Saturday, July 20, 2019

हंगामा है क्यों बरपा…यानी कांग्रेस को हुआ क्या है?


कांग्रेस पार्टी के संकट को दो सतहों पर देखा जा सकता है। राज्यों में उसके कार्यकर्ता पार्टी छोड़कर भाग रहे हैं। दूसरी तरफ पार्टी केन्द्र में अपने नेतृत्व का फैसला नहीं कर पा रही है। कर्नाटक में सांविधानिक संकट है, पर उसकी पृष्ठभूमि में कांग्रेस का भीतर का असंतोष है। पार्टी छोड़कर भागने वाले ज्यादातर विधायक कांग्रेसी हैं। वे सामान्य विधायक भी नहीं हैं, बल्कि बहुत सीनियर नेता हैं। यह कहना सही नहीं होगा कि वे पैसे के लिए पार्टी छोड़कर भागे हैं। ज्यादातर के पास काफी पैसा है। यह समझने की जरूरत है कि रोशन बेग जैसे कद्दावर नेताओं के मन में संशय पैदा क्यों हुआ। रामलिंगा रेड्डी जैसे वरिष्ठ नेता अपना रुख बदलते रहते हैं, पर इतना साफ है कि उनके मन में पार्टी नेतृत्व को लेकर कोई खलिश जरूर है। कांग्रेस से हमदर्दी रखने वाले विश्लेषकों को भी अब लगने लगा है कि पार्टी ने इच्छा-मृत्यु का वरण कर लिया है।
केवल कर्नाटक की बात नहीं है। इसी गुरुवार को गुजरात में कांग्रेस के पूर्व विधायक अल्पेश ठाकोर और धवल सिंह जाला गुरुवार को भाजपा में शामिल हो गए। दोनों ने राज्यसभा उपचुनाव में कांग्रेसी उम्मीदवारों के खिलाफ वोट देने के बाद 5 जुलाई को ही विधायक पद से इस्तीफ़ा दे दिया था। कर्नाटक में कांग्रेस के साथ जेडीएस के विधायकों ने भी इस्तीफे दिए हैं, पर बड़ी संख्या कांग्रेसियों की है। इसके पहले तेलंगाना में कांग्रेस के 18 में से 12 विधायक केसीआर  की पार्टी टीआरएस में शामिल हो गए। ये विधायक दो महीने पहले ही जीतकर आए थे। गोवा में तो पूरी पार्टी भाजपा में चली गई। यह दल-बदल है, पर इसके पीछे के कारणों को भी समझने की जरूरत है। ज्यादातर कार्यकर्ताओं के मन में असुरक्षा का भाव है।
संकट केन्द्र में है
राहुल गांधी के इस्तीफे के बाद केन्द्र में अराजकता का माहौल है। यह सब लोकसभा चुनाव परिणाम आने के बाद से शुरू हुआ है, पर वास्तव में इसकी शुरूआत 2014 के लोकसभा चुनाव के बाद ही हो गई थी। पार्टी को उम्मीद थी कि एकबार पराजय का क्रम थमेगा, तो फिर से सफलता मिलने लगेगी। उसकी सारी रणनीति राहुल को स्थापित करने के लिए सही समय के इंतजार पर केन्द्रित थी। वह भी हो गया, पर संकट और गहरा गया। 

Monday, July 15, 2019

न्याय-व्यवस्था को लेकर सवाल क्यों उठ रहे हैं?


