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Tuesday, August 10, 2021

कहाँ से मिल रही है तालिबान को मदद?

9 अगस्त तक अफगानिस्तान में तालिबान बढ़त की स्थिति

अमेरिकी सेना की वापसी की तारीख़ की घोषणा के बाद से ही अफ़ग़ानिस्तान में तालिबान लड़ाकों और सरकारी सैनिकों के बीच संघर्ष तेज़ हो गया था, लेकिन बीते कुछ हफ़्तों में जिस गति से तालिबान आगे बढ़ रहे हैं उससे अफ़ग़ानिस्तान के भीतर कई सवाल उठाए जा रहे हैं। सबसे बड़ा सवाल ये उठ रहा है कि क्या तालिबान को मिल रही जीत के पीछे किसी बाहरी ताक़त का हाथ हैतालिबान को इतनी तेजी से मिल रही सफलता के बावजूद पश्चिमी पर्यवेक्षकों का कहना है कि इससे यह निष्कर्ष नहीं निकाल लेना चाहिए कि उनकी निर्णायक जीत हो जाएगी। वे कहते हैं कि इंतजार कीजिए, हालात बदलेंगे।


 
अफ़ग़ानिस्तान हमेशा से ही कहता रहा है कि तालिबान को पाकिस्तान की शह है और वह इसका इस्तेमाल अपने रणनीतिक फ़ायदे के लिए करता है। हालांकि अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन लगातार कह रहे हैं कि अफगानिस्तान का समाधान आपसी बातचीत और समझौते से होगा, पर तालिबान के इरादों को देखते हुए लगता नहीं कि उनकी दिलचस्पी अफगान सरकार से कोई समझौता करने में है।

बीबीसी ने 9 अगस्त तक का जो नक्शा जारी किया है, उसे देखते हुए लगता है कि पिछले दो महीने में तालिबान ने जितनी बढ़त बनाई है, उतनी पिछले 20 साल में नहीं बनाई थी। कहाँ से उन्हें मिल रहे हैं हथियार? कहाँ से आ रहे हैं वहाँ लड़ने वाले सिपाही?

अफगान सेना हालांकि आतंकियों से लोहा ले रही है, जिसमें अमेरिका भी लगातार उनकी मदद कर रहा है, पर कहानी उतनी अच्छी नहीं है, जितनी होनी चाहिए। खबर है कि अफगान सेना के जवानों को सोमवार (9 अगस्त) रात बड़ी कामयाबी मिली। रिपोर्ट्स के मुताबिक, हवाई हमले में 85 तालिबानी आतंकवादियों को मार गिराया और मंगलवार को भी अभियान जारी था।

अफ़ग़ानिस्तानी रक्षा मंत्रालय के प्रवक्ता फवाद अमान ने मंगलवार (10 अगस्त)) को ट्वीट कर इसकी जानकारी दी। उन्होंने लिखा, ”सोमवार रात सैयद करम और अहमद अबाद जिलों और पक्तिका प्रांत राजधानी के आसपास के इलाकों पर हवाई हमला किया गया, जिसमें 85 तालिबानी आतंकवादी मारे गए।”

उन्होंने इसके बाद एक और ट्वीट​ किया, ”अमेरिकी वायुसेना ने मंगलवार को कपिसा प्रांत के निजरब जिले में तालिबानी आतंकियों के गढ़ों को निशाना बनाया। इसमें दो पाकिस्तानियों सहित 12 तालिबानी मारे गए। हवाई हमले में उनका एक टैंक और एक वाहन भी नष्ट हो गया है।”

Sunday, August 8, 2021

अफगानिस्तान पर विचार के लिए ट्रॉयका की बैठक में भारत को बुलावा नहीं

अफगानिस्तान की ताजा स्थिति पर संरा सुरक्षा परिषद की बैठक

संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की अध्यक्षता इस महीने भारत के पास है, जिसका परिणाम यह हुआ कि भारत की पहल पर हाल में अफगानिस्तान को लेकर सुरक्षा परिषद की बैठक हुई। इधर लड़ाई चल रही है और दूसरी तरफ राजनयिक स्तर पर बातचीत भी चल रही है। रूस ने तालिबान की
बढ़ती आक्रामकता और अफ़गानिस्तान में बिगड़ते हालात पर चर्चा करने के लिए 11 अगस्त को दोहा में ट्रॉयका प्लस की बैठक बुलाई है।

ट्रॉयका तीन देशों, रूस, अमेरिका और चीन का एक समूह है, जो अफगानिस्तान के मसलों पर विचार के लिए बनाया गया है। इस बैठक में पाकिस्तान और अफगानिस्तान को भी बुलाया गया है। इस बैठक में रूस ने अमेरिका, चीन और पाकिस्तान को तो बुलाया है लेकिन भारत को आमंत्रित नहीं किया। जब इस सिलसिले में भारत के विदेश विभाग के प्रवक्ता अरिंदम बागची से सवाल किया गया, तो उन्होंने कहा कि अफगानिस्तान को लेकर रूस के साथ भारत लगातार सम्पर्क में है।

इसी तरह की एक और कोशिश इसी साल 18 मार्च से 30 अप्रैल के बीच भी हुई थी। उसमें भी भारत को नहीं बुलाया गया था। एक्सटेंडेड ट्रॉयका में भारत को आमंत्रित न किए जाने पर तरह-तरह की अटकलें शुरू हो गई हैं। ये सवाल इसलिए भी उठ रहे हैं क्योंकि पिछले महीने ही रूसी विदेश मंत्री सर्गेई लावरोव ने ताशकंद में कहा था कि रूस अफ़गानिस्तान में जारी हालात के मसले पर भारत को साथ लेकर काम करना जारी रखेगा। सर्गेई लावरोव के इस बयान के बाद यह उम्मीद जताई जा रही थी एक्सटेंडेड ट्रॉयका में भारत को भी बुलाया जा सकता है लेकिन ऐसा नहीं हुआ।

