Monday, June 3, 2013

खेल को खेल ही रहने दो

प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह यों भी कम बोलते हैं। बोलते भी हैं तो खेलों पर सबसे कम। पिछले हफ्ते जब उन्होंने कहा कि खेलों में राजनीति नहीं होनी चाहिए, तब यह बात समझ में आ जानी चाहिए थी कि सरकार ने इन दिनों चल रही खेल राजनीति को गम्भीरता से लिया है। प्रधानमंत्री के अलावा राहुल गांधी और सोनिया गांधी ने तकरीबन उसी समय क्रिकेट की सट्टेबाज़ी को लेकर अपना रोष व्यक्त किया। उसके दो-तीन दिन पहले ही बीसीसीआई अध्यक्ष एन श्रीनिवासन ने कहा था, मेरे पद छोड़ने का सवाल पैदा नहीं होता। मीडिया के कहने पर मैं पद थोड़े ही छोड़ दूँगा। पूरा बोर्ड मेरे साथ है। वास्तव में बोर्ड उनके साथ था। दो दिन बाद दिल्ली के एक अखबार ने लीड खबर छापी कि बीसीसीआई में राजनेता भरे पड़े हैं, पर कोई इस मामले में बोल नहीं रहा। इस खबर का असर था या कोई और बात थी कि बीसीसीआई में कांग्रेस से जुड़े राजनेताओं के बयान आने लगे। सबसे पहले ज्योतिरादित्य सिंधिया ने श्रीनिवासन के इस्तीफे की माँग की। इसके बाद दबाव डालने के लिए संजय जगदाले और अजय शिर्के के इस्तीफे हो गए। राजीव शुक्ला ने भी आईपीएल के कमिश्नर पद से इस्तीफा दिया। कहना मुश्किल है कि यह इस्तीफा दबाव डालने के लिए है या सोनिया गांधी के निर्देश पर है।
क्रिकेट की सट्टेबाज़ी की खबरों ने तीन काम किए हैं। एक तो खेलों के भीतर घुसी राजनीति का पर्दाफाश किया है। दूसरे पैसे के खुले खेल की ओर इशारा किया है। और तीसरे देश का ध्यान कोलगेट और सीबीआई की स्वतंत्रता हटा दिया है। संयोग है कि पिछले ढाई साल से भारतीय राजनीति में चल रहे हंगामें की शुरूआत कॉमनवैल्थ गेम्स की तैयारियों से हुई थी। सुरेश कलमाडी हमारे नए राष्ट्रीय हीरो थे, जिनकी खेल और राजनीति में समान पकड़ थी। भारतीय ओलिम्पिक संघ के अध्यक्ष कलमाडी के साथ कॉमनवैल्थ गेम्स ऑर्गनाइज़िंग कमेटी के सेक्रेटरी जनरल ललित भनोत और डायरेक्टर जनरल वीके वर्मा की उस मामले में गिरफ्तारी भी हुई थी। हमें लगता है कि कलमाडी के दिन गए। पर ऐसा हुआ नहीं। पिछले साल दिसम्बर में भारतीय ओलिम्पिक महासंघ (आईओए) के चुनाव में यह मंडली फिर से मैदान में उतरी। उधर अंतरराष्ट्रीय ओलिम्पक कमेटी (आईओसी) के एथिक्स कमीशन ने कलमाडी, भनोत और वर्मा को उनके पदों से निलंबित करने का सुझाव दिया। आईओए के अध्यक्ष पद के लिए हरियाणा के राजनेता अभय चौटाला का नाम तय हो चुका था। माना जाता था कि ललित भनोत चुनाव में नहीं उतरेंगे, पर अभय चौटाला ने राजनीति से उदाहरण दिया कि आरोप तो मुलायम सिंह यादव, लालू यादव और जे जयललिता पर भी हैं। ललित भनोत कहीं से दोषी तो साबित नहीं हुए हैं। बहरहाल वह चुनाव नहीं हुआ। अंतरराष्ट्रीय ओलिम्पक कमेटी (आईओसी) ने भारतीय ओलिम्पिक महासंघ की मान्यता खत्म कर दी। जिन दिनों क्रिकेट की सट्टेबाज़ी की खबरें हवा में थीं, उन्हीं दिनों आईओसी की एक टीम के साथ  खेलमंत्री जितेन्द्र सिंह की मुलाकात हुई और ओलिम्पिक में वापसी का रास्ता साफ हुआ। देश का शायद ही कोई खेल संघ हो जिसे लेकर राजनीतिक खींचतान न हो।
