी बल्कि वह शरीर था, जिसकी गर्दन काटने के लिए उसे एक बोर्ड से नीचे गिराया गया था। कामू ने लिखा राजव्यवस्था के हाथों हुई यह नई हत्या मेरे पिता के मन पर भयानक तरीके से हावी रही। राजव्यवस्था ने एक खराबी के जवाब में दूसरी खराबी को जन्म दिया। यह मान लिया गया कि सजा पाने वाले ने समाज से किए गए अपने अपराध की कीमत चुका दी और न्याय हो गया। यह सामाजिक प्रतिशोध है।