अक्सर कहा जाता है कि भारत में न्यायपालिका ही आखिरी सहारा है। पर पिछले कुछ समय से न्यायपालिका को लेकर भी निराशा है। उसके भीतर और बाहर से कई तरह के सवाल उठे हैं। अक्सर लगता है कि सरकार नहीं सुप्रीम कोर्ट के हाथ में देश की बागडोर है, पर न्यायिक जवाबदेही और पारदर्शिता के सवाल है। कल्याणकारी व्यवस्था के लिए सार्वजनिक स्वास्थ्य और शिक्षा के साथ न्याय-व्यवस्था बुनियादी ज़रूरत है। इन तीनों मामलों में मनुष्य को बराबरी से देखना चाहिए। दुर्भाग्य से देश में तीनों जिंस पैसे से खरीदी जा रही हैं।
सबसे ज्यादा परेशान कर रही हैं न्याय-व्यवस्था में भ्रष्टाचार की शिकायतें। हाल में सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई ने प्रधानमंत्री को पत्र लिख कर इलाहाबाद उच्च न्यायालय के न्यायाधीश एसएन शुक्ला को हटाने की कार्यवाही शुरू करने का अनुरोध किया है। एक आंतरिक जांच समिति ने उक्त न्यायाधीश को कदाचार का दोषी पाया है। न्यायाधीश को हटाने की एक सांविधानिक प्रक्रिया है। सरकार उस दिशा में कार्यवाही करेगी, पर इस पत्र ने न्यायपालिका के भीतर बैठे भ्रष्टाचार की तरफ देश का ध्यान खींचा है।   
इस दौरान एक और पत्र रोशनी में आया है। इलाहाबाद हाईकोर्ट के जस्टिस रंगनाथ पांडेय ने जजों की नियुक्तियों पर गंभीर सवाल उठाए हैं। उन्होंने प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को पत्र लिखकर कहा है कि प्रचलित कसौटी परिवारवाद और जातिवाद से ग्रसित है। उन्होंने लिखा है कि 34 साल के सेवाकाल में मुझे हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के ऐसे जजों को देखने का अवसर मिला है, जिनकी कानूनी जानकारी संतोषजनक नहीं है।
सवाल तीन हैं। न्याय-व्यवस्था को राजनीति और सरकारी दबाव से परे किस तरह रखा जाए? जजों की नियुक्ति को पारदर्शी कैसे बनाया जाए? तीसरे और सबसे महत्वपूर्ण सवाल है कि सामान्य व्यक्ति तक न्याय किस तरह से उपलब्ध कराया जाए? इन सवालों के इर्द-गिर्द केवल न्याय-व्यवस्था से जुड़े मसले ही नहीं है, बल्कि देश की सम्पूर्ण व्यवस्था है। प्रशासनिक कुशलता और राजनीतिक ईमानदारी के बगैर हम कुछ भी हासिल नहीं कर पाएंगे।
मुकदमों में देरी क्यों?
नेशनल ज्यूडीशियल डेटा ग्रिड के अनुसार इस हफ्ते 10 जुलाई तक देश की अदालतों में तीन करोड़ बारह लाख से ज्यादा मुकदमे विचाराधीन पड़े थे। इनमें 76,000 से ज्यादा केस 30 साल से ज्यादा पुराने हैं। यह मान लें कि औसतन एक मुकदमे में कम से कम दो या तीन व्यक्ति पक्षकार होते हैं तो देश में करीब 10 करोड़ लोग मुकदमेबाजी के शिकार हैं। यह संख्या लगातार बढ़ रही है।
सामान्य व्यक्ति के नजरिए से देखें तो अदालती चक्करों से बड़ा चक्रव्यूह कुछ नहीं है। एक बार फँस गए, तो बरसों तक बाहर नहीं निकल सकते। कुछ साल पहले सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश ने लोअर कोर्ट में पांच और अपील कोर्ट में दो साल में मुकदमा निबटाने का लक्ष्य रखा था। यह तभी सम्भव है जब प्रक्रियाएं आसान बनाई जाएं। न्याय व्यवस्था का संदर्भ केवल आपराधिक न्याय या दीवानी के मुकदमों तक सीमित नहीं है। व्यक्ति को कारोबार का अधिकार देने और मुक्त वातावरण में अपना धंधा चलाने के लिए भी उपयुक्त न्यायिक संरक्षण की जरूरत है।

Sunday, July 14, 2019

कांग्रेस यानी धुरी से टूटा पहिया



कांग्रेस पार्टी का संकट बढ़ता जा रहा है। जिन राज्यों में कांग्रेस की सरकार है, संकट वहाँ है। कर्नाटक में सरकार अल्पमत में आ गई है। किसी तरह से वह चल रही है, पर कहना मुश्किल है कि मंगलवार के बाद क्या होगा। कर्नाटक में संकट चल ही रहा था कि गोवा में कांग्रेस के 15 में से 10 विधायक बीजेपी में शामिल हो गए। इसके बाद अल्पमत में बीजेपी सरकार मजबूत स्थिति में पहुंच गई है। मध्य प्रदेश और राजस्थान में गुनगुनाहट है।

हरियाणा, झारखंड और महाराष्ट्र में इसी साल चुनाव होने हैं। इन राज्यों में क्या पार्टी वापसी करेगी? वापसी नहीं हुई, तो इन वहाँ भी भगदड़ मचेगी। यों भगदड़ इस वक्त भी है। तीनों राज्यों में कांग्रेस अपने आंतरिक संकट से रूबरू है। तेलंगाना में पार्टी लगभग खत्म होने के कगार पर है। मजबूत हाईकमान वाली इस पार्टी का केन्द्रीय नेतृत्व इस वक्त खुद संकटों से घिरा है। पार्टी की सबसे बड़ी कमजोरी है सड़कों पर उतर पाने में असमर्थता। यह पार्टी केवल ट्विटर के सहारे मुख्यधारा में बनी रहना चाहती है। कार्यकर्ता कठपुतली की भूमिका निभाते रहे हैं। उनमें प्राण अब कैसे डाले जाएंगे?