भारत की खेल व्यवस्था पर नज़र डालें तो आप पाएंगे कि सबसे ऊँचे पदों पर वे लोग बैठे हैं, जिनका खेल से वास्ता नहीं है। खेल संगठन पर जिसका एक बार कब्ज़ा हो गया, सो हो गया। पहले खेल संगठनों पर राजाओं-महाराजाओं का कब्ज़ा था। अब राजनेताओं का है। क्रिकेट ने फिक्सिंग शब्द को नए सिरे से परिभाषित किया और राजनीति में फिक्सरों का नया मुकाम बना दिया। सन 2011 के अगस्त में तत्कालीन खेल और युवा मामलों के मंत्री अजय माकन ने कैबिनेट के सामने एक कानून का मसौदा रखा। राष्ट्रीय खेल विकास अधिनियम 2011 के तहत खेल संघों को जानकारी पाने के अधिकार आरटीआई के अंतर्गत लाने का प्रस्ताव था। साथ ही इन संगठनों के पदाधिकारियों को ज्यादा से ज्यादा 12 साल तक संगठन की सेवा करने या 70 साल का उम्र होने पर अलग हो जाने की व्यवस्था की गई थी। यह कानून बन नहीं पाया। तब से अब तक इसके चौदह-पन्द्रह संशोधित प्रारूप बन चुके हैं, पर मामला जस का तस है। उसके पहले खेलमंत्री एमएस गिल यह कोशिश कर रहे थे कि खेलसंघों का नियमन किया जाए। इस मामले के कई जटिल पहलू हैं। खेलों में सरकारी हस्तक्षेप नहीं होना चाहिए। केवल इसी नैतिक मूल्य के सहारे खेल संघों के पदाधिकारी सरकार के कानून बनाने के अधिकार को चुनौती देते हैं। अंतरराष्ट्रीय ओलिम्पिक महासंघ (आईओसी) का भी कहना है कि खेलों के मामले में सरकारी हस्तक्षेप हमें मंज़ूर नहीं है।
क्रिकेट में स्पॉट फिक्सिंग के नए खेल ने इसे सट्टेबाजी से और सट्टेबाज़ी ने इसे दूसरे अपराधों से जोड़ दिया है। इसमें काले धन का खेल भी है। दिक्कत यह है कि ऊँचे स्तर पर ऐसे लोग बैठे हैं जिनके हित बीसीसीआई और आईपीएल से जुड़े हैं। इसी तरह बीसीसीआई के अध्यक्ष के हित आईपीएल से जुड़े हैं। ऐसे में पारदर्शिता कैसे आएगी? भारतीय हॉकी की महा-दुर्दशा के तमाम कारणों में से एक यह भी है कि इसे देखने वाला कोई संगठन ही नहीं है। देश में दो संगठन हॉकी के नाम पर हैं। एक को अंतरराष्ट्रीय हॉकी महासंघ की मान्यता है तो दूसरे को देश की अदालत ने वैध संगठन माना है।
आईपीएल मैच खत्म होने के बाद रात में पार्टियाँ होती है। यह भी खिलाड़ियों के कॉण्ट्रैक्ट का एक हिस्सा है। इन पार्टियों में शराबखोरी और छेड़खानी की घटनाएं होने लगीं हैं। इस किस्म की पार्टियों में अक्सर मुक्केबाजी होती है। यह सिर्फ आईपीएल की बात नहीं है। भारतीय टेस्ट क्रिकेट टीम की बात भी है। कुल मिलाकर खेल और अपराध का यह गठजोड़ सांस्कृतिक पतन का कारण भी बन रहा है। भारतीय क्रिकेट टीम के पुराने खिलाड़ी और सांसद कीर्ति आजाद एक अर्से से इस बात को उठा रहे हैं कि आईपीएल क्रिकट नहीं है, बल्कि मनी लाउंडरिंग का जरिया बन गया है। यह सच है कि आईपीएल के कारण क्रिकेट की लोकप्रियता बढ़ी, खिलाड़ियों को पैसा मिला और नए खिलाड़ियों को विश्व प्रसिद्ध खिलाड़ियों के साथ खेलने का मौका मिला। दूसरी ओर इसने एक गलीज़ संस्कृति को जन्म दिया है। इसलिए ज़रूरी है कि इसपर सामाजिक निगरानी हो। अजय माकन कानून नहीं बनवा पाए। अलबत्ता वे खेलमंत्री पद से हट गए। यह जिम्मेदारी नए खेलमंत्री की है कि वे संसद के मार्फत खेलों पर सामाजिक निगरानी का इंतज़ाम करें।

