Wednesday, September 22, 2021

संरा महासभा में क्या तालिबान का भाषण होगा?

सुहेल शाहीन

तालिबान को वैश्विक मान्यता मिलेगी या नहीं, इसका अनुमान संयुक्त राष्ट्र महासभा की सालाना बैठक के दौरान लगाया जा सकेगा। तालिबान शासन ने संरा से अनुरोध किया है कि हमारे प्रतिनिधि को महासभा में बोलने की अनुमति दी जाए। इसके लिए उन्होंने दोहा स्थित अपने प्रवक्ता सुहेल शाहीन को प्रतिनिधि के रूप में नियुक्त कर दिया है। संरा की एक प्रामाणिकता (क्रेडेंशियल) समिति अब इस अनुरोध पर फैसला करेगी। इस समिति के नौ सदस्यों में अमेरिका, चीन और रूस के प्रतिनिधि भी शामिल हैं।

इस समिति की बैठक अगले सोमवार यानी 27 सितम्बर के पहले नहीं होगी। अमेरिका का कहना है कि हम इस विषय पर काफी सावधानी से विचार करेंगे। बहरहाल लगता यही है कि फिलहाल अफगानिस्तान के स्थायी प्रतिनिधि गुलाम इसाकज़ई ही अफगानिस्तान का प्रतिनिधित्व करते रहेंगे, जो पिछली सरकार द्वारा नियुक्त हैं। इस बात की सम्भावना लग रही है कि 27 को वे अफगानिस्तान की ओर से वक्तव्य देंगे। संरा सुरक्षा परिषद की बैठकों में भी वही शामिल हुए थे। तालिबान ने अपने अनुरोध में कहा है कि वे अफगानिस्तान के प्रतिनिधि नहीं हैं। दुनिया के अनेक देशों की सरकारें उस सरकार को मान्यता नहीं देती हैं, जिसने उन्हें नियुक्त किया था।  

अब संयुक्त राष्ट्र के सामने सवाल है कि तालिबान के अनुरोध को स्वीकार करने का मतलब क्या नई सरकार को मान्यता देना नहीं होगा? इससे तालिबान को एक वैधानिक मंच मिल जाएगा। उधर संयुक्त राष्ट्र महासभा के हाशिए पर होने वाली दक्षेस देशों की बैठक इस साल नहीं हो पाएगी, क्योंकि यह तय नहीं हो सका है कि इस बैठक में अफगानिस्तान का प्रतिनिधित्व कौन करेगा। तालिबान या अशरफ ग़नी सरकार का प्रतिनिधि?

Tuesday, September 21, 2021

अफगानिस्तान में अमेरिकी सहयोग के बिना केवल चीनी सहायता से रास्ता नहीं निकलने वाला


वैश्विक एजेंडा पर इस हफ्ते भी अफगानिस्तान सबसे ऊपर है। तालिबान की विजय को एक महीना पूरा हो गया है, पर अस्थिरता कायम है। अफगानिस्तान के भीतर और बाहर भी। इस दौरान एक शिखर सम्मेलन व्लादीवोस्तक में ईस्टर्न इकोनॉमिक फोरम का हुआ, फिर 9 सितम्बर को दिल्ली में ब्रिक्स का शिखर सम्मेलन। उसके बाद दुशान्बे में शंघाई सहयोग संगठन का सम्मेलन। अब इस हफ्ते संयुक्त राष्ट्र महासभा की सालाना बैठक शुरू होगी, जिसमें दूसरी बातों से ज्यादा महत्वपूर्ण अफगानिस्तान का मसला है।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी इसमें भाग लेंगे, पर उनकी यात्रा का ज्यादा महत्वपूर्ण एजेंडा है राष्ट्रपति जो बाइडेन से मुलाकात का। 24 सितंबर को ह्वाइट हाउस में क्वॉड नेताओं का पहला वास्तविक शिखर-सम्मेलन होने जा रहा है। इसमें बाइडेन के साथ नरेंद्र मोदी, स्कॉट मॉरिसन और योशिहिदे सुगा शामिल होंगे। भारतीय राजनय के लिहाज से वह महत्वपूर्ण परिघटना होगी, पर वैश्विक-दृष्टि से एक और मुलाकात सम्भव है। संरा के हाशिए पर चीन और अमेरिका के राष्ट्रपतियों की मुलाकात। खासतौर से अफगानिस्तान के संदर्भ में।