पार्टी ने विचारधारा के स्तर पर जो कुछ भी किया हो, पर सच यह है कि वह परिवार के चमत्कार के सहारे चल रही थी। उसे यकीन था कि यही चमत्कार उसे वापस लेकर आएगा। परिवार अब चुनाव जिताने में असमर्थ है, इसलिए यह संकट पैदा हुआ है। धुरी फेल हो गई है और परिधि बेकाबू। संकट उतना छोटा नहीं है, जितना दूर से नजर आ रहा है। नए नेता की परीक्षा इस बात से होगी कि वह परिवार का वफादार है या नहीं। परिवार से अलग लाइन लेगा, तो संकट। वफादारी की लाइन पर चलेगा, तब भी संकट।

Saturday, July 13, 2019

राहुल की चिट्ठी के अंतर्विरोध


राहुल गांधी के जिस इस्तीफे पर एक महीने से अटकलें चल रही थीं, वह वास्तविक बन गया है। पहला सवाल यही है कि उसे इतनी देर तक छिपाने की जरूरत क्या थी? पार्टी ने इस बात को छिपाया जबकि वह एक महीने से ज्यादा समय से यह बात हवा में है। राहुल गांधी ने चार पेज का जो पत्र लिखा है उसे गौर से पढ़ें, तो उसकी ध्वनि है कि में इस्तीफा तो दे रहा हूँ, पर गलती न तो मेरी है और न मेरी पार्टी की। व्यवस्था ही खराब है। दोष आँगन का है नाचने वाले का नहीं। 

उन्होंने पत्र की शुरुआत में ही स्पष्ट कर दिया कि ‘कांग्रेस प्रमुख के तौर पर 2019 के लोकसभा चुनाव में हार की ज़िम्मेदारी मेरी है। भविष्य में पार्टी के विस्तार के लिए जवाबदेही काफ़ी अहम है। यही कारण है कि मैंने कांग्रेस पार्टी के अध्यक्ष पद से इस्तीफ़ा दिया है। पार्टी को फिर से बनाने के लिए कड़े फ़ैसले की ज़रूरत है। 2019 में हार के लिए कई लोगों की जवाबदेही तय करने की ज़रूरत है। यह अन्याय होगा कि मैं दूसरों की जवाबदेही तय करूं और अपनी जवाबदेही की उपेक्षा करूं।’

इसके बाद पत्र का काफी बड़ा हिस्सा इस बात को समर्पित है कि हार के पीछे उनकी जिम्मेदारी नहीं है। उन्होंने बीजेपी की विचारधारा को पहला निशाना बनाया है। उन्होंने लिखा है, ‘हमें कुछ कड़े फैसले करने होंगे और चुनाव में हार के लिए कुछ लोगों को जिम्मेदार ठहराना होगा। सत्ता के अपने मोह को छोड़े बिना और एक गहरी विचारधारा की लड़ाई लड़े बिना हम अपने विरोधियों को नहीं हरा सकते।’

Friday, July 12, 2019

हमारी बेरुखी से जन्मी है पानी की समस्या


विडंबना है कि मॉनसून के बादल घिरे होने के बावजूद देश में पानी सबसे बड़ी समस्या के रूप में उभर कर सामने आया है. इस संकट के शहरों और गाँवों में अलग-अलग रूप हैं. गाँवों में यह खेती और सिंचाई के सामने खड़े संकट के रूप में है, तो शहरों में पीने के पानी की किल्लत के रूप में. पेयजल की समस्या गाँवों में भी है, पर चूंकि मीडिया शहरों पर केन्द्रित है, इसलिए शहरी समस्या ज्यादा भयावह रूप में सामने आ रही है. हम पेयजल के बारे में ही सुन रहे हैं, इसलिए खेती से जुड़े मसले सामने नहीं आ रहे हैं, जबकि इस समस्या का वास्तविक रूप इन दोनों को साथ रखकर ही समझा जा सकता है.
शहरीकरण तेजी से हो रहा है और गाँवों से आबादी का पलायन शहरों की ओर हो रहा है, उसे देखते हुए शहरों में पानी की समस्या पर देश का ध्यान केन्द्रित है. हाल में चेन्नई शहर से जैसी तस्वीरें सामने आई हैं, उन्हें देखकर शेष भारत में घबराहट है. संयोग से हाल में पेश केन्द्रीय बजट में भारत सरकार ने घोषणा की है कि सन 2024 तक देश के हर घर में नल से जल पहुँचाया जाएगा. सरकार ने झल शक्ति के नाम से नया मंत्रालय भी बनाया है. सम्भव है कि हर घर तक नल पहुँच जाएं, पर क्या उन नलों में पानी आएगा?
नीति आयोग की पिछले साल की एक रिपोर्ट के अनुसार देश के क़रीब 10 करोड़ लोगों के पानी का संकट है. देश के 21 प्रमुख शहरों में ज़मीन के नीचे का पानी तकरीबन खत्म हो चुका है. इनके परम्परागत जल स्रोत सूख चुके हैं, कुएं और तालाब शहरी विकास के लिए पाटे जा चुके हैं. देश में पानी का संकट तो है ही साथ ही पानी की गुणवत्ता पर भी सवाल हैं. नीति आयोग की पिछले साल की रिपोर्ट में यह भी बताया गया था कि पानी की गुणवत्ता के वैश्विक सूचकांक में भारत का स्थान दुनिया के 122 देशों में 120 वाँ था. यह बात भी चिंताजनक है.