बीसीसीआई भारतीय क्रिकेट टीम को तैयार करती है। टीम के साथ राष्ट्रीय प्रतिष्ठा जुड़ती है। उसके खाते आरटीआई के लिए खुलने चाहिए और आईपीएल के तमाशे को कड़े नियमन के अधीन लाया जाना चाहिए। ऐसा नहीं हुआ तो यह मामला सरकार के गले की हड्डी बन जाएगा। आईपीएल जैसी खेल संस्कृति को जन्म दे रहा है वह खतरनाक है। उससे ज्यादा खतरनाक है इसकी आड़ में चल रही आपराधिक गतिविधियाँ जिनका अभी अनुमान नहीं लगाया जा सकता है। दाऊद इब्राहीम जैसे माफिया भी इसके कारोबार की ओर मुखातिब हुए हैं। क्रिकेट की सट्टेबाज़ी के ताज़ा प्रकरण की गहराई से जाँच हो तो उसकी जड़ें बहुत दूर तक जाएंगी। यह जाँच खुलकर होनी चाहिए। दूसरी ओर खेल मैदान को खिलाड़ियों और खेल प्रेमियों तक सीमित रहने देना चाहिए। इसमें राजनीति के प्रवेश को रोकना चाहिए। सवाल यह नहीं है कि एन श्रीनिवासन हटेंगे या नहीं। उनके हटने का मतलब है उनके विरोधी गुट को बैठने की जगह मिलेगी। अनुभव यह है कि तकरीबन सारे गुट खेल के मैदान में गंदगी फैलाने का काम करते हैं। यह गंदगी दूर होनी चाहिए ताकि साफ-सुथरे मैदानों में साफ-सुथरे खेल हों। पर एक शंका फिर भी बाकी रह जाती है। कहीं यह क्रिकेट-कांड दूसरे मसलों से ध्यान हटाने की कोशिश तो नहीं?
सी एक्सप्रेस में प्रकाशित

Sunday, June 2, 2013

पीपली लाइव!!!

Mediapersons are seen outside the Sheraton Park Hotel, venue of the crucial BCCI meeting, in Chennai on Sunday. Photo: V. Ganesan

चेन्नई के शेरेटन पार्क होटल के भीतर बीसीसीआई की बैठक चल रही है और बाहर पीपली लाइव लगा है। ऐसी क्या बात है कि मीडिया इस घटना के एक-एक दृश्य को लाइव दिखा देना चाहता है। दो हफ्ते पहले यही मीडिया कोलगेट को लेकर परेशान था। और सीबीआई की स्वतंत्रता को लेकर ज़मीन-आसमान एक किए दे रहा था। उसके पहले मोदी और राहुल के मुकाबले पर जुटा था। लद्दाख में दौलत बेग ओल्दी क्षेत्र में चीनी फौजों की घुसपैठ को लेकर ज़मीन-आसमान एक कर रहा था। और जब चीन के प्रधानमंत्री भारत आए तब उस खबर को भूल चुका था, क्योंकि आईपीएल में सट्टेबाज़ी की खबर से उसने खेलना शुरू कर दिया था। एक ज़माने में राजनीतिक दलों के एक या दो प्रवक्ता होते थे। अब राजनीतिक दलों ने अपने प्रवक्ताओं के अलावा टीवी पर नमूदार होने वाले लोगों के नाम अलग से तय कर दिए हैं। पत्रकारों से तटस्थता की उम्मीद रहा करती थी, पर अब पार्टी का पक्ष रखने वाले पत्रकार हैं। उन्हें पक्षधरता पर शर्म या खेद नहीं है। चैनलों को इस बात पर खेद नहीं है कि खबरें छूट रहीं हैं। उन्हें केवल एक सनसनीखेज़ खबर की तलाश रहती है। और चैनलों के सम्पादकों के कार्टल बन गए हैं जो तय करते हैं कि किस पर आज खेलना है। सारे चैनलों में लगभग एक सी बहस और कोट बदल कर अलग-अलग कुर्सियों पर बैठे विशेषज्ञ। बहस में शामिल होने के लिए व्याकुल 'विश्लेषक-विशेषज्ञों' को जिस रोज़ बुलौवा नहीं आता उस रात उन्हें भूख नहीं लगती। यह नई बीमारी है, जिसका इलाज़ मनोरोग विशेषज्ञ तलाश रहे हैं। देश में बढ़ती कैमरों की तादाद से लगता है कि सूचना-क्रांति हो रही है, पर चैनलों की कवरेज से लगता है कि शोर बढ़ रहा है। सूचना घट रही है। 