रूस ने इसकी वजह बताते हुए कहा है कि भारत का तालिबान पर कोई प्रभाव नहीं है। रूसी समाचार एजेंसी तास की रिपोर्ट अनुसार अफ़गानिस्तान में रूसी राजदूत ज़ामिर कबुलोव ने 20 जुलाई को ही कह दिया था कि भारत एक्सटेंडेड ट्रॉयका का हिस्सा नहीं बन सकता क्योंकि उसका तालिबान पर कोई प्रभाव नहीं है। रूसी राजदूत ने कहा, एक्सटेंडेड ट्रॉयका का फॉर्मेट ऐसा है कि इसमें रूस के साथ सिर्फ़ चीन, पाकिस्तान और अमेरिका ही शामिल हो सकते हैं। इस बातचीत में वही देश शामिल हो सकते हैं जिनका दोनों पक्षों (तालिबान और अफ़गानिस्तान) पर स्पष्ट प्रभाव हो। वैसे तो अफ़गानिस्तान संकट को लेकर रूस का अमेरिका के साथ कई मुद्दों पर मतभेद है. लेकिन अब दोनों ही देश शांति प्रक्रिया पर ज़ोर दे रहे हैं।

सुरक्षा परिषद

अफगानिस्तान सरकार की माँग पर संरा सुरक्षा परिषद में भी देश की ताजा स्थिति पर विचार किया गया। इस बैठक में भारत के राजदूत ने कहा कि संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की अध्यक्षता संभालने के एक हफ्ते के भीतर हमारे देश ने अफगानिस्तान पर शक्तिशाली वैश्विक निकाय की महत्वपूर्ण बैठक की, जिसमें सदस्य देशों से हिंसा और शत्रुता को खत्म करने के लिए एकजुट होने का आह्वान किया गया और इससे दुनिया को युद्धग्रस्त देश की गंभीर स्थिति दिखाने में भी मदद मिली।

परिषद की बैठक में अफगानिस्तान के दूत गुलाम इसाकज़ई ने कहा कि तालिबान को देश में पनाह मिल रही है और पाकिस्तान से युद्ध के लिए जरूरी साजो-सामान उपलब्ध कराए जा रहे हैं। उन्होंने कहा, अफगानिस्तान में प्रवेश करने के लिए डूरंड रेखा के करीब तालिबान लड़ाकों के जुटने की खबरें और वीडियो, निधि जुटाने के कार्यक्रम, सामूहिक अंतिम संस्कार के लिए शवों को ले जाने और पाकिस्तानी अस्पतालों में तालिबान के घायल लड़ाकों के इलाज की खबरें आ रही हैं।

Thursday, July 29, 2021

अफगानिस्तान से खतरनाक संदेश

 

इस साल मई में काबुल के एक स्कूल पर हुई बमबारी के बाद एक कक्षा में मृत-छात्राओं के नाम पर डेस्क पर रखी पुष्पांजलियाँ

अमेरिकी विदेश मंत्री एंटनी ब्लिंकेन ने कहा है कि अफ़ग़ानिस्तान मामले में चीन का दिलचस्पी लेना “एक सकारात्मक बात” हो सकती है। वह भी तब जब चीन “इस टकराव के शांतिपूर्ण समाधान” और “सही मायने में एक प्रतिनिधि और समावेशी” सरकार को लेकर विचार कर रहा हो। भारत-यात्रा पर आए एंटनी ब्लिंकेन ने यह भी कहा, “देश पर तालिबान के फौजी कब्ज़े और इसे इस्लामिक अमीरात बनने में किसी की दिलचस्पी नहीं है।” उनके इस बयान की यह बात ज्यादा महत्वपूर्ण है।

ट्विटर पर एक वीडियो वायरल हो रहा है, जिसमें लोग एक नौजवान की पत्थर मारकर हत्या कर रहे हैं। पता नहीं वीडियो नया है या पुराना, पर यह खतरनाक संदेश है। सबसे बड़ा खतरा लड़कियों की पढ़ाई को लेकर है। अफगानिस्तान में तालिबान का मजबूत होना इस पूरे इलाके में अराजकता का संदेश है। अफगानिस्तान को मध्य-युगीन अराजक-व्यवस्था बनने से रोकना होगा। अमेरिका के सामने यह बड़ी चुनौती है। भारत के विदेशमंत्री एस जयशंकर ने भी कहा है कि अफगानिस्तान में ताकत के जोर पर स्थापित किसी व्यवस्था का हम समर्थन नहीं करेंगे।

बुधवार को तालिबान का एक प्रतिनिधिमंडल चीन पहुंचा था। मुल्ला अब्दुल ग़नी बारादर की अगुआई वाले दल ने चीन के विदेश मंत्री वांग यी के साथ मुलाक़ात की थी। इस मुलाक़ात के बाद तालिबान के प्रवक्ता ने एक ट्वीट किया कि चीन ने "अफ़ग़ानों को सहायता जारी रखने की अपनी प्रतिबद्धता दोहराई और कहा कि वे अफ़ग़ानिस्तान के मुद्दों में हस्तक्षेप नहीं करेंगे, लेकिन देश में शांति बहाल करने और समस्याओं को हल करने में मदद करेंगे।" वहीं, चीन के विदेश मंत्रालय ने भी एक बयान जारी कर कहा कि वो अफ़ग़ानिस्तान के घरेलू मामलों में "हस्तक्षेप ना करने" की नीति जारी रखेगा।

Thursday, July 15, 2021

ताकत के जोर पर तालिबान का अफगानिस्तान की सत्ता हासिल करना बहुत आसान भी नहीं


तालिबान ने अफ़ग़ानिस्तान के दक्षिणी और पूर्वी प्रांतों में अपने हमले बढ़ा दिए हैं। पहले देश के उत्तर के इलाक़ों पर उसका फोकस था। इससे अब देश की 34 प्रांतीय राजधानियों में से कम से कम 20 पर ख़तरा मंडरा रहा है। बीबीसी हिंदी की रिपोर्ट के अनुसार इन ताज़ा हमलों में काबुल के उत्तर में एक अहम घाटी को अपने कब्ज़े में लेना भी शामिल है, जिससे देश की राजधानी पर ख़तरा बढ़ गया है। सामरिक दृष्टिकोण से इनमें से कई शहर बेहद महत्वपूर्ण हैं क्योंकि वे राष्ट्रीय राजधानी काबुल को देश के उत्तर, दक्षिण, पूर्व और पश्चिम से जोड़ने वाले राष्ट्रीय राजमार्गों पर स्थित हैं।

