Monday, June 25, 2012

तख्ता पलट बतर्ज पाकिस्तान-पाकिस्तान


सी एक्सप्रेस में प्रकाशित

पाकिस्तान में इन दिनों अफवाहों का बाज़ार गर्म है। कोई कहता है कि फौज टेक ओवर करेगी। दूसरा कहता है कि कर लिया। युसुफ रज़ा गिलानी से शिकायत बहुत से लोगों को थी, पर जिस तरीके से उन्हें हटाया गया, वह बहुतों को पसंद नहीं आया। कुछ लोगों को लगता है कि उन्हें हटाने में फौज की भूमिका भी है। भूमिका हो या न हो पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी के सहयोगी दल एमक्यूएम ने कुछ दिन पहले ही कहा था कि फौज को बुला लेना चाहिए। फिलहाल सवाल यह है कि मुल्क में जम्हूरियत को चलना है या नहीं। बहरहाल राजा परवेज़ अशरफ को चुनकर संसदीय व्यवस्था ने लोकतांत्रिक प्रक्रिया को आगे बढ़ा दिया है। इसके पहले पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी ने मख्दूम शहाबुद्दीन को इस पद के लिए प्रत्याशी बनाया था। पर अचानक एक अदालत ने उनके खिलाफ गिरफ्तारी वॉरंट जारी कर दिया और प्रत्याशी बदल दिया। क्या यह सिर्फ संयोग था? इस विषय पर कुछ देर बाद बात करेंगे।

भारत के हित में है लोकतांत्रिक पाकिस्तान


पाकिस्तानी अखबार डॉन में फेका का कार्टून


पिछले गुरुवार की रात काबुल के एक होटल पर तालिबान फिदाई दस्ते ने फिर हमला बोला। तकरीबन 12 घंटे तक होटल पर इनका कब्ज़ा रहा। हालांकि संघर्ष में सुरक्षा बलों ने सभी पाँचों हमलावरों को मार गिराया, पर बड़ी संख्या में निर्दोष नागरिक मारे गए। पिछले दो-तीन महीनों में तालिबान हमलों में तेजी आई है। अफगानिस्तान में नेटो सेना के कमांडर जनरल जॉन एलेन का कहना है कि कहा कि इन हमलों के पीछे तालिबान के हक्कानी नेटवर्क का हाथ है जो पाकिस्तान के वजीरिस्तान इलाके में सक्रिय है। इसके पहले अमेरिका के रक्षा सचिव लियोन पेनेटा कह चुके हैं कि पाकिस्तान हमारे सब्र की और परीक्षा न करे। पर क्या पाकिस्तान पर इस किस्म की चेतावनियोँ का असर होता है या हो सकता है?

Sunday, June 24, 2012

Pakistan : Point of views

Editorial By Najam Sethi
Wither vs whether Pakistan
 The adage that you can't judge a book by its cover is apparently not true in the case of Pakistan. Consider the following top ten recently published books on Pakistan: (1) Pakistan: Beyond the crisis state; (2) Playing with fire: Pakistan at war with itself. (3) The unraveling: Pakistan in the age of jihad; (4) Pakistan on the brink; (5) Pakistan: Eye of the storm; (6) Deadly Embrace: Pakistan, America and the future of global jihad; (7) Fatal Fault Lines: Pakistan, Islam and the West; (8) Pakistan: the most dangerous place in the world; (9) Pakistan Cauldron: conspiracy, assassination and instability; (9) Pakistan: The scorpion's tail; (10) Pakistan: terrorism ground zero. To top it all, The Future of Pakistan, which is a collection of essays by noted Pakistan-hands, makes bold to provoke the debate of "Whither" vs "Whether" Pakistan.

Saturday, June 23, 2012

Prime Ministerial history of Pakistan



Prime Ministers of Pakistan
with tit-bits of history

1.Liaquat Ali Khan – Pakistan Muslim League (14 August 1947 – 16 October 1951)
1951 - Jinnah's successor Liaquat Ali Khan is assassinated.

2.Sir Khawaja Nazimuddin – Pakistan Muslim League (17 October 1951 – 17 April 1953)
One of the notable Bengali Founding Fathers of modern-state of Pakistan, career statesman from East-Pakistan, serving as the second Governor-General of Pakistan from 1948 until the assassination of Prime minister Liaquat Ali Khan in 1951.His government lasted only two years but saw the civil unrest, political differences, foreign challenges, and threat of communism in East Pakistan and socialism in West Pakistan, that led the final dismissal of his government in response to Lahore riots in 1953, Nazimuddin was the first one to have declared the Martial law in Punjab Province under Major-General Azam Khan and Colonel Rahimuddin Khan, initiating a massive repression of the Right-wing sphere in the country.

Friday, June 22, 2012

पाकिस्तान में बिखरता लोकतंत्र

हिन्दू में केशव का कार्टून
पाकिस्तान में नागरिक सरकार ने सुप्रीम कोर्ट के फैसले को सीधे-सीधे स्वीकार करके टकराव को टालने की कोशिश की है, पर इससे लोकतांत्रिक व्यवस्था के पुष्ट होने के बजाय बिखरने के खतरे ज्यादा पैदा हो गए हैं। संवैधानिक संस्थाओं के बीच टकराव की नौबत नही आनी चाहिए थी, पर लगता है कि देश में लोकतांत्रिक व्यवस्था और राजनीति के बीच फर्क करने वाली ताकतें मौजूद नहीं हैं। सुप्रीम कोर्ट ने जो फैसला किया है उसकी याचिका देश को राजनीतिक दलों ने ही की थी। 26 अप्रेल को जब सुप्रीम कोर्ट ने गिलानी को दोषी पाने के बाद उन्हें प्रतीकात्मक सजा दी थी और सदस्यता खत्म करने का फैसला न करके यह निर्णय कौमी असेम्बली की स्पीकर पर छोड़ दिया था। उस वक्त तक लग रहा था कि विवाद अब तूल नहीं पकड़ेगा। अदालत ने अब अपने फैसले को बदल कर दो संदेह पैदा कर दिए हैं। पहला यह कि गिलानी के बाद जो दूसरे प्रधानमंत्री आएंगे उन्हें भी आदेश थमाया जाएगा कि आसिफ अली ज़रदारी के खिलाफ स्विट्ज़रलैंड की अदालतों में मुकदमे फिर से शुरू कराने की चिट्ठी लिखो। वे चिट्ठी नहीं लिखेंगे तो उनके खिलाफ भी अदालत की अवमानना का केस चलाया जाएगा। दूसरा अंदेशा यह है कि कहीं देश की न्यायपालिका सेना के साथ-साथ खुद भी सत्ता के संचालन का काम करना तो नहीं चाहती है। ऐसे मौकों पर टकराव टालने की कोशिश होती है पर यहाँ ऐसा नहीं हो रहा है, बल्कि व्यवस्था की बखिया उधेड़ी जा रही है।