Sunday, May 5, 2019

इस हिंसक 'माओवाद' का जवाब है लोकतंत्र

गढ़चिरौली में महाराष्ट्र पुलिस के सी-60 कमांडो दस्ते की क्विक रेस्पांस टीम (क्यूआरटी) के 16 सदस्यों की 1 मई को हुई मौत के बाद दो तरह के सवाल मन में आते हैं। पहला रणनीतिक चूक के बाबत है। हम बार-बार एक तरह की गलती क्यों कर रहे हैं? दूसरा सवाल हिंसक माओवादी राजनीति को लेकर है। आतंकियों ने पहले सड़क निर्माण में लगे ठेकेदार के तीन दर्जन वाहनों में आग लगाई। इसकी सूचना मिलने पर क्यूआरटी दस्ता एक प्राइवेट बस से घटनास्थल की ओर रवाना हुआ, तो रास्ते में आईईडी लगाकर बस को उड़ा दिया। इस तरह से उन्होंने कमांडो दस्ते को अपने जाल में फँसाया।

मीडिया रिपोर्टों के अनुसार पिछले एक महीने में गढ़चिरौली में हो रही गतिविधियों के बारे में 13 अलर्ट जारी हुए थे। पिछले साल 22 अप्रैल को इसी इलाके में पुलिस के कमांडो दस्ते में 40 आतंकियों को ठिकाने लगाया था। आतंकी इस साल बदले की कार्रवाई कर रहे थे और इस बात की जानकारी राज्य पुलिस को थी। सामान्यतः कमांडो दस्ते को एक ही वाहन में नहीं भेजा जाता। वे ज्यादातर पैदल मार्च करते हुए जाते हैं, ताकि उनपर घात लगाकर हमला न हो सके। इस बार वे प्राइवेट बस में जा रहे थे, जिसकी जानकारी केवल पुलिस को थी। सम्भव है कि स्थानीय लोगों ने इसे देखा हो और आतंकियों को जानकारी दी हो। जो भी है, यह स्टैंडर्ड ऑपरेटिंग प्रोसीजर की अनदेखी है, जिसका भारी खामियाजा देना पड़ा।

Saturday, May 4, 2019

चुनाव के सफल संचालन से माओवाद हारेगा

लोकसभा चुनाव के दौरान माओवादी हिंसा के राजनीतिक निहितार्थ हैं. बिहार, उड़ीसा, बंगाल, आंध्र, छत्तीसगढ़, आंध्र, तेलंगाना और महाराष्ट्र के कई इलाके उस लाल गलियारे में पड़ते हैं, जहाँ माओवादी प्रभाव है. माओवादी इस लोकतांत्रिक गतिविधि को विफल करना चाहते हैं. बावजूद छिटपुट हिंसा के उत्साहजनक खबरें भी मिल रहीं हैं. जनता आगे बढ़कर माओवादियों को चुनौती दे रही है. इस बीच माओवादियों ने कई जगह हमले किए हैं. सबसे बड़ा हमला गढ़चिरौली में हुआ है, जहाँ 15 कमांडो और एक ड्राइवर के शहीद होने की खबर है.

चुनाव शुरू होने के पहले ही माओवादियों ने बहिष्कार की घोषणा कर दी थी और कहा था कि जो भी मतदान के लिए जाएगा, उसे गंभीर परिणाम भुगतने होंगे. इस धमकी के बावजूद झारखंड, उड़ीसा, महाराष्ट्र, आंध्र और तेलंगाना में मतदाताओं ने बहिष्कार के फरमान को नकारा. छत्तीसगढ़ में निर्वाचन आयोग ने सुरक्षा की दृष्टि से अचानक 132 मतदान केंद्रों के स्थान बदल दिए. फिर भी सैकड़ों मतदाताओं ने जुलूस के रूप में 30 किलोमीटर पैदल चलकर मतदान किया. इससे जाहिर होता है कि मतदाताओं के मन में कितना उत्साह है. यह हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था की जीत है. माओवादियों ने गांवों में ही मतदाताओं को रोकने की कोशिशें कीं, जो बेअसर हो गईं.

गढ़चिरौली में माओवादियों की हिंसक कार्रवाई के बाद नक्सलवाद शब्द एकबार फिर से खबरों में है. नक्सलवाद और माओवाद को प्रायः हम एक मान लेते हैं. ऐसा नहीं है. माओवाद अपेक्षाकृत नया आंदोलन है. नक्सलवाद चीन की कम्युनिस्ट क्रांति से प्रेरित-प्रभावित आंदोलन था. उसकी रणनीति के केन्द्र में भी ग्रामीण इलाकों की बगावत थी. शहरों को गाँवों से घेरने की रणनीति. वह रणनीति विफल हुई.

Thursday, May 2, 2019

ताकत यानी पावर का नाम है राजनीति!