जिन शहरों को तालिबान ने घेर रखा है, वो उत्तर के उन प्रांतों में हैं जिनकी सीमाएं अफ़ग़ानिस्तान के मध्य एशिया के पड़ोसी देशों से सटी हैं, लेकिन तालिबान ने बीते हफ़्ते अपना रुख़ दक्षिण और पूर्व के प्रमुख शहरों की ओर मोड़ दिया, जिससे अफ़ग़ानिस्तान की राजधानी के आसपास के इलाक़ों में ख़तरा बढ़ गया है। इस रिपोर्ट में विस्तार से उन इलाकों की जानकारी दी गई है, जहाँ तालिबान ने बढ़त बना ली है। सवाल यह है कि इससे होगा क्या? क्या तालिबान ताकत के जोर पर देश की सत्ता पर कब्जा करने में कामयाब हो जाएगा और दुनिया देखती रहेगी? यह इतना आसान भी नहीं है। काबुल पर कब्जा करना आसान है, पर वहाँ से सत्ता का संचालन आसान नहीं है।

तालिबानी आदेश

समाचार एजेंसी एएफपी के अनुसार, उत्तरी अफ़ग़ानिस्तान के एक सुदूर क्षेत्र पर कब्ज़ा करने के बाद कट्टरपंथी इस्लामिक संगठन तालिबान ने अपना पहला आदेश जारी किया जिसमें कहा गया है कि ‘महिलाएं किसी पुरुष के साथ बाज़ार नहीं जा सकतीं, पुरुष दाढ़ी नहीं काट सकते और न धूम्रपान कर सकते हैं।’ एजेंसी ने कुछ स्थानीय लोगों के हवाले से यह ख़बर दी है। इन लोगों का कहना है कि तालिबान ने स्थानीय इमाम को ये सभी शर्तें एक पत्र में लिखकर दी हैं। साथ ही कहा गया है कि इस आदेश को ना मानने वालों से सख्ती से निपटा जाएगा।

इस आदेश में अफ़ग़ान सरकार से कहा गया है कि “ आप अपने सैनिकों से आत्मसमर्पण करने को कहे” क्योंकि तालिबान शहरों में लड़ाई नहीं लड़ना चाहता। पिछले महीने, अफ़ग़ानिस्तान के शेर ख़ाँ बांदेर क्षेत्र पर कब्ज़ा करने के बाद तालिबान ने स्थानीय लोगों को आदेश दिया था कि ‘महिलाएं घर से बाहर न निकलें।’ इसके बाद कई रिपोर्टें आईं जिनमें कहा गया कि शेर ख़ाँ बांदेर क्षेत्र की बहुत सी महिलाएं कशीदाकारी, सिलाई-बुनाई और जूते बनाने के काम में शामिल हैं, लेकिन सभी को तालिबान के डर से काम बंद करना पड़ा है। जानकार बताते हैं कि अफ़ग़ानिस्तान मूल रूप से रूढ़िवादी देश है जिसके कुछ ग्रामीण हिस्सों में बिना तालिबान की मौजूदगी के ही ऐसे नियम माने जाते हैं।

Monday, July 12, 2021

अफगानिस्तान पर बढ़ता तालिबानी कब्जा और उसका भारत पर असर


अमेरिका के राष्ट्रपति जो बाइडेन ने कहा है कि अफगानिस्तान में करीब बीस साल से जारी अमेरिका का सैन्य अभियान 31 अगस्त को समाप्त हो जाएगा। उन्होंने यह भी कहा कि अब अफगान लोग अपना भविष्य खुद तय करेंगे। युद्ध-ग्रस्त देश में अमेरिका ‘राष्ट्र निर्माण' के लिए नहीं गया था। अमेरिका के सबसे लंबे समय तक चले युद्ध से अमेरिकी सैनिकों को वापस बुलाने के अपने निर्णय का बचाव करते हुए बाइडेन ने कहा कि अमेरिका के चाहे कितने भी सैनिक अफगानिस्तान में लगातार मौजूद रहें लेकिन वहां की दुःसाध्य समस्याओं का समाधान नहीं निकाला जा सकेगा। बाइडेन ने बृहस्पतिवार 6 जुलाई को राष्ट्रीय सुरक्षा दल के साथ बैठक के बाद अफगानिस्तान पर अपने प्रमुख नीति संबोधन में कहा कि अमेरिका ने देश में अपने लक्ष्य पूरे कर लिए हैं और सैनिकों की वापसी के लिए यह समय उचित है।

बाइडेन ने कहा कि पिछले बीस साल में हमारे दो हजार अरब डॉलर से ज्यादा खर्च हुए, 2,448 अमेरिकी सैनिक मारे गए और 20,722 घायल हुए। दो दशक पहले, अफगानिस्तान से अल-कायदा के आतंकवादियों के हमले के बाद जो नीति तय हुई थी अमेरिका उसी से बंधा हुआ नहीं रह सकता है। बिना किसी तर्कसम्मत उम्मीद के किसी और नतीजे को प्राप्त करने के लिए अमेरिकी लोगों की एक और पीढ़ी को अफगानिस्तान में युद्ध लड़ने नहीं भेजा जा सकता। उन्होंने इन खबरों को खारिज किया कि अफगानिस्तान से अमेरिकी सैनिकों की वापसी के तुरंत बाद तालिबान देश पर कब्जा कर लेगा। उन्होंने कहा, अफगान सरकार और नेतृत्व को साथ आना होगा। उनके पास सरकार बनाने की क्षमता है। उन्होंने कहा, सवाल यह नहीं है कि उनमें क्षमता है या नहीं। उनमें क्षमता है। उनके पास बल हैं, साधन हैं। सवाल यह है कि क्या वे ऐसा करेंगे?

