पन्द्रहवीं लोकसभा के आखिरी सत्र के आखिरी दिन की जद्दो-जहद
को देखते हुए कहा जा सकता है कि भारतीय राजनीति बेहद डरावने दौर से गुजरने वाली
है। शोर-गुल, धक्का-मुक्की मामूली बात हो गई। लगातार तीन सत्रों पर तेलंगाना
मुद्दा छाया रहा, जिसकी परिणति पैपर-स्प्रे के रूप में हुई। किसी ने चाकू भी
निकाला। बिल को लोकसभा से पास कराने के लिए टीवी ब्लैक आउट किया गया। कई तरह की
अफवाहें सरगर्म थीं। लगता नहीं कि हम इक्कीसवीं सदी में आ गए हैं। राहुल गांधी जिन
भ्रष्टाचार विरोधी विधेयकों को पास कराना चाहते थे, वे इस तेलंगाना-तूफान के शिकार
हो गए। किसी तरह से विसिल ब्लोवर विधेयक संसद से पास हो पाया है। सदा की भांति
महिला विधेयक ठंडे बस्ते में ही पड़ा रहा। लोकसभा के सामने विचारार्थ रखे तकरीबन
सत्तर विधेयक लैप्स हो गए।
भारत के संसदीय इतिहास में पन्द्रहवीं लोकसभा एक ओर अपनी
सुस्ती और दूसरी ओर शोर-गुल के लिए याद की जाएगी। आंध्र की जनता के लिए क्या
वास्तव में इतना बड़ा मसला था कि हम तमाम बड़े राष्ट्रीय सवालों को भूल गए? तेलंगाना बिल के पास होते ही मीडिया में
कयास शुरू हो गए हैं कि इसका फायदा किसे मिलेगा। क्या यह सब कुछ चुनावी नफे-नुकसान
की खातिर था? कांग्रेस पार्टी के लिए इस विधेयक को पास कराना
जीवन-मरण का सवाल बन गया था। सवाल है कि यह सब सदन के आखिरी सत्र के लिए क्यों रख
छोड़ा गया था? और अब जब यह काम पूरा हो गया है तो क्या
कांग्रेस को तेलंगाना की जनता कोई बड़ा पुरस्कार देगी?