मॉनसून सत्र के आखिरी दिन 11
अगस्त को गृहमंत्री अमित शाह ने लोकसभा में भारतीय न्याय संहिता
विधेयक-2023
पेश करके देश की आपराधिक न्याय प्रणाली में बुनियादी
बदलाव लाने की दिशा में एक बड़ा कदम उठाया है। एक महत्वपूर्ण और स्मरणीय सुधार
माना जा रहा है। गृहमंत्री ने इस सिलसिले में तीन बिल पेश किए, जिनसे भारतीय दंड
संहिता, दंड प्रक्रिया संहिता और साक्ष्य अधिनियम में बड़े बदलाव होंगे। इन
कानूनों का श्रेय अंग्रेजी राज को, खासतौर से टॉमस बैबिंगटन मैकॉले को दिया जाता
है। कहा जाता है कि उन्होंने बहुत दूरदृष्टि के साथ यह काम किया था। सरकार का दावा
है कि ये विधेयक औपनिवेशिक कानूनों की जगह पर राष्ट्रीय-दृष्टिकोण की स्थापना
करेंगे। इसीलिए इनके नाम अंग्रेजी में नहीं, हिंदी में हैं। नए नाम हैं भारतीय
न्याय संहिता-2023,
भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता-2023 और
भारतीय साक्ष्य विधेयक-2023। इस दृष्टि से देखें, तो संकल्प सिद्धांततः अच्छा है, फिर
भी इन्हें पास करने में जल्दबाज़ी नहीं होनी चाहिए। इनका हमारे जीवन पर व्यापक
प्रभाव पड़ेगा। हालांकि इन्हें तैयार करने के पहले विमर्श की लंबी प्रक्रिया चली
है, फिर भी इनके न्यायिक, सामाजिक और सामाजिक प्रभावों पर व्यापक विचार-विमर्श की
ज़रूरत होगी। इन्हें पेश करने के बाद संसद की स्थायी समिति के पास भेज दिया गया।
संसदीय समिति में इसके विभिन्न पहलुओं पर बारीकी से विचार होगा। उसके बाद इन्हें
विधि आयोग के पास विचारार्थ भी भेजा जाएगा।
बुनियादी सवाल
यह समझने की जरूरत है कि इन विधेयकों को लाने
का उद्देश्य क्या है? क्या कोई अघोषित उद्देश्य भी है? यह व्यवस्था
क्या आपराधिक-न्याय प्रणाली के दोषों को दूर करके उसका ‘ओवरहॉल’ कर सकती है? क्या केवल कानूनी बदलाव से यह ‘ओवरहॉल’ संभव है?
मतलब न्याय-प्रणाली और
पुलिस-व्यवस्था में सुधार किए बगैर यह ‘ओवरहॉल’ हो पाएगा? न्याय-प्रणाली
और पुलिस-व्यवस्था में सुधार कौन और कैसे करेगा? अभी
तक वह क्यों नहीं हो पाया है? ऐसे तमाम सवाल अब खड़े होंगे। सरसरी
निगाह से भी देखें, तो ये तीनों विधेयक वर्तमान व्यवस्था में कुछ बदलावों का सुझाव
दे रहे हैं, बुनियादी व्यवस्था-परिवर्तन इनसे भले न हो, फिर भी यह साहसिक-निर्णय
है। इन कानूनों को अपनी तार्किक-परिणति तक पहुँचने के लिए देश की राजनीतिक और
सामाजिक संरचना से होकर भी गुजरना होगा। विरोधी-राजनीति ने कुछ दूसरे सवाल उठाने
के अलावा यह भी कहा है कि इन कानूनों को ‘गुपचुप’ तरीके
से लाया गया है वगैरह। क्या ऐसा है? सबसे पहले इस आरोप की जाँच करें।
तैयारी और पृष्ठभूमि
विधेयक पेश करते समय गृहमंत्री ने कहा कि सरकार
ने पिछले चार साल में इस विषय पर काफी विचार-विमर्श किया है। सरकार ने 2019 में
राज्यपालों, उप राज्यपालों और मुख्यमंत्रियों के साथ इस विषय पर बातचीत की थी।
2020 में सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्टों के मुख्य न्यायाधीशों, बार कौंसिलों और विधि
विश्वविद्यालयों को इस विमर्श में शामिल किया गया। 2021 में सांसदों और आईपीएस
अधिकारियों को पत्र भेजे गए। हमें 18 राज्यों, छह केंद्र शासित प्रदेशों, सुप्रीम
कोर्ट और 16 हाईकोर्टों, पाँच ज्यूडीशियल अकादमियों, 142 सांसदों, 270 विधायकों और
नागरिकों के सुझाव प्राप्त भी हुए हैं। ब्यूरो ऑफ रिसर्च एंड डेवलपमेंट (बीपीआरडी)
को राज्यों तथा केंद्र के सुरक्षा बलों में नियुक्त आईपीएस अधिकारियों के सुझाव
मिले हैं। इसके बाद नेशनल लॉ युनिवर्सिटी के कुलपति की अध्यक्षता में बनाई गई समिति
ने विचार किया, जिसकी 58 औपचारिक और 100 अनौपचारिक बैठकें इस विषय पर हुईं। इसके
पहले भी विधि आयोग देश की आपराधिक न्याय-व्यवस्था में सुधार के बारे में विचार
करता रहा और सुझाव देता रहा है।
इसके अलावा बेज़बरुआ समिति, विश्वनाथन समिति,
मलिमथ समिति, माधव मेनन समिति ने भी सुझाव दिए हैं। संसद की स्थायी समिति ने 2005
में अपनी 111वीं, 2006 में 128वीं और 2010 में 146वीं रिपोर्टों में भी इस आशय के
सुझाव दिए हैं। मई 2020 में महामारी के दौरान इस विषय पर सुझाव देने के लिए नेशनल
लॉ युनिवर्सिटी के कुलपति की अध्यक्षता में बनी विशेषज्ञ समिति ने भी सुझाव दिए। इन
सबको शामिल करते हुए भारत दंड संहिता, 1860, दंड प्रक्रिया संहिता, 1898, 1973 और
भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 को समाप्त करते हुए उनके स्थान पर तीन नए कानूनों का
प्रस्ताव किया है।