इस प्रकार अमेरिका ने अपनी सबसे लम्बी लड़ाई के भार को अपने कंधे से निकाल फेंका है। यह सच है कि 9 सितम्बर 2001 को न्यूयॉर्क के ट्विन टावर्स पर हमला करने वाला अल-कायदा अब अफगानिस्तान में परास्त हो चुका है, पर वह पूरी तरह समाप्त नहीं हुआ है। उसके अलावा इस्लामिक स्टेट भी अफगानिस्तान में सक्रिय है। अल-कायदा को जमीन देने वाले तालिबान फिर से काबुल पर कब्जा करने को आतुर हैं। इन सब बातों को अमेरिका की पराजय नहीं तो और क्या मानें? अफगानिस्तान में अमेरिका ने जिस सरकार को बैठाया है, उसके और तालिबान के बीच सत्ता की साझेदारी को लेकर बातचीत चल रही है। यह भी सही है कि अमेरिकी पैसे और हथियारों से लैस काबुल की अशरफ ग़नी सरकार एक सीमित क्षेत्र में ही सही, पर वह काम कर रही है। अमेरिका सरकार तालिबान और पाकिस्तान पर एक हद तक दबाव बना रही है, ताकि हालात सुधरें, पर अभी समझ में नहीं आ रहा कि यह गृहयुद्ध कहाँ जाकर रुकेगा।

Tuesday, March 9, 2021

अफगानिस्तान में बाइडेन की पहल के जोखिम

 


पिछले साल तालिबान के साथ हुए समझौते के तहत अफगानिस्तान से अमेरिकी सेनाओं की वापसी की तारीख 1 मई करीब आ रही है। सवाल है कि क्या अमेरिकी सेना हटेगी? ऐसा हुआ, तो क्या देश के काफी बड़े इलाके पर तालिबान का नियंत्रण हो जाएगा? अमेरिका क्या इस बात को देख पा रहा है? ऐसे में भारत की भूमिका किस प्रकार की हो सकती है? ऐसे तमाम सवालों को लेकर आज के इंडियन एक्सप्रेस में सी राजा मोहन का लेख प्रकाशित हुआ है, जिसमें भारतीय नीति के बरक्स इन सवालों का जवाब देने की कोशिश की गई है। इसमें उन्होंने लिखा है:-

इससे न तो 42-साल पुरानी लड़ाई खत्म होगी और न अफगानिस्तान में अमेरिकी हस्तक्षेप खत्म हो जाएगा। पर पिछले कुछ दिनों में जो बाइडेन प्रशासन द्वारा शुरू किए गए शांति-प्रयासों से अफगानिस्तान के हिंसक घटनाचक्र में, जिसने दक्षिण एशिया और अंतरराष्ट्रीय सम्बन्धों में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है, एक नया अध्याय शुरू हो सकता है।

अफगानिस्तान में अपने हितों को देखते हुए, अमेरिका की नई महत्वाकांक्षी नीतिगत संरचना और उसे लागू करने में सामने आने वाली चुनौतियों के मद्देनज़र भारत की इसमें जबर्दस्त दिलचस्पी होगी।

ताजा पहल के बारे में पिछले सप्ताहांत अमेरिका के विशेष दूत जलमय खलीलज़ाद ने अफगानिस्तान से विदेशमंत्री एस जयशंकर के साथ बातचीत की। उम्मीद है कि इस महीने अमेरिकी रक्षामंत्री जनरल लॉयड ऑस्टिन की यात्रा के दौरान इस सवाल पर और ज्यादा बातचीत होगी।  

ट्रंप प्रशासन द्वारा शुरू की गई शांति-प्रक्रिया को आगे बढ़ाते हुए बाइडेन प्रशासन ने भी इस क्षेत्र में चल रही लड़ाई को जल्द से जल्द खत्म करने की मनोकामना को रेखांकित किया है। इस सिलसिले में पाँच खास बातें सामने आती हैं।

पहली, बाइडेन की शांति-योजना में यह संभावना खुली हुई है कि अफगानिस्तान में तैनात करीब 2500 अमेरिकी सैनिक कुछ समय तक और रुक सकते हैं। वॉशिंगटन में बहुत से विशेषज्ञ मानते हैं कि ट्रंप प्रशासन ने एक निश्चित तारीख की घोषणा करके अमेरिकी पकड़ को ढीला कर दिया है। बाइडेन उसे मजबूत करना चाहेंगे। बाइडेन इस पकड़ को इसलिए बनाए रखना चाहेंगे, क्योंकि तालिबान ने हिंसा के स्तर को कम करने के अपने वायदे को पूरा नहीं किया है। अमेरिका दूसरी तरफ अफ़ग़ान राष्ट्रपति अशरफ ग़नी पर भी दबाव डालेगा, क्योंकि वह उन्हें भी समस्या का हिस्सा मानता है।

Monday, September 28, 2020

अफ़ग़ान-वार्ता से कुछ न कुछ हासिल जरूर होगा


अफग़ानिस्तान में शांति स्थापना के लिए सरकार और तालिबान के बीच बातचीत दोहा में चल रह है। पहली बार दोनों पक्ष दोहा में आमने-सामने हैं। इस वार्ता के दौरान यह बात भी स्पष्ट होगी कि देश की जनता का जुड़ाव किस पक्ष के साथ कितना है। पिछले चार दशकों में यह देश लगातार एक के बाद अलग-अलग ढंग की राज-व्यवस्थाओं को देखता रहा है। कोई भी पूरी तरह सफल नहीं हुई है। इन व्यवस्थाओं में राजतंत्र से लेकर कम्युनिस्ट तंत्र और कठोर इस्लामिक शासन से लेकर वर्तमान अमेरिका-परस्त व्यवस्था शामिल है, जो अपेक्षाकृत आधुनिक है, पर उसका भी जनता के साथ पूरा जुड़ाव नहीं है। इसमें भी तमाम झोल हैं।