शी-बाइडेन वार्ता

अफगानिस्तान को भटकाव से बचाने के लिए अमेरिका और चीन का आपसी सहयोग क्या सम्भव है? बाइडेन और शी चिनफिंग के बीच 9-10 सितंबर को करीब 90 मिनट लम्बी बातचीत ने इस सवाल को जन्म दिया है। दोनों नेताओं के बीच सात महीने से अबोला चल रहा था। इस फोन-वार्ता की पेशकश अमेरिका ने की थी। पर्यवेक्षकों के अनुसार दोनों देशों के लिए ही नहीं दुनिया के भविष्य के लिए दोनों का संवाद जरूरी है।

Monday, September 20, 2021

गहमा-गहमी के बाद तय हुआ चन्नी का नाम

पाँच महीने का मुख्यमंत्री? इंडियन
एक्सप्रेस में उन्नी का कार्टून

चुनाव के पाँच महीने पहले मुख्यमंत्री बदलने के कारण तो समझ में आए, पर वैकल्पिक मुख्यमंत्री के नाम पर विचार करने में पार्टी ने देरी की। दूसरे जिस व्यक्ति का चयन किया गया है, उससे जुड़े विवादों पर विचार करने का मौका भी पार्टी को नहीं मिला। चरणजीत सिंह चन्नी की दो बातें उनके पक्ष में गईं। एक तो उनका दलित आधार और दूसरे नवजोत सिंह की जोरदार पैरवी।

अब राज्य में पार्टी और सरकार के बीच दूरी नहीं रहेगी। पर मुख्यमंत्री के चयन के दौरान कई नामों के विरोध से यह बात भी सामने आई है कि पार्टी के भीतर आपसी टकराव काफी हैं। पार्टी सर्वानुमति से फैसला नहीं कर पाई। फैसला हुआ भी तो भीतरी टकराव सामने आया। पार्टी के भीतर सिख बनाम हिन्दू की अवधारणा का टकराव भी देखने को मिला।

नए मुख्यमंत्री का नाम तय होने के बाद भी यह विवाद खत्म होने वाला नहीं है, क्योंकि पंजाब के प्रभारी हरीश रावत ने किसी चैनल पर कह दिया कि चुनाव के बाद मुख्यमंत्री नवजोत सिंह सिद्धू बनेंगे। इस बात पर सुनील जाखड़ ने कड़ी प्रतिक्रिया दी है। सिद्धू समर्थक भी इस बात से नाराज है कि उनके नेता को मुख्यमंत्री नहीं बनाया गया। अब प्रतिक्रियाएं श्रृंखला की शक्ल लेंगी और उनके जवाब आएंगे। शायद नेतृत्व ने इन बातों पर विचार नहीं किया था।

राज्य में 32 फीसदी दलित आबादी है और इन्हें अपनी तरफ खींचने की कोशिश सभी पार्टियाँ कर रही हैं। शिरोमणि अकाली दल ने बहुजन समाज पार्टी के साथ पहले ही गठबंधन कर लिया है और पहले से कहा है कि यदि उनकी सरकार बनी तो दलित उप-मुख्यमंत्री बनेगा। आम आदमी पार्टी भी दलित वोटबैंक के पीछे है। भारतीय जनता पार्टी ने कहा है कि हमारी सरकार बनी तो दलित को मुख्यमंत्री बनाएंगे। बहरहाल कांग्रेस ने बना दिया। सवाल है कि यदि पार्टी को सरकार बनाने का मौका मिला, तब भी क्या वह चन्नी को मुख्यमंत्री बनाएगी?

Sunday, September 19, 2021

राहुल-प्रियंका नेतृत्व की परीक्षा की घड़ी


पंजाब में जो राजनीतिक बदलाव हुआ है, उसका श्रेय राहुल गांधी और प्रियंका गांधी को दिया जा रहा है। पिछले कुछ समय से दोनों पार्टी को दिशा दे रहे हैं, इसलिए आने वाले समय में इन दोनों की परीक्षा होगी। पंजाब में नेतृत्व का सवाल हल होने के बाद चुनाव और उसके बाद की परिस्थितियों से जुड़े फैसले अब उन्हें ही करने होंगे। उसके साथ-साथ पर्यवेक्षक यह भी कह रहे हैं कि राजस्थान और छत्तीसगढ़ के मसले भी सिर उठाएंगे।