तू-तू, मैं-मैं से नही निकलेगा माओवाद का हल

पिछले हफ्ते देश के मीडिया पर दो खबरें हावी रहीं। पहली आईपीएल और दूसरी नक्सली हिंसा। दोनों के राजनीतिक निहितार्थ हैं, पर दोनों मामलों में राजनीतिक दलों की प्रतिक्रिया अलग-अलग रही। शुक्रवार को शायद राहुल गांधी और सोनिया गांधी की पहल पर कांग्रेसी राजनेताओं ने बीसीसीआई अध्यक्ष एन श्रीनिवासन के खिलाफ बोलना शुरू किया। उसके पहले सारे राजनेता खामोश थे। भारतीय जनता पार्टी के अरुण जेटली, नरेन्द्र मोदी और अनुराग ठाकुर अब भी कुछ नहीं बोल रहे हैं।

Tuesday, May 28, 2013

क्रिकेट के सीने पर सवार इस दादागीरी को खत्म होना चाहिए

आईपीएल में स्पॉट फिक्सिंग की खबरें आने के बाद यह माँग शुरू हुई कि इसके अध्यक्ष एन श्रीनिवासन को हटाया जाए। श्रीनिवासन पर आरोप केवल सट्टेबाज़ी को बढ़ावा देने का नहीं है। वे बीसीसीआई के अध्यक्ष हैं और उनकी टीम चेन्नई सुपरकिंग्स आईपीएल में शामिल है। 

इस बात को सब जानते हैं कि आईपीएल की व्यवस्था अलग है, पर वह बीसीसीआई के अधीन काम करती है। बीसीसीआई का भारतीय क्रिकेट पर ही नहीं अब दुनिया के क्रिकेट पर एकछत्र राज है। यह उसकी ताकत थी कि उसने क्रिकेट की विश्व संस्था आईसीसी के निर्देशों को मानने से इनकार कर दिया। 

भारत में क्रिकेट की लोकप्रियता ने इसका कारोबार चलाने वालों को बेशुमार पैसा और ताकत दी है। और इस ताकत ने बीसीसीआई के एकाधिकार को कायम किया है। यह मामूली संस्था नहीं है। वरिष्ठ पत्रकार शांतनु गुहा रे ने हाल में बीबीसी हिन्दी वैबसाइट को बताया कि सत्ता के गलियारों में माना जाता है कि केंद्रीय मंत्री अजय माकन को खेल मंत्रालय से इसलिए हाथ धोना पड़ा, क्योंकि वे बीसीसीआई पर फंदा कसने की कोशिश कर रहे थे।

Sunday, May 26, 2013

सूने शहर में शहनाई का शोर


यूपीए-2 की चौथी वर्षगाँठ की शाम भाजपा और कांग्रेस के बीच चले शब्दवाणों से राजनीतिक माहौल अचानक कड़वा हो गया। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने अपनी सरकार की उपलब्धियों को गिनाया, पर कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने उपलब्धियों के साथ-साथ दो बातें और कहीं। एक तो यह कि प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को उनका पूरा समर्थन प्राप्त है और दूसरे इस बात पर अफसोस व्यक्त किया कि मुख्य विपक्षी पार्टी ने संवैधानिक भूमिका को नहीं निभाया, जिसकी वजह से कई अहम बिल पास नहीं हुए। इसके पहले भाजपा की नेता सुषमा स्वराज और अरुण जेटली ने सरकार पर जमकर तीर चलाए। दोनों ने अपने संयुक्त संवाददाता सम्मेलन में कहा कि सरकार पूरी तरह फेल है। दोनों ओर से वाक्वाण देर रात तक चलते रहे।


पिछले नौ साल में यूपीए की गाड़ी झटके खाकर ही चली। न तो वह इंदिरा गांधी के गरीबी हटाओ जैसी तुर्शी दिखा पाई और न उदारीकरण की गाड़ी को दौड़ा पाई। यूपीए के प्रारम्भिक वर्षों में अर्थव्यवस्था काफी तेजी से बढ़ी। इससे सरकार को कुछ लोकलुभावन कार्यक्रमों पर खर्च करने का मौका मिला। इसके कारण ग्रामीण इलाकों में उसकी लोकप्रियता भी बढ़ी। पर सरकार और पार्टी दो विपरीत दिशाओं में चलती रहीं।