समय के साथ राजनीति में आ रहे बदलावों पर क्या आपने ध्यान दिया है? कुछ साल पहले सायास और अनायास मुझे कुछ ऐसे लोगों से मिलने का मौका लगा, जो ऊँचे खानदानों से वास्ता रखते हैं और राजनीति में आना चाहते हैं। उन्होंने जो रास्ता चुना, वह जनता के बीच जाने का नहीं है। उनका रास्ता पार्टी-प्रवक्ता के रूप में उभरने का है। उन्हें मेरी मदद की दो तरह से दरकार थी। एक, राजनीतिक-सामाजिक मसलों की पृष्ठभूमि को समझना और दूसरे मुहावरेदार हिन्दी बोलने-बरतने में मदद करना। सिनेमा के बाद शायद टीवी दूसरा ऐसा मुकाम है, जहाँ हिन्दी की बदौलत सफलता का दरवाजा खुलता है।

पिछले एक दशक में राजनीतिक दलों के प्रवक्ता बनने का काम बड़े कारोबार के रूप में विकसित हुआ है। पार्टियों के भीतर इस काम के लिए कतारें हैं। मेरे विस्मय की बात सिर्फ इतनी थी कि मेरा जिनसे भी सम्पर्क हुआ, उन्हें अपने रसूख पर पूरा यकीन था कि वे प्रवक्ता बन जाएंगे, बस उन्हें होमवर्क करना था। वे बने भी। इससे आप राजनीतिक दलों की संरचना का अनुमान लगा सकते हैं। सम्बित महापात्रा का उदाहरण आपके सामने है। कुछ साल पहले तक आपने इनका नाम भी नहीं सुना था।

Sunday, April 28, 2019

वाराणसी से भाजपा का गठबंधन-संदेश


गुरुवार को वाराणसी में भारी-भरकम रोड शो के बाद शुक्रवार को प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने अपना नामांकन पत्र दाखिल कर दिया। रोड शो और उसके बाद गंगा आरती की भव्यता ने मीडिया का ध्यान आकर्षित किया, जो स्वाभाविक था। इसका आयोजन सोज-समझकर किया गया था। सन 2014 के चुनाव के पहले भी करीब-करीब इसी तरह का आयोजन किया गया था। पर इस कार्यक्रम की भव्यता और भारी भीड़ के बरक्स ध्यान देने वाली बात है इस कार्यक्रम की राजनीतिक प्रतीकात्मकता। यह प्रतीकात्मकता दो तरीके से देखी जा सकती है। एक, प्रस्तावकों के चयन में बरती गई सावधानी से और दूसरे एनडीए से जुड़े महत्वपूर्ण नेताओं की उपस्थिति।
मोदी के नामांकन के ठीक पहले खबर यह भी आई कि प्रियंका गांधी वाराणसी से चुनाव लड़ने नहीं जा रही हैं। हालांकि कांग्रेस पार्टी ने कभी यह नहीं कहा था कि प्रियंका वाराणसी से लड़ेंगी, पर इस सम्भावना को शुरू में ही खारिज नहीं किया गया था। देर से की गई इस घोषणा से पार्टी को नुकसान ही हुआ। शुरू में ही साफ कर देना बेहतर होता। इसे अटकल के रूप में चलने देने की गलती कांग्रेस ने की। इतना ही नहीं ममता बनर्जी, मायावती, अखिलेश यादव, अरविन्द केजरीवाल, के चंद्रशेखर राव और नवीन पटनायक के अंतर्विरोधी बयानों की वजह से भी  महागठबंधन की राजनीति को झटके लगे हैं। बीजेपी के विरोध में खड़ी की गई एकता में दरारें नजर आने लगी हैं। विरोधी दल कम के कम मोदी के खिलाफ अपना संयुक्त प्रत्याशी खड़ा करने में नाकाम रहे। चुनाव परिणाम जो भी हों, पर बीजेपी अपने गठबंधन की एकता को सुनिश्चित रखने का दावा कर सकती है।

Saturday, April 27, 2019

‘सौ में नब्बे बेईमान’, फिर भी ‘वह सुबह तो आएगी’


गुरुवार की रात मीडियाकर्मी करन थापर अपने एक शो में कुछ लोगों के साथ बैठे नरेन्द्र मोदी और देश के चुनाव आयोग को कोस रहे थे। मोदी ने वर्धा में कहा कि कांग्रेस ने हिन्दुओं का अपमान किया है, उसे सबक सिखाना होगा। चुनाव आयोग ने तमाम नेताओं के बयानों पर कार्रवाई की है, मोदी के बयान पर नहीं की। चुनाव आयोग मोदी सरकार से दब रहा है। एक गोष्ठी में कहा जा रहा था, चुनाव में जनता के मुद्दे ही गायब हैं। पहली बार गायब हुए क्या? यह बात हर चुनाव में कही जाती है।
हरेक चुनाव के दौरान हमें लगता है कि लोकतंत्र का स्तर गिर रहा है। नैतिकता समाप्त होती जा रही है। यही बात हमने बीस बरस पहले भी कही थी। तब हमें लगता था कि उसके बीस बरस पहले की राजनीति उदात्त, मूल्यबद्ध, ईमानदार और जिम्मेदार थी। ऐतिहासिक दस्तावेजों को ठीक से पढ़ें, तो पाएंगे कि संकीर्णता, घृणा, स्वार्थ और झूठ का तब भी बोलबाला था।
वोटर की गुणवत्ता
जातिवाद, साम्प्रदायिकता, भावनाओं का दोहन, गुंडागर्दी, अपराधियों की भूमिका, पैसे का बढ़ता इस्तेमाल वगैरह-वगैरह। पर ये क्यों हैं? हैं तो इनके पीछे कोई वजह होगी। हम जिस सिस्‍टम की रचना कर रहे हैं, वह हमारे देश में तो नया है ही, सारी दुनिया में भी बहुत पुराना नहीं है। हमने क्यों मान लिया कि सार्वभौमिक मताधिकार जादू की छड़ी है, जो चमत्कारिक परिणाम देगा? हमारे विमर्श पर यह बात हावी है कि जबर्दस्त मतदान होना चाहिए। जितना ज्यादा वोट पड़ेगा, उतना ही वह जन-भावनाओं का प्रतिनिधित्व करेगा। यह जाने बगैर कि जनता की दिलचस्पी चुनाव में कितनी है? और सिस्‍टम के बारे में उसकी जानकारी का स्तर क्या है?