पिछले साल हुए राष्ट्रपति पद के चुनाव के बाद अशरफ गनी के जीतने की घोषणा हुई, पर अब्दुल्ला अब्दुल्ला ने खुद को राष्ट्रपति घोषित कर दिया। अंततः उनके साथ समझौता करना पड़ा और अब्दुल्ला अब्दुल्ला अब राष्ट्रीय सुलह-समझौता परिषद के अध्यक्ष हैं और इस वार्ता में सरकारी पक्ष का नेतृत्व कर रहे हैं। इस सरकार का देश के ग्रामीण इलाकों पर नियंत्रण नहीं है। तालिबान का असर बेहतर है। उनके बीच भी कई प्रकार के कबायली ग्रुप हैं।

अमेरिकी पलायन

पिछले दो दशक से अमेरिका और यूरोप के देश काबुल सरकार का सहारा बने हुए थे, पर वे अब खुद भागने की जुगत में हैं। कहना मुश्किल है कि विदेशी सेना की वापसी के बाद की व्यवस्था कैसी होगी, पर अच्छी बात यह है कि सभी पक्षों के पास पिछले चार दशक की खूंरेज़ी के दुष्प्रभाव का अनुभव है। सभी पक्ष ज्यादा समझदार और व्यावहारिक हैं।

Tuesday, March 31, 2020

क्या तालिबानी हौसले फिर बुलंद होंगे?


पिछली 29 फरवरी को दोहा में अमेरिका, अफ़ग़ान सरकार और तालिबान के बीच हुए क़तर दोहा में हुए समझौते में इतनी सावधानी बरती गई है कि उसे कहीं भी 'शांति समझौता' नहीं लिखा गया है। इसके बावजूद इसे दुनियाभर में शांति समझौता कहा जा रहा है। दूसरी तरफ पर्यवेक्षकों का मानना है कि अफ़ग़ानिस्तान अब एक नए अनिश्चित दौर में प्रवेश करने जा रहा है। अमेरिका की दिलचस्पी अपने भार को कम करने की जरूर है, पर उसे इस इलाके के भविष्य की चिंता है या नहीं कहना मुश्किल है।
फिलहाल इस समझौते का एकमात्र उद्देश्य अफ़ग़ानिस्तान में तैनात 12,000 अमेरिकी सैनिकों की वापसी तक सीमित नज़र आता है। यह सच है कि इस समझौते के लागू होने के बाद अमेरिका की सबसे लंबी लड़ाई का अंत हो जाएगा, पर क्या गारंटी है कि एक नई लड़ाई शुरू नहीं होगी? मध्ययुगीन मनोवृत्तियों को फिर से सिर उठाने का मौका नहीं मिलेगा? दोहा में धूमधाम से हुए समझौते ने तालिबान को वैधानिकता प्रदान की है। वे मान रहे हैं कि उनके मक़सद को पूरा करने का यह सबसे अच्छा मौक़ा है। वे इसे अपनी विजय मान रहे हैं।

Sunday, January 6, 2013

अफगानिस्तान में तुर्की की पहल और भारत

 हामिद करज़ाई और तुर्की के राष्ट्रपति  अब्दुल्ला ग़ुल
और 
आसिफ अली ज़रदारी,

अमेरिकी सेना अफगानिस्तान से हटने के पहले भावी योजना में तुर्की को महत्वपूर्ण भूमिका देती नज़र आती है। इस योजना में कुछ पूर्व तालिबान नेता भी शामिल हैं, जिन्हें पाकिस्तान की जेलों से रिहा किया गया है। मोटे तौर पर इस प्रक्रिया में कोई असामान्य बात नहीं लगती, पर इसके पीछे भारत के महत्व को कम करने की कोशिश ज़रूर नज़र आएगी। सन 2012 में जून के पहले हफ्ते भारत-पाकिस्तान और अफगानिस्तान के संदर्भ में दो महत्वपूर्ण घटनाएं हुईं। पहली थी अमेरिका के रक्षामंत्री लियन पेनेटा का अफगानिस्तान और भारत का दौरा। और दूसरी थी शंघाई सहयोग संगठन (एससीओ) की पेइचिंग में हुई बैठक। पेनेटा की भारत यात्रा के पीछे इस वक्त कोई बड़ा कार्यक्रम नहीं था, सिर्फ अमेरिका की नीति में एशिया को लेकर बन रहे ताज़ा मंसूबों से भारत सरकार को वाकिफ कराना था। इन मंसूबों के अनुसार भारत को आने वाले वक्त में न सिर्फ अफगानिस्तान में बड़ी भूमिका निभानी है, बल्कि हिन्द महासागर से लेकर चीन सागर होते हुए प्रशांत महासागर तक अमेरिकी सुरक्षा के प्रयत्नों में शामिल होना है। अमेरिका की यह सुरक्षा नीति चीन के लिए परेशानी का कारण बन रही है। वह नहीं चाहता कि भारत इतना खुलेआम अमेरिका के खेमे में शामिल हो जाए।

अमेरिकी रक्षामंत्री ने अफगानिस्तान में चल रही तालिबानी गतिविधियों को लेकर अपनी झुँझलाहट भी व्यक्त की और कहा कि उत्तरी वजीरिस्तान में हक्कानी नेटवर्क पर लगाम लगाने में पाकिस्तान लगातार विफल हो रहा है। पेनेटा ने कहा कि हमारे सब्र की सीमा खत्म हो रही है। पाकिस्तान को लेकर अमेरिका के कड़वे बयान अब नई बात नहीं रहे। जैसे-जैसे अमेरिका और नेटो सेनाओं की वापसी की समय सीमा नज़दीक आ रही है अमेरिकी व्यग्रता बढ़ती जा रही है। उधर शंघाई सहयोग संगठन की बैठक का एजेंडा कुछ और था, पर भीतर-भीतर उन परिस्थितियों को लेकर विचार-विमर्श भी था जब अफगानिस्तान से अमेरिका हटेगा तब क्या होगा। यह सिर्फ संयोग नहीं है कि एससीओ का गठन 2001 में हुआ था, जिस साल अमेरिका ने अफगानिस्तान में तालिबान विरोधी युद्ध शुरू किया था। इस संगठन में चीन और रूस के अलावा ताजिकिस्तान, उज्बेकिस्तान, कजाकिस्तान और किर्गीजिस्तान सदस्य देश हैं। मूल रूप से यह मध्य एशिया के देशों का आर्थिक सहयोग संगठन है, पर आने वाले समय में इसका सामरिक महत्व भी उजागर हो सकता है। इस संगठन में भारत, पाकिस्तान और ईरान पर्यवेक्षक हैं।