ऐसा लगता है कि कांग्रेस हाईकमान सबसे पहले अपने ऊपर लगे कमजोर-नेतृत्व के विशेषण को हटाना चाहती है। इसके लिए जरूरी है कि फैसले होने चाहिए। सही या गलत का निर्णय समय करेगा। पंजाब के फैसले को लेकर पार्टी के भीतर और बाहर बहस शुरू हो गई है, पर ज्यादातर लोग मानते हैं कि राहुल और प्रियंका ने अपनी उपस्थिति को दिखाना शुरू किया है। एक तरह से यह जी-23 के नाम भी संदेश है।

लगता यह भी है कि पार्टी ने होमवर्क किए बगैर अमरिंदर को हटाने का फैसला कर लिया गया है। अन्यथा अबतक नए मुख्यमंत्री का नाम सामने आ जाता। तार्किक रूप से नवजोत सिद्धू को यह पद दिया जाना चाहिए।  

राजनीतिक दृष्टि

नेतृत्व की उपस्थिति साबित होने के अलावा देखना यह भी होगा कि इसके पीछे की राजनीतिक-दृष्टि क्या है और दूरगामी विचार क्या है। बताते हैं कि कांग्रेस के महामंत्री अजय माकन ने चंडीगढ़ में पार्टी के ऑब्ज़र्वर के रूप में जाने के पहले शुक्रवार की शाम को राहुल गांधी से भेंट की।

इसके बाद वे अभिषेक सिंघवी से भी मिले और यह जानकारी ली कि यदि अमरिंदर सिंह विधानसभा भंग करने की सिफारिश करें या केंद्रीय नेतृत्व का निर्देश मानने के बजाय इस्तीफा देने से इनकार कर दें, तब क्या होगा। उस समय तक 60 से ज्यादा विधायकों के हस्ताक्षरों से एक पत्र हाई कमान के पास आ चुका था। यानी पार्टी ने कानूनी व्यवस्थाएं भी कर ली थीं।

दुशान्बे और ‘ऑकस’ के निहितार्थ


वैश्विक-राजनीति और भारतीय विदेश-नीति के नज़रिए से इस हफ्ते की तीन घटनाएं ध्यान खींचती हैं। इन तीनों परिघटनाओं के दीर्घकालीन निहितार्थ हैं, जो न केवल सामरिक और आर्थिक घटनाक्रम को प्रभावित करेंगे, बल्कि वैश्विक-स्थिरता और शांति के नए मानकों को निर्धारित करेंगे। इनमें पहली घटना है, ताजिकिस्तान की राजधानी दुशान्बे में हुआ शंघाई सहयोग संगठन (एससीओ) का शिखर सम्मेलन। दूसरी परिघटना है ऑस्ट्रेलिया, ब्रिटेन और अमेरिका के बीच हुआ सामरिक समझौता ऑकस

तीसरी परिघटना और है, जिसकी तरफ मीडिया का ध्यान अपेक्षाकृत कम है।ऑकसघोषणा के अगले ही दिन चीन ने ट्रांस पैसिफिक पार्टनरशिप में शामिल होने की अर्जी दी है। अब दुनिया का और खासतौर से भारतीय पर्यवेक्षकों का ध्यान अगले सप्ताह अमेरिका में क्वॉड के पहले रूबरू शिखर सम्मेलन और फिर संयुक्त राष्ट्र महासभा की सालाना बैठक पर होगा। इस बैठक का महत्व प्रचारात्मक होता है, पर हाशिए पर होने वाला मेल-मिलाप महत्वपूर्ण होता है।

अफगान समस्या

दुनिया के सामने इस समय अफगानिस्तान बड़ा मसला है। इस लिहाज से दुशान्बे सम्मेलन का महत्व है। एससीओ का जन्म 2001 में 9/11 के कुछ सप्ताह पहले उसी साल हुआ था, जिस साल अमेरिका ने तालिबान के पिछले शासन के खिलाफ कार्रवाई की थी। इसके गठन के पीछे चीन की बुनियादी दिलचस्पी मध्य एशिया के देशों और रूस के साथ अपनी सीमा के प्रबंधन को लेकर थी। खासतौर से 1991 में सोवियत संघ का विघटन होने के बाद मध्य एशिया के नवगठित देशों में स्थिरता की जरूरत थी। पर अब उसका दायरा बढ़ रहा है। इस समय अफगानिस्तान में स्थिरता कायम करने में इसकी भूमिका देखी जा रही है।