हालांकि अफगानिस्तान एससीओ का न तो सदस्य है और न पर्यवेक्षक, पर इस बार उसे विशेष रूप से आमंत्रित किया गया और उम्मीद है कि जल्द ही उसे पर्यवेक्षक का दर्जा मिल जाएगा। पाकिस्तान इस संगठन का पूर्णकालिक सदस्य बनना चाहता है। अफगानिस्तान और मध्य एशिया के देशों में पाकिस्तान की महत्वपूर्ण भूमिका है। इस लिहाज से भारत और ईरान की भूमिका भी है। तुर्की की भी इस इलाके में खासी दिलचस्पी है। खासतौर से कैस्पियन सागर से आने वाली तेल और गैस पाइप लाइनों के कारण यह इलाका आने वाले समय में महत्वपूर्ण होगा। चीन के पश्चिमी प्रांत इस इलाके से जुड़े हैं, पर वहाँ इस्लामी आतंकवाद का प्रभाव भी है। चीन का आरोप है कि पाकिस्तान में चल रहे ट्रेनिंग कैम्पों में आतंकवादियों को ट्रेनिंग दी जाती है। पाकिस्तान ने चीन के लिए गिलगित और बल्तिस्तान के दरवाजे खोल दिए हैं। वह चाहता है कि चीन की अफगानिस्तान में बड़ी भूमिका हो। ऐसा वह इसलिए भी चाहता है कि भारत को इस इलाके में ज्यादा सक्रिय होने का मौका न मिले।

पिछले साल दिल्ली आए अमेरिकी रक्षामंत्री पेनेटा ने कहा था कि पिछले दस साल में भारत ने अफगानिस्तान में सक्रिय भूमिका नहीं निभाई, पर हम चाहते है कि भारत यहाँ सक्रिय हो। यह बात पाकिस्तान में पसंद नहीं की जाएगा, पर सच यह है कि भारत और अफगानिस्तान के रिश्ते सैकड़ों साल पुराने हैं। भारत वहाँ तकरीबन 2 अरब डॉलर का निवेश करके सड़कें, अस्पताल और स्कूल बनवा रहा है। इसके अलावा अफगान सेना और पुलिस की ट्रेनिंग में भी भारत अपनी सेवा दे रहा है। अमेरिका इसे और बढ़ाना चाहता है। सवाल है क्या भविष्य में भारत इस इलाके में अमेरिकी हितों की रक्षा का काम करेगा? इसकी उम्मीद भी नहीं करनी चाहिए, क्योंकि भारत को अंततः अपने हितों के लिए ही काम करना है। चीन और रूस भारत के सहयोगी देश हैं। पर अंतरराष्ट्रीय राजनीति में दोस्त और दुश्मन बदलते रहते हैं।

पिछले साल 20-21 मई को अमेरिका के शिकागो शहर में हुए नेटो के शिखर सम्मेलन में अफगानिस्तान में 2015 के बाद की स्थितियों की समीक्षा की गई। यूरोप में आर्थिक संकट के कारण फ्रांस और जर्मनी भी जल्द से जल्द हट जाना चाहते हैं, पर उसके पहले वे ऐसी व्यवस्था कायम कर देना चाहते हैं जो तालिबान से लड़ सके। पाकिस्तान के वजीरिस्तान इलाके में तालिबान का हक्कानी नेटवर्क सक्रिय है। पाकिस्तानी सेना इसे परास्त करने में विफल रही है। अमेरिका की मान्यता है कि पाक सेना जान-बूझकर तालिबान को परास्त करना नहीं चाहती। अमेरिका की वापसी के बाद पाकिस्तान अपने प्रभाव को उसी तरह वापस लाना चाहता है जैसा 2001 से पहले था। पाकिस्तान में एक तबका ऐसा है जिसे लगता है कि अंततः अफगान कबीलों के हाथों में ताकत आएगी। अमेरिका ने वजारिस्तान में अल कायदा नेटवर्क को तकरीबन समाप्त कर दिया है। इसी 4 जून को सीआईए के एक ड्रोन हमले में अल कायदा का नम्बर दो अबू याह्या अल लीबी मारा गया। पाकिस्तानी सेना के विरोध के बावजूद अमेरिका के ड्रोन हमले जारी हैं। उधर सन 2011 में एबटाबाद में ओसामा बिन लादेन की हत्या के बाद से दोनों देशों के रिश्तों में आई तल्खी कम हो रही है।

पाकिस्तानी सेना और सरकार दोनों अमेरिका से रिश्ते बनाए रखना चाहते हैं, पर वहाँ की जनता आमतौर पर अमेरिका-विरोधी है। उत्तरी वजीरिस्तान में अमेरिकी कर्रवाई से जनता नाराज़ है। मुख्यधारा के राजनेता भी कट्टरपंथियों से दबते हैं। पर पाकिस्तान की मजबूरी है अमेरिका से रिश्ते बनाए रखना। देश की आर्थिक स्थिति पूरी तरह अमेरिकी रहमो-करम पर है। इसी कारण सन 2001 में अमेरिकी फौजी कारवाई शुरू होने के बाद से पाकिस्तान नेटो सेनाओं की कुमुक के लिए रास्ता देता रहा है। शुरू में यह रास्ता मुफ्त में था, बाद में 250 डॉलर एक ट्रक का लेने लगा। 2011 के नवंबर में नेटो सेना के हैलिकॉप्टरों ने कबायली इलाके मोहमंद एजेंसी में पाकिस्तानी फौजी चौकियों पर हमला किया था, जिसमें 24 सैनिक मारे गए थे। उसके बाद पाकिस्तान ने सप्लाई पर रोक लगा दी थी। मई 2012 में शिकागो के नेटो सम्मेलन में राष्ट्रपति आसिफ अली ज़रदारी खुद गए थे। बहरहाल नेटो की रसद सप्लाई फिर से शुरू हो गई।

अब इधऱ वॉशिंगटन और इंग्लैंड की कोशिशों से तुर्की को बीच में लाया गया है। तुर्की नेटो देश है और पाकिस्तान के लिए अपेक्षाकृत मुफीद होगा। तुर्की ने पाकिस्तान की जेलों से रिहा हुए पुराने तालिबानियों की अफगान शासकों से बातचीत कराने की पेशकश भी की है। पर इस बातचीत में भारत को शामिल करने का विचार नहीं है। दिसम्बर 2012 में अंकारा में आसिफ अली ज़रदारी, हामिद करज़ाई और तुर्की के राष्ट्रपति  अब्दुल्ला ग़ुल की त्रिपक्षीय वार्ता हुई थी। इसके दौरान एक प्रस्ताव सामने आया कि तालिबान का एक दफ्तर तुर्की में खोला जाए। हाल में तुर्की की राजनीति में इस्लामी तत्व प्रभावशाली हुए हैं। मिस्र के इस्लामिक ब्रदरहुड को मदद देने में तुर्की का हाथ भी है। इका उद्देश्य मध्यमार्गी इस्लामी समूहों को आगे लाने का है, तो यह उपयोगी भी हो सकता है। अफगानिस्तान के भीतर भी तुर्की से परहेज़ रखने वाले अनेक समूह हैं। खासतौर से उज़्बेक और हाज़रा समुदाय।

तुर्की का इस मामले में प्रवेश अनायास नहीं है। सन 2010 में तुर्की की पहल पर अंकारा में हुई एक बैठक में अफगानिस्तान के भविष्य पर विचार हुआ था। पाकिस्तान का करीबी मित्र होने का फर्ज निभाते हुए तुर्की ने भारत को अंकारा में निमंत्रित ही नहीं किया था। पर उसके बाद नवम्बर 2011 में विदेश मंत्री एस.एम. कृष्णा "एशिया के केंद्र में सुरक्षा और सहयोग" विषय पर अफगानिस्तान के संबंध में इस्ताम्बुल सम्मेलन में शामिल हुए थे। इस प्रतिनिधिमंडल में प्रधानमंत्री के विशेष दूत एस.के. लांबा और विदेश सचिव रंजन मथाई शामिल थे।
सम्मेलन में अपने राष्ट्रपति करजई ने भारत और अफगानिस्तान के बीच अक्टूबर 2011 में हस्ताक्षरित सामरिक भागीदारी समझौते का उल्लेख करते हुए अफगानिस्तान में भारत की भूमिका की सराहना की। उन्होंने भारत को एक महान मित्र और इस क्षेत्र में एक प्रमुख खिलाड़ी बताया। सम्मेलन की घोषणा में, आतंकवादियों के सुरक्षित पनाह स्‍थलों को समाप्त करने की आवश्यकता का उल्लेख करते हुए, आतंकवाद के संबंध में भारत और अंतर्राष्ट्रीय समुदाय के अन्य सदस्यों की चिंताओं तथा अफगानिस्तान की संप्रभुता और क्षेत्रीय अखंडता का सम्मान करते हुए उसके आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप न करने का आग्रह स्पष्ट रूप से प्रदर्शित होता है। अफगानिस्तान में शांति और मेल-मिलाप की आवश्यकता के संबंध में यह दस्तावेज, रेड लाइन अर्थात हिंसा से बचने, आतंकवादी समूहों से संबंध विच्छेद करने, अफगानिस्तान के संविधान का सम्मान करने तथा क्षेत्रीय आर्थिक सहयोग की संरचना में एशिया के मध्य, दक्षिण और अन्य भागों को जोड़ते हुए व्यापार, पारगमन, ऊर्जा, आर्थिक परियोजनाओं और निवेश का एक नेटवर्क बनाने की आवश्यकता के प्रति समझ-बूझ के महत्व पर बल देता है।

पाकिस्तान की कोशिश है कि तालिबान के मध्यमार्गी समूहों को वैधानिकता मिले ताकि वे अफगानिस्तान की राजनीति में सक्रिय हो सकें। इसके लिए तालिबान का एक दफ्तर किसी देश में खोलने की कोशिश हो रही है। यह दफ्तर सऊदी अरब में खोलने का विचार था, पर सऊदी अरब कट्टरपंथ और आतंकी गतिविधियों के प्रति सख्त रुख अख्तियार कर रहा है। इसलिए तुर्की बेहतर जगह लगती है। पाकिस्तानी सेना भी तुर्की के प्रति श्रद्धा का भाव रखती है। तुर्की पूरे इस्लामी देशों में सबसे आधुनिक है। और वह स्वयं को सफल इस्लामी लोकतंत्र साबित करना चाहता है। तुर्की और भारत के रिश्ते भी अच्छे हैं। ये रिश्ते आर्थिक हैं और आने वाले समय में तुर्की मध्य एशिया से दक्षिण एशिया को थल मार्ग से जोड़ने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाएगा। पर सन 2011 में संयुक्त राष्ट्र महासभा में तुर्की के प्रधानमंत्री द्वारा जम्मू और कश्मीर का उल्लेख किए जाने पर भारत ने चिंता व्यक्त की थी, जिसमें यह स्पष्ट कहा गया था कि यह भारत और पाकिस्तान के बीच एक द्विपक्षीय मामला है तथा ऐसे सभी द्विपक्षीय मसलों से निपटने के लिए इन दोनों देशों के बीच उचित तंत्र हैं। हालांकि तुर्की ने इस बात को स्वीकार किया था, और स्पष्ट किया था कि उसके प्रधानमंत्री का आशय कश्मीर मुद्दे को उठाना नहीं था अपितु वह इस समय जारी भारत पाकिस्तान वार्ता के संबंध में पुराने विवादों का उल्लेख मात्र करना चाहते थे। उन्होंने यह भी उल्लेख किया कि तुर्की का सत्ताधारी दल अर्थात जस्टिस एंड डिवलपमेंट पार्टी (एके पार्टी) ने भारत के साथ सामरिक संबंधों के निर्माण और उन्हें मजबूत बनाने का सामरिक निर्णय लिया है। अफगानिस्तान में बदलते हालात का जायज़ा लेने में तुर्की हमारा मददगार हो सकता है इसलिए भारत के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार शिवशंकर मेनन फरवरी में तुर्की जाएंगे। इस बात पर लगातार नज़र रखने की ज़रूरत है कि अमेरिकी सेना हटने के बाद अफगानिस्तान में भारत-विरोधी गतिविधियाँ सिर उठाने न पाएं। 

Wednesday, October 13, 2010

आयशा की नाक लगी

आपको याद है अफगानिस्तान की आयशा का नाम जिसका चेहरा टाइम के कवर पर छपा था। उसके नाक-कान तालिबान कमांडर की अनुमति से काट लिए गए थे। आयशा की उसके पिता ने कर्ज़ अदायगी के रूप में एक पुरुष से शादी  कर दी थी। ससुराल में दुर्व्यवहार होने पर वह भाग खड़ी हुई। इसपर उसे पकड़ कर लाया गया और नाक-कान काट लिए गए। 

टाइम की खबर के बाद आयशा को अमेरिका लाया गया। यहाँ उसकी नाक फिर से लगा दी गई है। यह नाक नकली है। बाद में उसकी नाक की हड्डी के टिश्यूज़ का इस्तेमाल करके स्थायी नाक की व्यवस्था भी की जाएगी।


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बीबीसी की खबर

Sunday, August 1, 2010

तालिबान खतरनाक क्यों हैं?



अमेरिका ने इराक में पैर न फँसाए होते तो शायद उसे कम बदनामी मिली होती। इराक के मुकाबले अफगानिस्तान की परिस्थितियाँ फर्क थीं। इराक में सद्दाम हुसेन की तानाशाही ज़रूर थी, पर वह अंधी सरकार नहीं थी। अफगानिस्तान तो सैकड़ों साल पीछे जा रहा था। तालिबानी शासन-व्यवस्था सैकड़ों साल पीछे जा रही थी। बामियान की बुद्ध प्रतिमाओं को तोड़कर तालिबान ने साफ कर दिया था कि उनके कायम रहते उस समाज में आधुनिकता पनप नहीं सकेगी। तालिबान अपने आप सत्ता पर आए भी  नहीं थे। उन्हें स्थापित किया था पाकिस्तानी सेना ने। और तैयार किया था पाकिस्तानी मदरसों नें। 

तालिबान-शासन में सबसे बुरी दशा स्त्रियों की हुई थी। उनकी पराजय के बाद अफगान स्त्रियों ने राहत की साँस ली, पर वह साँस सिर्फ साँस ही थी राहत नहीं। साथ के चित्र को देखें। यह 9 अगस्त की टाइम मैगज़ीन का कवर पेज है। इस लड़की का नाम है आयशा। इसके ससुराल में इसके साथ गुलामों जैसा बर्ताव होता था। इसपर यह ससुराल से भाग खड़ी हुई। 

स्थानीय तालिबान कमांडर ने पति का पक्ष लिया। आयशा के देवर ने उसे पकड़ा और उसके पति ने चाकू से उसके कान और नाक काट ली। यह तालिबान न्याय है। पर यह दस साल पहले की बात नहीं है। यह पिछले साल की बात है। यानी तालिबान आज भी ताकतवर हैं। 

पाकिस्तान कोशिश कर रहा है कि हामिद करज़ाई की सरकार तालिबान के साथ सुलह करके उन्हें सत्ता में शामिल कर ले। अमेरिका भी शायद इस बात से सहमत हो गया है। पर क्या तालिबान की वापसी ठीक होगी? तमाम लोग चाहते हैं कि अमेरिका को अफगानिस्तान से हट जाना चाहिए। ज़रूर हटना चाहिए, पर उसके बाद क्या होगा? कोई जिम्मेदारी लेने को तैयार है?

Saturday, July 31, 2010

विकीलीक्स जाँच की सूई

जैसे हमारे देश में होता है बड़े से बड़े घोटाले की जिम्मेदारी आखिर मे किसी छोटे आदमी के मत्थे मढ़ दी जाती है, क्या वैसा ही विकीलीक्स की जाँच में होगा? इस मामले में सबसे पहले स्पेशलिस्ट ब्रैडले मैनिंग नाम के एक अफसर की गर्दन नापी गई है, जिनका चित्र साथ मे है। दरअसल उनके खिलाफ जाँच पहले से चल रही थी। इराक में हैलिकॉप्टर से की गई गोलीबारी का वीडियो पहले आ गया था। यह वीडियो जिसकी हिफाज़त में था सबसे पहले उसे ही फँसना होगा। 


इस मामले का ज्यादा परेशान करने वाला पहलू है उन लोगों की पहचान जिन्होंने अमेरिकी खुफिया विभाग को जानकारी दी। मुखबिरों की जान सबसे पहले जाती है। हालांकि विकीलीक्स के संस्थापक असांज का  कहना है कि हमने सावधानी से सारे नाम हटा दिए हैं, पर पता लगा है कि बड़ी संख्या में नाम हटने से रह गए हैं। तालिबान का कहना है कि हम भी इन दस्तावेजों का अध्ययन कर रहे हैं। इसके बाद मुखबिरों को सज़ा दी जाएगी।


अमेरिकी जाँच कहाँ तक पहुँचती है, यह देखना रोचक होगा।  पर क्या यह भी सम्भव है कि सरकार के ही किसी हिस्से ने यह लीक कराई हो? हो सकता है क्यों नहीं हो सकता।